Friday, February 29, 2008

'Sringara-Sataka' of Bhatrihari : Odia Version by Dr.Harekrishna Meher

Oriya ‘Sringara- Sataka’ 
By:  Dr. Harekrishna Meher 
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शृङ्गार-शतक / हरेकृष्ण मेहेर  
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Extracts from My Complete Oriya Translation
of Sanskrit Kavya “Sringara-Sataka” of Poet Bhartrihari.
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Bhartrihari is a distinguished poet of Sanskrit Literature of 7th century A.D. He is popular for his Sanskrit Giti-kavya ‘Niti-Sataka’, ‘Sringara-Sataka’ and ‘Vairagya-Sataka’. Combinedly the Giti-kavya of trio is known as ‘Bhartrihari-Sataka-Traya’. Each Sataka contains One hundred Sanskrit Slokas.

In ‘Niti-Sataka’ various aspects of life such as Knowledge, Wealth, Deed, Duty, Destiny, God, Mundane Region, Noble Qualities, Good and Bad Persons with their works, Art, Literature, Music and the like have been portrayed marvellously.

In ‘Sringara-Sataka’ the poet has beautifully delineated different facets of Women, Love and Sentiment of Eros, Mundane Wealth, World in contrast with Brahman, the Almighty Supreme Being and Eternal Bliss.

In ‘Vairagya-Sataka’ detachment from worldly enjoyments, meditation and devotion towards God have been depicted. In all the three Satakas, experiences of life, hardships, struggles, downfall, deeds, success, achievements, goal of life, salvation and other related matters are observed with the humanistic approach.


Of all the three Satakas of Bhartrihari, My Complete Oriya Translations done in modern literary metres, have been published in several Puja Special Issues of ‘Bartika’, the distinguished Oriya Literary Quarterly of Dasarathpur, Jajpur, Orissa.
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Please see 'Niti-Sataka' and 'Vairagya-Sataka' 
posted separately on this site. 
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Some passages of My Oriya Rendering of ‘ Sringara-Sataka’ are presented here.
For convenience in reading,
Oriya letters have been shown in Devanagari Script as follows.
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भर्त्तृहरि-शतक-त्रय (शृङ्गार-शतक)  
मूल संस्कृत काब्य : महाकबि भर्त्तृहरि
ओड़िआ पद्यानुबाद : डा. हरेकृष्ण मेहेर
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[१]
मञ्जुळा मृग-            नयनीङ्कर
गृह-जञ्जाळे किङ्कर,
साजिछन्ति य़ा          इङ्गिते सदा
ब्रह्मा बिष्णु शङ्कर ।
य़ार चरित्र बर्ण्णि न पारे भारती
बिराजे ए घेनि य़ार बिचित्र मूरति ।
फुल-धनु-शर हस्ते य़ार,
से रति- कान्त            कामदेबङ्कु
आन्तरिक मो नमस्कार ॥
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[६]
मन्द हासरे ईषत मोहन रङ्गिमा
शोहे चञ्चळ सरळ नयन- भङ्गिमा ।
नब बिभ्रम-          आळापे निरत
रसमय बाणी- चातुरी,
अनुसरे नब-         पल्लब- लीळा
धीर गमनर माधुरी ।
परशइ य़ेबे नब य़ौबन रसभर,
हरिण-नेत्री                 शुभ-गात्रीर
न दिशे किस बा सुन्दर ?
*
[१०]
नारीकि 'अबळा'        बोलि बर्ण्णिले
य़ेते कबि-शिरोमणि,
सेमाने त सबु              बिपरीत कथा
निश्चिते गले भणि ।
चञ्चळतर               तारका-शोभित
नयन-भङ्गी मोहने,
स्वर्गाधिराज                इन्द्रादि य़ार
बशीभूत हेले बहने ।
'अबळा' - आख्या  कि परकार,
सङ्गत सेइ   अङ्गनार ?
*
[१४]
थिले बि दीपक बह्नि तारका-राजि,
थिले बि चन्द्र          सूर्य़्य अशेष
दीप्तिर बळे राजि ।
हरिण-लोचनी         सुन्दरी बिना
प्रतीत हुअइ परा,
मोहरि लागि ए       निखिळ बिश्व
घन तमिस्रे भरा ॥
*
[२२]
न देखिले पाशे नागर,
बल्लभी चाहेँ        लभिबा सकाशे
प्रिय- दर्शन मातर ।
दर्शन परे प्रिया,
प्रेमालिङ्गन-       सुख लागि एका
चञ्चळ करे हिया ।
बिशाळाक्षीर                   बक्षे बक्ष
लागिले निबिड़ नबानुरागे,
भिन्न न हेउ                 य़ुग्म शरीर
एइ आशा आम चित्ते जागे ॥
*
[२५]
लोटि रहिछि य़े             बक्ष- तळपे
फिटिअछि य़ार अळक,
नेत्र मुदि य़े                अळपे अळपे
अनाइछि मेलि पलक ।
बिपरीत रति-         श्रमे य़ा कपोळे
जागिछि घर्म- बिन्दुमान,
एपरि बधूर              अधर- मधु य़े
पान करे से त भाग्यबान ॥
*
[४२]
स्मरण कले य़े         हृदये जगाए
सन्तापना,
दरशन कले             जन्माए य़ेहु
उन्मादना ।
परश कले य़े                पुरुषर मने
सरजइ मोह भारि,
'प्रिया' बोलि नाम       केउँपरि अबा
य़ोग्य हेब ताहारि ?
*
[४४]
नाहिँ सुधा अबा        नाहिँ बिष किछि
तेजि ए रमणी सुन्दरी,
अनुरागे से त              पीयूष- लतिका
बिरागे गरळ- बल्लरी ॥
*
[४९]
एइ अङ्गना- सरिता बहे कि रङ्गरे,
त्रिबळी उछुळा तरङ्गाबळी अङ्गरे ।
उन्नत पीन               पयोधर बेनि
चक्रबाक य़ुगळ,
कुटिळ-चारिणी        बहिछि बदन
मञ्जुळ शतदळ ।
बन्धु ! ए भब-               सिन्धुरे तब
नाहिँ बुड़िबार बाञ्छा य़दि,
मुञ्चि रह ता                     सङ्ग दूररु
एकान्ते थाउ कान्ता- नदी ॥
*
[५०]
केते केते मधु            जल्पना करे
जणक सङ्गतरे,
भाब- भङ्गीकि         दरशाइ आने
कटाक्ष पात करे ।
अन्यर कथा              चिन्ते आहुरि
हृदयरे आपणार, 
ए भाबे के अबा         प्रिय जगतरे
रहिछि अङ्गनार ?
*
[५१]
नारीर बचने    मधु रस झरे
केबळ गरळ   पूरिछि हृदरे,
एथिलागि सिना      पान कराय़ाए 
सरस अधर  ताहारि, 
कराय़ाए तार            हृदये उचित 
मुष्टि ताड़ना आहुरि ॥ 
*
[५२]
एइ त कामिनी अहि,
घुञ्चि ता पाशुँ बहु दूरे थाअ रहि ।
जाण हे बन्धु !        कटाक्ष तार
गरळ- बह्नि- कणा,
स्वभाब कुटिळ      बहिछि दर्पे
बिभ्रम तार फणा ।
इतर सर्प             दंशिले सिना
नर- देहरे,
औषध बळे         चिकित्सा तार
गरळ हरे ।
दंशिछि य़ार             अङ्गे चतुर
एइ अङ्गना- भुजङ्गम,
जाङ्गळिक ता         सङ्ग तेजइ
जाणि निष्फळ परिश्रम ॥
*
[५३]
धीबर मूर्त्ति               धरि ए मर्त्त्य-
बारिधिरे मीन- केतन,
बिस्तारि अछि      कामिनी- नाम्नी
बनशीकि करि य़तन ।
बेगे आकर्षि           से नारी- अधर-
मांस- लोलुप पुंस-मीन,
क्षेपि अनुराग-              अग्निरे बळे
भाजि दिए निज इच्छाधीन ॥
*
[५४]
घन बनस्त  कामिनीर कळेबर,
रे मन-य़ात्री !  गमन तहिँ न कर ।
कुच-गिरि य़ोगुँ         बड़ दुर्गम
तार पथ,
लुचि रहिअछि         भितरे दस्यु
मन्मथ ॥
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[६५]
प्रणयीगणर       मन मिळिथिले
परस्पर,
बिरह बेळे बि         सङ्गम से त
हर्षभर ।
भग्न हृदये            मिळन ठारु त
बास्तबिक,
बिरहकु साथी        मणइ सुखद
आन्तरिक ॥
*
[६९]
हृदे अज्ञान                भरि रहिथिला
घोटिबारु काम- अन्धार,
प्रतिभात थिला          नारीमय बोलि
सेकाळे ए सारा संसार ।
एबे सुनिपुण                 बिबेकाञ्जन-
रञ्जने आम लागिछि लय,
तिनि भुबन बि           दिशुछि नयने
परमानन्द- ब्रह्ममय ॥
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[७३]
मत्त बारण-             कुम्भ दळने
केते अछन्ति बीर निपुण,
चण्ड केशरी-         मुण्ड लोटाइ
पारन्ति केते दक्ष पुण ।
मात्र मोहर              दृढ़ ए बचन
बळिष्ठ जन सन्निधिरे,
मदन-गरब               चूर्ण करणे
मानब बिरळ धरित्रीरे ॥
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[७८]
शीर्ण शरीर   
काण से कर्ण-हीन,
खञ्ज आबर  
 लाञ्ज-बिहीन दीन ।
ब्रण- बिक्षत पूय़-राशि-जरजर,
शत शत- कृमि- बिगळित कळेबर ।
क्षुधारे बिकळ
जीर्ण अङ्ग चळाइ,
खण्डित माटि-
भाण्डे कण्ठ गळाइ ।
श्वान चालिथाए         अथये शुनीर
पश्चाते तरतर ;
मरिअछि से त,       ताहारे आहुरि
मारइ पञ्चशर ॥
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[८०]
बिश्वामित्र             पराशर आदि
तपश्चारी,
हेले बि एमाने      सलिळ-पबन-
पत्राहारी ।
कामिनीङ्कर  कमनीय मुख- कमळ
चाहिँला मात्रे  हेले बिमुग्ध ळ ।
दुग्ध- दधिरे   स्निग्ध आबर
घृत- मिश्रित   शाळि- अन्नर, 
भोजनरे य़ेउँ                नरे मज्जित,
सेमाने ए भोग-बन्धनीरे । 
इन्दिय य़दि              रोधिबे, तेबे त
बिन्ध्य भासिब सिन्धु- नीरे ॥
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( अनुबाद : १९७७, बाराणसी ।
य़ाजपुरर त्रैमासिक मुखपत्र "बर्त्तिका " शारदीय बिशेषाङ्क १९९ रे
मोर एहि सम्पूर्ण 'शृङ्गार शतक ' प्रकाशित । )
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Odia Script Image of Sringara-Sataka 
Link: 
http://hkmeher.blogspot.in/2014/02/sringara-sataka-oriya-version-drhkmeher.html
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