Hindi Article By: Dr. Harekrishna Meher
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समन्वय के देवता श्रीजगन्नाथ
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'शुभं सुभद्रा-बलभद्र-सङ्गतं
नमामि नाथं जगतां वरेण्यम् ।
ओंकार-रूपं भुवि दारु-दैवतं
वेदान्त-वेद्यं महतां शरण्यम् ॥'
श्रीजगन्नाथ ओड़िशा के परम आराध्य देवता के रूप में सर्वत्र संपूजित हैं । 'पुरुषोत्तम' - नाम से उनकी विशेष प्रसिद्धि रही है । उनका पुण्य पुरी धाम 'पुरुषोत्तम क्षेत्र' नाम से सुपरिचित है । वे हैं आर्त्तत्राण, दीनबन्धु, दयासिन्धु, पतित-पावन, मान-उद्धारण, शरण-रक्षण, भावग्राही, प्रेम-भक्ति-प्रीत महामहिम देवेश्वर । दारुब्रह्म के रूप में वे नीलकन्दर में विराजित हैं । स्कन्द पुराण, ब्रह्म पुराण, नीलाद्रि-महोदय, पुरुषोत्तम-माहात्म्य आदि ग्रन्थों में पुरुषोत्तम क्षेत्र और जगन्नाथ महाप्रभु की महिमा विशेषरूप से प्रतिपादित है । राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा प्रतिष्ठित शाबर देवता श्रीजगन्नाथ की कीर्त्ति अनन्त है । पहले से ही शाबर संस्कृति में विश्वावसु द्वारा समाराधित नीलमाधव महाप्रभु परवर्त्ती काल में विश्वजनीन देवता श्रीजगन्नाथ के रूप में पूजित हो रहे हैं । वे हैं पूर्ण परंब्रह्म सच्चिदानन्द परम-पुरुष । श्रीजगन्नाथ का दारुविग्रह नाना धार्मिक सम्प्रदायों की एकता प्रतिष्ठा करने की दिशा में मुख्य भूमिका निभाता रहा है । ऋग्वेद के दशम मण्डल में वर्णित है :
तदारभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरंम् ॥' ( १२/१५५/३)
इसका तात्पर्य है : 'ये जो दिव्य अपुरुष दारु (काष्ठ) समुद्र-तट जल में वहता जा रहा है, उसीके आश्रय से तुम परम गति लाभ करो ।' इस ऋग्वेदीय मन्त्र में दारुब्रह्म का उल्लेख रहा है । पावन क्षेत्रराज पुरी में विष्णु दारुब्रह्म मूर्त्ति रूप में विराजमान हैं । उनके कमनीय रूप का दर्शन करके प्राणी सारे पापों से मुक्ति प्राप्त होता है, ऐसा धार्मिक विश्वास रहा है ।
परमेश्वर महाप्रभु के कुछ अंगों की अपूर्णता के बारे में उपनिषद् का वाक्य स्मरणीय है :
पश्यतुअचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति बेत्ता
तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥' (श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/१९)
तात्पर्य यह है कि उन महनीय श्रेष्ठ परमपुरुष के हाथ नहीं हैं, फिर वे भी सभीको धारण करते हैं । उनके पैर नहीं, फिर भी वे चलते हैं । उनके नेत्र नहीं, फिर भी देखते हैं । उनके कान नहीं, फिर भी सुनते हैं । वे सर्वज्ञ हैं, परन्तु उनको जाननेके लिये किसीका सामर्थ्य नहीं ।
निगम-वाक्य के आधार पर भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास ने राम-ब्रह्म के बारे में लिखा है :
बिनु कर करइ करम विधि नाना ।
आनन-रहित सकल रस-भोगी,
बिनु वानी बकता बड़ जोगी ।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा,
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेखा ।
असि सब भाँति अलौकिक करनी,
महिमा जासु जाइ नहीं बरनी ॥' (श्रीरामचरित-मानस, बालकाण्ड, ११७/३-४)
वही परंब्रह्म पैरहीन होकर भी चलते हैं, कान बिना भी सुनते हैं, हाथ बिना भी नाना कार्य करते हैं, मुख या जिह्वा बिना भी सभी रसों का आस्वादन करते हैं, वाणी बिना भी कहते हैं, शरीर बिना भी स्पर्श करते हैं, नेत्र बिना भी देखते हैं, नासिका बिना भी सारा गन्ध आघ्राण करते हैं । ऐसे परंब्रह्म की लीला अलौलिक है और महिमा अवर्णनीय । वे इन्दिय-रहित एवं इन्द्रियातीत परम आत्मतत्त्व हैं । वे साकार हैं और निराकार भी । भक्तकवि तुलसीदास ने श्रीराम-रूपी हरि का माहात्म्य बयान करके कहा है :
'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु-मूरति देखि तिन तैसी ।'
संसार में रहकर मानव अपनी रुचि के अनुसार धार्मिक और सामाजिक आस्था पोषण करता है । प्रभु श्रीजगन्नाथ सर्वधर्म-समन्वय के रूप में प्रतिपादित हैं । अपाणि-पादादि-स्वरूप वर्णित परम ब्रह्म के प्रतीक हैं वे । भक्तों के भगवान् हैं वे विचित्रकर्मा एवं अद्भुत-विग्रहधारी । विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के उपासकगण दुःखहारी उन हरि को भिन्न भिन्न रूप में दर्शन करते हैं । इस विषय पर एक लोकप्रिय श्लोक है :
‘यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
अर्हन्नित्यथ जैन-शासन-रताः कर्मेति मीमांसकाः
सोऽयं वो विदधातु वाञ्छित-फलं त्रैलोक्य-नाथो हरिः ॥'
उक्त प्रचलित श्लोक में विभिन्न भारतीय दर्शनों का मूल आत्म-तत्त्व सूचित हुआ है । 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' - इस वेद-वाणी की सार्थकता सर्वत्र परिलक्षित होती है । शैवलोग उन परमेश्वर त्रिलोकपति को शिव के रूप में आराधना करते हैं, वेदान्तीगण ब्रह्म के रूप में, बौद्धलोग बुद्ध के रूप में, नैयायिकगण कर्त्ता के रूप में, जैनगण ‘अर्हत्' के रूप में एवं मीमांसक लोग कर्म के रूप में उपासना करते हैं । जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा – इन त्रिमूर्त्ति को भारतीय परम्परा में सत्त्व-रज-तम त्रिगुण का प्रतीक कहा जाता है । बौद्धधर्म और जैनधर्म का 'त्रिरत्न' (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र) भी इस त्रिमूर्त्ति में सन्निहित है । भक्तप्रवर चैतन्य प्रमुख वैष्णवगण श्रीजगन्नाथ को कृष्ण-रूप मानते हैं । श्रीजगन्नाथ के वैष्णवीय लक्षणो का निदर्शन वर्णित है ‘जगन्नाथाष्टकम्' में । यनुना-तटपर वनविहार करने वाले संगीतमय-वंशीवदन गोपिका-वल्लभ और ब्रह्मादि-देवगण द्वारा पूज्यपाद कृष्णरूपी श्रीजगन्नाथ मेरे नेत्र-पथ में आकर दर्शन दें, भक्त यही कामना करता है । इस पद्य में :
मुदाभीरी-नारी-वदन-कमलास्वाद-मधुपः ।
रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चित-पदो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ॥' (श्लोक- १)
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वाम हस्त में वंशी धारण करते हुए, मस्तक में मयूर-पुच्छ सजाते हुए, सुन्दर वस्त्र-शोभित, नेत्रकोण में साथी की भ्रूभंगी दरशाते करते हुए वृन्दावन-विहारी लीलामय भगवान् कृष्ण-स्वरूप श्रीजगन्नाथ हैं । उनके दर्शनाभिलाषी भक्त की प्रार्थना है :
‘भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे
दुकूलं नेत्रान्ते सहचर-कटाक्षं विदधते ।
सदा श्रीमद्-वृन्दावन-वसति-लीला-परिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ॥‘ (श्लोक -२)
फिर परंब्रह्म-स्वरूप नाग-शयन नीलगिरिवासी नीलपद्म-नयन श्रीजगन्नाथ की कृष्ण-मूर्त्ति और श्रीराधा-प्रीति की वर्णना है इस पद्य में :
निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि ।
रसानन्दो राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ॥‘ (श्लोक- ६)
दाक्षिणात्य के भक्त गणपति-भाट्ट ने श्रीजगन्नाथ को गजानन-वेश में दर्शन किया था । उनकी स्मृति में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन स्नानयात्रा में महाप्रभु का गजानन वेश अनुष्ठित होता है । शाक्त धर्म के उपासकगण प्रभु जगन्नाथ को भैरव के रूप में पूजा करते हैं । ओड़िआ साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि उपेन्द्र भञ्ज की वर्णना में प्रभु जगन्नाथ एवं बलभद्र हैं हस्तीयुगल । जगन्नाथ हैं दक्षिण दिशा के हस्ती कृष्णवर्ण ‘वामन’ और उनके अग्रज बलभद्र हैं पूर्वदिशा के हस्ती धवल-वर्ण ‘ऐरावत’ । जनसाधारणों में प्रभु जगन्नाथ ‘कालिआ हाती’ के रूप में सुपरिचित हैं । इसीसे गजानन-वेश का माहात्म्य स्पष्ट प्रदिपादित होता है । जगन्नाथ-तत्त्व में विविध नामों की एकात्मता प्रतिष्ठित हुई है । कवि उपेन्द्र भञ्ज के मत में ‘जगन्नाथ’ शब्द में वैष्णवीय तत्त्व गुप्तरूप में समाया है । कवि का कहना है :
वैष्णव बिहुने केबा जाणिब संसारे ॥'
कवि उपेन्द्र भञ्ज ‘कोटिब्रह्माण्ड-सुन्दरी’ काव्य में श्रीजगन्नाथ का विशेष वर्णन किया है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र – ये चार वर्णों के लोगों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूप चतुर्वर्ग प्रदान करने में जगन्नाथ महाप्रभु निपुण हैं । कवि की उक्ति में :
'से कम्बु-कटक- राजा नाम जगन्नाथ ।
चारि बर्णे चउबर्ग देबाकु समर्थ ॥' (को.ब्र. सु. १/१२)
अचिन्तनीय है श्रीजगन्नाथ की महिमा । उनके पास जाति, धर्म, छोटा, बड़ा आदिका कोई भेदभाव नहीं । भाव ही उनके लिये प्रधान तत्त्व है । वे भक्तवत्सल दीनबन्धु दयासागर हैं, भक्ति से ही प्रीत और प्रसन्न होते हैं । दासिआ बाउरी के हाथ से भक्तिपूत हृदय में अर्पित नारियल स्वीकार करते हैं । पुरी में रथयात्रा के समय यवन भक्त सालबेग की बिनति सुनकर उनके पहुँचने तक रथ में अटल हो बैठकर भक्त की प्रतीक्षा करते हैं । कभी भक्तकवि बलराम दास के बालुका-रथ पर विराजित होते हैं । कभी छुपछुपकर माल्याणी के मुख से कवि-जयदेवकृत गीतगोविन्द की मधुर पङ्क्तियाँ सुनते हैं । कभी बन्धु-महान्ति को स्वर्ण थाली में अन्न-व्यञ्जन परोस देते हैं । औपचारिक रूप से स्नानयात्रा के बाद महाप्रभु को अतिस्नान-जनित ज्वर से आरोग्य करने के लिये औषध देकर चिकित्सा की जाती है । ये सब प्रभु के मानवीय आचरण या दिव्य मर्त्त्य लीला हैं । इसलिये श्रीजगन्नाथ मानवायित परम-पुरुष के रूप में भक्त जनों की आन्तरिक भक्ति और सश्रद्ध सेवा स्वीकार करते हैं । श्रीजगन्नाथ की रथयात्रा या घोषयात्रा का महत्त्व सर्वजन-विदित है । ओड़िशा के सर्वत्र पुरपल्लियों में भी इस महोत्सव की परिव्याप्ति रही है । आजकल केवल भारत में ही नहीं , बल्कि विदेशों में जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा महासमारोह में अनुष्ठित होती है । आकाशवाणी-दूरदर्शनादि विभिन्न माध्यमों से विशेष प्रसार के कारण श्रीजगन्नाथ का माहात्म्य आज के वैज्ञानिक युग में विश्वव्यापी बन चुका है । ओड़िशा की सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतनाओं का उत्कर्ष-स्वरूप श्रीजगन्नाथ-तत्त्व सारे संसार में जन-मानस को सदा आह्लादित और भक्तिरसाप्लुत करता आ रहा है और करता रहेगा । रथयात्रा के पावन अवसर पर उन भावग्राही महाप्रभु के लिये हमारी वन्दना है :
चैतन्य-नुत-मुरलीधरम् ।
भैरवं भजे गजाननम्,
खग-वाहनं ससुदर्शनम् ।
इन्दिरेशं विश्व-वेशं बुद्ध-रूपमनिन्दितम्,
प्रणमामि तं भुवि वन्दितम्,
जन-हृदय-मन्दिर- नन्दितम्, प्रणमामि तम् ॥'
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'रथ-महोत्सवे जगत्पते !
त्वयि मन्दिराद् बहिरागते ।
जन-लोचनं गोविन्द ! ते,
शुभ- दर्शन-रसं विन्दते ।
नन्दिघोष- स्यन्दन-गतं शङ्ख-घण्टा-नादितम्,
प्रणमामि तं भुवि वन्दितम्,
जन-हृदय- मन्दिर- नन्दितम् ।
जगन्नाथं परात्मानं सर्व-तनुषु स्पन्दितम्,
प्रणमामि तम् ॥' (पुरुषोत्तम-गीतिका)
अन्त में, श्रीजगन्नाथ महाप्रभु के चरणारविन्द में प्रार्थना करते हैं कि उनके पावन नाम के स्मरण से
परस्पर भ्रातृत्व, मैत्री और श्रद्धा सदैव विकशित रहें एवं सबका जीवन सुख-शान्तिमय हो ।
'मैत्रीं प्रशान्तिं सुखदां चिरन्तनं
तनोतु विश्वे तव नाम-चिन्तनम् ।
आत्मीयता-रूप-रसो महीयतां
प्रभो जगन्नाथ ! कृपा विधीयताम् ॥'
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Ref : Article Published in Hindi e-Magazine 'Srijangatha' :
'Samanvaya ke Devata Daru-Brahma SriJagannath'
On the holy occasion of Rathayatra on 13 July 2010.
Link : http://www.srijangatha.com/prasangvash2_13jul2k10
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