Thursday, May 14, 2015

Sanskrit Tapasvini of Harekrishna Meher : Article by Dr. Banamali Biswal

Poet Gangadhar Meher’s Tapasvini Kavya :
Sanskrit Translation by Harekrishna Meher :    
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Hindi Review Article By : Dr. Banamali Biswal
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(Courtesy : ‘Drik’, Volume 28-29, 2012-2013, pages-42-49, 
Drig Bharati, Yojana-3, Jhusi, Allahabad, Uttar Pradesh)
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कवि गङ्गाधर-मेहेर-प्रणीततपस्विनीमहाकाव्य का
हरेकृष्णमेहेर-कृत संस्कृतानुवाद : एक समीक्षण
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* डॉ. बनमाली बिश्वाल
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      ओड़िआ वाङ्मय में स्वभावकवि-गङ्गाधरमेहेर (१८६२-१९२४) ‘प्रकृतिकवि’ के रूप में सुपरिचित और स्वनामधन्य हैं, जैसे संस्कृत साहित्य में महाकवि कालिदास और अंग्रेजी साहित्य में वार्ड्‌स्‌वार्थ् । कवि गंगाधर के प्रमुख काव्य हैं ‘तपस्विनी’, ‘प्रणयबल्लरी’, कीचकबध’, ‘इन्दुमती’, ‘उत्कळलक्ष्मी’, ‘अयोध्यादृश्य’, ‘भारतीभाबना’, ‘पद्मिनी’ ‘अर्घ्यथाळी’ आदि ।  भारतीय पृष्ठभूमि पर उनकी रचनायें आधारित हैं । उनकी लेखनी में प्रतिभात हैं भारतीयता, देशभक्ति, राष्ट्र के प्रति आन्तरिकता, भारतीय नारी का सामाजिक सम्मान एवं आदर्शबोध, साहित्य-संगीत-कला का आन्तरिक आदर, विनम्रता और साधुता की गभीर संवेदना, प्रकृति की अपूर्व मधुरिमा, सामाजिक संस्कार  एवं धर्मन्याय-संगत सारे सद्गुण । उनकी रचनाओं में इतना आकर्षण है कि पाठक निश्चितरूप से रसाप्लुत हो जाता है । 

       कवि गङ्गाधर मेहेर की रचनाओं में ‘तपस्विनी’ सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है । १९१४ ख्रीष्टाब्द में प्रणीत इस महाकाव्य में कुल ग्यारह सर्ग हैं और मुख्य रस है करुण । वाल्मीकि-रामायणीय उत्तरकाण्ड की सीता-वनवास कथावस्तु पर यह काव्य आधारित है, परन्तु कवि की मौलिक उद्भावना एवं विशेषता प्रणिधानयोग्य है । कवि कालिदास-कृत ‘रघुवंश’ के चतुर्दश सर्ग एवं नाट्यकार भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ नाटक का प्रासंगिक प्रभाव यहाँ अनुभूत होता है । स्वामी राजा श्रीरामचन्द्र की धर्मपत्नी सती साध्वी जानकी निर्वासिता होकर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहकर ‘तपस्विनी’ के रूप में जीवनयापन करती हैं । कवि की दृष्टि में यहाँ ‘तपस्विनी’ हैं सीता । यह तपस्विनी-शब्द का आधार है रघुवंश में प्रयुक्त ‘साहं तपः सूर्य-निविष्ट-दृष्टिः’ इत्यादि श्लोक-पंक्ति । कवि गंगाधर ने अपनी सर्जनशील प्रतिभा से इस अपूर्व काव्य का प्रणयन पूर्वक भारतीय साहित्य को विशेष समृद्ध किया है ।

      प्रकृतिकवि गंगाधर की रचनावली को, विशेष रूप से ‘तपस्विनी’ महाकाव्य को विश्व-साहित्य दरवार में परिचित कराने हेतु डॉ. हरेकृष्ण मेहेर का साहित्यिक अवदान निश्चित अभिनन्दनीय और सराहनीय है । डॉ. मेहेर संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, ओड़िआ और कोशली भाषाओं के एक सुसाहित्यिक कवि तथा सफल अनुवादक हैं । उन्होंने तपस्विनी काव्य का हिन्दी-अंग्रेजी-संस्कृत त्रिभाषी अनुवाद या अनुसृजन करके इसका गौरव बढ़ाने में बहुत सहायता की है और साथ ही अपनी अनुवाद-कला का सुपरिचय प्रदान किया है । उनका हिन्दी तपस्विनी अनुवाद सम्बलपुर विश्वविद्यालय द्वारा २००० ख्रीष्टाब्द में प्रकाशित हुआ है । अंग्रेजी अनुवाद आर्. एन्. भट्टाचार्य कोलकाता द्वारा २००९ में प्रकाशित होकर आन्तर्जातीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त है । संस्कृत तपस्विनी अनुवाद परिमल पब्लिकेशन्स् दिल्ली द्वारा २०१२ में प्रकाशित हुआ है (आन्तर्जातिक मानक पुस्तक संख्या : ९७८-८१-७११०-४१२-३) । ये तीनों अनुवाद अन्तर्जाल पर डॉ. मेहेर के जालपुट (http://tapasvini-kavya.blogspot.in/2013/05/complete-tapasvini-kavya-hindi-english.html) में उपलब्ध हैं ।  उनके द्वारा अनूदित संस्कृत तपस्विनी के बारे में यहाँ कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है । 

      डॉ. हरेकृष्ण मेहेर के कई अनुवादों में ‘तपस्विनी’ महाकाव्य का संस्कृत रूपान्तर एक उल्लेखनीय ग्रन्थ है । उनके विभिन्न अनुवादों में अनुवाद-शैली की विशेषता है मूलभाषा के भाव को यथासंभव अपनी मौलिक शब्दावली के प्रयोग से उपयुक्त परिवेषण करना और यथार्थ सुरक्षित रखना । मुक्त छन्द में व्यवधान एवं अव्यवधान से मित्राक्षर और उपधा मिलन का प्रयोग उनके अनुवाद का प्रणिधेय तत्त्व है । तपस्विनी-अनुवाद में भी उनकी शैली उसी प्रकार परिलक्षित होती है । उन्होंने अनुवादकीय अनुभूति का बयान करके त्रिभाषी रूपान्तर के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं । अपनी अनुवाद-शैली के बारे में उन्होंने ‘प्राक्‌कथनम्’ में लिखा है :

     ‘तपस्विनी- महाकाव्यस्य मदीयानुवादानां सारस्वते त्रिवेणी-स्रोतसि मया रुच्यनुरूपं मुक्तच्छन्दोधारया सह  व्यवहितैरव्यवहितैश्च मित्राक्षरैरुपधा-मिलनस्य विहितोऽस्ति प्रयोगः । अनुवादत्रये मम रचनाशैली प्रायेण समरूपा । मित्राक्षरच्छन्दःसमेतम् अमित्राक्षरच्छन्दोऽपि मम प्रियम्; तथापि मित्राक्षरच्छन्दस्तथा अन्त्यानुप्रासं प्रति मम विशेषाकर्षणं वर्त्तते । अतः सर्वेषु त्रिषु अनुवादेषु मित्राक्षर-प्रयोगो मामकं सारस्वतानुराग-विशेषत्वं द्योतयति इति समनुभूयते । एषु भाषान्तरेषु अधिकतया मदीय-मौलिक-शब्दावली-माध्यमेन काव्यस्य मूलभावाः पूर्णतया यथार्था अक्षुण्णाः सुरक्षिताश्च विद्यन्ते इति मे दृढ़ो विश्वासः ।’   

     कवि गंगाधर मेहेर ने अपने काव्यों में भारतीय साहित्य-परम्परा को यथासम्भव सश्रद्ध सम्मान प्रदान किया है ॥ प्रान्तीय भाषा-साहित्यों में संस्कृत साहित्य का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है । यहाँ उल्लेखयोग्य है एक और विशेष विषय, जिसमें तपस्विनी के महाकाव्यत्व-प्रतिपादन के साथ सामग्रिक अनुशीलन का सारांश सन्निवेशित है । संस्कृत के प्रख्यात अलंकारशास्त्री विश्वनाथ कविराज ने अपने ‘साहित्यदर्पण’ ग्रन्थ में महाकाव्य का लक्षण निरूपित किया है, ‘सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुर: । सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्त-गुणान्वितः ॥’ इत्यादि कारिकाओं में । अनुवादक डॉ. हरेकृष्ण मेहेर ने साहित्यदर्पण-निर्देशित आलंकारिक शैली में ‘तपस्विनी’ के महाकाव्यत्व एवं सारतत्त्व को अपनी ललित मधुर पदावली में निबद्ध किया है इस प्रकार :

‘तपस्विनी-महाकाव्यं  स्वभावकविना कृतम् । 
गङ्गाधर-मेहेरेण   रङ्गायितं सुवर्णकम् ॥
जानकी नायिका यत्र  श्रीराम-सहधर्मिणी ।
सती-शिरोमणी साध्वी  पतिव्रता तपस्विनी ॥
सर्गा एकादश ख्याताश्छन्दोरागैरलङ्कृताः ।
ग्रन्थाद्यं प्रार्थना-वस्तुनिर्देशात्मक-मङ्गलम् ॥
निर्वासनोत्तरं वृत्तं   रामपत्न्याः प्रकीर्त्तितम् । 
सीतायाश्च तपश्चर्या-विभा कवेरभीप्सिता ॥
वाणी भावमयी स्निग्धा   प्रधानः करुणो रसः ।
दर्शनीयं निसर्गस्य  चित्रणं चात्र मञ्जुलम् ॥
मौलिकोद्भावना भाति  कवेरत्र स्वतन्त्रता ।
सौरभं भारतीयं च  सांस्कृतिकं सुसम्भृतम् ॥
सीताचरितमाश्रित्य  विशेषेण विनिर्मितम् ।
वक्तुं हि शक्यते काव्यं  सीतायनमिति स्मृतम् ॥
ओड़िआ-मूलभाषायाः  कृतः संस्कृत-भाषया ।
मम काव्यानुवादोऽयं  मोदयतु सतां मनः ॥’

     इसके साथ ‘तपस्विनी’ ग्रन्थ में सन्निवेशित है डॉ. मेहेर का एक दीर्घ शोधलेख, शीर्षक है ‘तपस्विनी-महाकाव्यम्: एकमालोकनम्’ । इसमें तपस्विनी का एक सामग्रिक एवं तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । अब देववाणी में अनूदित तपस्विनी की कुछ पंक्तियों का परिवेषण किया जा रहा है सहृदय पाठकवर्ग के काव्यरसास्वादन एवं मनोरञ्जन के लिये ।   

    रूपकालंकार माध्यम से कवि गंगाधर मेहेर ने ‘तपस्विनी’ काव्य के मुख्य विषय की सूचना दी है ।  दशम सर्ग में कवि ने रामायण की करुणगाथा को अपनी शब्दों में व्यक्त किया है इस प्रकार । ओड़िआ मूल पद्य है:

रस-रत्नमय   काव्य-शिखरी,
बिराजन्ति य़हिँ  राम-कॆशरी ।
राबण-बारण- रकत-धार,
बहइ  झर्झर  निर्झराकार ।
कान्दन्ति,  सिंही कन्दरे रहि,
दन्ति-दन्ताघात-बेदना सहि  ॥

अनुवादक डॉ. मेहेर के अपने संस्कृत पदविन्यास में यह पंक्ति है:

रस-रत्न-परिपूर्णः काव्य-पर्वतो वर्त्तते
श्रीरामचन्द्र-मृगेन्द्रो यत्र विराजते ।
दशकन्धर-सिन्धुरस्य रुधिर-धारा
प्रवहति झर्झरं निर्झरिणी ।
क्रन्दति तद्-गिरि-कन्दरागारा
विषह्य दन्ताबल-दन्ताघात-क्लेशं केशरिणी ॥  (दशम सर्ग)

   द्वितीय सर्ग में ऋषिवर वाल्मीकि पतिव्रता सीता को जब सान्त्वना प्रदान करते हैं, उसी प्रसंग में सागर-सङ्गम के लिये उत्सुक सरिता की स्वाभाविक आन्तरिक प्रीति का दृष्टान्त उपस्थापित किया गया है । ओड़िआ मूल पद्य है :  
    
      स्रोतस्वती-गति सहज    थाए सागर आशे,
      लङ्घे शिळा-शैळ-सङ्कट  य़ेबे बिरुद्धे आसे ।
      सागर-सङ्गमे बिस्मरे    सबु बिगत क्लेश,
      उभय जीबने न रहे     आउ  प्रभेद  लेश ।

      बिधिबशे उठि मध्यरे    य़ेबे ऊर्द्धकु भेदि,
      बालि-स्तूप दिए सरित- सिन्धु-हृदय छेदि ।
      सरित मरि त न पारे     तार  जीबन-भार,
      हृदय प्रसारि रखइ      होइ  ह्रद आकार ॥ 

डॉ. मेहेर के संस्कृत अनुवाद में यह पंक्ति इस प्रकार जीवन्त होती है :

      स्वत एव गति-र्भवति
     स्रोतस्वत्याः पारावारं  प्रति ।
     लङ्घति सा शिला-शैल-सङ्कट-सकलम्
     समागच्छति मार्गे यद् विरुद्धमर्गलम् ।
     पूर्व-क्लेश-समस्तं विस्मर्यते
     तया तोयनिधे-र्मिलने,
     भेद-लेशोऽपि पुन-र्नावशिष्यते
     तयोरुभयो-र्जीवने ॥

     मध्ये दैववशात् समुत्थाय सपदि
     ऊद्‌र्ध्वं भित्त्वा यदि
     छिनत्ति बालुका-स्तूपस्तयोः
     हृदयं ह्रादिनी-समुद्रयोः,
     कल्लोलिनी तु न म्रियते ।
     प्रियतमस्य कृते
     वहति सा जीवन-भारं स्वयम्
     ह्रदाकारं प्रसार्य स्वहृदयम्  ॥ (द्वितीय सर्ग)

      तपस्विनी के चतुर्थ सर्ग का उषा-वर्णन ओड़िशा में विशेष लोकप्रिय है । ‘मङ्गळे अइला उषा’ वाक्य से कवि गंगाधर मेहेर समग्र राज्यभर सुपरिचित हैं ।  चतुर्थ सर्ग के आरंभ में वाल्मीकि मुनि के आश्रम पर पदार्पण करती है सुन्दरी उषा, जो प्रकृतिकवि गंगाधर की लेखनी में अपूर्व सौम्य कान्त रूप से सुसज्जित है । प्रस्तुत है प्रथम पंक्ति, जो ओड़िआ भाषा के अत्यन्त मनमोहक श्रुतिमधुर सांगीतिक ‘चोखि’ राग में रचित है । श्रीरामरानी सती सीतादेवी के स्वागत सत्कार करने प्रकृति की अतीव सुन्दर अंशरूपिणी उषा यहाँ उपस्थित है । ओड़िआ साहित्य में स्वभावकवि का सुप्रसिद्ध यही पद्य वास्तव में सदैव स्मरणीय है । ओड़िआ मूल पद्य इस प्रकार है :

मङ्गळे अइला उषा       बिकच-राजीब-दृशा
       जानकी-दर्शन-तृषा  हृदये बहि,
कर-पल्लबे नीहार-         मुक्ता धरि उपहार
    सतीङ्क बास-बाहार  प्राङ्गणे रहि ।
            कळकण्ठ-कण्ठे कहिला,
     दरशन दिअ सति ! राति पाहिला ॥

     डॉ. मेहेर के संस्कृत रूपान्तर में भी यह पंक्ति उसी प्रकार आस्वादनीय है । अनुवादक ने वैदिक मन्त्रों में वर्णित उषा के लिये प्रयुक्त ‘सूनरी’ पद का यहाँ प्रसंगवश प्रयोग करके और अधिक सुन्दरता का यथार्थ समावेश किया है । उनके अनूदित संस्कृत शब्दों में भाव इस प्रकार व्यक्त हुए हैं :    

    मङ्गलं समागता सौम्याङ्गना
    उषा व्याकोषारविन्द-लोचना
    वैदेही-दर्शनाभिलाषं वहन्ती स्वहृदये ।
    पल्लव-कर-द्वये
    नीहार-मौक्तिक-प्रकरोपहारं दधाना
    सती-निलय-बहिरङ्गणे विद्यमाना
    अभाषत कोकिल-कण्ठस्वना सूनरी,
    ‘दर्शनं देहि सति ! प्रभाता विभावरी’ ॥  (चतुर्थ सर्ग)

    कन्या के प्रति माता की संवेदना हृदय की गहरी दिशा को पहचानती है और उसी प्रकार माता के प्रति कन्या की आन्तरिक ममता अटूट रहती है । काव्य में प्रसंगानुसार मातृस्वरूपा तमसा नदी के प्रति कन्या-स्वरूपा सीता की कारुण्यभरी आन्तरानुभूति वास्तविक आत्मीयता का प्रकृष्ट निदर्शन है । ओड़िआ मूल पद्य इसप्रकार है :

सीता बोइले, ‘पनीर-       मधुर ए स्चच्छ नीर
      नीर नुहे जननीर   क्षीर प्रत्यक्षे,
 गिरि-स्तनुँ विनिःसृत      होइ आसुछि अमृत-
      धारा परि सीता मृत-कळपा लक्ष्ये ।
           ओहो तु त मो मा ए देशे,
    मो दुःखे विदीर्ण-वक्षा तमसा-वेशे ॥’

डॉ. मेहेर के संस्कृत रूपान्तर में यह हृदयस्पर्शी पंक्ति इस प्रकार है:

     जानक्या व्यक्तमकारि,
     ‘अनाविलमिदं वारि
     नारिकेल-नीर-सम्मितम्
     माधुर्य-प्रपूरितम् ।
     न खलु तन्नीरम्,
     भाति जनन्याः प्रत्यक्षमेव क्षीरम् ।
     पर्वत-वक्षोज-विनिःसृतमेतत्
     प्रवहति पीयूष-निष्यन्दवत्
     कृते मृतकल्पायाः
     कन्यकायाः सीतायाः ।
     देशेऽस्मिन्नहो ! त्वमेव माता मे सदाशया
     तमसामूर्त्ति-र्मद्वेदना-विदीर्णहृदया ॥’ (चतुर्थ सर्ग)

     तपस्विनी काव्य में करुणरस की प्रतिमा सीता का प्रासंगिक शोभावर्णन भी अत्यन्त रोचक है । मुनिवर वाल्मीकि के समक्ष तापसी कन्या सुनाती है वन के भीतर उपेक्षित सीता की उपस्थिति के बारे में । ओड़िआ मूल पद्य है इस प्रकार :
        सम्बोधन करि थरकु  थर ता प्रिय कान्ते,
       पति-गुण पति-बात्सल्य  स्मरुअछि एकान्ते ।
       लळित दिशुछि ललाटे  तार सिन्दूर-बिन्दु,
       मुख-कमळकु होइछि  य़ेह्ने पूर्णिमा-इन्दु ॥

डॉ. मेहेर के संस्कृत अनुवाद में यही पद्य इस प्रकार व्यक्त है :

    सम्बोधयन्ती वारंवारम्
    प्रियतमं भर्त्तारम्
    स्मरति विविक्ते स्वमनसा
    वात्सल्यं गुणराशिं स्वामिनः सा ॥
    तस्या ललाट-देशे सन्दृश्यते
    सिन्दूर-बिन्दुः सुन्दरः ।
    वदनारविन्दं प्रति प्रतीयते  
    यथा राका-कलाकरः ॥ (तृतीय सर्ग)

   प्रकृति एवं सीता परस्पर दुःख-सुख की समभागिनी हैं । हर सर्ग में प्रकृति का चित्रण कवि की लेखनी में विशेष मनोहारी और आकर्षक प्रतीत होता है । प्रकृति के सारे विभाव प्राणवान् सजीव और मानवायित हैं । चतुर्थ सर्ग का फिर एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत है, जहाँ सीता के प्रति वनलक्ष्मी की हार्दिक सखी-प्रीति अभिव्यक्त है । आश्रम के उद्यान में कवि-कल्पिता वनलक्ष्मी सखी-रूपिणी सीता के प्रति भावभरी बातें कहती है । ओड़िआ मूल पद्य है :

य़ेतेबेळे पुष्पकरे            बाहुड़िगलु  पुष्करे
     उभा होइ पुष्प-करे  मृग-नयने,
ऊद्‌र्ध्वे चाहिँ बिषादरे    तोते मयूरी-नादरे
     डाकु य़े थिलि सादरे  दीर्घ अयने ।
        सखी-कथा स्मरि मनरे,
आसिलु कि सखि ! आजि एते दिनरे ॥

डॉ. मेहेर के संस्कृत-भाषान्तर में यह भावभरी वाणी इस प्रकार है :

     समारूढ़-पुष्पक-विमाना
     प्रत्यावृत्ता यदा गगनायने त्वम्,
     पुष्प-करा तदाऽहं दण्डायमाना,
     मृग-नयनाभ्यामूर्ध्वम्
     सविषादं विलोकयन्ती,
     आसं मयूरी-स्वनैस्त्वामाहूतवती
     सुदीर्घ-मार्गतः सादरम् ।
     वचनं सख्याः संस्मृत्य मानसे
     सखि ! कृत-पदार्पणा किमद्य विद्यसे
     एतावद्-दिवसानन्तरम् ?  (चतुर्थ सर्ग)

     कवि गङ्गाधर के वर्णन में पत्नीविरह से व्याकुल श्रीराम राजसिंहासन को अत्यन्त तुच्छ समझते है ।  प्रजारञ्जन-रूप राजधर्म के पालन हेतु उन्होंने अपना समस्त पारिवारिक सुख को भी त्याग दिया है । फिर भी उनके हृदय में सदा विराजित हैं प्राणप्रिया पद्मिनी सीता । श्रीराम का मन-भ्रमर सरस कमल के मकरन्द के आस्वादन में मग्न है । तृतीय सर्ग में प्रसङ्गानुसार प्रियाविरह-व्याकुल सीतापति श्रीराम अपने इन्द्रियों को प्रबोधना देते हैं । उदाहरण-स्वरूप, ओड़िआ मूल पद्य को देखा जा सकता है :

आउ एक कथा          कहुछि एकता
      बान्धि तुम्भे मन सङ्गे,
चाल हृद-सरे            अनन्त बासरे
      बिळसिब  रस-रङ्गे ।
मो प्राण-सङ्गिनी      नब कमळिनी
       फुटि रहिअछि तहिँ,
स्मरण-भास्कर         चिर तेजस्कर
      अस्त तार नाहिँ य़हिँ ॥

डॉ. मेहेर के संस्कृत अनुवाद में इस प्रकार शब्द--संयोजना है :

     ब्रवीमि विषयमेकमपरम्
     यूयं स्वान्तेन सार्धम्
     ऐक्य-बद्धाः सर्वे निर्बाधं
     व्रजत हृदय-सरोवरम् ।
     अशेष-दिवसान्यथ
     रस-रङ्गेषु विलसिष्यथ ॥
     तत्र वर्त्तते मम जीवन-सङ्गिनी
     प्रफुल्ला नवीना राजीविनी,
     यस्मिन् सुचिर-ज्योतिष्मान्
     स्मरण-विवस्वान्
     अविरतं विराजते,
     कदापि नास्तं भजते ॥  (तृतीय सर्ग)

    कवि गंगाधर मेहेर के ‘तपस्विनी’ काव्य में वर्णित श्रीरामचन्द्र एक महान् आदर्शवादी प्रजावत्सल राजा और सामाजिक त्यागी गृहस्थ हैं । आदर्श पति हैं श्रीराम एवं आदर्श पत्नी हैं साध्वी पतिव्रता सती सीता । ये दोनों भारतीय संस्कृति में युग-युग पूजास्पद और सदैव स्मरणीय हैं । कवि ने इस काव्य के हर सर्ग में सीता के लिये ‘सती’ शब्द का प्रयोग करके उनके उज्ज्वल आदर्श चरित्र का अनुपम चित्रण किया है ।   

     ‘तपस्विनी’ के उपर्युक्त उदाहरण केवल दिग्दर्शनमात्र हैं । समग्र पुस्तक में अपने सरस, लालित्य-माधुर्यपूर्ण एवं आनुप्रासिक शब्दविन्यास के माध्यम से अनुवादक डॉं. हरेकृष्ण मेहेर ने स्वकीय अनुवाद-कला का एक सफल निदर्शन उपस्थापित किया है । उनका सुरभारती-रूपान्तर में प्रस्तुत यह ‘तपस्विनी’ महाकाव्य निश्चित ही आधुनिक संस्कृत साहित्य की समृद्धि में विशेष सहायक होगा और सहृदय काव्यामोदी विद्वानों का आदर-भाजन रहेगा, ऐसा विश्वास है ।
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[ सौजन्य : ‘दृक्’ (समकालिक - संस्कृत-साहित्य-समीक्षा-पत्रिका),
ISSN : 0976- 447X. 
संयुक्त अंक : २८-२९ (जुलाई २०१२ - जून २०१३), पृष्ठ : ४२-४९,
प्रकाशिका : दृग् भारती, योजना-३, इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश ।]
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