Mahākabi Kālidāsa (Oriya Poem)
By : Dr. Harekrishna Meher
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महाकबि काळिदास (ओड़िआ कबिता)
रचना : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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हे भारती-बरपुत्र ! कबिकुळ-इन्दु !
धन्य काळिदास तब प्रकृति- सुषमा ।
बितरिल जन-मुखे काव्य-सुधा-बिन्दु
बिश्वे बिरचिल रम्य अमिय उपमा ॥ (१)
दिलीप-गोसेबा नृप अज-बिळपना
जणाए तब अपूर्ब काव्य-सुमाधुरी ।
सीता-बनबास राम- बिरह-बेदना
करुण रस झराए हृदये सबुरि ॥ (२)
स्मर-भस्मे घोर तपे गिरीश-हृदरे
करे परबत-सुता प्रणय उदय ।
कुमार जनमे षड़ कृत्तिका-उदरे
भजइ तारकासुर- पराण बिलय ॥ (३)
ऋतुपतिरे तरुणी- चन्द्रास्य अबश्य
जगाए प्रेमिक-हृदे मोहन स्पन्दन ।
काम-रसायन-राशि प्रकाशि रहस्य
आलोड़इ सर्बकाळे कामी जन-मन ॥ (४)
धनपति-शापे राम- गिरि मध्ये य़क्ष
रहे बरषे समय प्रेयसी-बिरहे ।
जीमूतकु दूत रूपे पेषइ प्रत्यक्ष
दारुण कारुण्ये प्रेमी जन-हृद दहे ॥ (५)
नृपति अप्सराङ्कर मधुर मिळन
मुनि-अभिशापे मर्त्त्ये उर्बशी आगमे ।
शापान्ते चळइ स्वर्गे चाहिँ पुत्रानन
शोक-कल्लोळ उछुळे पुरुरबा-मर्मे ॥ (६)
नर्त्तकी-बिरहे बीर अग्निमित्र भूप
ब्यकत करन्ति भाब सखी-सन्निधाने ।
चरितार्थ हुए प्रेमे माळबिका-रूप
जागे अपूरुब भाब सुकृति बिधाने ॥ (७)
कण्व-तापस-नन्दिनी शकुन्तळा चारु
दुष्मन्त नरेश सङ्गे स्वर्गीय प्रणय ।
मुनि-शापे काळबशे बिच्छेद हेबारु
तब नब भाबनार दिए परिचय ॥ (८)
बिश्व-साहित्य-उद्याने काब्यर प्रसूने
सतत महके तब उपमा-सुरभि ।
हेल कबिकुळ-गुरु सुलेखनी-मुने
मर धामे अलौकिक काब्य-कळा लभि ॥ (९)
लोक-मुखे समुज्ज्वळ कीरति तुमरि
काळे काळे रहिथिब आहे कबीश्वर !
जने तब प्रिय बाणी गाइबे सुमरि
अमृत सन्तान तुमे अनन्त बिश्वर ॥ (१०)
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(This Poem was written on Date 5-6-1973)
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I saw and read many poems from the site.Really it is very heart touching poems. Thanks a lot sir.
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