Sunday, March 2, 2008

Bhartrihari's 'Vairagya-Sataka': Odia Version by Dr.Harekrishna Meher

Oriya ‘Vairagya-Sataka’  By Dr. Harekrishna Meher 
*
वैराग्य-शतक / डा. हरेकृष्ण मेहेर 
= = = = = = = = = = = =   
Extracts from My Complete Oriya Translation
of Sanskrit Kavya
“Vairagya-Sataka” of Poet Bhartrihari.

= = = = = 
Bhartrihari is a distinguished poet of Sanskrit Literature of 7th century A.D. 
He is popular for his Sanskrit Giti-kavya ‘Niti-Sataka’, ‘Sringara-Sataka’ and 
‘Vairagya-Sataka’. Combinedly the Giti-kavya of trio is known as 
‘Bhartrihari-Sataka-Traya’. 
Each Sataka contains One hundred Sanskrit Slokas.

In ‘Niti-Sataka’ various aspects of life such as Knowledge, Wealth, Deed, 

Duty, Destiny, God, Mundane Region, Noble Qualities, Good and Bad Persons 
with their works, Art, Literature, Music and the like have been portrayed marvellously.

In ‘Sringara-Sataka’ the poet has beautifully delineated different facets of Women, Love and Sentiment of Eros, Mundane Wealth, World in contrast with Brahman, the Almighty Supreme Being and Eternal Bliss.

In ‘Vairagya-Sataka’ detachment from worldly enjoyments, meditation and devotion towards God have been depicted. In all the three Satakas, experiences of life, hardships, struggles, downfall, deeds, success, achievements, goal of life, salvation and other related matters are observed with the humanistic approach.

*
Of all the three Satakas of Bhartrihari, My Complete Oriya Translations done in modern literary metres, have been published in several Puja Special Issues of ‘Bartika’, a distinguished Oriya Literary Quarterly of Dasarathpur, Jajpur, Orissa.
*
The Complete 'Vairagya Sataka' of mine appears published in 'Bartika',
Dasahara Special Issue, 1998.
= = = = = 

 'Niti Sataka'  posted separately on this site. Link: 
*

Extracts from My Oriya Rendering of ‘ Vairagya-Sataka’.
For convenience in reading,
Oriya letters have been shown here in Devanagari Script.
*
भर्त्तृहरि-शतक-त्रय (वैराग्य-शतक)
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि भर्त्तृहरि
ओड़िआ पद्यानुबाद : डा. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = = = = = 
[१]
जय जय शिब महेश्वर,
शिरोभूषा चारु चन्द्र-लेखार
खर शिखारे य़े बिभास्वर ।
अनायासे निज दीप्ति बळे,
य़ेहु चञ्चळ काम-पतङ्ग भस्म कले ।
मङ्गळमय दशार -
अग्रभागरे उज्ज्वळ य़ार प्रसार ।
हरन्ति य़ेहु                   अन्तरे भरा
मोहान्धकार अपरिमित ;
य़ोगि-बृन्दर                 मन-मन्दिरे
ज्ञान-दीप से त उद्भासित ॥
*
[३]
गुप्त धनर              लाभ-लाळसारे
भूमि-तळ केते खोळिलि ;
शैळज नाना          धातु आणि मुहिँ
अनळे फुङ्कि जाळिलि ।
पाराबार हेलि पारि,
राजामानङ्क             मन तोषाइलि
करि सुय़त्न भारि ।
बिबिध मन्त्र साधने मति बळाइ,
केते केते राति   बिताइलि मुहिँ
शमशान- भूमे थाइ ।
एतिकिरे काणी           कउड़िटिए बि
मोते त मिळिला नाहिँ केबे ;
तृष्णा गो ! तोर
कामना पूर्ण हेउ तेबे ॥
*
[६]
लुळित चर्मे मुख बिबर्ण्ण
   शिर बि पक्व केशरे पूर्ण्ण 
शिथिळ हेलाणि
शरीरे अङ्ग सकळ ।
मातर तरुणी
साजिछि तृष्णा केबळ ॥
*
[१०]
आशा नामे अछि सरिता,
मनोरथ तार            सलिळ , से परा
तृष्णा- लहरी- पूरिता ।
राग- कुम्भीर  रहिछि भितरे ताहार,
नाना बितर्क-          बिहग-पन्ति
तहिँ करन्ति बिहार ।
धैर्य़्य- तरुकु  उत्पाटइ समूळ ;
मोह-आबर्त्त  य़ोगुँ दुस्तर
अति गभीर से  तटिनी आबर
उच्च उच्च चिन्ता ताहार कूळ ।
निर्मळ-मना  य़ोगीन्द्रमाने  अक्लेशरे ;
लङ्घि से नदी  रमन्ति महाआनन्दरे ॥
*
[२१]
बदने आबोरि दैन्य शत,
क्षुधारे आतुर बिळाप-रत
शिशुगण सदा          जीर्ण्ण बसन
टाणुथिबे जननीर ;
अन्न-बिहीने             बिधुरा एपरि
दुःखिनी घरणीर -
स्वरूपकु य़दि मरते
देखु न थान्ता आरते,
तेबे मनस्वी  पुरुष के अबा काहिँकि
आपणा दग्ध  उदर पूरण पाइँकि,
य़ाचना निजर  ब्यर्थ हेबा भयरे
बिकळ गळित  गद्-गद बचनरे,
कहन्ता मुहँ खोलि,
'किछि दिअ दिअ' बोलि ?
*
[३१]
रोग- भय अछि भोगरे,
बिच्युति- भय कुळरे ;
धने राज-भय         रहिछि आहुरि
दैन्य-भय त मानरे ।
बळ थिले अछि        भय अरातिर,
रूप थिले जरा-भय पुण ;
शास्त्र थिले त      बादी-भय अछि,
खळ-भय थिले सद्-गुण ।
रहिअछि य़ेबे कळेबर,
भय सदा तहिँ मरणर ।
सकळ बस्तु  अटइ जगते  सभय ;
नर पाइँ बइराग्य केबळ  अभय ॥
*
[३२]
ग्रासिछि जन्म उपरे मरण धरारे,
सुन्दर तरुणिमा झरिय़ाए जरारे ।
सम्पद-लाभ               कामनारे सदा
सन्तोष कबळित ;
शान्ति सुख त             प्रगल्भ नारी-
बिभ्रमे बिदळित ।
मत्सरी-जन- गरासे रुद्ध  सुगुणाबली,
हिंस्र भुजग- य़ोगे असुस्थ  बनस्थळी ।
दुर्जन-चापे  राजा बशीभूत आबर,
बैभब- राशि  अस्थिरतारे कातर ।
केउँ बस्तु बा
रहिछि मर्त्त्य शयळे,
ग्रस्त न होइ
अन्य काहारि कबळे ?
*
[३६]
तरङ्ग परि  क्षण-भङ्गुर  ए जीबन,
अळप दिबस  पाइँ सुन्दर  य़उबन ।
धन धान्यादि अर्थ सकळ
बाञ्छा समान सदा चञ्चळ ।
जागतिक य़ेते भोग दरब,
जळद-काळर     बिजुळि-चमक  
परि सरब ।
प्रेयसी-बिहित हर्षदायी,
निबिड़ कण्ठ-     आलिङ्गन बि    
क्षणस्थायी ।
ब्रह्मे मानस          मज्जाअ तेणु
बारबार,
 पारि हेबा पाइँ            संसार-भय-
  पाराबार ॥
*
[३८]
बाघुणी पराए        जरा त निजर
आगरे गर्जि डराए, 
प्रहार करइ        रोग-राशि निति
शरीरे बैरी पराए ।
छिद्र-य़ुकत          कळसरु जळ
परि झरि चाले आयुष, 
तथापि जगते पुरुष,
तत्पर सदा           रहिअछि निजे
आचरिबा लागि अहित ।
बड़ बिचित्र एहि त ॥
*
[४१]
थिला से नगरी सुन्दर,
तहिँ थिले सेइ चक्रबर्त्ती नरबर ।
सेइ सामन्त मण्डळी
थिले ताङ्कर महाबळी ।
सेइ बिदग्ध              परिषद परा
ताङ्क पारुशे थिला,
थिले से चन्द्र-        बदना बामाए
आचरि रङ्ग-लीळा ।
थिले से अनेक उद्दाम बीर राजसुत, 
स्तुति- पाठक से            बन्दी-निकर
सेइ कथाबळी अद्भुत ।
एइ समस्त  य़ाहारि बशरे
स्मरण- बिषय  हेले बिश्वरे,
काळ से त महा्शकति, 
जणाइछुँ आमे
ताहारि चरणे प्रणति ॥
*
[४२]
शेषे बञ्चइ             जणे एका तहिँ
बहु लोक थिले य़ेउँ घरे,
थिला जणे लोक       य़ेउँ घरे पुणि
तहिँ बहु लोक हेले परे ।
केहि जणे बि त परिणामे
रहिले नाहिँ ए मर-धामे ।
दिबा-रजनीकि  
बेनि पशा-काठि करि 
चळाइ आपणा  हस्तरे एहिपरि,
जीबगणङ्कु  गॊटि रूपे थोइ
स्वेच्छारे खेळे       तत्पर होइ
पारि संसार-पशापालि सुबिशाळ,
अक्ष-खेळारे  दक्ष से महाकाळ ॥
*
[४३]
गगने रबिर उदय अस्त सह
क्षय भजुअछि पराण त अहरह ।
अनेक कार्य़्य- भार-सङ्कुळ  ब्यबहारे,
प्रचळ काळ बि  जणा न पड़इ  संसारे ।
जनम जरार            कष्ट सहित
मरणकु निज आगे,
देखिले सुद्धा         प्राणीर मानसे
भय तिळे नाहिँ जागे ।
करि मोहमयी       प्रमाद- मदिरा
मत्ते पान,
प्रतीत हुअइ           सकळ जगत
मुह्यमान ॥
*
[४९]
नर- परमायु          शत बत्सर
अबनीरे,
ताहारि अर्द्ध    काळ बितिय़ाए
रजनीरे ।
आउ अर्द्धेक     भाग य़ा रहिला
अर्द्ध तार,
समय बितइ        बाल्य आबर
बृद्धतार ।
अबशेष काळ  होइय़ाए अतिबाहित
रोग बिच्छेद  दुःख सेबादि सहित ।
जीबन ऊर्मि            परि चञ्चळ
चालिय़ाए चाहुँ चाहुँ ;
एपरि दशारे          मर्त्त्य पराणी
सुख बा लभिब काहुँ ?
*
[५०]
क्षणक पाइँ से बाळक,
क्षणके से पुणि मदन-रसिक य़ुबक ।
क्षणक पाइँ से   निर्द्धन भबे
क्षणके से धनी  बिपुळ बिभबे । 
जरा-जर्जर जीर्ण्ण अङ्ग धरि, 
लुळित चर्म-          कळित शरीरे
मञ्चर नट परि ।
सा हेबा           परे आपणार  
ब-अभिनय ,
पुरीर               परदा भितरे 
परबेश रे मानब 
*
[५३]
बल्कळ घेनि
मानस तुष्ट आमर,
दुकूळ पिन्धि
मानस तुष्ट तुमर ।
उभयङ्कर  सन्तोष एका समान,
एथिरे काहारि नाहिँ बिशेषता बिधान ।
तृष्णा य़ाहार       बिशाळ आकार,
दरिद्र जन सेइ परा ;
किए धनी अबा           किए दरिद्र
सन्तोषे मन थिले भरा ?
*
[६२]
चित्त रे !  तुहि  
भ्रमुछु किलागि तुच्छारे ?
बिश्राम निअ केउँठारे ।
य़ेउँपरि य़ाहा घटिबार अछि सर्बथा,
सेहिपरि ताहा          घटे आपे आपे
केबे त नुहइ अन्यथा ।
न सुमरि मुहिँ    कथा अतीतर
बाञ्छा न करि      भबिष्यतर
बर्त्तमान हिँ करुइछि अनुभब ;
बिना शोचनारे            अकस्मात य़े
आगत भोग सरब ॥
*
[६८]
शङ्करे थिब    अचळ भकति,
हृदयरे थिब जनम-मृत्यु-भय ;
बन्धु- जनरे   न थिब सेनेह,
न थिब आबर  मदन-बिकार-चय ।
थिब सङ्गति-दोष-बर्जित निर्जन
बनान्त-राजि  निज एकान्त निकेतन ।
अन्तरे बइराग्य जागिले  एइभळि,
किस बा रहिछि 
आन आकाङ्क्षा  एथुँ बळि ?
*
[७५]
य़ाबत रहिछि सुस्थ नीरोग कळेबर
दूरे अछि जरा य़ेतेबेळ य़ाए मानबर,
इन्द्रिय ठारे   रहिछि य़ाबत
शकति सकळ   अप्रतिहत,
क्षीण होइ नाहिँ           य़ेतेबळ य़ाए
क्षण-भङ्गुर आयुष,
करिब आत्म-          कल्याण लागि
बिशेष य़त्न बिदुष ।
गृह य़ेतेबेळे 
अग्नि-कबळे ज्वळित,
कूप खोळिबार  
चेष्टा किपरि उचित ?
*
[८२]
इच्छानुकुळ बिहार,
दैन्य-बिहीन आहार,
साधु सङ्गते अबस्थान ;
शान्ति बरत-       फळ-बिधायक
शास्त्र-राजिर चर्च्चामान ।
अन्तर्मुख मानसर,
बाह्य चळन मन्थर ।
एइ सबु कथा
अनेक दीर्घ समयरे,
बिचार कले बि
जाणि मुँ न पारेँ हृदयरे ।
अटन्ति एइ सकळ,
केउँ समुदार श्रेष्ठ तपर सुफळ ?
*
[८४]
चउद लोकर  
अधीश्वर से उमा-बर,
सकळ भूतर  
अन्तरात्मा रमा-बर ।
हर हरि एइ बेनि मध्यरे
नाहिँ भेद भाब मोर अन्तरे,
तथापि भकति  
रहिछि मोहर हर ठारे, 
तरुण चन्द्र  
शोभइ य़ाहार मूर्द्धारे ॥
*
[९४]
बिस्तृत चारु      शय़्या रहिछि
अबनी- तळ,
बिशाळ तकिआ   रहिछि आहुरि
बाहु य़ुगळ ।
चन्द्रातप ए गगन,
ब्यजन ए परा अनुकूळ धीर पबन ।
उज्ज्वळ दीप  शोभइ शारद चन्द्रमा,
आनन्दित य़े         घेनि सङ्गते
बिरति-रमणी मनोरमा ।
एभळि शान्त         मुनि सुख लभे
शय़्यारे करि बिजे,
बिपुळ अतुळ-         सम्पदशाळी
सम्राट परि निजे ॥
= = = = = = = 

Odia Script Image : Vairagya-Sataka : 
Link : 
= = = = = = =
Related Link :
* * * *

No comments:

Post a Comment