Sunday, February 24, 2008

'Niti-Sataka' of Bhartrihari: Oriya Version by Dr.Harekrishna Meher

‘Niti Sataka’ Kavya of Poet Bhartrihari 
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Odia Version By : Dr. Harekrishna Meher 
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Extracts from My Complete Oriya Translation
of Sanskrit Kavya “Niti Sataka” of Poet Bhartrihari.

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Bhartrihari is a distinguished poet of Sanskrit Literature of 7th century A.D. 
He is popular for his Sanskrit Giti-kavya ‘Niti-Sataka’, ‘Sringara-Sataka’ and 
‘Vairagya-Sataka’. Combinedly the Giti-kavya of trio is known as ‘Bhartrihari-Sataka-Traya’. Each Sataka contains One hundred Sanskrit Slokas. All the verses of these Satakas have eternal value in the human society.

In ‘Niti-Sataka’ various aspects of life such as Knowledge, Wealth, Deed, Duty, 

Destiny, God, Mundane Region, Noble Qualities, Good and Bad Persons with their works, Art, Literature, Music and the like have been portrayed marvellously.

In ‘Sringara-Sataka’ the poet has beautifully delineated different facets of Women, Love and Sentiment of Eros, Mundane Wealth, World in contrast with Brahman, the Almighty Supreme Being and Eternal Bliss.

In ‘Vairagya-Sataka’ detachment from worldly enjoyments, meditation and devotion towards God have been depicted. In all the three Satakas, experiences of life, hardships, struggles, downfall, deeds, success, achievements, goal of life, salvation and other related matters are observed with humanistic approach.

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Of all the three Satakas of Bhartrihari, My Complete Oriya Translations done in modern literary metres, have been published in Puja Special Issues of ‘Bartika’, the distinguished Oriya Literary Quarterly of Saraswat Sahitya Sanskrutika Parishad, Dasarathpur, Jajpur, Orissa. (Niti-Sataka, 1995-97)
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Please see 'Sringara-Sataka' and 'Vairagya-Sataka' posted separately on this site :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/02/oriya-sringara-sataka.html 
*http://hkmeher.blogspot.com/2008/03/oriya-vairagya-sataka.html
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Extracts of My Oriya Rendering of ‘Niti-Sataka’ are presented here.  
For convenience of reading,
Oriya letters have been shown in Devanagari Script as follows.


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भर्त्तृहरि-शतक-त्रय  (नीति-शतक) 
मूल संस्कृत काब्य : महाकबि भर्त्तृहरि
ओड़िआ पद्यानुबाद : डा. हरेकृष्ण मेहेर
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[१-क]
य़ेउँ रमणीकि            निरन्तर मुँ
चिन्तइँ निज अन्तरे,
मो ठारे बिमना     रहि से कामना
करइ अन्य पुरुषरे ।
से पुरुष तेणे  अन्य रमणी पाशे,
मज्जाइ मन  पीरतिकि परकाशे ।
मो लागि अन्य के चतुरी,
लभे सन्तोष भाबे झुरि ।
धिक से नारीकि,    धिक से पुरुषे
बास्तबिक,
धिक मदनकु,   धिक ए नारीकि,
मोते बि धिक ॥
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[८]
य़ेतेबेळे अति अळपज्ञानी
होइथिलि मुहिँ  महाअभिमानी
मदरे मत्त हस्ती परि,
'सर्बज्ञ मुँ'            बोलि सेतेबेळे
रहिथिला मने गर्ब भरि ।
परे य़ेतेबेळे      बुधजन पाशुँ
किछि किछि कथा शिखिलि,
सेतेबेळे एका       'मूर्ख मुँ' बोलि
अन्तरे बुझि पारिलि ।
गर्ब मोहर ज्वर परि,
गला मानसरु अपसरि ॥
*
[१२]
नाहिँ साहित्य सङ्गीत कळा य़ाहाठारे,
से त लाङ्गुळ-      शृङ्ग-बिहीन
साक्षाते पशु दुनिआरे ।
न कले बि तृण भोजन
बञ्चि रहइ से जन ।
ए कथा निश्चे अटइ परम भाग्यर,
जीबन धारणे बास्तबे पशु-बर्गर ॥
*
[२०]
बिद्या नरर बिशिष्ट रूप अति शोभन,
भोगर दात्री, सुरक्षित ए गुप्त धन ।
बिद्या जगते सकळ कीर्त्ति-
सुख-दायिका,
गुरुजनङ्क गुरु अटइ ए
बिद्या एका ।
बिद्या बिदेश- गमने बन्धु निजर,
बिद्या अटइ परम देबता आबर ।
राज-संसदे बिद्या त पूजा-आस्पद ;
पूज्य नुहइ सम्पद ।
य़े जन बिद्या-बिरहित,
पशु अटइ से निश्चित ॥
*
[२३]
सज्जन साथे सङ्गति,
कह, पुरुषर किस बा न करे सद्-गति ?
बुद्धिर जड़-भाब हरे,
सत्य सिञ्चे बचनरे ।
बितरे उच्च सम्मान,
निबारइ से त पापमान ।
करइ चित्त परिष्कार,
दिग-दिगन्ते करइ कीर्त्ति सुबिस्तार ॥
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[२४]
सकळ रसरे सिद्ध आबर पुण्यबान,
क्रान्त-दरशी        महाकबि-गण
जगते बिजयी ससम्मान ।
कीरति-शरीरे  य़ाहाङ्कर,
नाहिँ तिळे जरा-मृत्यु-डर ॥
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[२७]
अधम लोक त
बिघ्न-आगम भयरु,
केबे आरम्भ
न करे कार्य़्य मूळरु ।
मध्यम जन         थरे आरम्भि
कार्य़्य आग,
मझिरे बिघ्न    आसिले करे ता
परित्याग ।
बिघ्न-राशिर         प्रतिघाते बहु
पीड़ित हेले बि बारबार ;
उत्तम जन        करे नाहिँ केबे
निज आरब्ध परिहार ॥
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[३१]
भोजन-दातार         पुरते कुकुर
आपणा पुच्छ हलाए,
तळे पादे पड़ि      भूमिपरे गड़ि
बदन उदर मेलाए ।
गजराज निज     भोजन-दातारे
करे गम्भीरे निरीक्षण ;
नाना परकार       चाटु उपचार
लभि परे करे से भक्षण ॥
*
[४१]
अछि य़ार धन      कुळीन से जन
बिद्याबान से पण्डित ;
से त गुणज्ञ           से एका बक्ता
से त लाबण्य-मण्डित ।
काञ्चन ठारे आश्रा करे,
समस्त गुण बास्तबरे ॥
*
[४२]
कुमन्त्रणारु  नाश लभे नरपति,
लोक-सङ्गरु  नष्ट हुअइ य़ति ।
नाश य़ाए सुत  बिशेष लाळने,
द्विज बिनष्ट  अनध्ययने ।
कुळ नाश य़ाए थिले कुपुत्र,
खळ-सङ्गति य़ोगुँ चरित्र ।
लज्जा बिनाश लभइ मद्य-पाने,
कृषि नाश य़ाए बिना तत्त्वाबधाने ।
प्रबासे रहिले
सेनेह नष्ट होइथाए ;
प्रणय-बिहीने
मित्रभाब त नाश य़ाए ।
ऋद्धि बिनाश       लभे निश्चिते
कले अनीति सेबन ।
असाबधानता       रहिले दानरे
नष्ट हुअइ धन ॥
*
[४५]
मानब होइले निर्द्धन,
अर्द्धाञ्जळि          य़ब लाभ आशे
आकुळ हुअइ तार मन ।
बिभबे पूर्ण           हेले से मानब
अपर क्षणे,
सारा धरणीकि      तृणर समान
तुच्छ मणे ।
नियत रूपरे बस्तुमान,
नुहे बड़ अबा नुहइ सान ।
धनिक-जनर अबस्था एका जगतरे,
बृद्धि अथबा       हानि कराए से
बस्तुराशिर मूल्यरे ॥
*
[५३]
य़ेते बिद्यारे        भूषित हेले बि
दुर्जन,
उचित अटइ     करिबा ताहारे
बर्जन ।
मणि-मण्डित हेले निकर,
सर्प नुहे कि भयङ्कर ?
*
[५५]
य़दि लोभ अछि
तेबे किस आउ दुर्गुण ?
थिले खळ-पण
पाप-राशि आउ किस पुण ?
य़दि रहिअछि सत्य सार,
आबर कि अबा आबश्यकता तपस्यार ?
य़दि पबित्र अछि मन,
तीर्थरे किबा प्रयोजन ?
य़दि निज ठारे रहिछि सज्जनता,
तेबे त अन्य गुण-समूहर
किबा आबश्यकता ?
य़दि उत्तम महत्त्व अछि आपणार,
तेबे नानाबिध अलङ्कार कि दरकार ?
य़दि सुबिद्या रहिअछि पाशे
किबा दरकार आन धन ?
य़दि अछि अपकीर्त्ति निजर
मृत्युरे किबा प्रयोजन ?
*
[६३]
बिपद बेळारे धैर्य़्य,
क्षमा-गुण बहु सम्पदे ;
य़ुद्ध-समये शौर्य़्य,
बाग्मिता बुध-संसदे ।
य़श-अर्जने रुचि बिशेष,
अध्ययनरे मनोनिबेश ।
स्वभाब-सिद्ध गुण-निकर,
ए त महात्मा-जनङ्कर ॥
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[६७]
सलिळर नाम  न रहइ तिळे,
तपत लौहे  पतित होइले ।
नळिनी-पत्रे  रहिले से एका जळ
मुक्ता-आकारे  शोभा पाए ढळढळ ।
स्वाती-य़ोगे से त  पाराबारे,
शामुका-गर्भे              पड़िले सहसा
परिणत हुए  मुकुतारे ।
अधम हेउ बा मध्यम,
अबा हेउ य़ेते उत्तम,
प्राय लभिथाए गुण सरब, 
सङ्ग-बशरु समुद्भब ॥
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[७५]
स्वार्थ बरजि  परार्थ साधिबारे,
ब्रती सज्जन  बिरळ ए दुनिआरे ।
स्वार्थ न तेजि        करिथाआन्ति
पर-उपकारे उद्यम ;
साधारण जन-           गणङ्कर त
अटइ ए गति मध्यम ।
स्वार्थ साधन सकाशे
अन्यर हित-बिनाशे
य़ेउँमाने सदा चेष्टित,
सेमाने मानब-राक्षस ए त निश्चित ।
अकारणे य़ेहु अन्यर
हित नाशिबारे तत्पर,
सेमाने कि नामे हेबे गणा,
आम्भरे ताहा नाहिँ जणा ॥
*
[८५]
पिण्ड रूपरे     करिथिला निज
शरीर सङ्कुचित,
पेटिका भितरे       रुद्ध उरग
निराशारे बिचळित ।
न हेबारु किछि आहार,
शिथिळ थिला त इन्द्रियराजि ताहार ।
काहुँ आसि एक मूषिक
रजनीरे साजि पथिक,
छिद्र करि से पेटिकारे पशि बहने,
आपे निपतित हेला सर्पर बदने ।
तहिँ अय़ाचित  मूषिक-मांस
आस्वादि अहि  तुष्ट-मानस
क्षुधा आपणार निबारि,
मूषिक-खोदित      सेइ बिळ-पथे
सत्वर गला बाहारि ।
देख आहे जने !       दैब केबळ
ए बिश्वरे,
मानब-गणर         बृद्धि आबर
ध्वंस करे ॥
*
[९३]
करीर-तरुरे           पतर नाहिँ त
एथिरे कि दोष बसन्तर ?
दिबसे पेचक       देखि न पारे त
दोष एथि किस आदित्यर ?
चातक-बदने          न पड़इ य़दि
अम्बु-झर,
एथिरे कि दोष    रहिअछि भला
अम्बुदर ?
ललाट-पटरे पूर्बरु य़ाहा
रहिछि लिखन धातार,
ताहा अन्यथा  करिबा सकाशे
शक्ति बा अछि काहार ?
*
[९७]
बणे अबा रणे
अराति- गहणे,
अबा घोर जळे
दीप्त अनळे,
अबा महाजळधिरे
अबा पर्बत- शिरे । 
सुप्त थाउ बा   असाबधान बा
बिषम दशारे मुह्यमान,
पुरुषकु सदा         रक्षा करइ
पूर्बाचरित पुण्यमान ॥
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Odia Script Image : Niti-Sataka : 
Link: 
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