Tuesday, August 30, 2011
Tapasvini Kavya Canto-9 (‘तपस्विनी’ काव्य नवम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)
TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-9 has been taken from pages 163- 179 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ' Tapasvini : Ek Parichaya '
Link : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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Tapasvini [Canto-9]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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नवम सर्ग
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सती का गर्भ-भार
धीरे-धीरे समयानुसार
हो चला गुरुतम
करके गुरुतर-भाव अतिक्रम ।
बैठ गयीं तो दुष्कर लगा उठना,
उठने से दुर्वह लगा शरीर अपना ॥
सती को इसी समय कष्ट होगा जान
वर्षा ने कर डाला ग्रीष्म का अवसान ।
श्रान्त प्राणों में शक्ति प्रदान करने
चतुर्दिशाओं में घिर उठे बादल घने ॥
ऊर्ध्व दिशा में सबने रोक सूर्यातप प्रबल
तान दिया अम्बर में चन्द्रातप श्यामल ।
चन्द्रातप-द्युति ने शम्पा-छटा से उसी क्षण
चकाचौंध कर दिये जनों के ईक्षण ॥
दिशांगनाओं ने नील वेणियाँ सँवार
खचित की बक-मोतीमाला उन पर ।
दिक्पालों ने सजा दिये सुन्दर बन्दनवार
रत्नाकर से रत्न-रेणु उठाकर ॥
पूर्व-दिगीश इन्द्र स्वार्थपर समुत्सुक
लज्जा त्याग बोले : ‘वह मेरा कार्मुक ।’
पश्चिम-दिक्पति रत्नाकर-अधीश्वर
बोले असहिष्णु होकर :
‘मेरे रत्नों से रचित वही
रहेगा मेरे समीप ही ॥’
अन्य दिक्पालों ने साधु धर्म मान
बारी का कर दिया समाधान,
उन दोनों के लिये पास अपने अपने
धनुष की स्थापना करने ॥
पुत्री-दुःख-सन्तप्ता रसा के सिर पर उस पल
वर्षा ने बरसाया जल सुशीतल ।
सरिता, सरोवर,
कानन, भूधर
सभी के सिर पर किया नीर सिञ्चन
स्वयं निष्पक्ष बन ॥
तृण-शस्यांकुर और कदम्ब-विकास रूपक
सञ्चरित हुआ धरित्री का पुलक ।
नीर से भरपूर
हो गया वसुधा का उर ॥
उभय तट उछल तमसा लगी चलने ;
सीता को आसन्न-प्रसवा निहार
मानो खुशियाँ लगीं उछलने
सभी के हृदय में अपार ॥
महीधर कानन सकल
छोड़ हृदय का अनल,
मलने लगे अपना अपना तन,
प्रफुल्ल हो उठे सारे वदन ॥
कण्टक-दुर्ग-वासिनी केतकी
होकर भी कण्टक-कलेवरा,
जैसे कहने लगी मधुर मुस्कान बिखरा :
‘ विपत्ति-विपिन में बँधी जानकी !
चिन्ता न करना अपने मन में ।
कण्टक-कानन में कण्टकिता मैं स्वयम्,
फिर भी वन्दिता हूँ सारे भुवन में
वितरण कर सौरभ मनोरम ॥
तापसी-वन में बनकर तपस्विनी धन्या
मनस्विनी ! तुम होगी विश्व-मान्या ।
लोगों की आँखें
जितना भी दूषण देखें,
वह क्या करेगा भला ?
अपना गुण जब दिव्यालंकार उजला ॥
कण्टक देखकर
यदि मधुकर
न दिखलाये मुझ पर अनुराग,
क्या सौरभ की स्पर्धा दूंगी त्याग ?‘
रमणीय कृष्णचूड़ा-पुष्प ने
प्रफुल्ल सौम्य वेश दिखला अपने
प्रलोभित किये सरस
दर्शकों के नयन मानस ॥
गजदन्त-पुष्प ने वसन्त समय से ठहर
वर्षा को दी सुमनों की खबर ।
कमल, मल्लिका और कुटज की कथा
उधर हुई अति प्रीतिदायिनी सर्वथा ॥
वर्षा ने उन्हें रत्न मानकर
किये बहुत यत्न प्रतिवासर ।
परन्तु कौन कर सकता अतिक्रम
विधाता का नियम ?
वर्षा कर न सकी
अपनी शक्ति से रक्षा उनकी ।
विनाश हुआ तीनों का
आया जब काल का झोंका ।
सती को चला पता यहीं,
आजीवन साधु उपेक्षित होता नहीं ॥
पुष्पालंकारों से सांवत्सरिक उत्सव मनाया
जूही लताओं ने मिलकर सकल ।
मानो सती का मानस बहलाने बनाया
वही सुगन्ध-महल ॥
अम्बुद-नीलाम्बरा श्रावणी विभावरी
हस्त-मस्तक में ले यूथिका रजनीगन्धा महकभरी,
सती-कुटीर के प्रांगण में खड़ी होकर
व्यथा मिटाने थी उजागर ॥
जानकी का प्रसव-लक्षण
प्रकाशित होने लगा आ प्रतिक्षण ।
सती का क्लेश लेकर
अदूर में अत्यन्त आर्त्त स्वर
दर्दूर सब रो पड़े
विकल हो बड़े ॥
चातक ने लेकर सती की तृषा
अम्बर में बारम्बार की वारिद से वारि-भिक्षा ।
वृद्धा तापसियाँ सती के समीप रहकर
समयोचित विधान में हुई थीं तत्पर ॥
निशा में निशामणि-कान्ति-हारक
सम्भूत हुए सती के यमज बालक ।
कुमारों की ज्योति ने मिल सौदामिनी के संग
दश दिशाओं में बिखरा दी आलोक-तरंग ॥
तोप गर्जन किया सानन्द पुरन्दर ने ;
न जाननेवाले लगे उसे ‘वज्र’ कहने ।
दिशांगनाओं की हुलहुलि-ध्वनि सहित
मिल गया मस्ती से मेघों का स्तनित ॥
सारे पर्वत कानन
बरसाने लगे सुमन ।
केदार, नदी, सरोवर
सब हो गये नृत्य-तत्पर ॥
कुमारों के दर्शनाभिलाषी घन
उतर आये नीचे धारा-रूप बन ।
पुलिनों के ऊपर उछल
चलने लगीं चञ्चल
सारी सरिताएँ उत्कण्ठित-मानसा
हृदय में भर दर्शन की लालसा ॥
मत्स्यगण त्याग सागर का अंग
लगे नृत्य करने तरंगिणी संग ।
झील-सरोवर-क्षेत्रों के अन्दर
उठ सलिल के ऊपर
सानन्द-मन कई मीन
हुए नृत्य में तल्लीन ॥
दर्शनेच्छुक ‘केउँ’ मछली
अतिशय उछलकर
सबके आगे चली
चढ़ ताल-तरु के शिखर ॥
महर्षि वाल्मीकि ने सत्वर पधार
सन्दर्शन किये युगल कुमार ।
सोचा उन्होंने साग्रह,
‘वृहस्पति शुक्र दोनों ग्रह
एक साथ चल
आश्रम-अम्बर में आये निकल ॥’
महर्षि का प्रभात-सा हृदय
आनन्द-पुष्पों से हो गया सौरभमय ।
कुश-गुच्छ लिये
हाथ में अपने,
अग्र पश्चात् द्विखण्ड किये
मन्त्रोच्चार सहित मुनिवर ने ॥
अनुकम्पा के हाथ सौंप बोले तपोधन :
‘देवी ! करो कुमारों का सम्मार्जन ।
कलेवर मार्जन करो अग्र खण्ड से अग्रज का
और निम्न खण्ड से अनुज का ॥’
अनुकम्पा ने किया सम्पन्न
जानकी-तनुजों का सम्मार्जन
मुनीश्वर के आदेश अनुसार,
भूतनाशिनी रक्षा उसी प्रकार ॥
कुश-लव के प्रयोग से सम्मार्जित अंग युगल (१)
शाणित रत्नों से भी हुए अधिक समुज्ज्वल,
जैसे तृण-युक्त वैश्वानर,
या सागर-तरंग-मुक्त नवल दिवाकर ॥
जब वैदेही लगीं निहारने
कुमारों के युगल आनन,
हुआ हृदय में अपने
सुख-दुःख का एक साथ आगमन ॥
सुख बोला : ‘गर्भ में अपने
धारण किये थे जिसने
सूर्य-चन्द्रोपम युगल कुमार,
धन्य वही जननी, धन्य शत बार ।
इससे अधिक सौभाग्य कहीं
संसार में दूसरा नहीं ॥’
दुःख बोला : ‘आज दोनों राजकुँवर
मणिमय भवन में लगते कितने सुन्दर ।
नरेन्द्र-हृदय में अपार आनन्द जगाते,
दीन दुःखियों की दरिद्रता दूर भगाते ॥
प्राप्त करते आज नगरवासीगण
कितने धन रत्न वस्त्र आभरण ।
मंगल नादों से भरा होता नगर,
मंगल वाद्यों से गूँज रहा होता अम्बर ।
ओह ! भाग्य-दोष से बन तापस-तनय
तापसों के आश्रम में लिया आश्रय ॥’
सती-नयनों से लेकर
सलिल दो धार,
दुःख चला गया सत्वर
देकर पुत्रों का प्यार ॥
निहार कुमारों के रूप उभय,
शुद्ध सुखमय हो गया सती का हृदय ।
उनका मन तभी
लगा नहीं तनिक-भी
चलाने अपने नेत्र
पुत्रों को छोड़ अन्यत्र ॥
मातृ-नेत्रज-स्नेह-समुज्ज्वल रंग
कुमारों के युगल अंग
रंगकर बारबार,
लाया उन नयनों में प्रतीति इस प्रकार,
मानो हैं उदीयमान
नवल हिमांशु और अंशुमान् ।
मानस में कर सिंहासन की स्थापना
दरशाया आनन्द ने सार्वभौमत्व अपना ॥
सहर्ष अनुकम्पा ने किया सम्पादन
शीघ्र कुमारों का नाभिच्छेदन ।
तदुपरान्त ले मन्त्र-पूत जल
अवगाहन कराके निभाये विधान सकल ॥
करने लगीं कोलाहल
निहार कुमार युगल
तापसियाँ आनन्द-गद्गद स्वर ।
रहे मुनिपुत्रगण पङ्क्तिबद्ध नृत्य-तत्पर
साथ-साथ करके संकीर्त्तन
श्रीराम-नाम पावन ॥
दुर्धर्ष दुर्जन लवणासुर का करने निधन,
वीरवर शत्रुघन
रहे थे प्रस्थान-पथ पर उसी रात
पावन वाल्मीकि-आश्रम में दैवात् ॥
आश्रम के उस आनन्द-नाद में
रमकर रिपुसूदन
स्वयं आनन्द-नद में
हो गये मगन ॥
अत्यन्त प्रफुल्ल-अन्तर
उन्होंने प्रशंसा कर
जानकी से कहा :
‘मातः ! आप हैं रघुवंश में पावनी,
सर्वंसहा आपकी जननी ।
इसी कारण आप भी स्वयं सर्वंसहा ॥
वसुमती-नन्दिनि ! आपने
वसु रखा था गर्भ में अपने ।
हमारा सौभाग्य महान् ।
किया रघुकुल को आज जो वसु प्रदान,
विराजेगा वह विभास्वर
अयोध्या-राजलक्ष्मी के मस्तक पर ॥’
मुनिकुमारों के आनन्द-कोलहल में उधर
सम्मिलित हो गये सारे विहंग,
दल-बद्ध होकर
कुरंगों के संग ॥
एक पल-सी बीत गयी विभावरी
श्रावणी वर्षिणी भयंकरी ।
लवण के प्रति सुमित्रा-पुत्र हुए अग्रसर
मुनि-चरणों में नमन पूर्वक सादर ॥
तापस-तापसियों को द्रव्य से करने प्रसन्न
लगा स्वभाव से सती का मन ।
परन्तु सती का वहाँ
इच्छानुरूप धन कहाँ ?
उन्होंने तो स्वयम्
आश्रय कर लिया है वनाश्रम ॥
चाहती चाँदनी विश्वभर
तृप्ति प्रदान करने,
परन्तु हाय ! गगन पर
छा गये बादल घने ॥
जब आईं जानकी
अपने भवन से,
मन में भावना थी उनकी
शीघ्र लौट चलेंगी वन से ।
मुनिकन्याओं के लिये लायी थीं उपायन
कुछ आभूषण और वसन ।
तापस-तापसियों के मन में सन्तोष लायीं सीता
उन्हें बाँटकर लज्जावश विनीता ॥
उन सबका हृदय-पारावार
करने लगा विस्तार
परम प्रसन्नता की लहर,
उन्हें चन्द्रकिरण-जैसे पाकर ॥
थे सती ने सञ्चित किये
जितने फल और नीवार,
सब बण्टन कर दिये
खग-मृगों को आहार ॥
खींचतान कर परस्पर
भक्षण किया सबने ।
चञ्चू से पकड़ तत्पर
कुछ विहंग लगे उड़ने ॥
सारिका-शावक नीड़ में अपने
बैठे थे खोल वदन,
सस्नेह उन्हें उनकी माता ने
कर दिया आहार बण्टन ॥
सहर्षनाद मयूरियों के संग मोर
हो गये वृक्षों पर अत्यन्त नृत्य-विभोर ।
कोकिल ने घूम द्वीप-द्वीपान्तर
प्रचार कर दी वह शुभ खबर ॥
कैलास को देने वही मंगल समाचार
चला राजहंस आनन्द-नाद पसार ।
रखा था गौरी को दिलाने विश्वास
मृणाल-किसलय का पत्र अपने पास ॥
समाचार से हृदय में भर उल्लास अत्यन्त,
शिवजी से करके निवेदन,
छोड़ अपना कैलास-सदन
सती के हाथों पूजा-प्राप्ति की अभिलाषिणी
गौरी षष्ठीदेवी-रूपिणी,
अम्बर में कादम्बिनी के संग विराज
जलद-ज्योति के व्याज,
पहुँच गयीं वाल्मीकि-आश्रम पर तुरन्त ॥
सप्त तापस-कन्याओं के कलेवर में
विराज सप्त-मातृका समान,
वर-भुजा गौरी ने षष्ठ वासर में
सती-हस्त की अर्चना स्वीकार सादर
समस्त अरिष्ट विनष्ट कर,
यमज पुत्रों को किया सिंह-बल प्रदान ॥
हुआ क्रम से दिवस उपनीत
नामकरण का अवसर पुनीत ।
कुमारों के नाम श्रवण के प्यासे
स्वर्गपुर त्याग उधर पधारे देवगण ।
देवियों ने उस उत्सुकता से
किया दलबद्ध होकर उनका अनुसरण ॥
शरत् काल के शुभागमन हेतु उधर
मार्ग छोड़ रहा था अम्बर में अम्बुधर ।
उस मार्ग पर सब रवि-तेज के सहित
अनायास चले ज्योतिर्मय स्यन्दन में विराजित ॥
आश्रम में पहुँच तब
सुमन-समूह में महक बन
अत्यन्त मन-मोहन,
बस गये सब
स्वर्गीय सुन्दरता बिखराकर
विकास के बहाने मुस्कुराकर ।
तापस-तापसियों के हृदय के भीतर
कुछ समा गये आनन्दमय होकर ॥
पाकर महर्षि वाल्मीकि का निदेश
द्विगुण आनन्दित-मन
तापस-तापसियों ने सत्वर
उपवन में करके प्रवेश,
लाकर कई नव पल्लव सुमन
की मण्डप रचना मनोहर ॥
निशीथिनी के प्रथम प्रहर में उधर
लगा अतिशय सुन्दर
आश्रम चित्ताकर्षक,
प्रज्वलित प्रदीप-मालाओं से ।
प्रचुर ऐंगुद तैल समस्त दीपक
लूट रहे थे तापसों के हाथों से ॥
चहुँदिशाओं में कुसुमित तरु-वल्लरियाँ
खिलखिला रही थीं पाकर रश्मि की ऊर्मियाँ ।
था वही समय सुमनों का त्योहार
चक्रवर्त्तिनी का बढ़ रहा था गर्व-भार ॥
समुद्रों में जैसे क्षीर-पारावार,
वृन्दारकों में पुरन्दर जिस प्रकार,
जैसे हिमगिरि के तुंग शृंगों में गौरीशंकर,
वैसे वाल्मीकि तपस्वी महान्
विराजे मुनियों में शोभायमान
मण्डप में आसन बिछाकर ॥
संग लेतीं युगल अश्विनीकुमार
छाया और संज्ञा जिस प्रकार,
वैसे कर-कमलों से थाम
यमज कुमार अभिराम
पधारीं मण्डप में सती और अनुकम्पा ।
आविर्भूत हुई शोभा वहीं सदर्पा ॥
कृष्ण-त्रयोदशी-शशी के पास निकली
भा रही नभ में
प्रभाती तारका ।
मानो खड़ी है प्राची मतवाली,
सरोवर-गर्भ में
धारण कर प्रतिबिम्ब उनका ॥
सीता की सहचरियाँ
प्रसन्न-मुख सरल-हृदया तापस-कुमारियाँ
सती-प्रदत्त वसनों से सुशोभना,
आवृत कर कलेवर अपना अपना
अतिशय प्रमुदित-अन्तर
बैठ गयीं सती के समीप उधर ।
प्राप्त कर उषा-प्रदत्त नयी किरण उज्ज्वल,
जैसे उषा के पास सरोजिनी सकल ॥
देवार्चना हुई सम्पन्न
वैदिक विधि के अनुसार,
हुआ मंगल शंख-स्वन
और तूर्यनाद का विस्तार ॥
ज्येष्ठ पुत्र को शुभाशीष देकर
बोले प्रसन्न-मन मुनिकुल-शेखर :
‘कुशाग्र-मार्जित इसका नाम होगा ‘कुश’,
बनेगा बैरी-वारणेन्द्र-गण का अंकुश ।’
महामनीषी मुनीश ने उसी प्रकार अभिनव
कनिष्ठ पुत्र का नाम रखा ‘लव’ ॥
राम-नाम उच्चारण किया मुनियों ने
बजाकर संग-संग
मन्दिरा, खञ्जनी और मृदंग ।
तापस-नन्दिनियों ने
वीणा बजाकर मांगलिक
गाये गीत सुधा से भी मधुर अधिक ॥
सुरभि-रूप धारण कर
समस्त अमरी अमर
हो गये वहाँ नृत्य-मगन
अपार आनन्दित-मन ।
चतुर्दिशाओं में स्थित मृग-मृगीगण
निहार रहे विस्मितेक्षण ॥
आश्रम के आनन्द-कोलाहल में वनभूमी ने
योगदान किया प्रतिध्वनि के बहाने ।
वल्ली पादप सभी मानो संगीत-तत्पर
हो गये विद्याधर-विद्याधरियों का गर्व अपनाकर ॥
आनन्द से जगमगा उठा आश्रम,
परन्तु सती के वदन-कुमुद में तम
राम-चन्द्र ही के बिना छा गया ।
उनका पर्व तो था अमावस्या ।
अन्धकार ने बढ़ाया गौरव उन्हींका,
अन्धकार के कारण ही आदर है चाँदनी का ॥
सती के नन्दन-रत्नद्वय सुन्दर
हुए उधर दृश्यमान,
रत्न-सानु के गभीर कन्दर
जैसे शोभायमान ॥
ऋषि-देवों ने मिल मनाकर आनन्द त्योहार
किया सती का गौरव विस्तार ।
स्वाभाविक रीति यह महाजन की,
सुपात्र को सम्मान देने में प्रीति उनकी ॥
अन्त में कुमारों के प्रति
कल्याण-कामना के बाद
प्रदान किया महामति
मुनिवर ने शुभाशीर्वाद ॥
तापसों के हृदय-कमल में आसन बसाकर
‘तथास्तु’ उच्चारने लगे समस्त अमर ।
गंभीर नाद में वन-पादप-लतिका सकल
‘तथास्तु’ कहने लगे आनन्द-विह्वल ।
‘तथास्तु’ उच्चारने लगे सुस्वर
दिशा-विदिशाओं से सारे दिगीश्वर ॥
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[पादटीका :
(१) कुश = द्वि-खण्डित कुशगुच्छ का अग्र खण्ड ।
लव = द्वि-खण्डित कुशगुच्छ का निम्न खण्ड । ]
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(तपस्विनी काव्य का नवम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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