Thursday, August 11, 2011
Tapasvini Kavya Canto-3 (‘तपस्विनी’ काव्य तृतीय सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)
TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-3 has been taken from pages 63-77 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya ‘
Link : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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Tapasvini [Canto-3]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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तृतीय सर्ग
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भागीरथी-तट पर लक्ष्मण
वैदेही को जब त्याग चले,
ससिन्धु वसुन्धरा में खरांशु-किरण
फैली थी विमल गगन के तले ॥
राम-रमणी की दुर्दशा देवराज्य को होगी दृश्य
तो लज्जा लगेगी अवश्य,
दिवाकर ने करके इस बात का ध्यान
मानो दी वह धवल जवनिका तान ॥
इस रहस्य को जानकर
बाहर दिखलाने दोष अंशुमान्-वंश का,
प्रदोष ने उठा दी सत्वर
धरा-पृष्ठ से वही जवनिका ॥
जब पुकारने लगे विहग
गगन-आंगन में ताराएँ जग
आकर एक के पीछे एक
सम्मिलित हो गयीं अनेक ॥
देखा, बैठे हैं एकाकी विजन में
विस्तृत आंगन में,
साश्रु-लोचन उदास-वदन
अंशुमान्-वंशी रघुनन्दन ॥
सोच रहे थे रघुवर :
‘राज-अधिकार है महादासत्व का बहाना ।
आसीन हो इस ऊँचे पद पर
प्रजा-चरणों में होता कष्ट ही उठाना ॥
जब मिल शत-शत जन
कहते मिथ्या वचन,
उसे मिथ्या जान भी उन्हें मान सर्वथा
बोली जाती उसे सत्य कथा ॥
प्रजा के शान्ति-याग में बलि हो जाता
राजा का सुख स्वाभाविक ।
दृढ़ धर्म-रज्जु से बँधा नरेश्वर
अपने कार्य में तनिक
हो नहीं पाता
एक पग भी अग्रसर ॥
किया जाता जो अभिषेक मंगल,
वह तो प्रोक्षण है केवल ।
चामर डुलाना, और क्या कहा जाय
मक्षी भगाने के सिवाय ?
सुख में निराशा नहीं रहती होगी कभी
देवता के हृदय में भी ।
इसलिये राजा है महान् देवता,
यश-पीयूष का सेवन करता ॥
प्रजा-रुधिर तो बिन्दु-बिन्दु जल ;
प्राप्त कर ऊँचा आसन
नरेश बन जाता बादल
करने प्रजा का कल्याण साधन ॥
धरती के जल में
वज्र नहीं रहता,
परन्तु बादल में
स्वभाव से ही रहता ।
प्रजा-कर-दण्ड
होता नहीं प्रचण्ड,
वह प्रचण्ड होता आकर
राजा के कर ॥
शम्पा की आग से भले
अपना हृदय जले,
दान करने उदक
बाध्य हो जाता बलाहक ॥
सुख त्याग कर सब
शासक नरेश्वर जब
प्रजा-मन में सन्तोष जगाता,
तब वह परम-पूज्य बन जाता ॥
महीमण्डल में राजपद सचमुच
स्वर्ग-सोपान का मस्तक समुच्च ।
यदि राज्य का अधीश्वर
अपने लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता,
तभी गभीर अधोगति पाकर
निश्चित नष्ट हो जाता ॥
ऐन्द्रजालिक समान
एक दण्ड पकड़ विद्यमान,
समभाव-सम्पन्न समदृष्टि डाल
राजत्व की डोरी पर नरपाल
स्वीकार कर सरलता,
अपने जीवन का विषय नहीं सोचता ॥
चरण स्थापित कर डोरी पर
मायाकार यदि होगा नहीं अग्रसर,
कुछ हँसी उड़ायेंगे बजा तालियाँ,
देगा वाद्यकार भी गालियाँ ॥
प्रेयसी-विरह से शिथिल कर जीवन अपना
यदि न रहूँगा मैं कर्म-तत्पर,
तब मनुष्य-समाज मुझ पर
बरसाएगा और भी भर्त्सना ॥
कहेगा संसार :
‘रामचन्द्र है कुलांगार,
रघुकुल में ले जनम
उसने विचार-कृपण बन
त्याग दिया अपना राजपन
वधू के वश में स्वयम् ॥’
उत्तम वानप्रस्थाश्रम का आश्रय,
परन्तु आया नहीं मेरा समय ।
फिर मेरे कार्य में व्रती रहने भरत
कैसे होगा सम्मत ?
अंक की वस्तु में घट जाती प्रीत
उसे नित-नित बारबार देखकर ।
अंक हो जाता जब शून्य प्रतीत,
तब अंक में शून्य लगाने पर
बहुगुणित होता जितना,
हृदय की प्रीत बढ़ जाती उतना ॥
अमर नहीं स्थूल तन,
अमर होता केवल मन ।
मन में संग जब
नहीं टूट जाता,
वही सुख ही तब
सच्चा सुख कहलाता ॥
दुनिया में पार्थिव वैभव से पला
कौन चिरन्तन रहता भला,
बाँध कनक-किरीट शीश विभूषित ?
यश और अपयश
न होकर काल-वश
उसके प्रतिवादी बन जाते निश्चित ॥
क्या स्वर्ग, क्या नरक,
हैं उनके गति-निर्णायक
स्वभाव से दुनिया के लोग ।
लोगों की बातें ठुकरा नीच मन
पाने अनित्य सुखभोग,
उसकी खोज में हो जाता मगन ॥
घर में नहीं तो क्या ?
मेरे हृदय के प्रेम-सरोवर में निकली
खिली है मेरी प्रिया
अमल कमल-कली ।
मानस-भ्रमर सानन्द
लूट रहा है मकरन्द ॥
तरसे हुए अरे नयनो !
क्यों पानी छोड़ रहे हो तुम दोनों ?
यदि सूख जाएगा सरोवर में पानी,
डगमगाएगी मेरी पद्मिनी रानी ॥
अरे वक्ष ! बन प्रस्तर का बाँध शक्तिशाली
तू बन्द कर दे नयनों की जल-नाली ।
अरे नासा-समीरण !
तू घना होकर न चल,
मेरे जीवन की शरण
काँप उठेगी विह्वल ॥
आयेगा लक्ष्मण,
बताएगा प्राण-संगिनी की बातें सारी ।
अरे दोनों श्रवण !
चञ्चल न हो, सब सुनोगे,
फिर त्याग दोगे
व्यथाएँ भारी ॥
अरे सन्तप्त चर्म !
हर लेगा तेरा स्वेद-नीर,
समीरण बहने लगा ।
व्यथाहारिणी पद्म-सौरभा सुभगा
प्रिया के कलेवर का सुगन्ध मनोरम
आहरण करके धीर-धीर ॥
कहता हूँ और एक बात ;
तुमलोग मन के साथ
सब सम्मिलित होकर
चलो हृदय-सरोवर ।
उधर अनन्त दिनों तक
रमते रहोगे रस-रंग में अथक ।
वहाँ खिली है नयी पद्मिनी
मेरी जीवन-संगिनी ।
स्मरण का सूरज वहीं सदा जगमगाता,
अस्त कभी नहीं जाता ॥
अरी रसना ! मेरी मान, वहीं मत रस,
तूने खाई है प्रजा की सम्पत्ति ।
जिसके धन से तू पली बस,
उसके नाम चलने न कर कोई आपत्ति ॥
विधान है दुनिया में जन-कल्याण साधन,
इसी कारण बचा है मेरा जीवन ।
अन्यथा क्यों भला
वज्र को पिघला
कर लेता पान
घृत के समान ?
मुक्त कर दूँगा शुक-सारी युगल,
पिञ्जरे से जाएंगे निकल ।
बीतने दो रयना;
तुझमें जगाने उत्तेजना
वे करेंगे नहीं पुनर्वार
‘सीता’ नाम उच्चार ॥
उस लाक्षारञ्जित-पदा के पास
चला जाएगा मृग-छौना ।
लाक्षा-रेखा है उसके गले का फाँस,
रंगीन पाट डोरी से बना ॥
केका-रव करके निरर्गल
क्यों रहेंगे फिर मयूर-युगल ?
किसका अनुकरण कर बोलेगा भीमराज ? [१]
उसे भी जाने दो आज ॥
कहाँ गौरव पाएगी वीणा,
मेरी संगीत-प्रवीणा
प्रिया के कण्ठ-संग बिना ?
वीणा यह जानकर
अपना भाग्य-दोष मानकर
रहेगी स्वर-हीना ॥’
तदुपरान्त नयन मूँद पलभर
चढ़ चिन्ता-शैल-शिखर
देखा राम ने, काल-प्रवाह भयंकर
तीव्र गति से है अग्रसर ॥
उसके गभीर गर्भ में उगकर
विलीन हो रहे समस्त चराचर ।
बुद्बुद की भाँति क्षणभर कोई रहता,
फिर कोई कुछ दिन ठहरता ॥
उस प्रबल वारि-धार में यश-पर्वत
उठा अपना शीश उन्नत
संकट की गिनती न कर
अटल खड़ा है चूम अम्बर ॥
उस पर्वत के सानु-देश में सती नारियाँ
ज्योतिर्मय वेश-सज्जित,
विहर रहीं स्व-स्व पति संग ले खुशियाँ
युग-युग युगल-भावान्वित ॥
पङ्क्ति-बद्ध सुन्दर
वहीं विराजित कई नरेश,
रत्नमय सिंहासन पर
दिव्य कुसुमालंकारों से भव्य वेश ॥
है जिनकी तनु-तरी
असाध्य-साधन-प्राप्त पुण्य-धन से भरी,
उन्हें ले रहे हैं हाथ पकड़ सादर
पर्वतवासी कविगण आकर ॥
कुछ दुराचारी धर्म न विचार
बलपूर्वक वहीं चढ़ चञ्चल,
पाकर कवियों के वज्रतुल्य मुष्टि-प्रहार
रहते अत्यन्त कष्ट से विकल ॥
आखें खोल सहसा राम ने
निहार उन लोगों की दुर्दशा इस प्रकार
अवलोकन किया सामने,
वसुन्धरा में परिव्याप्त है अन्धकार ॥
झिलमिल तारकाएँ सजाकर नील गगन
चमकाती रहीं अपने उज्ज्वल वदन,
परन्तु उपस्थित नहीं उधर
प्रियतम कलाकर ।
फिर भी उन सबका आनन्द
चल रहा अप्रतिबन्ध ॥
बोले रघुवर :
‘हे तारकागण !
चन्द्र की प्रीति-कारा के बन्धन में
ग्रस्त न होकर
विधि का विधान
तुमलोग मान
करती हो एकाग्र मन में
शिशुमार भ्रमण ॥
प्रियतम-विरह-व्यथा
दुर्विषह होने पर भी सर्वथा
दुनिया के लिये बिसर
समस्त दुःखभार,
कान्ति वितरने रहती हो तत्पर
अपने कर्मानुसार ॥
सिखला दो धर्मदीक्षा तुम्हारी
चलकर वाल्मीकि-आश्रम शीघ्र ही,
मेरे हृदय की चाँदनी प्यारी
अकेली बैठी रही,
नयनों से बरसाती होगी अश्रु-जल
मुझे ध्यान कर पल-पल ॥
बेला में इस निशा की
यदि रोती रहेगी व्याकुल-हृदया चक्रवाकी,
मेरी करुणामयी प्रिया खोकर चेतना
बचा नहीं पायेगी जीवन अपना ॥
दिखलाकर सरोवर
कुमुदिनियों का दोगी दृष्टान्त ।
सम्हालतीं अपना जीवन उधर
यद्यपि उगा नहीं प्रिय निशाकान्त ॥
पुनर्मिलन का विषय मेरी प्रिया
समझेगी नहीं विषम समस्या ।
हृदयों का मिलन
अत्यन्त मनभावन ।
तुम सभी तो जानती हो इसी को,
समझा दोगी प्रेयसी को ॥
इस विषय पर
पाएगी नहीं अवसर
मेरी सरोज-नयना प्रिया संशय का ।
तुमलोग निश्चित बतला दोगी
मेरा समस्त भाव हृदय का ।
देख तो रही हो, साक्षी बन जाओगी ॥
और भी प्रिया के गर्भ में ओतप्रोत
बह रहा है मेरी आत्मा का स्रोत ।
यह बात जब कहोगी तुम सभी,
इसे कदापि व्यर्थ नहीं बोल पायेगी वल्लभी ॥’
इसी से श्रीराम-हृदय को स्पर्श करने
क्या लाघव था समर्थ ?
दृष्टि-मार्ग पर बिछा तिमिर घने
तारकाएँ निहारने लगीं व्यर्थ ॥
न समझ गुणी का सद्गुण
जब कोई दोष देखने बन जाता निपुण,
उस दोषदर्शी की ऊँची स्थिति पर अपनी
होती विधि-कृत बड़ी विडम्बना भोगनी ॥
तारकाओं की थी भावना,
राम का दोष देख प्रसन्न करेंगी मन अपना ।
परन्तु निहार उनके हृदय की ऊँचाई
सबने शीश झुका अधोगति पाई ॥
श्रीराम का दुःख देखने विमुख होकर
उगे नभ में खेद-खण्डित-हृदय कलाकर,
यामिनी के आगमन पर
त्याग क्षीर-सागर ॥
उपहास-पूर्वक चक्रवाक की ओर
पुकारने लगा चकोर :
‘चिन्ता मत कर, चिन्ता मत कर,
तेरे ललाट-पट पर
लिखा गया है सही
केवल उपवास ही ॥’
वह कहेगा नहीं क्यों भला ?
दैव ने तो उसके मुख अमृत है डाला ।
उल्लसित-अन्तर बजाते ताली
दूसरों की विपत्ति देख वैभवशाली ॥
इधर सोच रहीं पिछली बातें मन-ही-मन,
मणि-रमणीय भवन,
गजदन्त-खचित शयन सुन्दर,
आडम्बर भरपूर
सब सुख त्याग बहुत दूर,
पूर्व-परिचित पत्र-निर्मित कुटीर के अन्दर
मृगचर्मासन-समासीन जानकी
विरहिणी गृहिणी श्रीराम की ॥
प्रियतम की प्यारभरी बातें मधुर
छेड़ रहीं निर्मल सुर
हृदय-फोनोग्राफ के भीतर
अपने आप प्रवेश कर ॥
सकल-भय-मोचन सुरुचिर सरल
मरकत-कान्तिमय बाहु-युगल
आन्तरिक ध्यान में अपने
स्पष्ट दीख रहे सिर के सामने ॥
रघुनन्दन के प्रियभाजन
विश्वस्त प्रहरी बन
निद्रा त्याग लक्ष्मण वीर
जैसे रहते साथ,
वैसे ही अपने हाथ
ले धनुष तीर
दृश्य हुए अदूर उसी क्षण में
स्मृति के दर्पण में ॥
उन्हें त्याग चुके हैं स्वामी और देवर,
इसी विषय सोचने पर
म्लान नयन बरसाने लगे जल,
जैसे तुषाराप्लुत कमल ॥
खाकर कई प्रहार
खर्जूर-ग्राही के हाथ से
छोड़ता रस जिस प्रकार
खर्जूर-तरु मौन अचल,
हो गयी क्षोभ-आघात से
सती की अवस्था अविकल ॥
इस तरह प्रिय प्रिया दोनों बारबार
स्मरण कर एक दूजे की भावराशि प्यारभरी,
बैठ दुःखासन पर ले धैर्य-तलवार
काट रहे थे सारी शर्वरी ॥
आत्मा-शिर-क्लान्ति से निकल
अविरल झर-झर,
पक्ष्म-गुल्मों को प्रक्षाल स्वद-जल
प्लावित करता रहा कपोल-परिसर ॥
चीत्कारने लगी निशा
उलूक-वेशा ।
धीरे-धीरे क्षीण हो चला जीवन ।
नभ में करके रुधिर प्लावन
किसी प्रकार बच गयी निशीथिनी
बनकर पलायन-पन्थिनी ॥
प्रेमिक-प्रेमिका-चरणों तले
करके अपना अहंकार विक्रय,
प्रसून-वेश ले
भूमि पर गिरी
तारकायें सारी
ढूँढने लगीं आश्रय ॥
त्याग समस्त छल अपने
शरण-वत्सल रघुवर ने
प्रतिष्ठित रखा उन्हींका सम्मान ।
साथ-साथ किया वर प्रदान,
‘तुम्हें युग-युगान्तर
स्थान प्राप्त होगा शीश पर ॥’
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[पादटीका : (१) भीमराज = नाना-स्वनकारी पक्षीविशेष ।]
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(तपस्विनी काव्य का तृतीय सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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