Monday, August 3, 2009

स्वभावकवि गङ्गाधर मेहेर (Poet Gangadhara Meher: An Immortal Genius): Dr. Harekrishna Meher

Swabhava-Kavi Gangadhar Meher : Ek Amar Pratibha 
Hindi Article By: Dr. Harekrishna Meher 
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स्वभावकवि गङ्गाधर मेहेर : एक अमर प्रतिभा 
* डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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(२००९ श्रावण पूर्णिमा कवि गङ्गाधर मेहेर जयन्ती के उपलक्ष्य में) 
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     भारतीय साहित्य के प्रतिभाशाली सफल निर्माताओंमें से स्वभावकवि गङ्गाधर मेहेर अन्यतम हैं । ओड़िआ साहित्य-गगन के एक समुज्ज्वल ज्योतिष्क के रूप में वे चर्चित हैं । कवि का आविर्भाव हुआ था ९ अगस्त १८६२, श्रावण पूर्णिमा, रक्षा बन्धन के दिन तत्कालीन सम्बलपुर-जिल्लान्तर्गत बरपालि गाँव में और तिरोभाव ४ अप्रैल १९२४, चैत्र अमावस्या में । उनकी साहित्यिक कृतियों में 'तपस्विनी', 'प्रणय-वल्लरी', 'कीचक-वध', 'उत्कल-लक्ष्मी', 'अयोध्या-दृश्य', 'पद्मिनी', 'अर्घ्यथाली' और 'कृषक-संगीत' इत्यादि प्रमुख हैं । अपनी पैनी कलात्मक दृष्टि से उन्होंने सारे विश्‍व को मधुमय और अमृतमय रूप में दर्शन किया है और कराया है । पंक से पंकज के विकास की भाँति संघर्षभरे परिवेश में रहकर भी उन्होंने अपनी महान् प्रतिभा की सुरभि फैला दी । वे हैं जीवन-शास्त्र के सार्थक कवि, मानवता के कवि, अमृत के कवि, आलोक के कवि एवं मानव-समाज के एक महनीय सारस्वत दिग्‌दर्शक । भारतीय संस्कृति की पावन पृष्ठभूमि पर उनकी कवितायें विकसित हुई हैं ।
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     अन्धकार के गहन मार्ग से आलोक की ओर अग्रसर होने के लिये भारतीय महामनीषियों ने परमेश्वर से प्रार्थना की है : 'असतो मा सद्‌ गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय ।' कवि गङ्गाधर ने वैदिक भारतीय परंपरा के मूल्यबोध को लेकर काव्य-कविताऒं का प्रणयन किया है । औचित्यपूर्ण आचरण, जीवन का विमल आदर्श और सामाजिक मूल्यबोध उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से प्रतिफलित हुए हैं । दुःख-सुख की अनुभूतियाँ जीवन-ग्रन्थ में लिपिबद्ध हुई हैं । विधाता की सर्जना में अच्छे-बुरे, अन्धेरे-उजाले, मिलन-विच्छेद की भाँति कई द्वन्द्वमय तत्त्व हर समय प्राणी-जीवन को प्रभावित करते रहते हैं । ऐसी स्थिति में सद्‌गुणावली का अभ्युदय मानव-जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक है । अनेक दुष्प्रवृत्तियों की व्यापकता से मनुष्य पथभ्रष्ट हो जाता है । हर युग में मनीषीगण की साधना समाज के लिये विशेष उपादेय होती है । कवि गंगाधर जंजालभरे जीवन में कई दुःख-क्लेशों को झेल कर कभी विचलित नहीं हुए हैं । उनका धैर्य है असीम एवं मनोबल अत्यन्त सुदृढ़ । नैतिक आदर्शबोध और मानववाद की प्रतिष्टा उनकी लेखनी का काम्य है । क्षमा, सहनशीलता, सत्कर्म की ओर तत्परता एवं परोपकार उनके जीवन का ध्येय है । सांसारिक दुःखों के अन्दर कवि ने पारमार्थिक सुख का सन्धान किया है । जीवन-ज्योति और भी दीप्तिमती हो उठी है वेदना की अनुभूति के माध्यम से । विनय, नम्रता, शिष्टता आदि सदाचार उनके सामाजिक  जीवन के श्रेष्ठ गुण हैं, जो उनकी रचनाओं में भी रूपायित हुए हैं । उनके हृदय में अहमिका अथवा गर्व का स्थान नहीं है । निश्छल एवं सरल व्यक्तित्व उनके जीवन का उत्कर्ष है । उनके उच्चारण और आचरण में परस्पर निष्ठापर सामञ्जस्य अनुभूत होता है ।
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    संस्कृत के महाकवि कालिदास और अंग्रेजी के वाड्‍स्‍वार्थ की भाँति गंगाधर मेहेर ओड़िआ साहित्य के 'प्रकृति-कवि' माने जाते हैं । कवि गंगाधर ने अपनी प्रतिभा की आँखों से प्रकृति के अन्तःस्वरूप का सूक्ष्म तथा गहरा निरीक्षण किया है । कवि की समस्त कृतियों में बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति का रोचक मनोरम चित्र अंकित हुआ है । प्रकृति के अनन्य रूपकार और व्याख्याकार हैं रंगाजीव कवि गंगाधर । उनकी रचनावली में श्रेष्ठ है "तपस्विनी" महाकाव्य । रामायण उत्तरकाण्ड में वर्णित सीता-वनवास की करुण गाथा इस काव्य का उपजीव्य है । महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में सौम्य शान्त कान्त उषाकाल का वर्णन कवि की भावुकता की एक विशिष्ट पहचान है । मानवीय सूक्ष्म भावों के सच्चे विश्‍लेषक एवं प्रकृति के एक निपुण सफल चित्रकार के रूप में कवि गंगाधर चिर-स्मरणीय हैं । चतुर्थ सर्ग में उषावर्णन का माधुर्य विशेष आस्वादनीय है । कवि की लेखनी में :

'समंगल आई सुन्दरी
प्रफ़ुल्ल-नीरज-नयना उषा,
हृदय में ले गहरी
जानकी-दर्शन की तृषा ।
नीहार-मोती उपहार लाकर पल्लव-कर में
सती-कुटीर के बाहर
आंगन में खड़ी होकर
बोली कोकिल-स्वर में :
'दर्शन दो सती अरी !
बीती विभावरी ॥'
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'अरुणिमा कषाय परिधान,
सुमनों की चमकीली मुस्कान
और प्रशान्त रूप मन में जगाते विश्वास :
आकर कोई योगेश्वरी
बोल मधुर वाणी सान्त्वनाभरी,
सारा दुःख मिटाने पास
कर रही हैं आह्वान ।
मानो स्वर्ग से उतर
पधारी हैं धरती पर
करने नया जीवन प्रदान ॥'
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    अपनी अन्तर्दृष्टि से कवि ने प्रकृति और मनुष्य के बीच संवेदनशील गहरा अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित किया है । तपस्विनी-काव्य के चतुर्थ सर्ग में तमसा-नदी के मुख में कवि ने जो कुछ अभिव्यक्त किया है, उसमें जीवन-दर्शन का सार-तत्त्व प्रतिफलित हुआ है । जल- दान-रूप सत्कार्य से नदी का जीवन सार्थक और धन्य हो जाता है । तमसा-नदी की स्वार्थहीन सेवा के वर्णन में मनुष्य-जीवन का साफल्य गर्भित हुआ है । जीवन में कई प्रकार के बाधा-विघ्न आते हैं; फिर भी दृढ़ संकल्प, आत्मविश्वास एवं धैर्य के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिये कवि की वाणी में प्रेरणा भरी है । प्रकृति के सारे विभाव प्रकृति-कवि की लेखनी में सजीव, सरस और मानवायित हैं । चतुर्थ सर्ग का और एक उदाहरण उल्लेखनीय है, सीता के प्रति वनलक्ष्मी का सख्यपूर्ण आदर । आश्रम के उपवन में कवि-कल्पिता वनलक्ष्मी सीता के समक्ष अपना आन्तरिक भाव व्यक्त करती है इस प्रकार :-

'जा रही थी जब लौट चली
पुष्पकारूढ़ तू गगन-मार्ग पर,
खड़ी मैं तब ले पुष्पाञ्जली
हरिण-नयनों में शोकभर
ऊपर को निहार
तुझे मयूरी की बोली में पुकार
रही थी बड़ी चाह से,
लम्बी राह से ।
अरी प्यारी !
सहेली की बात मन में करके याद
क्या तू आज पधारी
इतने दिनों बाद ?'

   वास्तव दुनिया में निन्दुक और दोषदर्शियों की संख्या कम नहीं । फिर भी सज्जनों के सुकर्म और उत्कर्ष के सामने दुर्जनों का धैर्य टूट जाता है । सज्जनों के सद्‌गुण-रूप दिव्य अलंकार की दीप्ति के प्रभाव से दुर्जनों की निन्दुकता और बुरी नज़र सब मूल्यहीन हो जाती है । कवि गंगाधर हैं सारस्वत कलाकार, निष्ठापरायण साधक, समाज-संस्कारक, कर्मयोगी, भाग्यवादी, ईश्वर-विश्वासी और आशावादी; परन्तु नैराश्यवादी कभी नहीं । आशावाद की ज्योति से उनकी वर्णावली अत्यन्त उज्ज्वल और उद्‌भासित हुई है । भारतीय दर्शन में भाग्य और कर्मफल की भूमिका विशेष महत्वपूर्ण है । हर प्रकार की चेष्टाओं के बावजूद यदि सफलता की प्राप्ति नहीं होती, तब मनुष्य भाग्य को स्वीकार कर लेता है । कवि का मत है कि सौभाग्य के बिना सुफल प्राप्त नहीं होता । मन की भावना और चिन्तन-धारा उन्नत है तो कर्म और परिणाम भी उन्नत होते हैं । ऐसी ऊँची भावना की प्रक्रिया मानव-समाज और देश के लिये मान-मर्यादा एवं गौरव को बढ़ाती है । कवि के विचार में हीनमन्यता को प्रश्रय देना अपनी दुर्वलता है एवं वास्तव जीवन में सदा ऊँची भावना का पोषण करना चाहिये ।
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     असत्य, अन्याय और अधर्म के विरुद्ध कवि गंगाधर ने हमेशा संग्राम किया है । अपने जीवन में उसे चरितार्थ भी किया है । शासक-रूपी शोषकों को एवं रक्षक-रूपी भक्षकों को ‘धर्मावतार’ कहकर व्यंग्य चित्रण किया है और समाज में जन-सचेतनता की सृष्टि हेतु सहायता की है । कवि का कहना है :

'जिसकी विद्या धर्म-नीति का शीश मरोड़ती,
बुद्धि जिसकी सौ सत्यों को चूर डालती,
धन से खरीदा जाता जिसका विचार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥'

     गंगाधर की कवितायें करुणा की विमल भाव-सुरभि से महिमान्वित हैं । उनकी भाषा हृदय को सीधा स्पर्श कर लेती है । भावानुरूप अभिव्यक्ति से उनकी रचनावली रसोत्तीर्ण हुई है । उनकी लेखनी का प्रकाश अन्तर के कोने-कोने में फैल जाती है । कविता का भाव और हृदय का भाव हो जाते हैं अभिन्न एकाकार । इसी कारण जाग उठती है अन्तर की कारुणिकता, समवेदना, सहानुभूति, जीवों में दया, नारी-समाज के प्रति सम्मान- भावना एवं विश्व-बन्धुता की भावधारा-जैसी महनीय मानवता के संग सद्‍गुणावली की आत्मीयता । सामाजिक परिवेश में नारी-जाति की मर्यादा-वृद्धि के लिये कवि का सारस्वत प्रयास सदैव प्रशंसनीय है । पत्नी के आदर्श एवं चारित्रिक तेजोराशि से विमण्डित हुई हैं कवि की लेखनी-नायिका सीता, द्रौपदी, शकुन्तला और पद्मिनी आदि महीयसी महिलायें । 

     देशभक्ति-परक कविताओं में कवि की 'भारती-भावना' उल्लेखनीय है । यहाँ श्‍लेषालंकार में अंग्रेज शासन के विरुद्ध और महात्मा गान्धी आदि स्वतन्त्रता-संग्रामी के अनुकूल पद्य-रचना की गयी है । "मातृभूमि" कविता में अपने देश की भाषा के लिये कवि की उक्ति स्मरणीय है इसप्रकार :-
'मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति 
जिसके हृदय में अपनापन जन्मा नहीं,
करेंगे जब ज्ञानियों में उसकी गिनती
तो कहाँ रहेंगे अज्ञानी ?'

      'भक्ति' कविता गंगाधर के जीवन-दर्शन की एक बड़ी उपलब्धि है । विभु-प्रीति की अमृत-धारा उनकी रचना में निरन्तर प्रवाहित है । ब्रह्माण्ड की सारी वस्तु परमेश्वर का दिआ हुआ प्रसाद है । कवि के मत में, उन महान् दाता परमेश्वर के लिये प्रतिदान में उनका प्रसाद अर्पण करना अपराध होगा । इसी कारण कवि ने अपनी निजस्व वस्तु "मुँकार" अर्थात् अहंभाव को परमेश्वर के चरणों में सविनय समर्पित किया है । आनन्द एवं अमृत के निधान हैं प्रभु परमेश्वर । उसीसे सब की सर्जना, उसीमें सब की स्थिति एवं उसीमें ही सब का विलय । कवि गंगाधर ने अपने को अमृत-सागर के एक बिन्दु के रूप में चित्रित किया है । आध्यात्मिकता के साथ प्राणीजीवन की तत्त्वावली को महिमामयरूप में अभिव्यक्त किया है । अपनी  'अमृतमय' कविता में कवि ने कहा है : 

'मैं तो बिन्दु हूँ
अमृत-समुन्दर का,
छोड़ समुन्दर अम्बर में
ऊपर चला गया था ।
अब नीचे उतर
मिला हूँ अमृत-धारा से ;
चल रहा हूँ आगे
समुन्दर की ओर ।
पाप-ताप से राह में
सूख जाऊँगा अगर,
तब झरूँगा मैं ओस बनकर ।
अमृतमय अमृत-धारा के संग
समा जाऊँगा समुन्दर में ॥' 

  *ओड़िआ साहित्य के प्रसिद्ध समालोचक मायाधर मानसिंह ने स्वभावकवि गंगाधर के व्यक्तित्व एवं साहित्य का सामग्रिक अनुशीलन करके यथार्थ में उन्हें एक 'साहित्यिक वीर' के रूप में प्रतिपादित किया है । सत्कर्म और उच्च कर्म से ही मनुष्य का जीवन गौरवमय बनता है । अपनी काव्य-माधुरी के साथ गंगाधर अर्पण कर गये हैं मानवीय सूक्ष्म-अनुभूति-संवलित अनेक काव्य-कवितायें, जो जन-समाज के संस्कार और उपकार की दिशा में एक एक महनीय अनमोल रत्‍न-रूप हैं । जीवन एवं साहित्य का मधुर समन्वय उनकी कृतियों में सुपरिलक्षित होता है । आज के कलुषित और प्रदूषित वातावरण में कवि का तात्त्विक चिन्तन विशेष प्रणिधान-योग्य है । सत्य-शिव-सुन्दर के परम उपासक और अनन्य व्याख्याकार यशस्वी सारस्वत शिल्पी गंगाधर मेहेर वास्तव में सभी सहृदयों और साहित्य-प्रेमियों के आदरणीय हैं ।
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 (इस लेख में उद्धृत कवि गंगाधर मेहेर की पंक्‍तियाँ डॉ. हरेकृष्ण मेहेर द्वारा अनूदित हैं ।)
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Svabhavakavi Gangadhar Meher : Ek Amar Pratibha
Published in ‘Srijangatha’ (Hindi E-Magazine), June 2009.
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Srijan-Gatha (Hindi E-Journal): Link : 
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