Saturday, October 15, 2016

Gita-Govinda Kavya: Canto-10 : Odia Version: Dr. Harekrishna Meher

‘Gita-Govinda’ Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
*
Link:
= = = = = = = = = =

महाकवि-जयदेव-प्रणीत गीतगोविन्द काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवादडॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = = = = 

(Gita-Govinda : Canto-10: Chatura-Chaturbhuja)
*
गीतगोविन्द : दशम सर्ग
(चतुर-चतुर्भुज)
= = = = = = = = = = 

[श्लो-: अत्रान्तरे मसृण-रोष]
*
इतिमध्यरे       समागत एबे  
न्ध्याबेळ,
राधिकाङ्कर    क्रोध धीरेधीरे
हेला शिथिळ
बहुथिला घन खर निश्वास पबन,
दिशुथिला तेज मळिन
अनाइँथान्ति         सखीमानङ्क
मुखकु लज्जाबशे,
हरि ए समये   उभा हेले आसि
प्रितमाङ्क पाशे
मने आनन्द      लभि गोबिन्द
गद्गद होइ मधुस्वरे,
बोइले सुमुखी-सम्मुखरे
*
[गीत-: वदसि दि किञ्चिदपि]
*
तुमे य़ेबे किछि आपणार
मुखरु बचन  उच्चार,
तुमरि दन्तकान्ति-रूपिणी चन्द्रिका,
मो हृदुँ निबिड़     -अन्धार
हरण करिब गो राधिका !
मधुर अधरु     मधुपान पाइँ
तुमरि सुमुख-कळाकर,
मोहरि नेत्रचकोर य़ुगरे
लाळसा जगाए सुखकर
प्रिये ! मो उपरे
अभिमान तुम निराधार,
आगो चारुशीळे !
कर ताहा बेगे परिहार
दहुछि मो मन
मदन-बह्नि सत्वर,
दिअ मधुपान
तुमरि बदन-पद्मर ()
*
सुरसिके ! यदि   करिअछ रोष
पाशे मोर तुमे सतरे,
तेबे नेत्रर     तीक्ष्ण सा
प्रहार कर मो उपरे
बाहुपाशे मोते
बन्धन कर आहुरि,
दन्त-आघाते
क्षत कर देह मोहरि
तुमरि इच्छा य़ाहा कर,
य़ेपरि लभिब सुखसार ()
*
तुमे हिँ मोहर अळङ्का,
तुमे एका अट प्राण मोहर
संसार
सुबिशाळ पाराबार,
तहिँरे तुमे
मो लागि रत्नसार
निरते मोठारे प्रिसहि !
रह अनुकूळ  भाब बहि
एथिपाइँ सखि ! अबिरत,
हृद मोहर चेष्टित ()
*
सुनीळ कञ्ज-   परा तुमरि
मञ्जुळ बेनि ,
किन्तु एकाळे   बहिअछि से
रक्त-बारिज-बरन
अनङ्ग-भाब अनुरागे,
रामा गो ! तुमरि निज आगे,
सेहि आरक्त    ने करिब
कृष्णकु दि रञ्जित,
तेबे उत्तम    उचित कथा
निश्चित ()
*
अभिमानिनि गो ! तुम्भर,
य़ुगळ उरज-कुम्भर
उपरे दीप्ति लभु मणिहार-मञ्जरी,
रञ्जित करु हृद-परिसर तुम्भरि
खेळा करु चारु मेखळा,
तुमरि पृथुळ जघनदेशरे चपळा
किणिकिणि नादे आपणा,
बीर मदनर    निर्देश करु
घोषणा ()
*
तुमरि चरण सुकुमार,
स्थळपद्मर कान्तिकि करे धिक्कार
मोर हृद बर्द्धन करे शोभा,
सुरतिकेळिर रङ्गे से मनलोभा
रञ्जिदेबि से   य़ुग्म
घेनि अलक्त  रस मनोरम,
कोमळ-मधुर-सुबादिनि !
आज्ञा दिअ गो सङ्गिनि ! ()
*
मस्तके मोर प्रिये ! तब सुकुमार
पाद-ल्ल थोइदिअ आपणार
से हेब मो शिरे आभरण,
करिब बिषम मन्मथ-बिष निबारण
सखि गो ! अङ्गे मोर,
कामसन्ताप-तपन जळुछि घोर
तहुँ ञ्जा        बिकारसर्ब
करु हरण,
घेनि समुचित    उपचार एबे
तब चरण ()
*
एरूपे मानिनी    राधिकाङ्कर
सन्निधिरे,
रसनिधि हरि भाषिले धीरे
सुमधुर अति  मनोहर
चञ्चळ चाटु  प्रि गिर
श्रीमती पद्माबतीपति देबङ्कर,
बिरचित एहि     रुचिर बचन
भबे लभु शुभङ्कर ()
*
[श्लो-: परिहर कृतातङ्के]
*
न्य तरुणी    प्रति मो चित्ते
अछि आसक्ति भाबानुराग,
बोलि अभिमान    करुअछ तुमे
कर से ङ्का परित्या
राधा गो ! तुमरि पीन योधर
घन जघन,
करिछि मोहरि   हृदये निरते
आच्छादन
एहि कारणरु न्य रमणी बिषय,
चिन्ता कदापि करे नाहिँ मोर हृद
अतनु व्यतीत आन
नाहिँ के भाग्यबान,
य़ेहु मो हृद ध्यरे
सबळ प्रबेश करिपारे
तुम उरसिज    परशे प्रण-
आलिङ्गन,
करिबा अर्थे      दिअ अनुज्ञा
प्रि बचन
*
[श्लोक-: मुग्धे ! विधेहि मयि]
*
मुग्धे ! य़दि मुँ करिअछि अपराध,
तेबे निर्द    दन्ते आघात
कर मोते निर्बाध
बाहु-ल्लरी   प्रसारि निबिड़े
बन्धन कर मोते,
आहुरि कठोर  बक्षोजे चापि
पीड़ित कर य़ुकते
भामिनि गो ! दिअ
मोते शास्ति प्रहार,
अन्तरे पाअ
तुमे आनन्द अपार
पञ्चसा-      ण्डा सते
साधुअछि मोरे कि दाउ,
ताहारि दारुण   बाण-घाते मोर
पराण किन्तु य़ा
*
[श्लो-: शशिमुखि ! भाति]
*
चन्द्रमुखि गो ! दिशे कुटिळ,
तुमरि म्य  भूरु य़ुगळ
मन बिमोहित   करणे तरुण
जनङ्कर,
प्रते हुए काळ    सर्प स्वरूप
यङ्कर
तहुँ ञ्जा      गरळ-भयर
निबारणे एकमात्र,
राधिके ! अमोघ  औषध रूपे
रहिछि सिद्ध मन्त्र
मधु-सुधा सेहि परा,
तुमरि अधरु बिगळित रसभरा
*
[श्लो-: व्यथयति वृथा मौनं]
*
तन्वि गो ! तब  नीरबता एबे
बिअर्थरे,
बेदना जगाए मो चित्तरे
मधुर बचन        कहि पञ्चम
स्वर बिस्तार कर,
चारु चाहाँणीरे  अनाइँ मोहर
हृद सन्ताप हर
तेज बिमुखता सुमुखि ! भज बिराग,
किन्तु कदापि कर नाहिँ मोते तिआग
प्रेयसि गो ! तुमे मुग्धा,
तुमरि सेनेह-भाबे अतिश बन्धा
निजे मुहिँ प्रितम,
उभा होइअछि देख सम्मुखे तुम
*
[श्लो-: बन्धुक-द्युति-बान्धवो]
*
तुमरि अधर  बधूली फुलर
कान्ति बहिछि केड़े मनोहर
कपोळ य़ुगळ     मधुक पुष्प
पराये दिशुछि परिशोभित,
नेत्र करुछि     नीळ कमळर
कमनीताकु तिरस्कृत
तिळ सुमनर समान,
नासिका तुमर शोभन
प्रिकान्ते गो ! दन्त तुम
सुन्दर दिशे  कुन्द सम
पञ्च कुसुमे        सुसञ्च तब
बदनर सेबा फळे,
पञ्चशर से       मन्मथ बीर
बिश्व जिणइ हेळे
*
[श्लो-: दृशौ मदालसे]
*
मदाळसातुम नेत्र-रीति,
सुन्दरि ! तुम    बदन-माधुरी
इन्दुमती
जनमानङ्क मनोरमातुम गति,
भीरु गो ! य़ुगळ      ऊरु तुम्भर
रम्भाकु अछि जिति
रति कळाबतीशोहे चारु,
शोभन चित्रलेखाबहिअछि बेनि भूरु
कृशगात्रि !     कथा बिचित्र
पृथ्वीलोकरे तुमे रहि,
स्वर्गपुरीर       तरुणी रूपसी
अप्सराङ्कु अछ बहि
                                                                     * * *
हरिभाब अनुभबि,
गीतगोबिन्द    काव्य लेखिले
शिरीजदेब कबि
एथि समापत      दशम सर्ग
बहिछि निज,
नामटि चतुर-चतुर्भुज
मधुर पदरे द्यानुबाद एहार,
बिरचना कले श्रीहरेकृष्ण मेहेर
= = = = =

* गीतगोविन्द दशम सर्ग सम्पूर्ण *
= = = = = 


No comments:

Post a Comment