Excerpts from Canto-IV of My Complete Hindi Version
of Oriya Mahakavya “ TAPASVINI ”
Authored by Swabhava-Kavi Gangadhara Meher.
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स्वभावकवि गंगाधर मेहेर
'तपस्विनी' महाकाव्य गंगाधर की रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । करुण-रस-प्रधान इस काव्य में समुदाय एकादश सर्ग हैं । इस काव्य का मुख्य विषय है रामायण-वर्णित सीतादेवी की निर्वासनोत्तर घटनावली । स्वामी श्रीरामचन्द्र द्वारा परित्यक्ता सीता को तपस्विनी के रूप में चित्रित करके कवि ने अपनी मौलिक प्रतिभा का सुपरिचय प्रदान किया है । मुख्य रूप से सीता-चरित के आधार पर रचित इस काव्य को एक "सीतायन" कहा जा सकता है
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समंगल आई सुन्दरी
प्रफुल्ल-नीरज-नयना उषा,
हृदय में ले गहरी
जानकी-दर्शन की तृषा ।
नीहार-मोती उपहार लाकर पल्लव-कर में
सती-कुटीर के बाहर
आंगन में खड़ी होकर
बोली कोकिल-स्वर में :
'दर्शन दो सती अरी !
बीती विभावरी ॥' [१]
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अरुणिमा कषाय परिधान,
सुमनों की चमकीली मुस्कान
और प्रशान्त रूप मन में जगाते विश्वास :
आकर कोई योगेश्वरी
बोल मधुर वाणी सान्त्वनाभरी,
सारा दुःख मिटाने पास
कर रही हैं आह्वान ।
मानो स्वर्ग से उतर
पधारी हैं धरती पर
करने नया जीवन प्रदान ॥ [२]
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गाने लगी बयार
संगीत तैयार ।
वीणा बजाई भ्रमर ने;
सौरभ लगा नृत्य करने
उषा का आदेश मान ।
कुम्भाट भाट हो करने लगा स्तुति गान ।
कलिंग आया पट्टमागध बन,
बोला बिखरा ललित मधुर स्वन :
'उठो सती-राज्याधीश्वरी !
बीती विभावरी ॥' [३]
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मुनि-जनों के वदन से
उच्चरित वेद-स्वन से
हो गया व्याप्त श्यामल वनस्थल ।
पार कर व्योम-मण्डल
ऊपर गूँज उठा उदात्त ॐकार ;
मानो सरस्वती की वीणा-झंकार
विष्णु के मन में भर सन्तोष अत्यन्त
पहुँच गयी अनन्त की श्रुति पर्यन्त ।
धीरे धीरे जगमगा उठा कानन सारा,
जैसे बल बढ़ने लगा मन्त्र द्वारा ॥ [४]
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इसी समय सीता के समीप आकर
कहा मंजुल मन्द्र स्वर
ब्रह्मचारिणी अनुकम्पा ने :
'उठो वत्से विदेह-कुमारी !
पधारी है उषा सुकुमारी;
देकर अपने दर्शन
प्रसन्न करा ले उसका मन
विधि के अनुसार ।
तमसा राह निहार रही सुख पाने
तुझे गोद में बिठा एक बार ॥' [५]
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पद्मिनी-हृदय-गत शिशिर-बूँद में विद्यमान
खरांशु दिनकर के प्रतिबिम्ब समान,
अपने शोक-जर्जर
मानस-फलक पर
वीर राम का आलेख्य करके अंकन
आसन से खड़ी हो गयीं सती-रतन ।
नमन कर अनुकम्पा के पदद्वय,
उषा-चरणों में वन्दना की सविनय ॥ [६]
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करके उसकी प्रशंसा रचना
बोलीं सती जानकी :
'उषादेवी ! दुनिया में प्रदान करती हो सूचना,
अन्धकार-ध्वंसी अंशुमान् के आगमन की ।
ज्योतिष्मान् हैं तुम्हारे मृदुल चरण;
उनमें अटल आशा ले जाती हूँ शरण ।
शुभ्र सौरभ-रसिके अरी !
रघुवंशी पर बनो शुभंकरी ॥' [७]
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तमसा आश्रम-धात्री
पवित्र-स्रोता सुविमल-गात्री,
निशावसान में समुत्सुक-मन
बिछा आंगन में सुमन,
सींच बिन्दु बिन्दु उदक,
जला प्रभाती तारा मंगल दीपक,
मीन-नयनों में बारबार
चञ्चल निहार,
सती सीता के शुभागमन की सादर
प्रतीक्षा कर रही थी उधर ॥ [८]
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तापस-कन्याओं के आदर-वन्या-प्लावन से
विश्व-धन्या सती-शिरोमणि जानकी
सत्वर चलीं आश्रम-सदन से
अनुकम्पा के सहित,
तमसा-स्रोत में अभिलाषा रख स्नान की ।
तमसा ने सती को पाकर त्वरित
गोद में बिठा सदुलार
आलिंगन किया तरंग-बाहें पसार ॥ [९]
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सुधा-मधुर स्वन में
सन्तुष्ट-अन्तःकरण
बोली तमसा :
'आशा नहीं थी माँ ! मेरे मन में,
राजलक्ष्मी-हृदय-हार सीता सती
भोग पिपासा सब त्याग
मेरी गोद में विहार करेगी सानुराग ।
लोग कहेंगे मुझे भाग्यवती,
तेरे ही कारण
संसार में करके मेरी प्रशंसा ॥ [१०]
*
घूमती फिरती वन-वन में
गण्ड-कुहुक में न उलझ,
कई बाधाएँ करके पार
अपने निर्मल जीवन में,
न दुःख मान अन्धकार,
प्रकाश न सुख समझ
चली हूँ दूर रास्ते नम्र मस्तक ।
जन्म कर रही हूँ सार्थक
नीर-दान से निरन्तर
सभी तटवासियों के मानस में तृप्ति भर ॥ [११]
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उन सारे गुणों से हैं भरी
मेरी तरह मन्दाकिनी और गोदावरी ।
फिर भी उन्होंने बढ़ाया है गौरव
पाकर तेरे पावन चरण-चिह्न वैभव
और देवत्व-प्रदायक दुर्लभ
शुभांग-सौरभ ।
उन्हें प्राप्त करने मेरी कामना थी ;
उनके बिना मैं लाञ्छित-मना थी ॥ [१२]
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किया था मैंने शुभ कर्म आचरण;
धर्म ने मेरे समीप इसी कारण
तुझे पहुँचा दिया समय पर,
मेरे हृदय की अभिलाषा समझ कर ।
पायी है मैंने दुर्लभ सम्पदा;
प्राप्त करूंगी तृप्ति सदा
प्रत्यह तुझे बुला कर
अपनी गोद में लाकर ।
हर लेगा तेरा अंग-सौरभ, अरी माँ !
मेरे जीवन की समस्त कालिमा ॥ [१३]
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मेरी गोद में केलि करते सरस
दल-बद्ध हंस सारस,
चक्रवाक युगल युगल
साथ बक सकल ।
तेरे पुण्यमय कलेवर के
क्षालन से पवित्र मेरा सलिल पान करके,
ये जीवित रहेंगे मेरे पास
रच नित्य निवास ।
यश तेरा गाते रहेंगे
कल-रवों के व्याज इधर,
मेरे श्रवणों में जगाते रहेंगे
सन्तोष निरन्तर ॥ [१४]
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पतिव्रता-अंग से लगकर
पवित्र करने अपना कलेवर,
त्याग वल्लरी-आवास
वैरागी पुष्प सकल
दूर-दूर से उछल
बहकर दौड़ते रहेंगे,
फिर मँडराते रहेंगे तेरे पास ।
कृपामयि ! तू स्नान के समय
सलिल में मेरे
उन्हें हटाएगी नहीं सदय
चरणों से तेरे ॥ [१५]
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मेरे तट पर चरण रखकर
तू विहार करेगी माँ ! सुखकर,
उसी व्याज से करेगी देव-द्युति प्रदान ।
पाकर उसे हरियालीभरे वन्य तरुगण
करेंगे देव-दर्प धारण
और शान्ति विधान ।
पल्लवों में पाटल श्यामल सुन्दर
आभा रहेगी निर्मल निरन्तर ॥' [१६]
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सीता बोलीं : 'यह नीर कितना निर्मल
मधुर जैसे नारिकेल-जल;
है नहीं नीर यही,
साक्षात् माता का क्षीर सही
पर्वत-उरज से प्रवहमान,
मृत-प्राया सीता के लिये अमृत-धारा समान ।
ओह ! इस देश में तू तो है मेरी माँ
तमसा का रूप लेकर यहाँ ।
हो गया है विदीर्ण गहरा
मेरे दुःखों से हृदय तेरा ॥ [१७]
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तेरा पृष्ठ-भेद हुआ है दरार से,
दूसरा पार्श्व दृश्यमान;
फिर भी करने कन्या की तुष्टि विधान
स्नेह-नयन खोल,
प्रीतिभरी मीठी वाणी बोल
चाटु करती तू दुलार से ।
माँ ! धन्य-धन्य हृदय तेरा
मेरे दुःख-आतप के लिये सिकताभरा ॥ [१८]
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श्रीराम-साम्राज्य में जो सीता
जन-नयनों में दूषिता चिर-निर्वासिता,
वह तेरे विचार में
दिखला अपना पातिव्रत्य-धर्म बल
पवित्र कर सकेगी संसार में
स्थावर जंगम सकल ।
समझती अपनी
पुत्री का दुःख जननी ।
पुत्री यदि वा दग्ध-वदना,
माता के नैनों में भाती चन्द्रानना ॥ [१९]
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निश्चित तेरा तट प्यारा
हो चुका मेरा चिरन्तन सहारा;
भरोसा तेरे शान्तिमय चरण-कमल ।
जिसके लिये शून्य चराचर सकल,
माता की गोद ही उसके लिये महान्
दुनिया में अपार आदरों की खान ।
माता जिसकी रत्न-गर्भा धरित्री,
दूसरा स्थान भला क्यों खोजेगी पुत्री ?' [२०]
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Extracted from My Hindi ‘TAPASVINI’ Book
Published by Sambalpur University , Jyoti Vihar, Burla -768019, Sambalpur,
Orissa , India, in the year 2000.
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(Front Cover of Hindi "TAPASVINI" Book)
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Original Oriya Poem of Tapasvini Canto-4
written in the melodious Chokhi Raga :
(मङ्गळे अइला उषा)
Link :
http://hkmeher.blogspot.in/2007/08/oriya-kavya-tapasvini-of-swabhava-kavi.html
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Original Oriya Poem of Tapasvini Canto-4
written in the melodious Chokhi Raga :
(मङ्गळे अइला उषा)
Link :
http://hkmeher.blogspot.in/2007/08/oriya-kavya-tapasvini-of-swabhava-kavi.html
Updated :
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Hindi-English-Sanskrit Tri-lingual Translations of Tapasvini Kavya :
Link:
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1 comment:
he ishwar itni uttam rachana ki prashansa karne ki yogyata pradan karo
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