Friday, October 14, 2016

Gita-Govinda Kavya: Canto-4 : Odia Version: Dr. Harekrishna Meher

‘Gita-Govinda’ Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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Link:
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत गीतगोविन्द काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवादडॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-4 : Snigdha-Madhava)
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गीतगोविन्द : चतुर्थ सर्ग
(स्निग्ध-माधव)
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[श्लोक-: यमुना-तीर-वानीर]
*
रम्य य़मुना नदीतीरे
बेतस-कुञ्ज-बसतिरे,
अबसादभरे बसिथिले हरि चिन्तित,
प्रेमअनुरागे बिचळित
तहिँ पहञ्चि राधिकाङ्कर सहचरी,
व्यकत करिले ताङ्करि आगे एहिपरि
*
[गीत- : निन्दति चन्दनमिन्दुकिरण]
*
राधा सुन्दरी      चन्दन सह
शीतळ चन्द्ररश्मिकि,
हृदये निन्दा करन्ति भाबि अरुचिकि
माधब ! तुमरि बिना,
अधीरता भजि सखी मो खिन्नमना
मळय पबन कोमळ,
भाबन्ति से    य़ेपरि सर्प-
बसति-मिळित गरळ
तुमरि बिरहे परा
से अति दैन्यभरा
दर्पक-शर    भयरे सते बा
ताङ्क हृदय आशङ्कित,
एथिपाइँ तुम   स्वरूपरे लीन
होइ मणन्ति सुरक्षित ()
*
राधिकाहृदये तुमे सदा बिराजित,
किन्तु निरते      मन्मथ-शर
हेउछि तहिँ पतित
से शरघातरु  सते अबा सखी
रक्षा सकाशे तुमर,
हृदय-मर्मे  निजर
जळ-सिञ्चित कमळ-पत्रे रचित
बिशाळ कबच करिअछन्ति खचित ()
*
बिचित्र नाना परकार
पुष्पराजिरे कोमळशय्य़ा मनोहर,
अनेक बिळास   कळारे सजाइ
नारीमणि,
निजे अछन्ति निर्माणि
बिरहे तुमरि हुए परते,
पुष्पशायक मदनर शर-शय्य़ा सते
केबळ तुमर   प्रेमालिङ्गन
सुख पाइबार  आशारे मगन,
आचरिछन्ति सुन्दरी,
एरूपे कठोर ब्रत परि ()
*
ताङ्क मृदुळ मुखारबिन्द सुन्दर,
धारण करिछि नेत्ररूपक बारिधर
तहिँरु अश्रु-जळ,
झरुअछि अबिरळ
प्रते हुए सते   राहुर कराळ
दन्ताघातरे दळित,
चन्द्ररु धीरे   धीरे झरिआसे
पीयूषर धारा गळित ()
*
हस्तरे घेनि कस्तूरिका
बसि एकान्ते  सखी राधिका,
साक्षातरूपे तुमकु मदन भाबि सेत
करन्ति तुम रम्य मूरति अङ्कित
से चित्रतळे आबर
रचिथाआन्ति बाहन रूपरे मकर
नूतन आम्र    मुकुळ सायक
निबेशिथान्ति करे पुणि,
अर्च्चित करि       चित्रे तुमकु
प्रणमन्ति से बिरहिणी ()
*
से कहन्ति पदे पदे होइ आरता,
माधब ! तुमरि पादतळे मुहिँ पतिता
मोठारु बिमुख
होइ तुमे गले सत्वर,
मोहरि देह     दहइ चन्द्र
हेलेबि शीतळ सुधाकर ’ ()
*

अतिदुर्लभ तुमकु आपणा हृदगते
एकाग्रमन धिआने कल्पि अग्रते,
से हरिणाक्षी      तुमकु लक्षि
केते करन्ति बिळाप,
हसन्ति मोदे  केतेबेळे पुणि
करन्ति शोक अमाप
केतेबेळे करिथान्ति बिकळ रोदन,
केतेबेळे पुणि करन्ति अनुधाबन
हरि ! हेले तब आबिर्भाब,
निबारिथान्ति      आपणा तनुरु
ताप सरब ()
*
शिरीजयदेब   कबि-बिरचित
गीतिकि यदि निजर,
मानसे नृत्य   कराइबा पाइँ
बाञ्छा रहिछि तुमर,
तेबे हे सुज्ञमाने !
पाठ कर साबधाने
कृष्णबिरहे    व्याकुळ-हृदया
बरज-तरुणी राधाङ्कर,
प्रिय-सहचरी       प्रकाशिछन्ति
य़ेते रसभाबपूर्ण्ण गिर ()
*
[श्लोक-: आवासो विपिनायते]
*
हरि हे ! तुमरि  बिरहरे आहा !
राधाङ्क कि लक्षण,
त्रस्ता हरिणी      परि बिरहिणी
करुअछन्ति आचरण
ताङ्कु एकाळे   बासगृह लागे
घन बनस्त परि,
बिस्तृत जाल      परि सखीगण
रहिअछन्ति घेरि
उष्ण शुआस य़ोगे तनु-ताप निजर,
बन-बह्निर    ज्वाळाराजि परि
अनुभूत हुए प्रखर
य़मरूप बहि       अछि मन्मथ
कि निर्दय,
शार्दूळ-खेळा    बिरचि जगाए
चित्ते भय
*
[गीत-: स्तन-विनिहितमपि हार]
*
केशब हे ! तुम बिरहरे
कृशाङ्गी राधा  स्वदेहरे,
कुचय़ुगपरे लम्बित आपणार,
मनोहर मणि-    हारकु मध्य
मणुअछन्ति भार ()
*
चन्दन लेप    हेलेबि सरस
चिक्कण केड़े शीतळ,
अङ्गे बोळिले   भये मणन्ति
य़ेह्ने बिषम गरळ ()
*
निःश्वास बायु उष्ण,
सतेकि प्रखर  कामाग्नि बोलि
भाबन्ति आहे कृष्ण !
सकळ अङ्गे सञ्चार,
अतुळनीय ता बिस्तार ()
*
बिरहिणी निज    चतुर्दिगरे
सञ्चाळित,
नेत्रय़ुगरु        बरषुछन्ति
लोतकबिन्दु अप्रमित
नाळरु छिन्न     कमळ य़ेपरि
चारिपाशरे,
बिक्षेप य़ोगुँ     बारिकणराशि
बर्षा करे ()
*
पत्रे रचित    कोमळ शय्य़ा
हेलेबि नेत्रे गोचर,
भाबन्ति ताहा     अनळ-शय्य़ा
देह-दाहक से प्रखर ()
*
मृदु रक्तिम      करतळ थापि
आपणार,
छाड़िपारन्ति   नाहिँ से कपोळ
परिसर
सन्ध्याबेळार बाळचन्द्रमा य़ेसने,
निश्चळ रहे गगने ()
*
तुमरि बिरहे      ताङ्क मरण
होइअछि सते निश्चित,
हरि हरि बोलि  तुम नाम खालि
जपिबारे से मज्जित ()
*
शिरीजयदेब कबि-बिरचित गीति,
केशब-चरणे    प्रणत जनर
चित्ते बितरु पीरति ()
*
[श्लोक-: सा रोमाञ्चति सीत्करोति]
*
राधिका-अङ्गे   शिहरण जागे
बारबार,
निर्गत हुए      मुखरु अनेक
सीत्कार
केतेबेळे सेत करिथान्ति बिळाप,
आहुरि कम्प जगाए बिरह-ताप
दुःखे झाउँळि    य़ाए मृदु तनु
तुमरि बिना,
केतेबेळे सखी  तुमरि धिआने
मग्नमना
भरमिथान्ति तुम बिना मति-बिह्वळे,
नेत्र-युगळ मुदि रहन्ति केतेबेळे
लोटि पड़न्ति  सहसा भूमिरे,
केतेबेळे उठि चालन्ति धीरे
केतेबेळे पुणि से मूर्च्छिता,
एभळि मदन-    ज्वरे शुभाङ्गी
जर्जरिता
सन्देह जागे बञ्चिबेनिकि स्वदेहे,
स्वर्गपुरीर बैद्य-पराय तुमे हे !
यदि प्रसन्न होइब
रसे उपचार बिहिब,
तेबे रहिपारे सखी-पराण,
हेले तुमे हिँ   अन्तक बोलि
निश्चे जाण
*
[श्लोक-: स्मरातुरां दैवत-वैद्य-हृद्य]
*
हे देबबैद्य-प्रतिम रम्य श्रीहरि !
होइअछन्ति      काम-मार्गणे
रुग्णा सजनी मोहरि
तुमरि अङ्ग-सङ्ग-पीयूष केबळ,
सेबनयोग्य देब आरोग्य सफळ
एइ औषध      देइ राधाङ्कु
करिब य़दि रोग दूर,
तेबे उपेन्द्र !     बज्रठारु बि
तुमे अट अति निष्ठुर
*
[श्लोक-: कन्दर्पज्वर-संज्वरातुर]
*
कळेबर सुकोमळ,
एकाळे मदन-ज्वरे जर्जर बिह्वळ
केबे चन्दन  चन्द्र नळिनी
बिषय चिन्ता करिले सजनी,
बर्द्धित हुए       अधिक ताङ्क
मनोव्यथा,
अति बिस्मय एइ कथा
सुशीतळतर  प्रियबर
तुमे एका अट ताङ्कर
क्ळान्ति लभिले     सखी एकान्ते
तुमरि धिआने निरत,
कौणसिमते      दुर्बळ देहे
रहिअछन्ति जीबित
*
[श्लोक-: क्षणमपि विरहः पुरा]
*
पूर्बे मिळन दशारे
केतेबेळे काहा बशरे,
मुहूर्त्तक बि     तुमरि बिरह
पारु थिले य़े सहि,
श्वास निअन्ति     कौणसि मते
एबे से बञ्चि रहि
दीर्घ बिरहे आतुरे
एबे बसन्त ऋतुरे,
आम्रशाखार      शिखे सञ्जात
बकुळपुञ्ज देखि,
आपणा नेत्र      बुजि रहन्ति
दुःखिनी प्रियसखी
                                                * * *
गीतगोबिन्द     काव्य मधुर
कबि जयदेब-बिरचित,
स्निग्ध-माधब’    नामे चतुर्थ
सर्ग होइला समापत
श्रीहरेकृष्ण-मेहेर,
रचिले ओड़िआ पद्यानुबाद रुचिर
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* गीतगोविन्द चतुर्थ सर्ग सम्पूर्ण *
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