Saturday, October 15, 2016

Gita-Govinda Kavya: Canto-7 : Odia Version: Dr.Harekrishna Meher

‘Gita-Govinda’ Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
*
Link:
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महाकवि-जयदेव-प्रणीतगीतगोविन्दकाव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवादडॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-7 : Nagara-Narayana)
*
गीतगोविन्द : सप्तम सर्ग
(नागर-नारायण)
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[श्लोक-: अत्रान्तरे कुलटा-कुल]
*
इतिमध्यरे  उदे होइ बिधु
रश्मिजाले निजर,
आलोकित कला  उज्ज्वळ तेजे
बृन्दाबन भितर
बिटपीङ्कर      सङ्केत बाटे
किरण बिञ्चि देइ,
पाप अर्जिबा   य़ोगुँ सते अबा
से कळङ्कित-देही
शोभा बहिअछि मनोरमा
दिगङ्गनार       भाले चन्दन
बिन्दुरूप से चन्द्रमा
*
[श्लोक-: प्रसरति शशधर-बिम्बे]
*
चन्द्रबिम्ब प्रसरिला एबे अम्बरे,
हरि-आगमने अति-बिळम्ब होइबारे
अधीरा राधिका बिरहरे,
बहुताप लभि      उच्चे बिळाप
कले तहिँ नाना परकारे
*
[गीत-: कथित-समयेऽपि हरिरह]
*
आहा ! कि दुःख जागे मो मने,
बचन-दत्त    बेळारे सुद्धा
चळिले हरि कुञ्ज-बने
मोर मधुर    रूप लाबण्य
नब तारुण्य उज्ज्वळ,
सबु हेला एबे निष्फळ
बञ्चिता हेलि प्रियसखीङ्क कथारे,
हाय ! ए समये
आश्रय नेबि काहारे ? ()
*
य़ाहा सङ्गते  मिळन आशारे
घोर बनस्ते  बसिछि निशारे,
से नटनागर प्रियबर,
ताङ्करि य़ोगुँ     पञ्चबाणरे
पीड़ित मोर अन्तर ()
*
पिन्धिलि आहा !    ताङ्करि पाइँ
ए परकार,
रत्न-खचित       कङ्कण आदि
रमणीय मणि अळङ्कार
एबे समस्त लागे असार,
बहिछि बहुत दूषणभार
उष्ण अतीब कृष्ण-बिरह-अनळ,
बहिअछि य़ेणु    मोर एइ तनु
कोमळ ()
*
मोर मरण हिँ श्रेयस्कर,
व्यर्थ मोहर कळेबर
चेतना हराइ सारिलिणि,
गहने रहि    बिरह-बह्नि
सहिबि केते मुँ बिरहिणी ? ()
*
आहा ! बसन्त    ऋतुर रात्रि
केते मधुरा,
किन्तु एकाळे  करुअछि मोते
केते बिधुरा
अटइ से केउँ गोपय़ुबती,
निश्चिते बहुपुण्यबती
प्रेम अनुभब करुअछि केळि-रङ्गरे,
प्रियतम हरि सङ्गरे ()
*
हृदे लम्बित मृदुळ पुष्पमाळा,
निर्दय-भाबे      करुछि एकाळे
पञ्चसायक-लीळा
कुसुम-कोमळ-अङ्ग-धारिणी मोते,
कष्ट देउछि केते ()
*
बसि रहिअछि  मुँ बिरहिणी,
घोर बिपिनबेतस भितरे
भीति गणि
से मधुबैरी तथापि ताङ्क चित्तरे,
स्मरण मोहरि     करुनाहान्ति
केबे थरे ()
*
श्रीहरि-चरणे     आश्रित कबि
जयदेबङ्क बाणी,
शोभे सुकुमारी  कळाबती य़था
चित्तहारिणी तरुणी
रसिक भक्तजनङ्कर,
हृदे बास करु निरन्तर ()
*
[श्लोक-: तत्किं कामपि कामिनी]
*
प्रिय देइथिले सङ्केत,
मञ्जु बेतस-    लताकुञ्जरे
हेबा निमन्ते समागत
एपरिय़न्त          किन्तु काहिँकि
पहञ्चिले एइठारे ?
चालिगले कि से  केउँ रमणीर
अभिसारे ?
अबा केते केळि कौतुकरे,
मातिथिबे निज मित्रगणर सङ्गतरे ?
अन्धारभरा गहन बिपिन मध्यरे,
होइ पथहरा  भ्रमुथिबे कि से  दुःखरे ?
थका मने अबा  चालिबा पाइँकि
दूर पथ,
समर्थ हेले     नाहिँ एसमये
प्राणनाथ ?
*
[श्लोक-: अथागतां माधवमन्तरेण]
*
सङ्गे आणि बनमाळी,
फेरिअछन्ति प्रिय-आळी
अतीब दुःख हेतुरु
कथा बाहारे मुखरु,
आसिअछन्ति एका,
देखिले एहा राधिका
मनरे ताङ्क    जागिला शङ्का
एहिपरि,
अन्य य़ुबती     सङ्गे सुरति
केळिरे मत्त प्रियहरि
नेत्र पुरते   देखिला पराये
परते होइला ताङ्कर,
प्रकाशिले तेणु   व्यग्र मानसे
सखीअग्रते एइ गिर
*
[गीत-: स्मर-समरोचित-विरचित]
*
सजनि गो ! अछि के य़ुबती,
मो ठारु अधिक गुणबती ?
मज्जि रहिछि रतिरे
मधुरिपुङ्क साथिरे
मन्मथ-रण    अनुरूप बेश
बिरचिछि सेइ नायिका,
शिथिळ-बन्ध होइछि ताहारि अळका
खोषिथिला य़ेते कुसुममाल्य लळित,
होइछि सकळ गळित ()
*
लभिबार लागि प्रियवल्लभ-आलिङ्गन,
लागुछि ताहार अतिउत्सुक व्यग्र मन
पीन बक्षोज-   कळस युगळ
उपरे तार,
दोळे चञ्चळ     लम्बित चारु
मुक्ताहार ()
*
तार कुञ्चित कुन्तळ,
बिञ्चि हेबारु     सुसञ्च दिशे
बदन-इन्दु उज्ज्वळ
रसनिधिङ्क     मधुर अधर
पान करि,
केळि-आनन्दे तन्द्रा भजिछि सुन्दरी ()
*
श्रुति-कुण्डळ चपळ,
बाजिबारु तार दळित गण्ड-य़ुगळ
किणिकिणि नादे    मुखरित तार
कटि-मेखळा,
जघनर गति  य़ोगे से य़ुबती
दिशे चपळा ()
*
प्रियबदनकु निरेखि,
हसि देउअछि लज्जा-आबेगे सुमुखी
मज्जाइ दिए सुरति रसरे ताहारि
मुखरु अनेक बिहङ्ग-रुत बाहारि ()
*
बहु शिहरण    बहिबारु तार
अपघन,
जागिछि सरागे तहिँ ऊर्मिळ कम्पन
नासार शुआस चळनरु
दर-मुद्रित नयनरु
प्रतीत हेउछि निश्चय,
प्रसरिछि तार    काम-उद्रेक
अतिशय ॥ ()
*
रतियुद्धरे धैर्य्य़बती से निपुणा,
प्रिय हरिङ्क      बक्ष उपरे
शरीर निबेशि आपणा
पड़ि रहिअछि तरुणी,
भाबाबेगे अनुरागिणी
मन्मथ-रसे मज्जिथिबारु ताहारि,
श्रमज घर्म-     बिन्दुरे तनु
सुन्दर दिशे आहुरि ()
*
कबि जयदेब    बर्ण्णित हरि-
सुरति चारु,
कळिय़ुगर      पातक सर्ब
निपात करु ()
*
[श्लोक-: विरह-पाण्डुर-मुरारि]
*
बिरह बशरे     श्रीहरिङ्कर
बदन-कञ्ज- धारण
करिछि पाण्डु बरण
छबिकि ताहारि   बहन करिछि
अस्तगामी कळाकर,
शीत रश्मिरे    किछि उपशम
करुछि बेदना मो मनर
मात्र से परा मित्र अटइ मदनर,
काम-सन्ताप   बढ़ाइ सखि गो !
करुछि मो हृद अस्थिर
*
[गीत-: समुदित-मदने रमणी-वदने]
*
काळिन्दी नदी  तीर बिपिनरे
संप्रति मुरसूदन,
बिजयी कृष्ण    ब्रजयुबतीर
सङ्गते रति-मगन
भाग्यबती से  गोप-नायिकार
चारु लपन,
बहिछि घञ्च       पञ्चसायक-
उद्दीपन
ताहारि अधर सुमधुर,
चुम्बन योगे रसभर
से बदने प्रियहरि
घन रोमाञ्च भरि,
लेखुअछन्ति चारु कस्तूरी तिळक,
चन्द्ररे ताहा     हरिण तुल्य
प्रते हुए मनमोहक ()
*
सेहि रमणीर सुकुन्तळ,
मन्मथ-मृग बिहरिबा पाइँ बनस्थळ
कले ताहा अबलोकन,
तरळित हुए तरुणङ्कर लपन
नबीन मुदिर    परि सुन्दर
सेइ केश,
रसिकबर से    करुअछन्ति
चारुबेश
तहिँरे दामिनी समान
खोषुअछन्ति केते कुरुबक सुमन ()
*
से अङ्गनार      बिपुळ अङ्ग
रति-सदन य़े जघन,
पञ्चबाणर से त काञ्चन आसन
प्रिय-मानसरे काम-बासना
जगाउछि भरि  उद्दीपना
बिस्तार करि तहिँरे काञ्ची मणिमय,
पिन्धाइ देउछन्ति माधब रमणीय ।
प्रसारि शोभा-बिळास,
करुअछि ताहा     चारु मङ्गळ
तोरणकु उपहास ()
*
पदय़ुग नबपल्लब-रूप सुकुमार,
बहिछि शोभार सम्भार
नखरूप मणि-   राजिरे भूषित
बिराजे सेइ,
से पद बेनिकि    पद्मा-सदन
हृदे लगाइ
करुअछन्ति हरि अलक्त रञ्जित,
बाह्याबरण समुचित ()
*
सेहि तरुणीर    कस्तूरी लेप-
शोभित रुचिर उज्ज्वळ,
सुघन य़ुग्म-उरज गगन-मण्डळ
प्रियहरिङ्क    नखाङ्क-रूप
अर्द्धचन्द्र धारण करि,
दिशे मञ्जुळ चित्त हरि
तहिँरे खचित       करन्ति हरि
मुक्ताहार,
ताराबळी से   दिशुअछि केते
चमत्कार ()
*
मृणाळ-खण्ड छबिकि जिणि,
सुकुमार-गुणे   शोहे तरुणीर
य़ुग्म पाणि
शोभइ से पुणि   तुषार तुल्य
केड़े शीतळ,
बिराजे कोमळ   करतळ तार
पद्म-दळ
मुदे पिन्धाइ देउअछन्ति प्रियबर,
करे मरकत    मणि-कङ्कण
भ्रमरपन्ति-रूपधर ()
*
हळधरङ्क खळ सहोदर हरि,
केउँ सुनयना    नायिका सङ्गे
मातिथिबे रस भरि
कह तेबे आगो प्रियसहि !
बिरस बदने     थिबि मुँ किम्पा
बसि रहि ?
आहुरि दीर्घ समय,
घनतरुभरा   घोर कानने
कराइ चित्त अथय ॥ ()
*
हरिपदयुगे  सेबाकारी य़ेहु
प्रिय भकत,
रसमय लीळा   बर्ण्णिबारे से
लेखनीरत
जयदेब कबि-नृपति
बिरचिले एहि सुगीति
भक्त-हृदय सरस,
तहिँरे कळिर पातक करु परश ()
*
[श्लोक-: नायातः सखि निर्दयो]
*
सखि दूतिका गो ! नटबर,
शठ हरि से निष्ठुर
मोपाशे नइले कण्ट देइ से,
दुःख काहिँकि  करुछ मानसे ?
एथिरे कि दोष अछि तुमरि ?
स्वेच्छारे केळि      करुअछन्ति
केते सुन्दरी सङ्गे धरि
बहुबल्लभ      हेलेहेँ ताङ्क
गुणे बिमुग् मोर मन,
सते अतिशय व्यग्रताबशे छनछन
कान्त-मिळन सुख पाइँ
निजे सत्वरे य़िब धाइँ
ताङ्क समीपे  होइब आजि से
उपस्थित,
प्रियसखि ! देख सुनिश्चित
*
[गीत-: अनिल-तरल-कुवलय]
*
पबने दोळित नीळ पङ्कज सम,
नेत्रयुगळ हरिङ्क मनोरम
सुन्दर सेइ बनमाळा-बिभूषित,
प्रिय सङ्गरे     य़ेउँ अङ्गना
होइअछि केळिरत
से उल्लसि      नब पल्लब
रचित कोमळ शय्य़ारे,
अनुभब करु     थिब अतनु
सन्ताप-शर अन्तरे ()
*
बिकशित नब इन्दीबर समान
सुन्दर य़ार बदन दीप्तिमान,
एपरि कृष्ण सहित,
रमि से तरुणी     पुष्पबाणर
प्रहारे थिब पीड़ित ()
*
पीयूष पराय  मधुर कोमळ
य़ार बाणी,
एपरि माधब     सङ्गे रमइ
से तरुणी
आपणा अङ्गे    करि सुशीतळ
चन्दन लेप चर्चित,
दाह अनुभब
करु थिबटि किञ्चित ()
*
य़ाहार हस्त युगळ पयर
स्थळारबिन्द   परि सुन्दर,
एपरि कृष्ण सङ्गे आचरि पीरति,
शीतळ चन्द्रकिरणे दग्
हेउ थिब से युबती ()
*
सुरम्य  य़ार शरीर,
शोभइ य़ेह्ने उदकपूर्ण्ण मुदिर
एपरि कृष्ण        सङ्गते रमि
धन्य गोपिका से आपणा,
हृदे अनुभब     करु थिबटि
दीर्घ बिरह यन्त्रणा ()
*
निकष पाषाणे मार्जित हेम परि,
उज्ज्वळ चारु    पीत अम्बर-
परिहित य़ेउँ हरि
ताङ्क साथिरे से युबती,
अछि सङ्गम-रसे माति
सहि सखीङ्क उपहास,
करु थिब से
तिआग दीर्घ निःश्वास ()
*
सर्ब भुबन       जन मध्यरे
तरुणबर य़े सुगुणी,
एपरि कृष्ण     सङ्गे बिळासे
रत अछि सेइ तरुणी
भोगु थिबटि भाग्यबती,
बिरह बशरे    करुण दशारे
कष्ट अति ()
*
जयदेब कबि-रचित मधु
बाणी-माध्यमे सुबेश,
सन्तापहारी       हरि करन्तु
भक्तहृदये प्रबेश ()
*
[श्लोक-: मनोभवानन्दन-चन्दन]
*
कन्दरपर  आनन्दकर
चन्दनभरा मन्द समीर !
तुमे परा अट दक्षिण,
सुपरसन्न   हुअ मोर पाशे
बर्जन कर बामपण
आहे जगत-पराण !
क्षणमात्र बि     प्रियतमङ्कु
मोर सम्मुखे आण
पश्चाते मोर पराण,
करिब निश्चे हरण
*
[श्लोक-: रिपुरिव सखी-संवासो]
*
सखीमानङ्क सह एकत्र बसति,
प्रतीत हेउछि
य़ेह्ने प्रबळ अराति
शीतळ पबन देहकु ,
हेउछि य़ेह्ने प्रखर बह्नि अनुभूत
सुधाकर-कर शीतळ,
एबे मो पाइँ
लागुछि य़ेह्ने गरळ
य़ाहाङ्कु- मोर     अन्तरे भजि
सहुछि एभळि दुःखभार,
सेहि निर्दय    प्रियठारे बळे
हृदय बळुछि पुनर्बार
नीळपङ्कज-    नयनाङ्कु
आपणा बश,
करि रखिअछि    बाम कामदेब
सदा अतिशय-निरङ्कुश
*
[श्लोक-: बाधां विधेहि मलयानिल]
*
हे मळय बात ! य़ेतिकि पार,
दिअ मो हृदये बेदनाभार
मोर तुच्छ हीन पराण,
नेइय़ाअ तुमे  पञ्चबाण !
एबे आपणार गृहकु मुहिँ,
आउ आश्रय करिबि नाहिँ
निश्चळे काहिँ
रहिछ गो य़म-भग्नि !
प्रशमित हेउ
मो देहे बिरह-अग्नि
खेळाइ तुङ्ग लहरी,
सिञ्चिदिअ गो सकळ अङ्गे मोहरि
                                                           * * *
कबि जयदेब   रचिले काव्य
गीतगोबिन्द अनुपम,
हेला समाप्त एठारे सर्ग सप्तम
बहिछिनागरनारायणनाम
सर्ग ,
ओड़िआ भाषारे     पद्यानुबाद
   श्रीहरेकृष्ण-मेहेर-कृत
= = = = =

* गीतगोविन्द सप्तम सर्ग सम्पूर्ण *

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