Sunday, August 28, 2011

Tapasvini Kavya Canto-6 (‘तपस्विनी’ काव्य षष्ठ सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)


TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-6 has been taken from pages 101-120 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

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Tapasvini [Canto-6]
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तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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षष्ठ सर्ग
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एक दिन अम्बर में उठ चले चन्द्रमा
साथ ले चित्रा प्रियतमा ।
वन में खिलने लगीं
विमल नवमालिकाएँ ।
विकसित पुष्प-गुच्छ धारण कर
प्रमुदित-अन्तर
धीरे-धीरे डोलने लगीं
आश्रम की मल्ली-लतिकाएँ ॥

माधवी-वकुल-मल्ली-नियाली
सुमनों का सौरभ सम्भार
ले मन्द-मन्द कर रहा स्वच्छन्द विहार
समीरण तमसा के पुलिन पर,
सुन्दर उजली
चाँदनी को गले लगाकर ॥

सती-कुटीर के निकट ले आकार
अनेक प्रकार,
तरु-छाया में खण्ड-खण्ड चन्द्र-रश्मियाँ कोमल
धीरे-धीरे प्राची दिशा की ओर आगे चल
घटाती थीं कभी अपना शरीर
कभी बढ़ाती, कभी छुपाती फिर ॥

जगमगा रही शीतल चाँदनी सुन्दर ;
बैठी थीं सती मैथिली
कुटीर से थोड़ी दूरी पर
साथ ले अपनी सहेली ।
सती के समीप चाँदनी ऐसी थी भा रही,
मानो सती के अंगों से निखर आ रही ॥

खद्योत युगल उसी समय
एक ही पत्र में ले आश्रय
रहे थे द्युति वितर
चन्द्र से भी सुन्दरतर ॥

उन्हें करके अवलोकन
कह रही थीं सती मन-ही-मन,
‘अरे खद्योतो ! धन्य हो तुम सभी
पतंग-जन्म लेकर भी ।
तुमसे बढ़कर अधिक
अनेक जीव हैं जग में वास्तविक,
फिर भी तुम्हारी भाँति
और हो सकती किसकी कान्ति ?
हो बड़े भाग्यवान्,
पाया था तुमने विश्वपति से वर महान् ।
उसी कारण कान्ति तुम्हारी
दुनिया के नयनों में भरती खुशी प्यारी ॥’

चक्रवाक-ध्वनि इसी समय दी सुनाई,
बारबार उसने करुणा बरसाई ।
सती-नेत्र-नदी के कपोल-पुलिन तक
उछल गया बरबस वही करुणा-उदक ।
सहेली से छुपा स्वेद के बहाने
आँचल से तुरन्त वदन पोंछ दिया सीता ने ॥

बात समझ बोली सहचरी :
‘कहो सुशीले ! आती जब विभावरी
चक्रवाक क्यों रोदन करते ?
क्या वे विहग रहते
नगर के भीतर ?
और वहीं रोते अर्ध-रात्रि में कातर ?

यदि वे करते रोदन,
नागरिकगण उधर
क्या सोचते मन-ही-मन
सुनकर उनका करुण स्वर ?’

जानकी यह सुन तत्काल
न सकीं आँसू सम्हाल ।
वहीं कण्ठ-स्वर उनका
रोधक हुआ वचन का ॥

यह देख बोली सहचरी :
‘छोड़ो उन बातों को, प्यारी अरी !
मेरी चपलता क्षमा कर दो कृपया,
अकारण ही तुम्हें कष्ट पहुँचाया ॥’

बोलीं जनक-कुमारी :
‘अरी सखी प्यारी !
प्रदान न करने से अपना परिचय
अस्थिर हो रहे हैं मेरे प्राण निश्चय ।
भरोसा है मन में मेरे,
शेष जीवन यहाँ बिताऊंगी संग तुम्हारे ॥

न कहूंगी अपनी बात तुम्हारे पास
तो रहेगा कैसे मुझ पर तुम्हारा विश्वास ?
कह देने से बोझ मेरे दुःख का
निश्चित हो जायेगा हल्का ।
उससे समझ लोगी संसार
है किस प्रकार ॥

सखी ! मैं राजकुमारी
सम्पत्ति की डोली में भली
राजनगर की प्यारी
सुहानी गोद में पली ॥

हंस, केकी, कोकिल, शुक सारिकाओं के विमोहन
मधुर स्वर में गूँज रहा राजभवन ।
था चक्रवाक उधर
रजनी में रोदन-तत्पर ।
उसके लिये वहीं
मेरे वाल्य-हृदय में दुःख था नहीं ॥

सखी ! ले ली वाल्यावस्था ने बिदाई ;
तरुणिमा जब छाई,
देखा मैंने उधर
पधारे अनेक देशों से अनेक नरेश्वर ॥

रखा था पिताजी ने एक धनुष रत्नमय,
वह मनोरम था अतिशय ।
एक एक सारे नरेश्वर,
बैठ जा रहे थे धनुष एकबार खींचकर ॥

वहीं रत्न-मुकुट में छुपाकर भला
अपने शुक्ल केश,
बल दिखलाने लगे कई नरेश ।
कुछ नरपाल यौवन-सम्पन्न,
किशोर-केशरी की भंगी दिखला
हट गये धनुष स्पर्श कर अवसन्न ॥

दर्पभरी गमन-भंगी संग साहस निष्फल
निहार उन लोगों के सकल,
हँसी आती थी मेरे मुख में तब ।
बैठ प्रासाद के ऊपर
मैं कौतुक-अन्तर
सखियों के संग देख रही सब ॥

पधारे अन्त में एक क्षत्रियकुल-शिरोमणि तभी
जिनकी ज्योति से निष्प्रभ लगता मरकत भी ।
धनुष के समीप हुए विराजमान
मानो राजपुत्र-रूप स्वयं अंशुमान् ॥

उन्हें दर्शन कर चुपचाप
द्रवित हो गया हृदय मेरा अपने आप ।
तापसी-जीवन में यहीं
वही अनुभव है नहीं ॥

उपहास किये थे कितने
नरेशों के प्रति मैंने ।
परन्तु आ गया तुरन्त
सारी चपलताओं का अन्त ॥

ऐसा सौम्य रूप दर्शन
कर पाएंगे मेरे नयन,
कभी तो भावना अपनी
थी नहीं मेरे मन में, सजनी ! ॥

उनके रक्तिम चरण-युगल में उसी क्षण
किया प्रणिपात अर्पण,
मेरे निर्मल हृदय ने सविनय
भक्ति-प्रीति से तन्मय ॥

था मेरे पिताजी का प्रण,
‘करेगा जो धनुष भंग
सम्पन्न करवाएंगे मेरा पाणिग्रहण
उसीके ही संग ॥’

सोचा मैंने, ‘उसी दिन ही
समाप्त हो गया प्रण वही ।
पिताजी की आज्ञा लेकर
तपस्विनी बन जाऊंगी सत्वर ॥

कौन भंग करेगा शरासन
इसमें निश्चित बात क्या ?
वीर-शिरोमणि ने तो मेरा मन
अब है क्रय कर लिया ॥

एक में मन हो अनुरागभरा
और पति मिले यदि कोई दूसरा,
जीवन में मृत्यु में तब अपनी
होगी दुर्गति दारुण घनी ॥

रम्य हस्त जिनका
भाजन है पुष्प-वाणासन का ।
उनका यह धनुष धारण करना
केवल अवमानना ॥’

मेरा था सौभाग्य मंगलमय,
वीरश्रेष्ठ ने उसी समय
कर दिया धनुष भंग
मेरा हृदय-सन्ताप भी संग-संग ॥

सम्पन्न हुआ उनके साथ यथारीति
मेरा परिणय मांगलिक ।
पाकर उनकी स्वर्गीय प्रीति
मैं धन्य हो गयी आन्तरिक ॥

वीर-प्रवर के थे अनुज त्रय,
मेरी तीनों भगिनियों से हुआ उनका परिणय ।
जब किया पितृ-पुर से पति-पुर प्रस्थान
स्वामी के हाथ एक धनुष ज्योतिष्मान्
अर्पण किया मेरे सामने
क्षत्रियकुल-केतु भार्गव-पुंगव परशुराम ने ॥

इस घटना को देखकर
मेरे मन में आ गया डर ।
होगा मेरे प्राणनाथ के सहित
अन्य किसी तेजोमयी नारी का मिलन,
जो बन जायेगी निश्चित
मेरी प्रीति की बैरन ॥

उसी धनुष में मेरे प्रिय स्वामी ने
किया जब शर-सन्धान,
अविलम्ब भार्गवी वीरलक्ष्मी ने
वर-माल्य पहनाया उन्हें ससम्मान ।
नलिनी के प्रति जैसे रश्मि सूर्य की,
वीरश्री ने बढ़ाई प्रीति मेरे हृदय की ॥

मानस ने एक बात सोच रखी,
फल दूसरा हो जाता ।
दुनिया में विधि का विधान, सखी !
समझ में नहीं आता ॥

तेजोमय वीर-केतन
अम्बर में फहराकर,
अग्रसर हुए उल्लसित-मन
मेरे प्रियतम वीरवर ॥

सम्पत्ति-कानन मेरा श्वशुरागार ;
आयी जब वहीं शुभ-वार्त्ता की बयार,
सादर उसे निहार
आनन्द का पुष्प-सम्भार
शोभा-तरु में लगा खिलने ।
लोगों का अन्तःकरण
कर लिया आकर्षण
प्रभा-पल्लव ने ॥

नव विवाहित चार वीर भ्रातृगण
दीप्यमान भाये धारण कर रत्नाभरण ।
उससे भी अधिक सजा वधुओं के वेश उज्ज्वल,
परम आनन्द से वे पधारे राजमहल ॥

आली ! उस राजभवन में एक थी वृद्धा,
उसी समय बातों में बरसने लगी प्रीति-सुधा ।
नक्षत्र-पुञ्जों से मनोहर
चतुर्दिशाओं के अम्बर
राजभवन में विराज
उसे मञ्जुल सजाने लगे आज ॥

देखा मैंने, भगिनियों के मुखमण्डल प्रसन्न,
नव प्रीति-लज्जा से थे लालिमा-सम्पन्न ।
उनमें स्वेद बिन्दु-बिन्दु निकल
रत्न-दीप्ति से दीप्तिमान् हो गये सकल ।
तुम्हारे स्वेदयुक्त ललाट पर
आज निहार सुन्दर
सुमधुर चाँदनी,
उस बात का स्मरण हो रहा, सजनी ! ॥

स्वर्ग-वैभव-भोग
जिसे कहते हैं लोग,
श्रवण उसे समझकर सच
मन में जगाता लालच ।
स्वर्ग-लालसा में नरेश्वर
राजसिंहासन त्याग कर,
वन में फलमूलाहारी बन
तपश्चर्या में रहते मगन ॥

सखी ! श्वशुर-भवन में
मैंने देखा जैसा,
सोचा, महेन्द्र के अमर-निकेतन में
कभी होगा नहीं वैसा ॥

श्वशुर-श्वश्रुओं के स्नेह कितने
और प्राणपति की अपार प्रीत ने
स्वर्ग-भुवन के प्रति
मेरे मन में जगायी हेय प्रतीति ॥

सम्पन्न हुए नव-नव
कितने भव्य महोत्सव ।
संसार में ऐसा होता, यही बात
नहीं थी मुझे ज्ञात ॥

किया मैंने समय अतिवाहित
पति के प्रेम-रत्न सहित
राजभवन के रत्नों के मनभावन
मयूख-सुख में होकर मगन ।
चक्रवाक के करुण स्वर करने श्रवण
मुझे निशिदिन अवकाश नहीं था एक क्षण ॥

बीत गये बारह
वर्ष इसी तरह,
बारह दिनों के समान
हुए मेरे मन में प्रतीयमान ॥

एक दिन मेरे समीप आकर
बोले सहास्य-वदन प्राणेश्वर :
‘आज की रजनी
अधिवास में बितायेंगे, सजनी !
तुम्हें हृदयालंकार बनाने की
अभिलाषा रख आन्तरिकी,
राजलक्ष्मी अर्पण करेगी कल
मुझे वर-माला सुमंगल ॥’

तब मैंने कहा :
‘प्राणेश्वर ! आपका पूर्ण रहा
जो स्वर्गीय अनुराग मुझमें यहीं,
विभाजित तो होगा नहीं ?’

वे बोले फिर :
‘यह स्वाभाविक हो ही भले,
झुक जाता राजलक्ष्मी का सिर
सती के चरणों तले ।
ऊपर चल नीर पारावार का
बादल बनता अम्बर में,
मंगल विधान कर संसार का
समा जाता पारावार के उदर में ॥’

मंगल विधि से भली
वही विभावरी बीत चली ।
मंगल वाद्य सबेरे
श्रुतिगोचर हुए बहुतेरे ॥

गये सचिव के साथ
पिताजी के समीप मेरे प्राणनाथ ।
वहींसे करके प्रत्यावर्त्तन
कहा मुझे दुःखभरा वचन :
‘जीवन-संगिनि ! पास तुम्हारे
समर्पित कर मेरे प्राण प्यारे
आज करता हूँ वनवास हेतु प्रस्थान
पिताजी की आज्ञा मान ।
युवराज होंगे मेरे प्रिय भरत भाई,
उनके प्यार में हैं राजलक्ष्मी आई ।
मानिनि ! त्याग तुम ज्येष्ठा का अभिमान
करोगी राजमान्य से भरत का सम्मान ॥’

स्वामी का मुखमण्डल प्यारा
मैंने उधर निहारा,
पहले की भाँति वह लगा
शान्ति से रहा था जगमगा ॥

करने कानन-गमन
चञ्चल हो रहा स्वामी का मन,
परन्तु मेरे लिये जैसे उनका हृदय
हो रहा था व्याकुल अतिशय ॥

मैं मान लेती परिहास
समस्त कथन उन्हींका,
मच गया उच्छ्‌वास
चतुर्दिशाओं में रुलाई का ॥

हाहाकार-नाद से अतिशय
भवन लगा काँपने,
मैंने सोचा साश्चर्य,
‘ये क्या अद्भुत सपने ॥’

‘जीवेश्वर !’ कहा मैंने चकित-मन,
‘यदि आप प्रस्थान करेंगे कानन में,
क्या रहा प्रयोजन
इस दासी का राजसदन में ?

मैं राज्ञी बननेवाली थी,
भिखारिन बनूंगी ।
वन में विहर प्रिय साथी
श्रीचरणों की सेवा करूंगी ॥

श्रीचरणों में मति मेरी,
श्रीचरणों में गति मेरी ।
आपके बिना मैं तनिक-भी
चाहती नहीं स्वर्ग-वैभव कभी ॥

आपके प्रिय अनुज रहेंगे
युवराज-पद पर विराजमान,
जब आप हँसते-हँसते करेंगे
कानन की ओर प्रस्थान ॥

अलंकृत करेंगी युवराज्ञी-पदवी
मेरी भगिनी माण्डवी ।
मैं न चलूंगी क्योंकर
आपके चरण-चिह्न की अनुगामिनी होकर ?

यदि उसी सुख से वञ्चित रहूंगी,
मैं जीवित नहीं रह पाऊंगी ।
प्रभु-चरण-सेवा के बिना सीता
समझती सारा संसार तीता ॥’

स्वामी के मन के भीतर
था जो कुछ विषाद,
दूर हो गया सत्वर
मेरी बातें सुनने के बाद ॥

पिता, माता, भ्राता, बन्धुवर
सेवक परिजन सबको त्याग कर
बने काननगामी
मुझे साथ ले प्रिय स्वामी ॥

मेरे एक देवर थे ‘लक्ष्मण’ नाम के,
बने वनवास-सहचर प्रियतम के ।
विस्मृति-सरिता के भीतर
समस्त राजसुख फेंककर,
वन-पर्वतों में घुमने लगे हम तीन
अपनाकर हर्ष नवीन ॥

पाकर सखियाँ नयी
मुनिकन्याओं को वनस्थल में,
मैं सानन्द डूब गयी
उन्हींके स्नेहसुख-जल में ॥

जीवन में स्फूर्तियाँ भर सरस
व्यतीत हुए हमारे कई दिवस,
पञ्चवटी कानन के भीतर
पुनीत गोदावरी के तट पर ॥

प्रत्यूष में बयार
ले वन-पुष्पों का सौरभ-सम्भार,
बहकर धीर-धीर
महका देती हमारा कुटीर ॥

वहाँ आकर पिक
बन राजवैतालिक
भर देता था कर्ण-कुहर
बरसा पञ्चम स्वर मनोहर ॥

नृत्यरत हो सबेरे
उल्लसित मयूर मयूरी
सब करते थे मेरे
आश्रम-आंगन की शोभा पूरी ॥

आते थे सकौतूहल
हरिण-शावक दल-दल
मेरे हाथों से नीवार
करने के लिये आहार ॥

त्याग माता का अंक
कलभ कलभी
खेला करते मेरे पास निःशंक
मेरे हाथों से आहार ले सभी ॥

नाना प्रकार सुमन ले
गूँथ सुमञ्जुल हार,
अर्पण करती मैं प्राणनाथ के गले
आन्तरिक प्रीत्युपहार ॥

मेरी वेणी में सजा प्रसून-आभरण
प्रिय कान्त कौतुक रच अन्तरंग,
करते थे पुष्प-वन भ्रमण
मुझे ले अपने संग ॥

कहते थे : ‘सखी ! तुम प्रियतमा
मेरी प्रीति की प्रतिमा,
संगिनी मेरे जीवन की,
स्वर्ग-सुख की गरिमा हो जानकी ॥’

तभी मैं कहती :
‘हे प्राणनाथ !
जो प्रेम-अधिकार आपका अपना,
नहीं की जा सकती
कभी उसके साथ
तुच्छ स्वर्ग-सुख की तुलना ॥’

एक दिन सुमनभरा चन्द्रातप सुन्दर,
पुष्पमय स्तम्भ सहित सादर
मैंने निर्माण कर सिंहासन,
कदम्ब-फूलों से सजाया सुशोभन ।
फूलोंभरा छत्रवर,
फूलों का रमणीय चामर,
पुष्प-पुञ्ज ले विचित्र व्यजन बना
केतकी-पंखुरियों से की मुकुट रचना ।
रत्न-रूप खचित कर कई सुमन मनोरम,
बोली मैं विनम्र-वदन :
‘मेरे प्रभो प्रियतम !
करूंगी श्रीचरणों का अर्चन,
कृपया इसे स्वीकार
सिंहासन पर विराजिये एक बार ॥’

महामना प्राणेश्वर
बोले मुस्कुराकर :
‘मना है प्रिये !
राजकीय उपचार मेरे लिये ।
आज सजाऊंगा सुन्दरी
तुम्हें वनफूलेश्वरी ॥’

ऐसा कहकर जोर पकड़ मेरे हाथ
सजाने लगे मुझे फूलों से प्राणनाथ ।
अपनी शपथ से बातें जोड़
मेरी आपत्तियाँ तोड़,
खड़े रहकर मेरे सामने
लगे मुझे निहारने ॥

मुद्रित हो गये मेरे नयन लज्जाधीन,
द्रवित रही मैं कुसुमासन पर समासीन ।
प्रियतम रसिक-शेखर
बोले वाणी प्रीतिभरी :
‘करो करुणा-कटाक्ष-पात सादर
अरी कुसुमेश्वरी !’ ॥

वहीं अवलोकन कर
उनका वदन आनन्द-दीप्यमान,
मैं बोली : ‘विवेकी-प्रवर !
हुआ नहीं यह समुचित विधान ।
प्रभु-चरण-पूजन हेतु
योग्य नहीं जो वस्तु,
वह कभी होती क्या
तुच्छ दासी की भोग्या ?’

वे बोले : ‘रही है सदा
रीति यह प्रणयी-प्रणयिनी की,
बढ़ाकर एक अन्य की मर्यादा
प्राप्त करते प्रीति आन्तरिकी ॥’

प्रियतम के मुख से सारी
सुनकर बातें प्यारी
धन्य समझ भाग्य अपना
मैं सहर्ष रही निर्वचना ॥

धीरे-धीरे आया सायं-समय,
गगन में हुआ कलाकर उदय ।
प्राणेश्वर लगे विहरने
कानन में मेरा हाथ ले ।
फिर मेरा स्वान्त रञ्जन करने
वनवास-सुख बयान करते चले ॥

अदूर में उसी समय
सुन चक्रवाक-स्वन,
सहसा प्राणेश्वर ने सप्रणय
चूम लिया मेरा लपन ॥

कौतुकवश मैंने प्रश्न किया,
‘कारण उसका है क्या ?’
उन्होंने जो कहा,
अब उसका स्मरण हो रहा ॥

वे बोले : ‘प्रिये !
चक्रवाक से कान्ता उसकी दूर रही ।
दुःखानल में इसलिये
दग्ध हो रहा विरही ।
संगिनी के संग-सुख में खूब
दिनभर वह रहता डूब ।
अभी जीवन अपना
तिक्त समझ रहा प्रिया के बिना ॥

यदि कानन-सहचरी
तुम न होतीं मेरी,
वेदना-दग्ध होता मैं इस पल
वन के भीतर भटकता विकल ।
कह रहा हूँ जो जो सुख वनवास में आते,
मेरे जीवन को सब शुष्क कर देते ॥

स्वभाव-विकल है जीवन प्रेमी का,
साथ जब होती नहीं प्रेमिका ।
व्याकुल जीवन भारी
व्यर्थ समझता दुनिया सारी ॥

जब जीव बहता
संसार-पारावार में आकर,
पार जाने का भरोसा रहता
वनिता-नैया के आश्रय पर ॥

अनुभव विरह दुःख का
मुझे तब था नहीं ।
सब सुन सलज्ज नम्र-मस्तका
मैंने हँस दिया वहीं ॥

हाय ! कुछ काल के अनन्तर
उस दारुण कष्ट ने
मेरे जीवन में अपने,
कर लिया अधिकार पूर्णरूप से आकर ॥

भुक्तभोगी करता अनुभव
दूसरों का दुःख वास्तव ।
आज चक्रवाक के विलाप ने
बहा दिये मेरे नयनों से आँसू घने ॥’

बोली तापसी : ‘अरी सहेली !
बात निश्चित मैंने समझ ली ।
तुम्हारे प्रियतम का हृदय महान्
अपार प्रेमामृत-निधान ॥

चक्रवाक समान महाराजा वे
रोते होंगे आँसू बहा आँखों से अपनी ।
अविलम्ब ही बीत जावे
तुम्हारी विपदा की रजनी ॥

उजड़ गया है तुम्हारा
संसार सुनहरा ।
हुआ क्यों इस प्रकार
दारुण दुर्विचार ?
जिसे नरेश्वर ने
संपत्ति मानी थी जीवन की,
उसे त्याग करने
कैसे इच्छा हुई उनकी ?

विधि का है जो विचार,
उसे बारबार धिक्‌कार ।
कहीं क्या कर डाला,
ला गरल अमृत के ऊपर डाला ॥’

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(तपस्विनी काव्य का षष्ठ सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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