KUMBHA-KĀMODĪ
Original Oriya Poem by : Dr. Binod Chandra Naik
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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(For convenience of general readers,
Original Oriya letters are shown here in Devanāgarī script.)
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कुम्भ-कामोदी
मूल ओड़िआ कविता : डॉ. विनोद चन्द्र नायक
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तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले
मेघ-बळयित चन्द्र आकाशे नइँले ।
तुमे कहिथिल, नीळ करबीर
छाया-तळे हेले रजनी गभीर,
हंस-मिथुन किनारे नदीर
कुम्भ-कामोदी गाइले ।
तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले ॥ (१)
*
तुमे त आसिन, अस्तगामी ए चन्द्र,
काक-ज्योत्स्नारे कूजइ काकळी मन्द्र ।
छायापथ-तीरे रेबती-तारार
लीन नीळालोक ; तन्द्राहरार
गणे मुँ रजनी – प्रहर सजनी !
नयन आर्द्र सलिळे ।
तुमे कहिथिल आसिब चन्द्र नइँले ॥ (२)
*
देखा होइथिला बेळे मुँ देखिछि सखि रे !
कज्जळ-रेखा अङ्कित थिला आखिरे ।
नीळ-मेघी पाट तनु-तटे थिला
लळित बक्ष नर्त्तन-शीळा,
नीबी-बन्धन सरजि कि लीळा
मुकुळि थिला त पहिले ।
तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले ॥ (३)
*
बेश-रचना त शेष होइथिला केबळ,
बादामी शाखारे थिला चन्द्रिका धबळ ।
बन्द बि थिला कळ गुञ्जन
घरे घरे घरणीर ; खञ्जन –
पक्षीर सम तब शिञ्जन
शुभुथिला, आस कहिले ।
तुमे कहिथिल आसिब चन्द्र नइँले ॥ (४)
*
हीरा-दीप-जळा दूरे केउँ नीळ पाहाड़े
निभे निद-बाउळारे चन्द्र य़ा उहाड़े ।
तार गह्वर - तळे शेय़ पारि
पड़िल कि शोइ हे राजकुमारी !
तन्द्राहत मो दरदी कण्ठ
न सरे ए ब्यथा गाइले ।
तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले ॥ (५)
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कुम्भ-कामोदी
मूल ओड़िआ कविता : कवि बिनोद चन्द्र नायक
हिन्दी-रूपान्तर : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें,
बादल से घिरा चाँद जब अम्बर में ढलने चले ।
तुमने कहा था, नील करवीर की छाँव तले
रातें जब गहरी हो जायें ;
नदी-किनारे हंस-युगल जब कुम्भ-कामोदी गायें ।
तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें ॥ (१ )
*
तुम तो आईं नहीं,
डूबने जा रहा यह चन्द्रमा ;
बिखर रही काक-ज्योत्स्ना में यहीं ++
मन्द्र काकली की मधुरिमा ।
छाया-पथ के किनारे हो चुकी लीन
नील ज्योति रेवती तारा की ;
सजनी ! गिन रहा हूँ तन्द्राहीन
मेरा रात्रि-प्रहर और कितना बाकी ।
भीगे हैं नयन, बहता अश्रु-जल जाये,
तुमने कहा था आओगी चाँद जब ढल जाये ॥ (२ )
*
जब भेंट हुई, सखी ! है मैंने देखा,
नैनों में थी अंकित काजल की रेखा ।
लगता था तुम्हारे
तन के किनारे
बादल-सा नीला पाट-वस्त्र प्यारा ;
नृत्य-तत्पर था लालित्यभरा उर तुम्हारा ।
शिथिल थी हो गयी
नीवी-ग्रन्थि पहले से ही
रचकर क्या क्या लीलायें ।
तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें ॥ (३ )
*
संपन्न हुई थी केवल वेश-रचना अपनी,
बादामी डाल पर थी उजली चाँदनी ।
घर-घर में गृहिणी की मधुर गूँज भी
बन्द हो चुकी थी तभी ।
खञ्जन पंछी की-सी तुम्हारी पायल की छमछम
दे रही थी सुनाई मनोरम ।
‘आओ’ कहने पर कहा था तुमने
कि आओगी चाँद जब लगे ढलने ॥ (४ )
*
हीरे का दीपक जलता
दूर किसी नीले पहाड़ पर,
जिसके पीछे चाँद छुपता
नींद में बावला होकर ।
उसकी गुफा के तले बिछाकर शय्या
अरी राजकुमारी ! तुम सो गईं क्या ?
तन्द्राहत मेरा दर्दभरा कण्ठ अपना
गाता रहे जितना,
समाप्त होतीं नहीं ये व्यथायें ।
तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें ।। (५ )
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पाद-टीका : (२)
+ + काक-ज्योत्स्ना = चाँदनी जो काकों के मन में प्रभात का भ्रम जगाती है ।
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अनुवाद-काल : दिनांक २- २- १९९३, भवानीपाटना ।
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Original Oriya Poem by : Dr. Binod Chandra Naik
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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(For convenience of general readers,
Original Oriya letters are shown here in Devanāgarī script.)
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कुम्भ-कामोदी
मूल ओड़िआ कविता : डॉ. विनोद चन्द्र नायक
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तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले
मेघ-बळयित चन्द्र आकाशे नइँले ।
तुमे कहिथिल, नीळ करबीर
छाया-तळे हेले रजनी गभीर,
हंस-मिथुन किनारे नदीर
कुम्भ-कामोदी गाइले ।
तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले ॥ (१)
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तुमे त आसिन, अस्तगामी ए चन्द्र,
काक-ज्योत्स्नारे कूजइ काकळी मन्द्र ।
छायापथ-तीरे रेबती-तारार
लीन नीळालोक ; तन्द्राहरार
गणे मुँ रजनी – प्रहर सजनी !
नयन आर्द्र सलिळे ।
तुमे कहिथिल आसिब चन्द्र नइँले ॥ (२)
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देखा होइथिला बेळे मुँ देखिछि सखि रे !
कज्जळ-रेखा अङ्कित थिला आखिरे ।
नीळ-मेघी पाट तनु-तटे थिला
लळित बक्ष नर्त्तन-शीळा,
नीबी-बन्धन सरजि कि लीळा
मुकुळि थिला त पहिले ।
तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले ॥ (३)
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बेश-रचना त शेष होइथिला केबळ,
बादामी शाखारे थिला चन्द्रिका धबळ ।
बन्द बि थिला कळ गुञ्जन
घरे घरे घरणीर ; खञ्जन –
पक्षीर सम तब शिञ्जन
शुभुथिला, आस कहिले ।
तुमे कहिथिल आसिब चन्द्र नइँले ॥ (४)
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हीरा-दीप-जळा दूरे केउँ नीळ पाहाड़े
निभे निद-बाउळारे चन्द्र य़ा उहाड़े ।
तार गह्वर - तळे शेय़ पारि
पड़िल कि शोइ हे राजकुमारी !
तन्द्राहत मो दरदी कण्ठ
न सरे ए ब्यथा गाइले ।
तुमे कहिथिल आसिब सभिएँ शोइले ॥ (५)
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कुम्भ-कामोदी
मूल ओड़िआ कविता : कवि बिनोद चन्द्र नायक
हिन्दी-रूपान्तर : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें,
बादल से घिरा चाँद जब अम्बर में ढलने चले ।
तुमने कहा था, नील करवीर की छाँव तले
रातें जब गहरी हो जायें ;
नदी-किनारे हंस-युगल जब कुम्भ-कामोदी गायें ।
तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें ॥ (१ )
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तुम तो आईं नहीं,
डूबने जा रहा यह चन्द्रमा ;
बिखर रही काक-ज्योत्स्ना में यहीं ++
मन्द्र काकली की मधुरिमा ।
छाया-पथ के किनारे हो चुकी लीन
नील ज्योति रेवती तारा की ;
सजनी ! गिन रहा हूँ तन्द्राहीन
मेरा रात्रि-प्रहर और कितना बाकी ।
भीगे हैं नयन, बहता अश्रु-जल जाये,
तुमने कहा था आओगी चाँद जब ढल जाये ॥ (२ )
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जब भेंट हुई, सखी ! है मैंने देखा,
नैनों में थी अंकित काजल की रेखा ।
लगता था तुम्हारे
तन के किनारे
बादल-सा नीला पाट-वस्त्र प्यारा ;
नृत्य-तत्पर था लालित्यभरा उर तुम्हारा ।
शिथिल थी हो गयी
नीवी-ग्रन्थि पहले से ही
रचकर क्या क्या लीलायें ।
तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें ॥ (३ )
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संपन्न हुई थी केवल वेश-रचना अपनी,
बादामी डाल पर थी उजली चाँदनी ।
घर-घर में गृहिणी की मधुर गूँज भी
बन्द हो चुकी थी तभी ।
खञ्जन पंछी की-सी तुम्हारी पायल की छमछम
दे रही थी सुनाई मनोरम ।
‘आओ’ कहने पर कहा था तुमने
कि आओगी चाँद जब लगे ढलने ॥ (४ )
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हीरे का दीपक जलता
दूर किसी नीले पहाड़ पर,
जिसके पीछे चाँद छुपता
नींद में बावला होकर ।
उसकी गुफा के तले बिछाकर शय्या
अरी राजकुमारी ! तुम सो गईं क्या ?
तन्द्राहत मेरा दर्दभरा कण्ठ अपना
गाता रहे जितना,
समाप्त होतीं नहीं ये व्यथायें ।
तुमने कहा था आओगी सबलोग जब सो जायें ।। (५ )
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पाद-टीका : (२)
+ + काक-ज्योत्स्ना = चाँदनी जो काकों के मन में प्रभात का भ्रम जगाती है ।
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अनुवाद-काल : दिनांक २- २- १९९३, भवानीपाटना ।
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