Kumara-Sambhava Mahakavya *
Original Sanskrit Epic Poem : Mahakavi Kalidasa
Odia Metrical Translation : Dr. Harekrishna Meher
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Canto-2 (Dvitiya Sarga):
Prayer of gods to Brahma and Appearance of Kamadeva
(Taken from Complete Odia Version)
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Published in BARTIKA (बर्त्तिका), Literary Odia Quarterly,
Dashahara Special Issue, October-December 2006, Pages 923-929.
Saraswata Sahitya Sanskrutika Parishad, Dasharathpur, Jajpur, Odisha.
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कुमारसम्भव महाकाव्य
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि कालिदास *
संपूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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कुमारसम्भव : द्वितीय सर्ग *
विषय : ब्रह्माङ्कु देबताङ्क प्रार्थना एवं कामदेवागमन *
समुदाय श्लोक संख्या : ६४ *
ओड़िआ छन्दरे अनूदित : राग कळहंसकेदार *
अनुवाद काल : १९७१ ख्रीष्टाब्द
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(१)
से समये तारक दानबपति । देबगणङ्कु पीड़ा देबारु अति ॥
बासबे आग करि सर्ब सुमन । स्वायंभुब-भुबने कले गमन ॥
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(२)
म्लान-मुख अमरगण सम्मुख । आसि उभा होइले चतुरमुख ॥
सुप्त-पुष्करय़ुत सर-निकर । समक्षे प्रात:काळे य़था भास्कर ॥
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(३)
तहुँ सर्बतोमुख विश्वकरता । बागीश बिधाताङ्कु सर्ब देबता ॥
प्रणिपात जणाइ बिनम्र शिरे । स्तुति आरम्भ कले य़थार्थ गिरे ॥
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(४)
सर्जना पूर्बे प्रभो ! हे बेदबर !। एक स्वरूप रहिथाए तुमर ॥
सृष्टिरे सत्त्व रज तुमे भिआइ । ब्रह्मा बिष्णु महेश नाम बोलाइ ॥
तुमे त्रिमूर्त्ति करिथाअ धारण । प्रणमुँ तब पदे देबतागण ॥
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(५)
सलिळ मध्ये तुमे अज हे ! निज । बपन कल नेइ अमोघ बीज ॥
सेथिरु चराचर ए बिश्व जात । तुमे बिश्वकरता बोलि बिख्यात ॥
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(६)
तुमे त एकरूप अट बिश्वरे । तिनि अबस्था य़ोगुँ तिनि रूपरे ॥
आपणार महिमा करि प्रकट । सृष्टि स्थिति लयर कारण अट ॥
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(७)
सृष्टि इच्छारे निज शरीर घेनि । बिभक्त कल स्तिरी पुरुष बेनि ॥
से बेनि बिभाजन सरजनारे । पितामाता स्वरूपे ख्यात संसारे ॥
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(८)
आपणा काळ परिमाणे तुमर । कल्पित होइथाए रात्रि बासर ॥
जगत लय लभे शयने तब । जागरणे हुअइ सृष्टि सरब ॥
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(९)
तुमे हिँ निजे सृष्टिकर्त्ता बिश्वर । सृष्टिकरता केहि नाहिँ तुमर ॥
तुमे हिँ जगतर लय-कारक । नाहिँ अपर केहि तब नाशक ॥
तुमे त आदि अट ए जगतर । तुमर आदि केहि नाहिँ अपर ॥
एक ईश्वर तुमे सर्ब बिश्वर । हे प्रभो ! केहि नाहिँ तब ईश्वर ॥
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(१०)
निज द्वारा हिँ तुमे निजे गोचर । निज द्वारा निजकु सर्जना कर ॥
बिश्वसर्जना कार्य़्य़ शेषे अचिरे । बिलीन हुअ निजे निज शरीरे ॥
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(११)
तुमे तरळ पुणि कठिन अति । तुमे हिँ अट स्थूळ सूक्ष्म मूरति ॥
लघु गुरु तुमे हिँ ब्यक्त अब्यक्त । सर्ब ऐश्वर्य़्य तुम स्वहस्तगत ॥
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(१२)
बिराजइ य़ाहार आद्ये ओंकार । स्वर-त्रयरे उच्चारण य़ाहार ॥
य़ज्ञ य़ाहार कर्म स्वरग फळ । सेहि बाणीर तुमे उद्भब-स्थळ ॥
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(१३)
ज्ञानीङ्क मते तुमे मूळ प्रकृति । पुरुषार्थ पाइँ य़े दिए प्रवृत्ति ॥
से प्रकृतिर उदासीन दर्शक । पुरुष अट तुमे विश्वनायक ॥
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(१४)
पिता अट तुमे त पितृगणर । देवङ्कर देवता अट आबर ॥
श्रेष्ठङ्क ठारु मध्य श्रेष्ठ आपण । सृष्टिकर्त्ताङ्क मध्य सृष्टिकारण ॥
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(१५)
हे प्रभो ! तुमे हव्य आबर होता । शाश्वत तुमे भोज्य तुमे हिँ भोक्ता ॥
तुमे त ज्ञेय पुणि अट हे ज्ञाता । तुमे परम ध्येय आबर ध्याता ॥
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(१६)
देवताङ्क एपरि य़थार्थ स्तब । शुणि हरषे ब्रह्मा कमळोद्भब ॥
प्रसन्न बदनरे देबङ्क प्रति । प्रकाश कले धीरे मधु भारती ॥
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(१७)
पुरणकबि बिश्व-बिधाताङ्कर । चतुर्मुखुँ व्यकत चतु:शब्दर ॥
चतुर्बिध प्रवृत्ति से समयरे । चरितार्थ होइले एहि रूपरे ॥
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(१८)
हे परक्रमी देवे ! आजानुहस्त । स्वबळे अधिकार धरि समस्त ॥
होइछ तुमे एक सङ्गे आगत । तुममानङ्कु मुहिँ करेँ स्वागत ॥
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(१९)
शिशिर-पाते य़था नक्षत्रगण । करिथान्ति मळिन कान्ति धारण ॥
तुमरि मुखमान पूरुब दीप्ति । प्रकाश करु नाहिँ कह केमिति ॥
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(२०)
वृत्रहन्ता इन्द्रङ्क बज्रायुधर । धार कुण्ठित परि हुए गोचर ॥
ज्योति लिभि य़ाआन्ते होइछि म्लान । इन्द्रधनु तहिँरे अविद्यमान ॥
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(२१)
स्वकरे बैरीजन-दुर्बार एहि । य़ेउँ फाश बरुण अछन्ति बहि ॥
ताहा त मन्त्रे हीन-बीर्य़्य सर्पर । दीन दशाकु भजिअछि आबर ॥
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(२२)
शाखा भाङ्गिले वृक्ष पराये दीन । कुबेरङ्कर बाहु गदा-बिहीन ॥
मानसिक शल्यर तुल्य उत्कट । पराभबकु सते करे प्रकट ॥
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(२३)
य़मङ्क दण्ड-अस्त्र निस्तेज दिशे । हस्ते धरि खोदन्ति धरणीकि से ॥
अव्यर्थ हेलेहेँ त मणन्ति य़म । असार निर्वापित- अलात सम ॥
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(२४)
निष्प्रभ हेले कि ए द्वादशादित्य । ताप क्षय हेबारु भजिले शैत्य ॥
दिशन्ति चित्राङ्कित प्राये केसने । चमक न जन्मान्ति जन-नयने ॥
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(२५)
सम्मुख-बाधा हेतु सलिळ-धार । अवरुद्ध हुअइ य़ेउँ प्रकार ॥
सेरूपे बायुङ्कर बेगाबरोध । गति-स्खळन य़ोगुँ हेउछि बोध ॥
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(२६)
अबनत होइछि रुद्रगणङ्क । जटाजूट-भूषित सर्बमस्तक ॥
शशाङ्क-रेखामान लम्बिछि तळे । दैन्य-क्षोभित होइछन्ति सकळे ॥
रुद्रङ्कर हुङ्कार-शकति-क्षय । सूचना देउछन्ति ए शिरचय ॥
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(२७)
प्रथमुँ तुमेमाने सुप्रतिष्ठित । होइ रहिछ गउरब-मण्डित ॥
एबे कि हीन-बळ हेल सकळे । अधिक-शक्तिशाळी शत्रु कबळे ॥
तेजिल स्वाधिकार हे सुरबर्ग ! । य़ेपरि अपबाद बळे उत्सर्ग ॥
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(२८)
हे पुत्रगण ! तेबे केउँ आशारे । आसिअछ, प्रकाश कर मो ठारे ॥
सर्जना-कार्य़्य सिना अटे मोहर । लोक-रक्षण कार्य़्य सबु तुमर ॥
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(२९)
तदन्ते चाळि निज नेत्र-पङ्क्तिकि । सङ्केत देले इन्द्र वृहस्पतिङ्कि ॥
सेहिकाळे सहस्र चक्षु ताङ्कर । भजिला सुन्दरता अरबिन्दर ॥
सरोबरे बहिले मन्द पबन । दोळित हुए य़था कमळ-बन ॥
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(३०)
सहस्र नयनरु बळि दर्शन ।- पारङ्गम य़ाहार बेनि लोचन ॥
इन्द्र-नेत्र-स्वरूप से गुरु धीर । कर य़ोड़ि ब्रह्मारे बोइले गिर ॥
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(३१)
प्रभो ! बचन तब नुहे अनृत । आमरि पद बैरी-बळे बिच्युत ॥
तुमे त अन्तर्य़्यामी बिश्वे व्यापत । तुमरे केउँ कथा अछि गुपत ?॥
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(३२)
तब प्रसादे लभि अमोघ बर । तारक नामे दैत्यकुळ-शेखर ॥
सकळ भुबनर उत्पात लागि । धूमकेतु पराये रहिछि जागि ॥
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(३३)
से महासुर-पुरे प्रचण्ड रबि । बहिअछन्ति भये निस्तेज छबि ॥
प्रसार करिथान्ति एते कर से । बिकशे अरबिन्द य़था सरसे ॥
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(३४)
सकळ-कळापूर्ण्ण तारा-दयित । सेबिथान्ति सर्बदा महादइत ॥
केबळ शिबङ्कर शिरोभूषण । एक कळा करि न थान्ति ग्रहण ॥
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(३५)
समीर पुष्पचोर साजिबा डरे । स्वच्छन्दे न चळन्ति ता उद्यानरे ॥
ता पाशे व्यजनर बायुरु अति । केबेहेँ न बहन्ति सतत-गति ॥
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(३६)
पर्य़्याय-क्रम तेजि ऋतु समस्ते । कुसुम-राशि घेनि एक सङ्गते ॥
उद्यानमाळी सम सेबा करन्ति । तारकासुर पाशे तोषि ता मति ॥
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(३७)
सिन्धु-गर्भे अमूल्य रत्नराजिर । संपूर्ण्ण परिपक्व हेबा स्थितिर ॥
अपेक्षा करिथान्ति बरुण नित्य । उपहारे तोषिबा पाइँ दइत्य ॥
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(३८)
बासुकि आदि महासर्प समस्त । उन्नते टेकि फणामणि ज्वळन्त ॥
स्थिर प्रदीप रूपे नाशि तिमिर । निशिसेबा करन्ति दैत्यपतिर ॥
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(३९)
दूत-हस्तरे निति शचीरमण । कल्पवृक्षर बहुमूल्य भूषण ॥
उपहार पठाइ निज अराति । तारक राक्षसकु प्रीत करान्ति ॥
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(४०)
ए भाबे सेबा पाइ मध्य आमर । त्रिलोके पीड़ा दिए एका पामर ॥
प्रत्यपकारे शान्त हुए दुर्जन । उपकार ता पाइँ नुहे साधन ॥
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(४१)
बिबुध-बधूगण नन्दन-बने । स्वकरे किशळय सदय मने ॥
तोळन्ति कर्ण्ण-आभरण सकाशे । मात्र तारक सर्ब तरु बिनाशे ॥
निष्ठुर भाबे पत्र छेदिबा फळे । भोगुअछन्ति कष्ट वृक्ष सकळे ॥
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(४२)
बन्दी सुरबामाए दैत्यराजर । शयन बेळे बिञ्चिथान्ति चामर ।
दु:खे श्वास बहइ से बायु परि । चामरुँ अश्रुबिन्दु पड़इ झरि ॥
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(४३)
सूर्य़्यदेवङ्क अश्व-खुराग्र बाजि । क्षत मेरुर स्वर्ण्ण शिखरराजि ॥
उत्पाटि दैत्यपति निज गृहरे । स्थापि रखिछि क्रीड़ाशैळ रूपरे ॥
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(४४)
स्वर्ण्णकमळ सर्ब स्वर्ण्णदीङ्कर । उत्पाटि रखिअछि सरे निजर ॥
एबे दिग्गजङ्कर मद-य़ोगरे । आबिळ जळ अछि अबशेषरे ॥
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(४५)
तारकासुर-भये देबतामाने । भ्रमुनाहान्ति शून्य-मार्गे बिमाने ॥
अन्यलोक-दर्शन-प्रीतिरु एबे । बञ्चित होइ रहिछन्ति सरबे ॥
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(४६)
य़ज्ञरे य़जमान आममानङ्क । आहुति अरपण कले नि:शङ्क ॥
मायाबी दैत्य अग्नि-मुखुँ बेगरे । बळपूर्बक सर्ब हरण करे ॥
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(४७)
प्रभो ! पुरन्दरङ्क बहुकाळर । अर्जित मूर्त्तिमन्त कीर्त्ति भास्वर ॥
अश्व-रतन उच्चै:श्रवाकु हरि । असुर निज पुरे रखिछि भरि ॥
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(४८)
सन्निपात व्याधिरे अति उत्तम । औषध मध्य व्यर्थ हेबार सम ॥
क्रूर तारकासुर पाशे निष्फळ । हेउछि आम प्रतिकार सकळ ॥
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(४९)
य़ा पाशे जय-आशा अछि आमर । से बिष्णु-चक्र मध्य दैत्यराजर ॥
शिळा सम कठोर कण्ठ आघात । करन्ते हुए दीप्त तेज सञ्जात ॥
राक्षस-कण्ठे आभरण समान । से तेज होइथाए प्रतीयमान ॥
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(५०)
ऐराबत करीकि करि परास्त । रक्षपतिर बळी हस्ती समस्त ॥
पुष्कराबर्त्तकादि मेघ-देहरे । दन्ताघात अभ्यास करन्ति खरे ॥
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(५१)
प्रभो ! संसार-कर्मबन्ध-छेदक । धर्म इच्छन्ति य़था मुमुक्षु लोक ॥
सेरूपे असुरर नाश-कारण । सेनानी इच्छुँ आमे अमरगण ॥
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(५२)
अग्रते रखि सेहि सेनापतिङ्कि । शत्रु-बन्दिनी समा जयलक्ष्मीङ्कि ॥
मुक्त करि लभिबा पाइँ य़ेसन । समर्थ हेबे निश्चे पाकशासन ॥
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(५३)
एरूपे शुणि सुरगुरुङ्क बाणी । भाषिले धीर चित्ते से कुशपाणि ॥
मेघ-गर्जन परे वृष्टि य़ेपरि । अनुभूत होइला बाक्य ताङ्करि ॥
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(५४)
केतेक काळ तुमे अमरगण । अपेक्षा कर बाञ्छा हेब पूरण ॥
मातर से तारकासुर-निधने । न हेबि नियोजित निजे सर्जने ॥
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(५५)
मो ठारु पाइछि से शिरी-सौभाग्य । मो द्वारा नुहे तेणु बिनाश-य़ोग्य ॥
बिष-तरुकु मध्य करि बर्द्धित । निज हस्ते छेदिबा नुहे उचित ॥
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(५६)
तुष्ट हेलि देखि ता तपश्चरण । न मारिबाकु मुहिँ करिछि पण ॥
करि न थान्ति य़दि ए बर दान । तपाग्नि दहिथान्ता तिनि भुबन ॥
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(५७)
संग्राम-पारङ्गम दैत्यपतिर । सम्मुखीन होइब के अबा बीर ?॥
शम्भु-रेत-सम्भूत पुत्र व्यतीत । समर्थ नुहे केहि साधने हित ॥
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(५८)
परम तेजोमूर्त्ति प्रभु शङ्कर । अबिद्यारु सेहि त अटन्ति पर ॥
मुहिँ आबर बिष्णु ताङ्क महिमा । कळि पारिबा नाहिँ, नाहिँ ता सीमा ॥
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(५९)
नगेन्द्र-नन्दिनीङ्क सुन्दरपणे । समाधि-रुद्ध शिब-मानस क्षणे ॥
आकर्षिबा सकाशे कर उपाय । चुम्बक-सय़ोगरे लौह पराय ॥
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(६०)
बेनि जनङ्क बीज बहन अर्थे । समर्था दुहेँ रहिछन्ति जगते ॥
ईशानङ्क अमोघ रेत धारणे । उमा एका समर्थ अटन्ति जणे ॥
मोर बीज धारण पाइँ आबर । समर्थ जळमयी मूर्त्ति ताङ्कर ॥
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(६१)
तुम सेनानी होइ ईशान-भब । परकाशि असीम शक्ति-बैभब ॥
बन्दिनी बृन्दारक-बामाङ्क बेणी । मोक्ष करिबे नाशि राक्षस-श्रेणी ॥
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