Friday, August 26, 2011

Tapasvini Kavya Canto-7 (‘तपस्विनी’ काव्य सप्तम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)


TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-7 has been taken from pages 121-146 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

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Tapasvini [Canto-7]
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तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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सप्तम सर्ग
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‘अरी सखी !’, बोलीं वैदेही,
‘मेरे दुःखों का कारण मेरा दुर्विपाक ही ।
मेरे कर्मों के लिये विधि का
दोष नहीं किसी प्रकार का ।
स्वभाव से मेरे स्वामी महीयान्
अपार कृपा-निधान ॥

प्रियतम से बिछड़ रह सकता जीवन अपना,
मन में एक पल भी न थी ऐसी कल्पना ।
घोर दुर्विषह दुःख मैंने झेले कितने
केवल स्वामी के पावन मुख दर्शन करने ॥

समाकर मेरे श्रवण-विवर
आशा उसी समय
सान्त्वना-मन्त्र बनकर
हर लेती मेरी मुमूर्षा को निश्चय ।
अभी मृत्यु हो चुकी
उसी आशा की ।
स्मृति में उसे लाकर मेरे प्राण
हो रहे दग्ध म्रियमाण ॥’

बोली सहचरी :
‘सखी जानकी !
आशा कैसी थी, क्यों मरी,
मैं समझ न सकी ।
तुम-जैसी साधवी सुमती
झेल दारुण दुःखाघात
न विधि की निन्दा करती,
यही तो विचित्र बात ॥’

सती बोलीं : “ सहचरी !
सुनकर मेरी कहानी दुःखभरी
हो जायेगी ज्ञात
तुम्हें सारी बात ।
मैंने किया जैसे
घोर दुःखों का आमन्त्रण,
फिर आया जैसे
मेरी आशा का मरण ॥

पञ्चवटी में कुटीर के निकट एकदिन
विचरने लगा सानन्द एक स्वर्णिम हरिन ।
चित्रित अंग उसका चिक्‌कण सुन्दर
चमकने लगा भानु-रश्मि का संग पाकर ॥

थी उसके स्वर्णिम अपघन में
जो चित्र-बिन्दुओं की कान्ति मनोरम,
उसने मेरे नयन में
जगाया रत्नों का भ्रम ॥

पहले कभी उस-जैसा मृगवर
हुआ नहीं था मेरा लोचन-गोचर
अपने राजभवन में,
नगर में या कानन में ॥

सोचा मैंने,
‘जब नगर लौट चलूंगी,
तब साथ अपने
उस मनोहर हरिण को ले लूंगी ।
विस्मित करा दूंगी
नगरवासियों का मन,
संग-संग करूंगी
कानन-सौन्दर्य-राशि वर्णन ॥’

मैंने उसे पकड़ने आहार दिखलाया,
परन्तु वह चौंककर समीप न आया ।
लुभाकर मेरा मन,
रमाकर मेरे नयन
बारबार जाकर
घुस गया कानन के भीतर ॥

उसीके कारण
जब मेरा अन्तःकरण
व्यग्र हो उठा अत्यन्त,
मेरे प्राणेश्वर
सस्नेह बोले तुरन्त :
‘पूरी करूंगा, अरी प्यारी !
उत्सुकता तुम्हारी
उस रमणीय हरिण को लाकर सत्वर ॥’

मृग के पीछे-पीछे रघुवीर
चले तुरन्त ले हाथ में धनुष तीर ।
उसे अनुसरण कर अति शीघ्र चल
मेरी दृष्टि-सीमा से हो गये ओझल ॥

हुई कानन के भीतर
‘रक्षा करो लक्ष्मण’ ध्वनि श्रुतिगोचर ।
उस पुकार से हो गया विकल
मानस मेरा उसी क्षण ।
उधर मन संग दिया श्रवण-युगल ।
‘रक्षा करो लक्ष्मण’
वही पुकार
गूँज उठी पुनर्बार ॥

समीप मेरे थे देवर
लक्ष्मण वीरवर ।
कहा अधीर-मन मैंने :
‘देखो वत्स ! संकट आया ।’
मेरे मन में आश्वासना देने
उन्होंने समझाया :
‘भय न करना, देवी !
वह भाषा नहीं राघवी ॥’

अरी सखी ! वीर का स्वभाव सही
समझते वीर पुरुष ही ।
देखा मैंने उसी क्षण
धीर गम्भीर खड़े हैं लक्ष्मण ॥

नारी का हृदय
दुर्बल है स्वाभाविक ।
उनके वचन से मैं उसी समय
होने लगी विकल अधिक ॥

बिनती के अनन्तर
कटु वचन कहकर
उन्हें प्रेषित किया मैंने
शीघ्र स्वामी के समीप चलने ।
मेरी सुख-सौभाग्य-सम्पदा सभी
बह गयी उनके प्रस्थान की धारा में तभी ॥

विपत्ति वहाँ शरीराकार
योगीन्द्र-वेश भिक्षुक बनी मेरे द्वार ।
स्वामी के प्रत्यावर्त्तन तक उधर
न करके प्रतीक्षा,
अड़ा रहा वह अधम पामर
पाने अपनी भिक्षा ॥

भिक्षादान के समय बलपूर्वक उसने
मेरा हाथ पकड़ सत्वर
बिठाया मुझे विमान में लेकर ।
मैंने विनय किये कितने,
तर्जनाएँ दीं कितनी,
परन्तु दुष्ट ने कुछ न सुनी ॥

जाना मैंने उसी क्षण,
वेश नहीं गुण का लक्षण ।
साधुवेश बाह्य आकार,
परन्तु आभ्यन्तर अन्यप्रकार ।
लोग मानते धर्म सर्व-मंगलकारी,
कौन जाने, यम है धर्म-नामधारी ॥

दक्षिण दिशा की ओर
दुष्ट ने चलाया विमान,
घनघोष से हो उठा जोर
व्योम-मार्ग कम्पमान ।
मैंने जितने भी उच्च स्वर
किये क्रन्दन दीन,
घोर घर्घर रथ-नाद के अन्दर
सब हो गये विलीन ॥

देखा मैंने निम्न की ओर,
मुझे निहार रो रहे थे वन में कई मोर ।
दल-दल मृग उधर
मस्तक उठाकर
रहे थे रथ निहार
त्रस्त नयनों में बारबार ॥

मार्ग रोक युद्ध किया एक पंछी ने,
परन्तु दुष्ट ने उसके पंख छीने ।
लेकर प्रतिकूल प्रवाह
रोक न सका समीर दुष्ट की राह ॥

मार्ग के ऊँचे पर्वत
शीश उठाकर समस्त
वहाँ रोक न सके
उस विमान को विहायस के ।
मर्त्त्यवासियों को देने के लिये वार्त्ता
नीचे देख रही मैं दीन-नयना आर्त्ता ॥

रथ-घोष में मेरी पुकार सकल
हो जायगी निष्फल,
मानस में मैंने यही विचार
नीचे गिरा दिये सब अलंकार ।
देखा मैंने, व्याकुल सरिताएँ उस पल
शीर्ण-काया में जैसे हो गयीं निश्चल ॥

संकुचित-कलेवर
ऊँचे-ऊँचे वृक्ष सारे
सिमट गये परस्पर
उस पामर के भय के मारे ।
धरती धीरे-धीरे हो गयी चुप,
हरिण विहंगम सभी गये छुप ॥

दृश्य हुईं धीरे घनी नीलिमाभरी तब
तीन दिशाएँ पश्चिम, दक्षिण और पूरब ।
धरा-लक्षण कुछ भी न हुआ दृश्यमान,
उसके भीतर दुष्ट ने चलाया विमान ॥

आगे दृश्य हुई दिशा की छोर उजली,
मैंने धीरे-धीरे उसे वनाग्नि-शिखा समझ ली ।
रथ चला जितना समीपतर
अनगिन आलोक-पुञ्ज जगमगाये उधर ॥

सोचा मैंने : ‘ताराएँ छोड़कर व्योमस्थल
झुण्ड बना दिवस में चमक रहीं समुज्ज्वल ।
चन्द्रमा के विरह से गगन-मण्डल त्याग
जला रहीं हृदय में विरह की आग ।
या मर्त्त्यलीला समाप्त हो गयी मेरी,
प्रवेश कर रही हूँ यमराज की नगरी ॥’

देखा मैंने, मनोरम सौधावली
काञ्चन-कलसों से सुशोभित उजली ।
धीरे-धीरे उस नगरी में विशाल मनोहर
भवन-वीथियाँ हुईं दृष्टिगोचर ।
दिनकर ने उसी नगरी को है सजाया,
अपने करों से भवनों के मस्तक पर
कलसों को रञ्जित कर
है दीप्तिमान् बनाया ॥

विचार आया मेरे मन में उसी समय,
वह योगी यमदूत है निश्चय ।
मैं सदर्प दृढ़-मन
प्रवेश करूंगी यम-दरवार,
उठाकर अपनी तेजधार-सम्पन्न
दीप्तिभरी पतिभक्ति-तलवार ॥

नगर-प्रान्त में योगी रथ से उतर
एक उद्यान का मार्ग निहार हुआ अग्रसर ।
मनोरम संगमर्मरों से बनी
वही राह थी सुहावनी ।
विविध पुष्प-फलों से उद्यान
था अत्यन्त शोभायमान ॥

वहाँ अधिकतर अशोक पादपकुल
पुष्प-पुञ्जों से दीखते सुमञ्जुल ।
उद्यान-मध्य में एक समुज्ज्वल भवन
नाना रत्नों से था नेत्र-रञ्जन ॥

योगी मुझे बोला : ‘ वहाँ करो अवस्थान,
मन में प्रियतम के बिना
विरह मत करो गिना ।
हो गया अवसान
तुम्हारे वनवास-दुःखों का ।
सारे स्वर्ग-सुखों का
भोग करो ऐश्वर्य
इस देश में भर अपूर्व सौन्दर्य ॥

त्रिलोक में जो द्रव्य-लाभ दुष्कर,
अब तुम्हारे चाहने पर
सब कुछ अनायास
सुलभ हो जायेंगे पास ।
सहस्र सुन्दरियाँ प्यार दरशाकर
दासी बनेंगी तुम्हारे कमल-पैरों में आकर ॥’

बुलाकर सहस्र रमणियाँ रत्नभूषा-मनोरमा,
उन्हें दृढ़ समझाकर बोला योगी,
‘इसे जानकर मेरी हृदयेश्वरी प्रियतमा
तुम सब सभक्तिक सेवा करती रहोगी ॥

पास नित्य सेवा करोगी
उसके मानस अनुसार सर्वथा
और सुनाती रहोगी
मेरे प्रतापों की गाथा ।
मेरे विपुल वैभव में जैसे
रम जाये उसका अन्तःकरण,
यत्न करती रहोगी वैसे
तुम सब प्रतिक्षण ॥’

अदृश्य हो गया योगी कहकर इतना,
विस्मय से भरा मेरा हृदय अपना ।
वह योगी कौन भला ?
मुझे कहाँ ले आया ?
उसका नगर क्या ?
मुझे कुछ पता न चला ॥

बन गयी मैं कैसी
योगी की हृदयेश्वरी प्रेयसी ?
तनु धारण कर राघव-पत्नी की
अभी जीवित हूँ जानकी ॥

मेरा तो हुआ नहीं निधन,
अब मुझे है स्मरण,
श्रीरामचन्द्र कौशल्या-नन्दन
मेरी एकमात्र शरण ॥

हृदय में फिर दृढ़ निश्चय किया,
जो कोई हो योगी, इससे भय क्या ?
जीवन में जब तक रहे स्मरण,
कौशल्या-नन्दन ही मेरी शरण ॥

चाहे हो यह यम-नगर या स्वर्गस्थल,
विहरते होंगे यहाँ देव सकल,
कौन हर सकेगा मेरा मन ?
मेरी शरण केवल कौशल्या-नन्दन ॥

सहस्र सेविकाओं का मुझे प्रयोजन क्या ?
और मेरा अवगाहन या भोजन क्या ?
करते होंगे भ्रमण
कानन में मेरे प्राणेश्वर,
निविष्ट रहेगा मेरा अन्तःकरण
उनके श्रीचरणों में ही निरन्तर ॥

सुन्दर वीणाहस्ता शत सरस्वतियाँ आयें
और मेरे समीप संगीत सुनायें,
मेरी श्रुति में कहाँ हो पाएगा उसका मूल्य
प्रिय-मुख से निःसृत एक पद तुल्य ?

इसप्रकार करके अनेक भावना
प्रिय-चरणों में लगाकर ध्यान
खो दिया मैंने जीवन का ज्ञान ।
किस प्रकार कितना काल बीता,
अन्य कुछ न जाना
बिना पति-चिन्ता ॥

परन्तु उस राज्य में दिन और रात
मुझे देव-समय सम हुए प्रतिभात ।
माना मैंने उसे देवभुवन,
देव-साहस से भर लिया जीवन ॥

ईश्वर से प्रार्थना मैंने की
देव-शक्ति पाने की,
देवी-हृदय की समुचित
पति-भक्ति सहित ।
आशा रही पाने पति-चरण-सुधा,
बिसर गई मैं सारी पिपासा, सारी क्षुधा ॥

दासियाँ लाकर नाना अंगराग सिंगार
विविध अलंकार,
विविध आहार,
चाटुवाणी बोलीं अनेक प्रकार ।
परन्तु मेरा अन्तःकरण वहीं
कभी आकर्षित हुआ नहीं ॥

दासियों के कथालाप से
धीरे-धीरे मैं जान गयी,
अपने अमित प्रताप से
रावण वह त्रिलोक-जयी ।
सुनकर उसका नाम
देवराज इन्द्र को भी लगती शंका ।
है उसका धाम
पारावार-परिखायुत लंका ॥

उस राज्य को मैं सीता
हो चुकी हूँ आनीता ।
छद्म योगीवेश करके धारण
हर लाया है दुष्ट रावण ॥

उसके भवन नगर
सब अनुपम सुन्दर,
नर-किन्नरों का प्रवेश उधर
अत्यन्त दुष्कर ॥

जहाँ उसका मन लगता,
कार्य सिद्ध करते भय से सभी देवता ।
उसके नयनों में रक्तिमा आने पर
ब्रह्मा के चित्त में जागता विपत्ति का डर ॥

श्रवण करके नाम रावण राक्षस का,
मैं जान गयी उसे,
चूर्ण हुआ था गर्व जिसका
माहेश्वर-धनु से ।
सोचा मैंने, कितना साहस किया है श्वान ने
यज्ञ-पीयूष पान करने ॥

सचमुच एकदिन अग्नितेज लेकर
खड़ा हो गया मेरे समीप वह पामर ।
पापभरे वचन में,
पापभरे मन में,
सुनाकर आत्मगौरव अपना
पापी बकता रहा कितना ॥

देख मेरी दुःख-घनघटा की अश्रुधार
हट गया वह ले अहंकार-अन्धकार ।
मेरी उस घटा के भीतर अचानक
भयंकरी आशा-विद्युत की
छटा गयी चमक
उस दुष्ट धूर्त्त की ॥

सखी ! जिस दिन से मुझे ज्ञात हुआ,
पापी दानव ने है मेरा हाथ छुआ,
तब स्पर्श-स्थान से उठकर
फैल सारे कलेवर
असहनीय जलन
अस्थिर कर रही मेरा जीवन ॥

शरीर के सारे रोम हुए मुझे भान
विष-लिप्त वाणों के समान ।
व्याध-तीरों से आहता
मृगियाँ कोमलांगी
कैसा दुःख सहती होंगी,
मेरा मन सोचता ॥

दुःसह दुःख हृदय में झेलकर
चित्त दृढ़ लगाया मैंने धर्म पर ।
भरोसा रहा मेरा अटल,
सर्वदा धर्म ही अबला का बल ॥

अज्ञानवश मैंने भिक्षा दी थी एकबार
अधम राक्षस को हस्त पसार ।
यदि वह पापी इस पल
प्रदर्शन करेगा अपना बल,
मार डालूंगी उसे
या मरूंगी उसके बाहु से ॥

यदि दुनिया में सत्य है धर्म
देखेगी दुनिया मेरा अद्भुत कर्म ।
पाप-कार्पास हो भी पर्वत समान,
उसे भस्म करता पुण्य-वह्निकण शक्तिमान् ॥

देखो सजनी ! धर्म ने सत्य बन
मेरे प्राणों में किया अमृत-सा सिञ्चन ।
आकर कोई कपिवर
दे गया मुझे स्वामी की खबर,
रचा उसके बाद
रावण के विरुद्ध विवाद ॥

रघुवर ने वानर-बल संग ले तुरन्त
सिन्धु-नीर में सेतुबन्ध निर्माण करके,
लांघ दुस्तर विस्तारित जल
किया लंकापुरी पर प्रबल
आक्रमण दुरन्त,
शंका भर दी प्राणों में दानवेश्वर के ॥

आरंभ किया दुष्कर
याग संग्राम का,
वानरों का गर्जन सुनकर
शंकित हो उठी लंका ।
राक्षस-कुल में बली थे जितने,
आकर सब उस याग में बलि बने ॥

धर्म-मार्ग पर केवल एक था
राघव-चरणों की शरण में सर्वथा ।
अभय सुमन-माल्य कण्ठ पर धारण कर
अटल यूप बना महायज्ञ में उधर ॥

बह गये थे मेरे जितने लोतक,
उनके कोटि-गुणों तक
वहाँ बह गये फिर
राक्षसगण के रुधिर ।
लंकानगरी का अधीश्वर
पाकर अतिशय शंका,
शोक-समुद्र में बहकर
ग्रास बना प्रभु के शर-ग्राह का ॥

बोले मुझे बुलाकर तदुपरान्त
निहार स्नेह-हीन नयनों से मेरे प्रियकान्त,
‘कुसंग से बढ़कर नहीं होता
संसार में कोई पातक ।
कुसंगी के संग से मिलता
सन्ताप अत्यन्त हानिकारक ॥

तुम थीं मदनान्ध दानव के पाप-भवन में;
तुम्हारे चित्त में जागी होगी पाप-वासना,
यही है संभावना ।
इसलिये तुम्हें पुनर्बार
मैं कर नहीं सकता स्वीकार,
स्वीकारने से होगी लोक-निन्दा हमें ॥

जब जलद का जल निम्न-गति करता,
बादल उसे क्या फिर रख सकता ?
अग्निशिखा समान अग्नि में दग्ध हो वही जल
बादल से मिल पाता फिर ऊपर को चल ॥’

सोचा मैंने : ‘किया था अपना जीवन धारण
केवल सेवा करने प्रभु के कमल-चरण ।
चरण-स्पर्श करने मैं यदि नहीं योग्या
मुझे जीवन की और आवश्यकता क्या ?

निहार-निहार प्रभु का वदन
जला दूंगी अपना कलेवर,
मेरा सुख-अर्जन
क्या हो सकता इससे बढ़कर ?
तनु भस्म होने पर मेरे प्राण निश्चय
प्रभु के श्रीअंग में प्राप्त करेंगे आश्रय ।
धर्म-बल से यदि बचेगा शरीर किसी प्रकार
प्राप्त करूंगी प्रभु का द्विगुण प्यार ॥’

बोली मैं तदनन्तर,
‘प्रज्वलित किया जाये वैश्वानर ।
उस में अवगाहन करने
यह दासी प्रस्तुत है सामने ॥’

अकुण्ठ-आज्ञाकारी लक्ष्मण ने सकुण्ठ-मन
कर दिया सत्वर अनल-प्रज्वलन ।
धधक उठीं अग्नि-शिखाएँ वायु-वेग से प्रलम्ब,
व्यग्र हुईं उछलने अम्बर में अविलम्ब ॥

डालकर नयन प्यासे
प्रभु के मुखारविन्द पर,
अग्नि-समीप चल हृदय-बल से
मैं कहने लगी उधर :
‘हे सूर्य ! चन्द्र ! अनिल ! अनल ! विहायस !
तुम सब जानते हो प्राणियों का मानस ।
राघव के बिना अन्य व्यक्ति में यदि किंचित्
हुआ होगा मन मेरा प्रणय से आकर्षित,
तुम तो सर्वभक्षण-दक्ष हो अनल !
मुझे भस्म कर दो इसी पल ॥

रावण की नगरी के अन्दर
रही थी मैं बन्दिनी बनकर ।
मुझे यदि उलझाया होगा उसने
पाप आचरण करने,
तब प्रभु के चरण-पंकज पावन,
कोटि जन्मों तक
नहीं कर पाऊंगी दर्शन,
मुझे भस्म कर दो, हे पावक ! ॥

कौन पापी, कौन पुण्यवान्,
तुम्हें नहीं पहचान ।
अपने धर्म के कारण
करते हो सबके प्राण हरण ।
यदि धर्म विश्व में शाश्वत सत्य विदित,
मेरा धर्म मुझे अपवाद से बचाएगा निश्चित ॥

हे धर्म ! मेरे तन में
अपने गुणों के साथ निवास करो ।
मेरे संग ज्वलन में
समा जाओ, मत डरो ।
जीवन में न कर सकोगे
तो मेरी मृत्यु के बाद,
मुझे दासी बना दोगे
सेवा करने प्रभु के पाद ॥

राख तो होगा मेरा तन जलने के बाद,
उसे करवादोगे किसी तरु की खाद ।
बर्धकी के हाथों काष्ठ देकर उस तरु का
मुझे बनवादोगे प्रभु की युगल पादुका ॥’

उधर बारबार
प्रभु का श्रीमुख निहार
अनल में जाकर
समा गयी मैं निडर ।
देख यही गति
रोए रघुपति ।
रोए लक्ष्मण भी,
करुण स्वन में सैनिक सभी ॥

अनगिन नयनों में अश्रुजल
उछल गया प्रबल ।
मैं कारुण्य-नीर में हो गयी मगन ।
वहाँ मुझे अनल
अनुभूत हुआ सुशीतल,
हाहाकार से व्याप्त हुआ सारा गगन ॥

हुआ मेरा अनुकूल आकाश-वचन,
जान सके प्रभु मेरा सतीपन ।
धर्मवश बुझ गया वैश्वानर,
धर्म-बल से बचे मेरे प्राण उधर ॥

मेरे दुःख समस्त हो गये भस्मसात्,
प्रभु-पद की दासी बनी मैं सौभाग्य-वशात् ।
सोचा मैंने : ‘कष्ट से कितने
था जीवन बचाया,
इसी कारण ही अपने
प्रभु का चरण-कमल पाया ॥’

दिव्य रथ में मुझे बिठाकर
साथ ले असंख्य राक्षस वानर
अयोध्या-नगरी की ओर
विजयोल्लास-सुख में विभोर,
लौट चले प्रभु रघुवर
विहायस-मार्ग पर ॥

मैंने विरह-मरुप्रदेश करके पार
शुष्क प्राणों में पाया प्यार का पारावार ।
प्राणों में हुआ अपूर्व सुख का सञ्चार,
मैंने आनन्दमय माना संसार ॥

अपने जीवन में यदि छा गया है दुःख,
सारे विश्व में दिखाई पड़ता नहीं सुख ।
जब होता अपने जीवन में सुखोदय,
सारा संसार दीखता सुखमय ॥

जिस रथ पर गिर
पड़ी थी मैं विपत्ति-कूप में,
उसी रथ पर फिर
चढ़ गई सम्पत्ति-स्तूप में ।
जिसे देख-देख थी मैं रोदन-विकला,
उसे देख-देख आनन्द बढ़ता चला ॥

विचित्र गति से चल
रहा था रथ रत्न-समुज्ज्वल ।
नीचे अथाह सागर,
ऊपर बलाहक,
समस्त सरिता पादप भूधर
हुए मेरे नयनों के अपार हर्षदायक ॥

पूर्व निवास सभी वनस्थल,
विहार-निकुञ्ज-पुञ्ज, मनोरम सानुमान्,
धूम-जटिल ऋषि-आश्रम सकल
मेरे अन्तःकरण को कर रहे थे आह्वान ॥

व्यस्त-केशा मुनिकुमारियाँ
रथ का घर्घर स्वर
दूर से सुन चकित-अन्तर,
वदन उठाकर रही थीं निहार
मेरे मन में करके वहाँ
विगत सुखों की स्मृति सञ्चार ॥

उनके प्यार पावन,
सानन्द आदर अपार,
कोमल मधुर वचनों से सुन्दर अधर,
ममताभरी शान्त भोली चितवन,
सब बरसाने लगे अमृत की धार
मेरी स्मृति की भूमि पर ॥

क्रमानुसार कुमारियों के सारे नाम
निर्मल बने अरविन्द रूप अभिराम
वहाँ विकसित होकर,
घोर विरह-निशान्धकार के अनन्तर
सुख-प्रभात के आगमन पर
मेरे मानस-सरोवर के भीतर ॥

उनके सारे पिछले भाव-सौरभ ने मन्द-मन्द
मेरे प्राणों में भर दिया अनन्त आनन्द ।
करके कानन दर्शन
तृप्त नहीं हुआ था मेरा मन,
हुआ स्यन्दन उधर
तीव्र वेग से अग्रसर ॥

नैसर्गिक शोभा-भवन मनोरम बन का
परिहार मन मेरा कर न सका ।
फिर मगन था गगन में, स्यन्दन में
वह मन अपना,
लगा उधर अयोध्या-भुवन में
करने श्वश्रू-पद वन्दना ॥

श्याम-सुन्दर कान्तिमान् कान्त को साथ लेकर
त्रिस्थल के सुहाने रंगों में विहर
हुआ मेरा मन अर्धमण्डलाकार शोभायमान
अभिनव जलद में इन्द्रधनुष के समान ॥

प्राण-प्रतिम पुत्र के वन-प्रस्थान अनन्तर
मेरे श्वशुर अयोध्या-अधीश्वर
बुझाकर अपना जीवन-दीपक दुःखित-मन
चले गये इन्द्र के पास स्वर्गभुवन ॥

देखकर राज्य अराजक
कानन पहुँचे भरत देवर
स्वामी के पास सत्वर,
बोले कृताञ्जलि-पूर्वक
दुःखित-मन सविनय ।
चित्रकूट में थे हम उसी समय ॥

बहुत बिनती कर वीर भरत ने
स्वामी से कहा महीपति बनने ।
पितृभक्ति और भी करके दृढ़तर
सम्मत न हुए राघव उन बातों पर ॥

बोले : ‘ पिताजी ने अपना शरीर त्याग दिया,
परन्तु सत्य भंग नहीं किया ।
पितृ-पालित उस धर्म-विहंग का गला
कैसे घोंट दूंगा अविवेक होकर भला ?’

स्वामी-चरणों में गिर
भरत ने रो रोकर कहा फिर,
‘भ्रात ! अपने पास
मुझे बना लीजिये चरणों का दास ।
अस्ताचल चलते तपन
जब छोड़कर धरती,
उन्हें उनकी किरन
क्या त्याग सकती ?’

प्रभु बोले : ‘रजनी में वितर प्रकाश प्यारा
मिटाते चन्द्रमा धरती का दुःख सारा ।’
भरत ने उत्तर दिया करके बिनती :
‘प्रभो ! सूर्य की प्रभा चन्द्रमा को मिलती ।
आपकी रत्न-पादुका लेकर व्रती
सम्हाल सकेगा मेरा शीश,
धारण करते धरती
जैसे शेष फणीश ।
मेरे सिर पर जब पादुकामणि भाती रहेगी,
बैरी-दुनिया मुझे भुजंग समझेगी ॥’

किया पादुका-युगल अर्पण
प्रभु ने भरत के हाथों उसी क्षण,
मस्तक पर उसे स्थापन किया भरत ने ।
अश्रुल-नयन लौट वे वीरवर
तत्पर हो गये तदनन्तर
राजलक्ष्मी का दुःख हरने ॥

चौदह वर्षों का जब हुआ अवसान
वे निहार रहे थे पन्थ ।
पहुँच गया विमान,
वहीं से अवतरण कर तुरन्त
मैंने सादर ग्रहण कर ली
श्वश्रुओं की चरण-धूली ॥

पाकर सानुज सपत्नीक प्रभु के दर्शन
भरत ने आनन्द-नद में डुबाया मन ।
चरणों में प्रत्यर्पित की युगल पादुका,
छत्र-चामर से पूजन किया प्रभु का ॥

मेरे स्वामी राजा बने,
मैं बनी राज्ञी उनकी ।
प्रभु-मानस-अनुकूल मैंने
श्रीचरणों में सेवा की ।
अभिलाषा जो मेरे मानस में आती,
शीघ्र वह सम्पादित हो जाती ॥

राजदम्पति हम प्रीति-नौका में बैठकर
सुख-सिन्धु में लगे रमने ।
सम्पदा-ऊर्मियों में कई संवत्सर
सकौतुक डुबा दिये हमने ॥

जाना था किसने,
मेरे ललाट पर
लिखे हैं दैव ने
अनगिन दुःखों के अक्षर ?
विपत्ति-रूप बड़वानल उपज भयानक
समस्त ध्वस्त कर देगा अचानक ?

दिवस-कान्ति-शेष से प्रतीयमान
रंगीन गगन के समान
भाग्यावसान के समय
हुआ मेरा गर्भोदय ।
दोहद-पूर्त्ति के लिये प्राणेश्वर
तत्पर हो गये अत्यन्त स्नेहभर ॥

‘करना चाहती मैं वन-विहार
वन-बान्धवी के संग, प्राणनाथ !’
एक दिन प्रियतम के पास इस प्रकार
अभिलाषा अपनी
व्यक्त की मैंने ।
उसी रात सजनी !
प्रभात के पूर्व ही स्वामी ने
भेज दिया मुझे लक्ष्मण के साथ ॥

लक्ष्मण ने गंगा-तट पर
मुझे पहुँचाया
और नौका से अवतरण कर
धीरे से जो बताया ...”
कहकर इस प्रकार
कण्ठ सती का रुद्ध हो गया ।
आगे दारुण दुःख निहार
रोने लगीं वैदेह-तनया ॥

अविरल अश्रुधार में बहती हुई इन्हें
शीघ्र थाम लिया मुनिकुमारी ने,
और मिलाकर वदन से वदन
किया करुण क्रन्दन ।
तापसियाँ उसे करके श्रवण
दौड़ चली आईं उसी क्षण ॥

दोनों को संग अपने
तुरन्त कुटीर में लाकर
लगीं इधर-उधर की कई बातें कहने
उनका मानस बहलाकर ।
वृक्षों में नीर-सिञ्चन,
कुसुमराशि-चयन
आदि कई बातें करते-करते तभी
निद्रा की गोद में मग्न हो गयीं सभी ॥

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(तपस्विनी काव्य का सप्तम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]

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