Friday, August 19, 2011
Tapasvini Kavya Canto-2 (‘तपस्विनी’ काव्य द्वितीय सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)
TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-2 has been taken from pages 47-62 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya ‘
Link : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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Tapasvini [Canto-2]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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द्वितीय सर्ग
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वाल्मीकि-आश्रम-राज्यभर
व्याप्त था शान्ति-रानी का राजत्व सुन्दर ।
तरु-दत्त उत्तम छाया-करों से सर्वथा
कोष उसका परिपूर्ण था ॥
निष्कपट-अन्तर
वे पादपगण छाया-कर
प्रदान करते अयाचित
अपने तनु-मापदण्ड के अनुरूप निश्चित ॥
प्रकृति के रण में निर्भीक
वे फिर बनते हैं सैनिक,
गहन पत्र-कवच लेकर
आच्छादित करके कलेवर ॥
वर्षा के व्यायाम से भर
अपने अंगों में पुष्टि-शक्ति,
आतप को परास्त कर
छीन ले आते रश्मि-सम्पत्ति ॥
शीत के आक्रमण से ये
राज्य-रक्षा के लिये
धुनि-रूप में उधर
कुछ बन जाते अग्नि-शर ॥
पराजित प्रकृति उचित समय जान
करती सन्तोष विधान,
वृक्षों के हाथ सौंप अपार
फल-पुष्प-कोष सम्भार ॥
प्रत्येक शिशिर-कण
करता अगस्त्य का गौरव शोषण,
अपने गर्भ में धारण कर
तारा-रत्न-पूरित अम्बर-सागर ॥
तरु-आलबाल का उदक उधर
अपनाकर रत्नाकर का गर्व विशाल,
रखता रहा अपने उदर
सुधांशु-मण्डल को पाल ॥
वहाँ अचानक चली आई
श्रीराम-वधू की रुलाई ।
शान्तिदेवी का आगार
डगमगा दिया बारबार ॥
शान्ति करुणामयी
विचलित हो गयी ।
ढूँढा वाहन अपना सत्वर
चलने रोदन-रता को लक्ष्य कर ॥
मुनिकन्याएँ बाहर निकल
लग गयी थीं उसी पल,
तत्त्वावधान करने नव तरु-लताओं का,
जो अस्तव्यस्त थे पाकर मरुत का झोंका ॥
श्रुति में कन्याओं की जब समा गयी
आकर एक ध्वनि नयी,
उसे पकड़ पहचानने
मनोनिवेश किया सबने ॥
उसे पकड़ मानस ने देखा चुन :
न वह कबूतर की बोली,
न कूक कोयल की निराली,
न वीणा की धुन,
न कम्बु-स्वन, न फिर मयूर-केका,
वह तो किसी रमणी के करुण गले का
झर रहा है स्वर
शोक-जर्जर ॥
उन कन्याओं के हृदय-स्यन्दन पर
स्वयम् अधिरूढ़ होकर
शान्ति ने तुरन्त किया चालन,
फहरने लगा वल्कलाञ्चल-केतन ॥
चकित हो गयी शान्ति तभी
निहार लहरें रुलाई की ।
निकट चलने फिर भी
तनिक-भी अवहेला नहीं की ॥
आगे चल व्यग्र-मन
कन्याओं ने अनतिदूर में किया अवलोकन,
बरसा रही लोतक-नीर भारी
एक अपूर्व नारी ॥
किसी ने सोचा साश्चर्य मन में :
‘विचित्र तो बात यही ।
कभी सम्भव नहीं इसी कानन में
इस-जैसी मानव-देही ॥
कोई देवी स्वर्गधाम से
क्या सद्य अभिशाप-परिणाम से
आ गिर पड़ी है सशरीर
धरातल पर अधीर ?
क्या चढ़कर ऐरावत करी
इन्द्रभुवन-सुन्दरी
अम्बर में करते करते भ्रमण
भूपतिता हुईं इसी क्षण ?’
सोचने लगी अन्य कोई मुनि-दुहिता :
‘क्या यह मूर्त्तिमती सुर-सरिता
अश्रु-तरंगों से अपनी
प्लावित कर रहीं अवनी ?
क्या करका-सी करुणा स्वर्ग से टपक
अन्य के दुःख-ताप से अचानक
जा रही पिघल
धीरे-धीरे आ धरातल ?
नहीं तो, घन-कुन्तला यही,
लेकर बलाहक
तारा आने से खिसक
धरा पर धारा बह रही ॥
ध्वनि रुलाई की होती यदि चौंकभरी,
हम कहते, मेघ संग शम्पा है उतरी ।
कहाँ कोयल की बोली से सुहावनी
ओस-बरसानेवाली चाँदनी ?
कहाँ झिल्ली-झाँझ से भरी
ग्रीष्म की धूप गहरी ?
हाथों में यदि वीणा रहती,
हम कहते, देवी सरस्वती
विलप रही हैं इस तरह से
तड़पकर विष्णु के विरह से ॥’
मुनिकन्याएँ करके ऐसी भावना
पहुँच गयीं सीता के निकट,
परन्तु प्रदान करने सान्त्वना
किसीका न हुआ साहस प्रकट ॥
प्रबल वृष्टि से महानदी का गहरा सलिल
जब हो जाता आविल,
उसे कैसे भला
निर्मल कर सकती निर्मला ? (१)
इब,अंग और तेल नदियों के संग
जैसे बढ़ती महानदी की धार,
मुनि-कुमारियों के संग
बढ़ने लगी सीता की वेदना उसी प्रकार ॥
कुछ न पूछ वैदेही से
घिर गयीं कुमारियाँ सारी ।
कोई भी जा न सकी वहीं से,
स्नेह बन गया पाँव की बेड़ी भारी ॥
सीता की ओर करके विकल निरीक्षण
कुमारियों से शान्त नयन उसी क्षण
छोड़ने लगे प्रबल
क्षुब्ध हृदय की व्यथा-लहरों का जल ॥
साश्रु-लोचना कुमारियों के बीच वहीं
सकरुण स्वर विलपती
शोक-सलिल में बह रहीं
राम-प्रिया सीता सती ।
चक्रवातज सीकर-सिक्त नलिनी-वन में तरसी
कूजती रही क्या करुण-स्वना राजहंसी ?
करुण रुलाई उनकी
कोई आली झेल न सकी ।
महर्षि वाल्मीकि के पास चल
बोली वचन स्वेदभरा व्यथा-चञ्चल ॥
‘तात ! इसी कानन में
दीखती है कोई नारी
नवनीत की पुतली-सी,
आकर रो रही पगली-सी ।
अपने प्रिय स्वामी को पुकार
वही बारबार
एकान्त में स्मरण कर रही मन में
पति की गुणावली और वत्सलता सारी ॥
दीखती उसके ललाट पर
सिन्दूर की बिन्दी सुन्दर,
वदन-अरविन्द को वही
पूनम के चाँद-सी भाती रही ॥
हस्त-युगल में खनकी
सुहावनी लगतीं चूड़ियाँ रत्न की ।
विषाद-पारावार के पुलिन पर
चमकतीं वहाँ न डूबकर ॥
अधखिले कमल में वराटक समान
अरविन्दाभ सुन्दर वस्त्र से वह शोभायमान ।
आँसुओं ने कर दिया
आर्द्र उसीका परिधान,
वह मानवी या देवी स्वर्गीया,
सरल नहीं पहचान ॥’
यह श्रवण कर तपोधन
मौन मुद्रित-नयन,
बैठे रहे एक पल
रख काय मस्तक ग्रीवा सरल ॥
उठ फिर निकल पड़े
‘चलो देखेंगे’ कहकर ।
कई मुनिकुमार चल पड़े
उनके पीछे-पीछे सत्वर ॥
जो मुनिकन्याएँ थीं आश्रम के भीतर,
चलीं सब उत्सुक-अन्तर,
बनकर उस सखी के साथी
जो बुलाने आई थी ॥
चले कुरंगी कुरंग,
उनके शावक भी संग-संग ।
तरु से तरु कुद-कुद चले चञ्चल
कई मयूर कोकिल बक दल ॥
पवन-पारावार में लगे खेने
कलेवर-पोत अपने अपने
नेत्र-रञ्जन खञ्जन विहंग
कपोत, शुक सारिकाओं के संग ॥
शान्ति की इस वीर-वाहिनी ने
किया सबल अभियान,
सीता के शोक-प्रस्तर-समूह उमड़ने
प्रखर सरिता समान ॥
महानदी महानदी की महाधारा आकर
रामेश्वर की सारी शिलाओं को पाकर (२)
यदि मस्तक तक निगल जाये,
शिलायें हिलेंगी क्या ये ?
समस्त प्रवाह
लगेगा काँपने ।
होगा सिरभ्रम, मिलेगी नहीं राह,
फिसल जायेंगे पैर अपने ॥
इस अभियान में चली
शान्ति वही दशा तो नहीं भोगेगी ?
उसे लगने दो, वह तो है लगी
स्वाभिमान से मतवाली ॥
कुछ दूर चल मुनिवर
सीता के समीप पहुँचे ।
बाकी सब रहे घिरकर
नीचे, डाल पर, अम्बर में ऊँचे ॥
धवल-श्मश्रु-केश
विभूति-विभूषित रम्य-वेश
वाल्मीकि महर्षि के पास वैसे
भाने लगीं सीता काञ्चन-वर्णा,
तुषार-काय हिमालय तले जैसे
मौन निश्चल तपस्विनी अपर्णा ॥
महामुनि के आगमन पर
शोक दूर हो गया सीता का ।
हृदय में स्थगित हुआ सत्वर
जलावर्त्त चिन्ता का ॥
कहा महर्षि ने जानकी से :
‘मुझे ज्ञात है वत्से !
विपरीत बहने लगी है सम्प्रति
तेरी विरह-विपत्ति ॥
सागर के प्रति
सरिता की गति
रहती स्वभाव से ।
जब शिला-गिरिसंकट
सामने विघ्न-रूप हो जाते प्रकट,
उन्हें लाँघ जाती ताव से ॥
भूल जाती सब
पिछली व्यथाएँ सागर से मिलकर ।
दोनों के जीवन में तब
रहता नहीं तनिक-भी अन्तर ॥
संयोग-वश यदि बीच में उभर
ऊपर को भेदकर
छिन्न कर डालता बालुका-स्तूप,
सरिता और सागर के हृदय को किसी रूप,
वह स्रोतस्वती
मर तो नहीं सकती,
सम्हालती अपना जीवन-भार
ह्रद-रूप बन हृदय पसार ॥ (३)
दुनिया में वही दशा तेरी
अविकल आई है, माँ मेरी !
तू व्यर्थ चिन्ता मत कर,
चिन्ता का स्वरूप है भयंकर ॥
तेरे श्वशुर सुहृद् मेरे,
वैसे ही पिता तेरे ।
आश्रम में रह तू निःसंकोच,
सारे संसार को तिक्त सोच ॥
मेरे आश्रम में किसी भी प्रकार
रहेगा नहीं तेरी चिन्ता का अवसर ।
जन्म लेगा जो कुमार
उसके लिते शोचना मत कर ॥’
सुन बातें मुनिप्रवर की
उनके चरणों में प्रणाम कर सादर
उठकर पोंछने लगी जानकी
वस्त्राञ्चल से कपोल-परिसर ॥
‘वीरप्रसू हो वत्से !’
इस शुभाशीष वचन से
देने लगे मधुर सान्त्वना तपोधन ।
फिर बोले, ‘आ विलम्ब न कर मेरी माँ !
कर मेरे आश्रम का सौन्दर्य वर्धन
कुमारियों के बीच रहकर यहाँ ॥’
‘बालिकाओं ! पकड़ लो सत्वर
क्या क्या वस्तुएँ हैं इधर ।’
मुनिवर की अनुज्ञा मान
कन्याओं ने वैसा ही किया ससम्मान ॥
खींचतान परस्पर
पकड़ सीता की सुन्दर टोकरियाँ,
ले चलीं सादर
घिर उन्हें चारों ओर कुमारियाँ ॥
दुर्गति के मस्तक पर बारबार
करके पादुका प्रहार
मुनिवर धीरे-धीरे चलने लगे
श्रीराम-हृदय की प्रीति-प्रतिमा के आगे ॥
महामुनि कषाय-परिधान
भाये अनूरु समान, (४)
भाने लगीं उनकी अनुगामिनी
दिनकर-किरण-सी वैदेह-नन्दिनी ।
डूब गयी थी वही किरण
दुःख-पारावार-वारि में उसी क्षण ।
उधर थे अनूरु विराजित
समुज्ज्वल वर्णों से सुसज्जित ॥
महामुनि और महासती का समस्त वार्त्तालाप
सुन रहे थे विहंग-कलाप
धीरे बैठ उधर
त्याग अपना मधु स्वर ॥
देख उन्हींका प्रस्थान
आश्रम की ओर,
किया विहंगों ने मधुर गान
प्रफुल्ल-मानस आनन्द-विभोर ॥
शान्ति-रानी की तो पूरी
बज गयी रण-जय की भेरीतूरी ।
दरशाने लगे प्रसन्न भाव
नृत्य-मगन सारे मृग-शाव ॥
नये अतिथि का मुखमण्डल
मान स्नेह-पारावार,
प्यासे नयनों से वे सकल
निहार रहे बारबार ॥
अशान्ति-सिन्धु से उभरी
स्वयं राम-प्रिया सुन्दरी
जयलक्ष्मी बनकर
चल रहीं शान्ति-नगर ॥
चन्द्रिकामय पुच्छ सुन्दर
विस्तार करके ऊपर
वीथी-युगल में उभय पार्श्वगत
चलने लगे मयूर शत-शत ॥
कोमलांग समस्त हस्ती-शावक
सूँडों से कमल धारणपूर्वक
साथ दलबद्ध होकर
चले ढकेल परस्पर ॥
कुसुम-गुच्छ-विभूषित
पल्लव डोलने लगे वृक्षों में उल्लसित ।
वहीं बक सकल सुहावने
पङ्क्ति-सज्जित धवल ध्वज बने ॥
सुमधुर स्वर में कोकिल-कुल
गाने लगे मंगल गीत ।
भृङ्ग-गुञ्जार से मञ्जुल
जयशङ्ख-ध्वनि हुई प्रतीत ॥
बारबार वृक्षों से उड़कर
वहीं मुक्त-हस्त,
प्रसून बरसाने लगे पथ पर
शुक सारिका समस्त ॥
गोधूलि-तारका प्रज्वलित हुई उधर
बनकर वन्दापना-प्रदीप सुन्दर ।
मुनि-आश्रम में विराजने लगीं जानकी
तारका श्रीराम-नयन की ॥
मुनीन्द्र का निदेश मान
आश्रम में रख सारी पेटिकाएँ यथास्थान
सती सीता का वदन
किसी कन्या ने किया प्रक्षालन ॥
कोई दूसरी डालने जा रही
उनके पैरों में कलस का जल,
उसके हाथ से छुड़ा सीता ने स्वयं ही
धो लिये अपने चरण युगल ॥
किसी कुमारी ने सुकोमल पत्रासन पर
सती सीता को बिठाकर,
रख दिया सम्मुख फलमूल आहार
पत्र-थाली में लाकर सप्यार ॥
अनुकम्पा-नाम्नी वृद्धा ने
सती को अंक बिठा तत्काल,
कर-सरोज से अपने
पोंछ दिये उनके कपोल और कपाल ॥
ममता-प्रपात से सींच अनाविल
समुज्ज्वल स्नेह-सलिल
अनुकम्पा ने प्लावन से उसीके
शीतल किये प्राण राम-प्रेयसी के ॥
फिर उनका लपन निहार-निहार
कहा वचन धीर सुकुमार,
‘मेरे सौभाग्य से, माँ प्यारी !
आज तू मेरे पास पधारी ।
राजराजेश्वरी माँ तूने डूबाकर
अन्धेरों में अपना स्वर्ण-मन्दिर,
जगमगा दिया यहाँ आकर
मेरा क्षुद्र कुटीर ॥
दिनभर नहीं किया होगा ग्रहण
तूने कुछ भी भोजन ।
प्रहारता होगा चरण
उदर के अन्दर नन्दन ॥
खा ले अरी माँ ! खा जा,
तेरी माँ के घर कैसी लज्जा ?
ये तेरी सखियाँ सारी
कर रहीं तेरी प्रतीक्षा प्यारी ॥’
ऐसा कहकर अनुकम्पा ने छिलका निकाल
नारंगी-कलि हाथ में पकड़वा दिया तत्काल ।
फिर एक-एक करके पक्व कदली
कर्पूर-सी उजली ॥
दिये तिन्दुक बीज-फड़े,
पनस टुकड़े-टुकड़े,
मधुर पिण्ड-खर्जूर
साथ रसाल, रसों से भरपूर ॥
‘धीरे खा ले माँ ! खा ले’, इस प्रकार
बारबार मीठी बोली में कहकर तोड़ अनार,
हाथ में दिये पुञ्ज-पुञ्ज दाने ।
अन्त में लाकर ढेर
‘और दोठों और दोठों’ कहकर अनुकम्पा ने
खिलाये सती को आठ-दसठों बेर ॥
जननी का स्नेह-सुख समझा नहीं था
सती ने अपने बचपन में,
परन्तु वही सुख सर्वथा
समझा आज वाल्मीकि-वन में ॥
फलाहार के अनन्तर
आचमन सम्पन्न कर
मान वृद्धा तापसी का निदेश-वचन
किया सती ने काष्ठासन पर उपवेशन ॥
अर्पित की सतीके हाथ
इलायची किसी कन्या ने ।
उसे मुख में डाला आदर के साथ
सुमुखी जनक-तनया ने ॥
किसी कुमारी ने लाकर मनोरम
नीवार-नाल शुष्क सुकुमार,
उस पर बिछा मृग-चर्म
कर दी शय्या तैयार ॥
दो सखियाँ रहीं
सती के पास वहीं ।
बाकी थीं जितनी
चली गयीं पर्णशाला में अपनी ॥
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[पादटीका :
(१) निर्मला = जल-शोधनकारी फल-विशेष ।
इब, अंग, तेल - ये तीनों महानदी की उपनदियाँ हैं ।
(२) रामेश्वर = सम्बलपुर के पास महानदी का एक भयंकर विषम स्थान ।
(३) ओड़िशा में चिलिका-ह्रद-संगत नदियों की अवस्था इसका निदर्शन है ।
(४) अनूरु = सूर्य-सारथि ।
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(तपस्विनी काव्य का द्वितीय सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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