‘Matrubhumi’
Original Oriya Poem By :
Swabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)
Hindi Translation By : Dr. Harekrishna Meher
(Taken from the Book ‘Arghya-Thaali’)
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मातृभूमि
(‘अर्घ्यथाली’ पुस्तक से)
मूल ओड़िआ कविता : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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जब बालक घूमने चलता है
घर पड़ोसियों के,
तब वह जान पाता है
अन्य सारे घर उसके साथियों के ॥
*
बाद में जब अपने मुहल्ले से
दूसरे मुहल्ले घूमता,
तब पड़ोसियों के मुहल्ले को
वह अपना समझता ।
*
अपने गाँव से निकलकर
फिर अन्य गाँव में जब चलता,
तब वह जानता,
वही गाँव है उसका, जहाँ है अपना घर ॥
*
अपने गाँव में हैं जो नदी,
तालाब, उद्यान आदि,
उन सभीको अपना मानकर कहता,
फिर उन सभीको अच्छा समझता ॥
*
बड़ा होकर वह समयानुसार
जब अन्य राज्य में करता विहार,
उधर बखानता रहता
अपने राजा और राज्य के लोगों की श्रेष्ठता ॥
*
हाथी घाड़े से बकरी भेड़ तक सारे
उसके राज्य के अच्छे हैं सभी प्यारे ।
खान है सारे सुखों की
केवल उसका राज्य ही ॥
*
फिर बड़ा होकर
जब चलता कोई कभी देशान्तर,
तब समझता वह देश स्वर्ग से है बड़ा,
जहाँ अपना घर है खड़ा ॥
*
ज्ञान-बल से जब जान पाता
जगत्पति हैं सबके जन्मदाता,
तभी सहोदर-ज्ञान करता है सही
धरती के मानव-समाज के प्रति वही ॥
*
तब वह जानता है, जो कोई भी
करता है लोगों का उपकार जितना,
विश्वपति के विश्व-गृह में वही
सन्तान है योग्य उतना ॥
*
इसी भाँति गाँव की बातें,
राज्य की, देश की और विश्व की बातें
होती हैं प्रतीत मनुष्य-जीवन में,
यह दृश्य होता है सभी रूप में ॥
*
मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति
जिसके हृदय में अपनापन जन्मा नहीं,
करेंगे जब ज्ञानियों में उसकी गिनती
तो कहाँ रहेंगे अज्ञानी ? *
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Ref : ‘Nawya’ Hindi e-magazine : http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/मातृभूमि.html
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