Tuesday, August 9, 2011

Tapasvini Kavya ‘Praak-Kathan’ (‘तपस्विनी’ काव्य ‘प्राक्‌कथन’/ हरेकृष्ण मेहेर)


TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)

Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[‘Praak-Kathan’ has been taken from pages 10-12 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

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Tapasvini [‘Praak-Kathan’]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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प्राक्‌कथन
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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विश्व-साहित्य में अनुवाद एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । विभिन्न-भाषा-साहित्यों के परस्पर भाव-विनिमय के लिये अन्य भाषा में अनुवाद करना अत्यन्त आवश्यक अनुभूत होता है । अनुवाद के माध्यम से साहित्य के तुलनात्मक विश्लेषण के साथ प्रसार का परिसर अधिक होता है । यदि अनुवाद न होता, तब विविध भाषा-वाङ्मयों से परिचित होने का अवसर उपलब्ध नहीं होता । किसी भी भाषा में अनुवाद करना सरल कार्य नहीं है । अनुवाद मूलभाषा का यथार्थ अनुगत होना चाहिये । एक साहित्य-कृति को, विशेषरूप से कविता को, भाषान्तरित करना न केवल आयास-सापेक्ष है, अपितु ज्ञान और प्रतिभा का निर्णायक भी । अनुवाद ऐसी एक विशिष्ट कला है, जो सभी के द्वारा सम्भव नहीं । यह कार्य बाह्य दृष्टि से सरल प्रतीत हो सकता है, परन्तु वास्तव में अनुभवी ही अनुवाद का श्रम और महत्त्व समझता है ।

स्वतःस्फूर्त्त मौलिक कविता-रचना में कोई प्रतिबन्ध प्राय नहीं होता । परन्तु अनुवाद में उपयुक्त शब्द-चयन, भाव की यथायथ सुरक्षा और लालित्य-माधुर्यादि की दृष्टि से अनुवादक एक निर्दिष्ट सीमा के भीतर बँधा रहता है । मूल भाव के आन्तरिक आलोड़न के कारण समयानुसार अनुवाद में भी स्वतःस्फूर्त्त पदावली के अभिव्यक्त होने में कोई अन्तराय नहीं रहता । मूल भाव की सुरक्षा के साथ अनुवाद की शाब्दिक मौलिकता तथा उपस्थापन-शैली भी प्रणिधान-योग्य होती है । मेरे अनुवाद में ऐसी अनुभूति हुई है । इस सम्बन्ध में कुछ अपनी बातें सविनय निवेदन करना चाहता हूँ ।

हिन्दी-अंग्रेजी-अनुवादों के माध्यम से महाकवि गंगाधर-मेहेर-कृत ‘तपस्विनी’ को परिचित कराने के उद्देश्य से मेरी आन्तरिक निष्ठा सहित आकाङ्क्षा जाग उठी थी सन् १९८२ के शेष भाग में । इन दोनों भाषाओं में सम्पूर्ण अनुवाद करने अक्टूबर १९८२ से लेकर जुलाई १९८३ तक अदम्य उत्साह और लगन के साथ मुझे बहुत श्रम करना पड़ा । उभय अनुवादों में अल्प कुछ स्थलों पर बाद में अति सामान्य परिवर्त्तन किया गया है ।

संस्कृत में अनुवाद करने की अभिलाषा मेरे मन में सुप्त रूप में थी । जनवरी १९९७ में बैंगलोर में आयोजित ‘दशम विश्व संस्कृत सम्मेलन’ में सक्रिय योगदान करने के उपरान्त मेरी आन्तरिक प्रवृत्ति ने ‘तपस्विनी’ का सम्पूर्ण संस्कृत अनुवाद करने मुझे विशेष उद्वेलित और उद्बुद्ध किया । फलस्वरूप १९९७ फरवरी-मार्च के अन्दर साग्रह परिश्रम पूर्वक मैंने संस्कृतानुवाद करने का परम आनन्द परितृप्ति के संग प्राप्त किया है । मेरे प्रत्येक अनुवाद में परमेश्वर की आशीर्वादात्मिका शक्ति प्रच्छन्न रूप से असीम प्रेरणादात्री बनी है ।

बरपाली में कवि गंगाधर-जयन्ती के शुभ अवसर पर ‘मेहेर ज्योति’ (अगस्त १९८३) पत्रिका में सम्पादक-मण्डली ने मेरे हिन्दी-अंग्रेजी-अनुवादों के बारे में स्वतन्त्र उल्लेखपूर्वक विज्ञापन दिया था । बाद में दोनों अनुवादों की कुछ पङ्क्तियाँ ‘सन् टाइम्स्’ (भुवनेश्वर), ‘सप्तर्षि’ (सम्बलपुर विश्वविद्यालय) और ‘झङ्कार’ (कटक) आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं । मेरे त्रिभाषी अनुवादों की अनेक पङ्क्तियाँ याजपुर की त्रैमासिक ‘बर्त्तिका’ के विषुव विशेषांक १९९९ में दीर्घ लेख के साथ प्रकाशित हुई हैं ।

तपस्विनी काव्य के मेरे अनुवादों के सारस्वत त्रिवेणी-प्रवाह में मैंने अपनी रुचि के अनुसार मुक्त छन्दोधारा के साथ व्यवहित तथा अव्यवहित मित्राक्षर में उपधा-मिलन का प्रयोग किया है । तीनों में अनुवाद-शैली प्राय एक जैसी है । उभय मित्राक्षर और अमित्राक्षर छन्द मेरे प्रिय हैं, फिर भी मित्राक्षर छन्द के प्रति मेरा विशेष आकर्षण रहा है । अतः तीनों अनुवादों में मित्राक्षर प्रयोग की दिशा में मैंने सारस्वत उद्यम किया है । काव्य के मूल भाव को पूर्णरूप से यथार्थ और अक्षुण्ण रखने का यथासम्भव प्रयास किया है, विशेषतः अपनी सरल ललित मौलिक शब्दावली के माध्यम से ।

समय ही सर्वशक्तिमान् है । सुयोग के अभाव के कारण अनुवाद कई दिनों तक पुस्तकाकार में अप्रकाशित रहा है । परम हर्ष का विषय है कि सम्बलपुर विश्वविद्यालय द्वारा हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन हो रहा है । इस अभिनन्दनीय दिशा में गुणग्राही आद्य उद्योक्ता मान्यवर कुलपति प्रोफेसर डॉ. ध्रुवराज नाएक महोदय के प्रति मेरा अशेष आन्तरिक आभार व्यक्त करता हूँ । हार्दिक उत्साह प्रदान हेतु माननीय प्रोफेसर डॉ. मधुसूदन पति महोदय का विशेष आभारी हूँ । अनुवाद में कोई त्रुटि रह गई हो तो सहृदय काव्यामोदी पाठक-मण्डली का क्षमाप्रार्थी हूँ । कृपया सूचना देने का कष्ट करेंगे ।

तपस्विनी-अनुवाद की दिशा में मेरे पूज्य पिता-माता, गुरुजनों, बन्धुजनों तथा विविध पत्रिका-सम्पादकों की हार्दिक सदिच्छा और प्रेरणा के लिये मैं सविनय आभारी हूँ । उन सभी का स्नेह सदैव स्मरणीय रहेगा । लब्धप्रतिष्ठ साहित्यिक डॉ. केशवचन्द्र मेहेर महोदय ने मेरे इस हिन्दी-अनुवाद में बहुमूल्य ‘भूमिका’ लिखकर मुझे कृतार्थ किया है । इसलिये उनके प्रति आन्तरिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ ।

विनयावनत
हरेकृष्ण मेहेर


भवानीपाटना
दिनांक : २०-७-२०००
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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