Saturday, July 21, 2007

Hindi Version of Tapasvini Kavya: Canto-4/ Dr. HAREKRISHNA MEHER

Excerpts from Canto-IV of My Complete Hindi Version
of Oriya Mahakavya “ TAPASVINI ”
Authored by Swabhava-Kavi Gangadhara Meher.
*
स्वभावकवि गंगाधर मेहेर
आविर्भाव : ९ अगस्त १८६२, श्रावण पूर्णिमा, रक्षा बन्धन.
तिरोभाव : ४ अप्रैल १९२४, चैत्र अमावस्या.
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[भारतीय साहित्य के महान् प्रतिभाशाली निर्माताओंमें से अन्यतम विशिष्ट शिल्पी हैं गंगाधर मेहेर, जो ओड़िआ साहित्य में 'प्रकृति- कवि' के रूप में सुप्रसिद्ध हैं । उनकी साहित्यिक कृतियों में 'तपस्विनी', 'प्रणय-वल्लरी', 'कीचक-वध', 'उत्कल-लक्ष्मी', 'अयोध्या-दृश्य' और 'अर्घ्यथाली' इत्यादि प्रमुख काव्य हैं ।
'तपस्विनी' महाकाव्य गंगाधर की रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । करुण-रस-प्रधान इस काव्य में समुदाय एकादश सर्ग हैं । इस काव्य का मुख्य विषय है रामायण-वर्णित सीतादेवी की निर्वासनोत्तर घटनावली । स्वामी श्रीरामचन्द्र द्वारा परित्यक्ता सीता को तपस्विनी के रूप में चित्रित करके कवि ने अपनी मौलिक प्रतिभा का सुपरिचय प्रदान किया है । मुख्य रूप से सीता-चरित के आधार पर रचित इस काव्य को एक "सीतायन" कहा जा सकता है

समग्र विश्व को मधुमय और अमृतमय दरशानेवाले कवि वास्तव में सारस्वत गगन के एक अनन्य दीप्तिमान् ज्योतिष्क हैं । फिर मानवीय सूक्ष्म भावों के सच्चे विश्लेषक तथा प्रकृति के एक निपुण सफल चित्रकार के रूप में चिर-स्मरणीय हैं । 'तपस्विनी' की लोकप्रियता का वर्धन करने मैंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत - तीनों भाषाओं में इसके संपूर्ण पद्यानुवाद किये हैं । हिन्दी-अनुवाद का कियदंश निम्नोक्त रूप से प्रस्तुत है । ]
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तपस्विनी-महाकाव्य के चतुर्थ सर्ग से कुछ पङ्‌क्तियाँ
[ मूल ओड़िआ से हिन्दी अनुवाद : डा. हरेकृष्ण मेहेर ]
* *

समंगल आई सुन्दरी
प्रफुल्ल-नीरज-नयना उषा,
हृदय में ले गहरी
जानकी-दर्शन की तृषा ।
नीहार-मोती उपहार लाकर पल्लव-कर में
सती-कुटीर के बाहर
आंगन में खड़ी होकर
बोली कोकिल-स्वर में :
'दर्शन दो सती अरी !
बीती विभावरी ॥' [१]
*
अरुणिमा कषाय परिधान,
सुमनों की चमकीली मुस्कान
और प्रशान्त रूप मन में जगाते विश्वास :
आकर कोई योगेश्वरी
बोल मधुर वाणी सान्त्वनाभरी,
सारा दुःख मिटाने पास
कर रही हैं आह्वान ।
मानो स्वर्ग से उतर
पधारी हैं धरती पर
करने नया जीवन प्रदान ॥ [२]
*
गाने लगी बयार
संगीत तैयार ।
वीणा बजाई भ्रमर ने;
सौरभ लगा नृत्य करने
उषा का आदेश मान ।
कुम्भाट भाट हो करने लगा स्तुति गान ।
कलिंग आया पट्टमागध बन,
बोला बिखरा ललित मधुर स्वन :
'उठो सती-राज्याधीश्वरी !
बीती विभावरी ॥' [३]
*
मुनि-जनों के वदन से
उच्चरित वेद-स्वन से
हो गया व्याप्त श्यामल वनस्थल ।
पार कर व्योम-मण्डल
ऊपर गूँज उठा उदात्त ॐकार ;
मानो सरस्वती की वीणा-झंकार
विष्णु के मन में भर सन्तोष अत्यन्त
पहुँच गयी अनन्त की श्रुति पर्यन्त ।
धीरे धीरे जगमगा उठा कानन सारा,
जैसे बल बढ़ने लगा मन्त्र द्वारा ॥ [४]
*
इसी समय सीता के समीप आकर
कहा मंजुल मन्द्र स्वर
ब्रह्मचारिणी अनुकम्पा ने :
'उठो वत्से विदेह-कुमारी !
पधारी है उषा सुकुमारी;
देकर अपने दर्शन
प्रसन्न करा ले उसका मन
विधि के अनुसार ।
तमसा राह निहार रही सुख पाने
तुझे गोद में बिठा एक बार ॥' [५]
*
पद्मिनी-हृदय-गत शिशिर-बूँद में विद्यमान
खरांशु दिनकर के प्रतिबिम्ब समान,
अपने शोक-जर्जर
मानस-फलक पर
वीर राम का आलेख्य करके अंकन
आसन से खड़ी हो गयीं सती-रतन ।
नमन कर अनुकम्पा के पदद्वय,
उषा-चरणों में वन्दना की सविनय ॥ [६]
*
करके उसकी प्रशंसा रचना
बोलीं सती जानकी :
'उषादेवी ! दुनिया में प्रदान करती हो सूचना,
अन्धकार-ध्वंसी अंशुमान् के आगमन की ।
ज्योतिष्मान् हैं तुम्हारे मृदुल चरण;
उनमें अटल आशा ले जाती हूँ शरण ।
शुभ्र सौरभ-रसिके अरी !
रघुवंशी पर बनो शुभंकरी ॥' [७]
*
तमसा आश्रम-धात्री
पवित्र-स्रोता सुविमल-गात्री,
निशावसान में समुत्सुक-मन
बिछा आंगन में सुमन,
सींच बिन्दु बिन्दु उदक,
जला प्रभाती तारा मंगल दीपक,
मीन-नयनों में बारबार
चञ्चल निहार,
सती सीता के शुभागमन की सादर
प्रतीक्षा कर रही थी उधर ॥ [८]
*
तापस-कन्याओं के आदर-वन्या-प्लावन से
विश्व-धन्या सती-शिरोमणि जानकी
सत्वर चलीं आश्रम-सदन से
अनुकम्पा के सहित,
तमसा-स्रोत में अभिलाषा रख स्नान की ।
तमसा ने सती को पाकर त्वरित
गोद में बिठा सदुलार
आलिंगन किया तरंग-बाहें पसार ॥ [९]
*
सुधा-मधुर स्वन में
सन्तुष्ट-अन्तःकरण
बोली तमसा :
'आशा नहीं थी माँ ! मेरे मन में,
राजलक्ष्मी-हृदय-हार सीता सती
भोग पिपासा सब त्याग
मेरी गोद में विहार करेगी सानुराग ।
लोग कहेंगे मुझे भाग्यवती,
तेरे ही कारण
संसार में करके मेरी प्रशंसा ॥ [१०]
*
घूमती फिरती वन-वन में
गण्ड-कुहुक में न उलझ,
कई बाधाएँ करके पार
अपने निर्मल जीवन में,
न दुःख मान अन्धकार,
प्रकाश न सुख समझ
चली हूँ दूर रास्ते नम्र मस्तक ।
जन्म कर रही हूँ सार्थक
नीर-दान से निरन्तर
सभी तटवासियों के मानस में तृप्ति भर ॥ [११]
*
उन सारे गुणों से हैं भरी
मेरी तरह मन्दाकिनी और गोदावरी ।
फिर भी उन्होंने बढ़ाया है गौरव
पाकर तेरे पावन चरण-चिह्न वैभव
और देवत्व-प्रदायक दुर्लभ
शुभांग-सौरभ ।
उन्हें प्राप्त करने मेरी कामना थी ;
उनके बिना मैं लाञ्छित-मना थी ॥ [१२]
*
किया था मैंने शुभ कर्म आचरण;
धर्म ने मेरे समीप इसी कारण
तुझे पहुँचा दिया समय पर,
मेरे हृदय की अभिलाषा समझ कर ।
पायी है मैंने दुर्लभ सम्पदा;
प्राप्त करूंगी तृप्ति सदा
प्रत्यह तुझे बुला कर
अपनी गोद में लाकर ।
हर लेगा तेरा अंग-सौरभ, अरी माँ !
मेरे जीवन की समस्त कालिमा ॥ [१३]
*
मेरी गोद में केलि करते सरस
दल-बद्ध हंस सारस,
चक्रवाक युगल युगल
साथ बक सकल ।
तेरे पुण्यमय कलेवर के
क्षालन से पवित्र मेरा सलिल पान करके,
ये जीवित रहेंगे मेरे पास
रच नित्य निवास ।
यश तेरा गाते रहेंगे
कल-रवों के व्याज इधर,
मेरे श्रवणों में जगाते रहेंगे
सन्तोष निरन्तर ॥ [१४]
*
पतिव्रता-अंग से लगकर
पवित्र करने अपना कलेवर,
त्याग वल्लरी-आवास
वैरागी पुष्प सकल
दूर-दूर से उछल
बहकर दौड़ते रहेंगे,
फिर मँडराते रहेंगे तेरे पास ।
कृपामयि ! तू स्नान के समय
सलिल में मेरे
उन्हें हटाएगी नहीं सदय
चरणों से तेरे ॥ [१५]
*
मेरे तट पर चरण रखकर
तू विहार करेगी माँ ! सुखकर,
उसी व्याज से करेगी देव-द्युति प्रदान ।
पाकर उसे हरियालीभरे वन्य तरुगण
करेंगे देव-दर्प धारण
और शान्ति विधान ।
पल्लवों में पाटल श्यामल सुन्दर
आभा रहेगी निर्मल निरन्तर ॥' [१६]
*
सीता बोलीं : 'यह नीर कितना निर्मल
मधुर जैसे नारिकेल-जल;
है नहीं नीर यही,
साक्षात् माता का क्षीर सही
पर्वत-उरज से प्रवहमान,
मृत-प्राया सीता के लिये अमृत-धारा समान ।
ओह ! इस देश में तू तो है मेरी माँ
तमसा का रूप लेकर यहाँ ।
हो गया है विदीर्ण गहरा
मेरे दुःखों से हृदय तेरा ॥ [१७]
*
तेरा पृष्ठ-भेद हुआ है दरार से,
दूसरा पार्श्व दृश्यमान;
फिर भी करने कन्या की तुष्टि विधान
स्नेह-नयन खोल,
प्रीतिभरी मीठी वाणी बोल
चाटु करती तू दुलार से ।
माँ ! धन्य-धन्य हृदय तेरा
मेरे दुःख-आतप के लिये सिकताभरा ॥ [१८]
*
श्रीराम-साम्राज्य में जो सीता
जन-नयनों में दूषिता चिर-निर्वासिता,
वह तेरे विचार में
दिखला अपना पातिव्रत्य-धर्म बल
पवित्र कर सकेगी संसार में
स्थावर जंगम सकल ।
समझती अपनी
पुत्री का दुःख जननी ।
पुत्री यदि वा दग्ध-वदना,
माता के नैनों में भाती चन्द्रानना ॥ [१९]
*
निश्चित तेरा तट प्यारा
हो चुका मेरा चिरन्तन सहारा;
भरोसा तेरे शान्तिमय चरण-कमल ।
जिसके लिये शून्य चराचर सकल,
माता की गोद ही उसके लिये महान्
दुनिया में अपार आदरों की खान ।
माता जिसकी रत्न-गर्भा धरित्री,
दूसरा स्थान भला क्यों खोजेगी पुत्री ?' [२०]
*
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Extracted from My Hindi ‘TAPASVINI’ Book
Published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Burla -768019, Sambalpur, 
Orissa, India, in the year 2000.
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(Front Cover of Hindi "TAPASVINI" Book)

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Original Oriya Poem of Tapasvini Canto-4 
written in the melodious Chokhi Raga : 
(मङ्गळे अइला उषा)
Link : 
http://hkmeher.blogspot.in/2007/08/oriya-kavya-tapasvini-of-swabhava-kavi.html

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Updated : 
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Hindi-English-Sanskrit Tri-lingual Translations of Tapasvini Kavya : 
Link: 
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1 comment:

ramu said...

he ishwar itni uttam rachana ki prashansa karne ki yogyata pradan karo