Poet Gangadhar Meher’s Tapasvini
Kavya :
Sanskrit Translation by Harekrishna
Meher :
*
Hindi Review Article By : Dr. Banamali
Biswal
*
(Courtesy : ‘Drik’, Volume
28-29, 2012-2013, pages-42-49,
Drig Bharati, Yojana-3, Jhusi,
Allahabad, Uttar Pradesh)
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कवि गङ्गाधर-मेहेर-प्रणीत ‘तपस्विनी’ महाकाव्य का
हरेकृष्णमेहेर-कृत संस्कृतानुवाद : एक समीक्षण
* * *
* डॉ. बनमाली बिश्वाल
ओड़िआ वाङ्मय में स्वभावकवि-गङ्गाधरमेहेर
(१८६२-१९२४) ‘प्रकृतिकवि’ के रूप में सुपरिचित और स्वनामधन्य हैं, जैसे संस्कृत साहित्य
में महाकवि कालिदास और अंग्रेजी साहित्य में वार्ड्स्वार्थ् । कवि गंगाधर के प्रमुख
काव्य हैं ‘तपस्विनी’, ‘प्रणयबल्लरी’, कीचकबध’, ‘इन्दुमती’, ‘उत्कळलक्ष्मी’, ‘अयोध्यादृश्य’,
‘भारतीभाबना’, ‘पद्मिनी’ ‘अर्घ्यथाळी’ आदि ।
भारतीय पृष्ठभूमि पर उनकी रचनायें आधारित हैं । उनकी लेखनी में प्रतिभात हैं
भारतीयता, देशभक्ति, राष्ट्र के प्रति आन्तरिकता, भारतीय नारी का सामाजिक सम्मान एवं
आदर्शबोध, साहित्य-संगीत-कला का आन्तरिक आदर, विनम्रता और साधुता की गभीर संवेदना,
प्रकृति की अपूर्व मधुरिमा, सामाजिक संस्कार
एवं धर्मन्याय-संगत सारे सद्गुण । उनकी रचनाओं में इतना आकर्षण है कि पाठक निश्चितरूप
से रसाप्लुत हो जाता है ।
कवि गङ्गाधर मेहेर की रचनाओं
में ‘तपस्विनी’ सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है । १९१४ ख्रीष्टाब्द में प्रणीत इस महाकाव्य
में कुल ग्यारह सर्ग हैं और मुख्य रस है करुण । वाल्मीकि-रामायणीय उत्तरकाण्ड की सीता-वनवास
कथावस्तु पर यह काव्य आधारित है, परन्तु कवि की मौलिक उद्भावना एवं विशेषता प्रणिधानयोग्य
है । कवि कालिदास-कृत ‘रघुवंश’ के चतुर्दश सर्ग एवं नाट्यकार भवभूति के ‘उत्तररामचरित’
नाटक का प्रासंगिक प्रभाव यहाँ अनुभूत होता है । स्वामी राजा श्रीरामचन्द्र की धर्मपत्नी
सती साध्वी जानकी निर्वासिता होकर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहकर ‘तपस्विनी’ के
रूप में जीवनयापन करती हैं । कवि की दृष्टि में यहाँ ‘तपस्विनी’ हैं सीता । यह तपस्विनी-शब्द
का आधार है रघुवंश में प्रयुक्त ‘साहं तपः सूर्य-निविष्ट-दृष्टिः’ इत्यादि श्लोक-पंक्ति
। कवि गंगाधर ने अपनी सर्जनशील प्रतिभा से इस अपूर्व काव्य का प्रणयन पूर्वक भारतीय
साहित्य को विशेष समृद्ध किया है ।
प्रकृतिकवि गंगाधर की रचनावली को, विशेष रूप
से ‘तपस्विनी’ महाकाव्य को विश्व-साहित्य दरवार में परिचित कराने हेतु डॉ. हरेकृष्ण
मेहेर का साहित्यिक अवदान निश्चित अभिनन्दनीय और सराहनीय है । डॉ. मेहेर संस्कृत, हिन्दी,
अंग्रेजी, ओड़िआ और कोशली भाषाओं के एक सुसाहित्यिक कवि तथा सफल अनुवादक हैं । उन्होंने
तपस्विनी काव्य का हिन्दी-अंग्रेजी-संस्कृत त्रिभाषी अनुवाद या अनुसृजन करके इसका गौरव
बढ़ाने में बहुत सहायता की है और साथ ही अपनी अनुवाद-कला का सुपरिचय प्रदान किया है
। उनका हिन्दी तपस्विनी अनुवाद सम्बलपुर विश्वविद्यालय द्वारा २००० ख्रीष्टाब्द में
प्रकाशित हुआ है । अंग्रेजी अनुवाद आर्. एन्. भट्टाचार्य कोलकाता द्वारा २००९ में प्रकाशित
होकर आन्तर्जातीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त है । संस्कृत तपस्विनी अनुवाद परिमल पब्लिकेशन्स्
दिल्ली द्वारा २०१२ में प्रकाशित हुआ है (आन्तर्जातिक मानक पुस्तक संख्या : ९७८-८१-७११०-४१२-३)
। ये तीनों अनुवाद अन्तर्जाल पर डॉ. मेहेर के जालपुट (http://tapasvini-kavya.blogspot.in/2013/05/complete-tapasvini-kavya-hindi-english.html) में उपलब्ध हैं । उनके द्वारा
अनूदित संस्कृत तपस्विनी के बारे में यहाँ कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है
।
डॉ. हरेकृष्ण मेहेर के कई
अनुवादों में ‘तपस्विनी’ महाकाव्य का संस्कृत रूपान्तर एक उल्लेखनीय ग्रन्थ है । उनके
विभिन्न अनुवादों में अनुवाद-शैली की विशेषता है मूलभाषा के भाव को यथासंभव अपनी मौलिक
शब्दावली के प्रयोग से उपयुक्त परिवेषण करना और यथार्थ सुरक्षित रखना । मुक्त छन्द
में व्यवधान एवं अव्यवधान से मित्राक्षर और उपधा मिलन का प्रयोग उनके अनुवाद का प्रणिधेय
तत्त्व है । तपस्विनी-अनुवाद में भी उनकी शैली उसी प्रकार परिलक्षित होती है । उन्होंने
अनुवादकीय अनुभूति का बयान करके त्रिभाषी रूपान्तर के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं । अपनी
अनुवाद-शैली के बारे में उन्होंने ‘प्राक्कथनम्’ में लिखा है :
‘तपस्विनी- महाकाव्यस्य
मदीयानुवादानां सारस्वते त्रिवेणी-स्रोतसि मया रुच्यनुरूपं मुक्तच्छन्दोधारया सह व्यवहितैरव्यवहितैश्च मित्राक्षरैरुपधा-मिलनस्य विहितोऽस्ति
प्रयोगः । अनुवादत्रये मम रचनाशैली प्रायेण समरूपा । मित्राक्षरच्छन्दःसमेतम् अमित्राक्षरच्छन्दोऽपि
मम प्रियम्; तथापि मित्राक्षरच्छन्दस्तथा अन्त्यानुप्रासं प्रति मम विशेषाकर्षणं वर्त्तते
। अतः सर्वेषु त्रिषु अनुवादेषु मित्राक्षर-प्रयोगो मामकं सारस्वतानुराग-विशेषत्वं
द्योतयति इति समनुभूयते । एषु भाषान्तरेषु अधिकतया मदीय-मौलिक-शब्दावली-माध्यमेन काव्यस्य
मूलभावाः पूर्णतया यथार्था अक्षुण्णाः सुरक्षिताश्च विद्यन्ते इति मे दृढ़ो विश्वासः
।’
कवि गंगाधर मेहेर ने अपने
काव्यों में भारतीय साहित्य-परम्परा को यथासम्भव सश्रद्ध सम्मान प्रदान किया है ॥ प्रान्तीय
भाषा-साहित्यों में संस्कृत साहित्य का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है । यहाँ उल्लेखयोग्य
है एक और विशेष विषय, जिसमें तपस्विनी के महाकाव्यत्व-प्रतिपादन के साथ सामग्रिक अनुशीलन
का सारांश सन्निवेशित है । संस्कृत के प्रख्यात अलंकारशास्त्री विश्वनाथ कविराज ने
अपने ‘साहित्यदर्पण’ ग्रन्थ में महाकाव्य का लक्षण निरूपित किया है, ‘सर्गबन्धो
महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुर: । सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्त-गुणान्वितः
॥’ इत्यादि कारिकाओं में । अनुवादक डॉ. हरेकृष्ण मेहेर ने साहित्यदर्पण-निर्देशित
आलंकारिक शैली में ‘तपस्विनी’ के महाकाव्यत्व एवं सारतत्त्व को अपनी ललित मधुर पदावली
में निबद्ध किया है इस प्रकार :
‘तपस्विनी-महाकाव्यं स्वभावकविना
कृतम् ।
गङ्गाधर-मेहेरेण रङ्गायितं सुवर्णकम् ॥
जानकी नायिका यत्र श्रीराम-सहधर्मिणी
।
सती-शिरोमणी साध्वी पतिव्रता
तपस्विनी ॥
सर्गा एकादश ख्याताश्छन्दोरागैरलङ्कृताः ।
ग्रन्थाद्यं प्रार्थना-वस्तुनिर्देशात्मक-मङ्गलम् ॥
निर्वासनोत्तरं वृत्तं रामपत्न्याः प्रकीर्त्तितम् ।
सीतायाश्च तपश्चर्या-विभा कवेरभीप्सिता ॥
वाणी भावमयी स्निग्धा प्रधानः करुणो रसः ।
दर्शनीयं निसर्गस्य चित्रणं
चात्र मञ्जुलम् ॥
मौलिकोद्भावना भाति कवेरत्र
स्वतन्त्रता ।
सौरभं भारतीयं च सांस्कृतिकं
सुसम्भृतम् ॥
सीताचरितमाश्रित्य विशेषेण
विनिर्मितम् ।
वक्तुं हि शक्यते काव्यं सीतायनमिति
स्मृतम् ॥
ओड़िआ-मूलभाषायाः कृतः संस्कृत-भाषया
।
मम काव्यानुवादोऽयं मोदयतु
सतां मनः ॥’
इसके साथ ‘तपस्विनी’ ग्रन्थ
में सन्निवेशित है डॉ. मेहेर का एक दीर्घ शोधलेख, शीर्षक है ‘तपस्विनी-महाकाव्यम्:
एकमालोकनम्’ । इसमें तपस्विनी का एक सामग्रिक एवं तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया
है । अब देववाणी में अनूदित तपस्विनी की कुछ पंक्तियों का परिवेषण किया जा रहा है सहृदय
पाठकवर्ग के काव्यरसास्वादन एवं मनोरञ्जन के लिये ।
रूपकालंकार माध्यम से कवि गंगाधर
मेहेर ने ‘तपस्विनी’ काव्य के मुख्य विषय की सूचना दी है । दशम सर्ग में कवि ने रामायण की करुणगाथा को अपनी
शब्दों में व्यक्त किया है इस प्रकार । ओड़िआ मूल पद्य है:
रस-रत्नमय काव्य-शिखरी,
बिराजन्ति य़हिँ राम-कॆशरी ।
राबण-बारण- रकत-धार,
बहइ झर्झर निर्झराकार ।
कान्दन्ति, सिंही कन्दरे रहि,
दन्ति-दन्ताघात-बेदना सहि ॥
अनुवादक डॉ. मेहेर के अपने संस्कृत पदविन्यास में यह पंक्ति है:
रस-रत्न-परिपूर्णः काव्य-पर्वतो वर्त्तते
श्रीरामचन्द्र-मृगेन्द्रो यत्र विराजते ।
दशकन्धर-सिन्धुरस्य रुधिर-धारा
प्रवहति झर्झरं निर्झरिणी ।
क्रन्दति तद्-गिरि-कन्दरागारा
विषह्य दन्ताबल-दन्ताघात-क्लेशं केशरिणी ॥ (दशम सर्ग)
द्वितीय सर्ग में ऋषिवर वाल्मीकि
पतिव्रता सीता को जब सान्त्वना प्रदान करते हैं, उसी प्रसंग में सागर-सङ्गम के लिये
उत्सुक सरिता की स्वाभाविक आन्तरिक प्रीति का दृष्टान्त उपस्थापित किया गया है । ओड़िआ
मूल पद्य है :
स्रोतस्वती-गति सहज थाए सागर आशे,
लङ्घे शिळा-शैळ-सङ्कट य़ेबे बिरुद्धे आसे ।
सागर-सङ्गमे बिस्मरे सबु बिगत क्लेश,
उभय जीबने न रहे आउ प्रभेद लेश ।
बिधिबशे उठि मध्यरे य़ेबे ऊर्द्धकु भेदि,
बालि-स्तूप दिए सरित-
सिन्धु-हृदय छेदि ।
सरित मरि त न पारे तार
जीबन-भार,
हृदय प्रसारि रखइ होइ
ह्रद आकार ॥
डॉ. मेहेर के संस्कृत अनुवाद में यह पंक्ति इस प्रकार जीवन्त होती है :
स्वत
एव गति-र्भवति
स्रोतस्वत्याः पारावारं प्रति ।
लङ्घति सा शिला-शैल-सङ्कट-सकलम्
समागच्छति मार्गे यद् विरुद्धमर्गलम्
।
पूर्व-क्लेश-समस्तं विस्मर्यते
तया तोयनिधे-र्मिलने,
भेद-लेशोऽपि पुन-र्नावशिष्यते
तयोरुभयो-र्जीवने ॥
मध्ये दैववशात् समुत्थाय
सपदि
ऊद्र्ध्वं भित्त्वा यदि
छिनत्ति बालुका-स्तूपस्तयोः
हृदयं ह्रादिनी-समुद्रयोः,
कल्लोलिनी तु न म्रियते
।
प्रियतमस्य कृते
वहति सा जीवन-भारं स्वयम्
ह्रदाकारं प्रसार्य स्वहृदयम् ॥ (द्वितीय
सर्ग)
तपस्विनी के चतुर्थ सर्ग
का उषा-वर्णन ओड़िशा में विशेष लोकप्रिय है । ‘मङ्गळे अइला उषा’ वाक्य से कवि
गंगाधर मेहेर समग्र राज्यभर सुपरिचित हैं । चतुर्थ सर्ग के आरंभ में वाल्मीकि मुनि के आश्रम
पर पदार्पण करती है सुन्दरी उषा, जो प्रकृतिकवि गंगाधर की लेखनी में अपूर्व सौम्य कान्त
रूप से सुसज्जित है । प्रस्तुत है प्रथम पंक्ति, जो ओड़िआ भाषा के अत्यन्त मनमोहक श्रुतिमधुर
सांगीतिक ‘चोखि’ राग में रचित है । श्रीरामरानी सती सीतादेवी के स्वागत सत्कार करने
प्रकृति की अतीव सुन्दर अंशरूपिणी उषा यहाँ उपस्थित है । ओड़िआ साहित्य में स्वभावकवि
का सुप्रसिद्ध यही पद्य वास्तव में सदैव स्मरणीय है । ओड़िआ मूल पद्य इस प्रकार है
:
मङ्गळे अइला उषा बिकच-राजीब-दृशा
जानकी-दर्शन-तृषा हृदये बहि,
कर-पल्लबे नीहार- मुक्ता धरि उपहार
सतीङ्क बास-बाहार प्राङ्गणे रहि ।
कळकण्ठ-कण्ठे कहिला,
दरशन दिअ सति ! राति पाहिला
॥
डॉ. मेहेर के संस्कृत रूपान्तर
में भी यह पंक्ति उसी प्रकार आस्वादनीय है । अनुवादक ने वैदिक मन्त्रों में वर्णित
उषा के लिये प्रयुक्त ‘सूनरी’ पद का यहाँ प्रसंगवश प्रयोग करके और अधिक सुन्दरता का
यथार्थ समावेश किया है । उनके अनूदित संस्कृत शब्दों में भाव इस प्रकार व्यक्त हुए
हैं :
मङ्गलं समागता सौम्याङ्गना
उषा व्याकोषारविन्द-लोचना
वैदेही-दर्शनाभिलाषं वहन्ती
स्वहृदये ।
पल्लव-कर-द्वये
नीहार-मौक्तिक-प्रकरोपहारं
दधाना
सती-निलय-बहिरङ्गणे विद्यमाना
अभाषत कोकिल-कण्ठस्वना सूनरी,
‘दर्शनं देहि सति ! प्रभाता
विभावरी’ ॥ (चतुर्थ
सर्ग)
कन्या के प्रति माता की संवेदना
हृदय की गहरी दिशा को पहचानती है और उसी प्रकार माता के प्रति कन्या की आन्तरिक ममता
अटूट रहती है । काव्य में प्रसंगानुसार मातृस्वरूपा तमसा नदी के प्रति कन्या-स्वरूपा
सीता की कारुण्यभरी आन्तरानुभूति वास्तविक आत्मीयता का प्रकृष्ट निदर्शन है । ओड़िआ
मूल पद्य इसप्रकार है :
सीता बोइले, ‘पनीर- मधुर ए स्चच्छ नीर
नीर नुहे जननीर क्षीर प्रत्यक्षे,
गिरि-स्तनुँ विनिःसृत होइ
आसुछि अमृत-
धारा परि सीता मृत-कळपा
लक्ष्ये ।
ओहो तु त मो मा ए
देशे,
मो दुःखे विदीर्ण-वक्षा
तमसा-वेशे ॥’
डॉ. मेहेर के संस्कृत रूपान्तर में यह हृदयस्पर्शी पंक्ति इस प्रकार है:
जानक्या व्यक्तमकारि,
‘अनाविलमिदं वारि
नारिकेल-नीर-सम्मितम्
माधुर्य-प्रपूरितम् ।
न खलु तन्नीरम्,
भाति जनन्याः प्रत्यक्षमेव
क्षीरम् ।
पर्वत-वक्षोज-विनिःसृतमेतत्
प्रवहति पीयूष-निष्यन्दवत्
कृते मृतकल्पायाः
कन्यकायाः सीतायाः ।
देशेऽस्मिन्नहो ! त्वमेव
माता मे सदाशया
तमसामूर्त्ति-र्मद्वेदना-विदीर्णहृदया
॥’ (चतुर्थ सर्ग)
तपस्विनी काव्य में करुणरस
की प्रतिमा सीता का प्रासंगिक शोभावर्णन भी अत्यन्त रोचक है । मुनिवर वाल्मीकि के समक्ष
तापसी कन्या सुनाती है वन के भीतर उपेक्षित सीता की उपस्थिति के बारे में । ओड़िआ मूल
पद्य है इस प्रकार :
सम्बोधन
करि थरकु थर ता प्रिय कान्ते,
पति-गुण पति-बात्सल्य
स्मरुअछि एकान्ते ।
लळित दिशुछि ललाटे तार सिन्दूर-बिन्दु,
मुख-कमळकु होइछि य़ेह्ने पूर्णिमा-इन्दु ॥
डॉ. मेहेर के संस्कृत अनुवाद में यही पद्य इस प्रकार व्यक्त है :
सम्बोधयन्ती वारंवारम्
प्रियतमं भर्त्तारम्
स्मरति विविक्ते स्वमनसा
वात्सल्यं गुणराशिं स्वामिनः
सा ॥
तस्या ललाट-देशे सन्दृश्यते
सिन्दूर-बिन्दुः सुन्दरः
।
वदनारविन्दं प्रति प्रतीयते
यथा राका-कलाकरः ॥ (तृतीय सर्ग)
प्रकृति एवं सीता परस्पर दुःख-सुख
की समभागिनी हैं । हर सर्ग में प्रकृति का चित्रण कवि की लेखनी में विशेष मनोहारी और
आकर्षक प्रतीत होता है । प्रकृति के सारे विभाव प्राणवान् सजीव और मानवायित हैं । चतुर्थ
सर्ग का फिर एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत है, जहाँ सीता के प्रति वनलक्ष्मी की हार्दिक
सखी-प्रीति अभिव्यक्त है । आश्रम के उद्यान में कवि-कल्पिता वनलक्ष्मी सखी-रूपिणी सीता
के प्रति भावभरी बातें कहती है । ओड़िआ मूल पद्य है :
य़ेतेबेळे पुष्पकरे बाहुड़िगलु पुष्करे
उभा होइ पुष्प-करे मृग-नयने,
ऊद्र्ध्वे चाहिँ बिषादरे तोते मयूरी-नादरे
डाकु य़े थिलि सादरे दीर्घ अयने ।
सखी-कथा स्मरि मनरे,
आसिलु कि सखि ! आजि एते दिनरे ॥
डॉ. मेहेर के संस्कृत-भाषान्तर में यह भावभरी वाणी इस प्रकार है :
समारूढ़-पुष्पक-विमाना
प्रत्यावृत्ता यदा गगनायने
त्वम्,
पुष्प-करा तदाऽहं दण्डायमाना,
मृग-नयनाभ्यामूर्ध्वम्
सविषादं विलोकयन्ती,
आसं मयूरी-स्वनैस्त्वामाहूतवती
सुदीर्घ-मार्गतः सादरम्
।
वचनं सख्याः संस्मृत्य
मानसे
सखि ! कृत-पदार्पणा किमद्य
विद्यसे
एतावद्-दिवसानन्तरम्
? (चतुर्थ
सर्ग)
कवि गङ्गाधर के वर्णन में
पत्नीविरह से व्याकुल श्रीराम राजसिंहासन को अत्यन्त तुच्छ समझते है । प्रजारञ्जन-रूप राजधर्म के पालन हेतु उन्होंने अपना
समस्त पारिवारिक सुख को भी त्याग दिया है । फिर भी उनके हृदय में सदा विराजित हैं प्राणप्रिया
पद्मिनी सीता । श्रीराम का मन-भ्रमर सरस कमल के मकरन्द के आस्वादन में मग्न है । तृतीय
सर्ग में प्रसङ्गानुसार प्रियाविरह-व्याकुल सीतापति श्रीराम अपने इन्द्रियों को प्रबोधना
देते हैं । उदाहरण-स्वरूप, ओड़िआ मूल पद्य को देखा जा सकता है :
आउ एक कथा कहुछि
एकता
बान्धि तुम्भे मन सङ्गे,
चाल हृद-सरे अनन्त
बासरे
बिळसिब रस-रङ्गे ।
मो प्राण-सङ्गिनी नब कमळिनी
फुटि रहिअछि तहिँ,
स्मरण-भास्कर चिर तेजस्कर
अस्त तार नाहिँ य़हिँ ॥
डॉ. मेहेर के संस्कृत अनुवाद में इस प्रकार शब्द--संयोजना है :
ब्रवीमि विषयमेकमपरम्
यूयं स्वान्तेन सार्धम्
ऐक्य-बद्धाः सर्वे निर्बाधं
व्रजत हृदय-सरोवरम् ।
अशेष-दिवसान्यथ
रस-रङ्गेषु विलसिष्यथ ॥
तत्र वर्त्तते मम जीवन-सङ्गिनी
प्रफुल्ला नवीना राजीविनी,
यस्मिन् सुचिर-ज्योतिष्मान्
स्मरण-विवस्वान्
अविरतं विराजते,
कदापि नास्तं भजते ॥ (तृतीय सर्ग)
कवि गंगाधर मेहेर के ‘तपस्विनी’
काव्य में वर्णित श्रीरामचन्द्र एक महान् आदर्शवादी प्रजावत्सल राजा और सामाजिक त्यागी
गृहस्थ हैं । आदर्श पति हैं श्रीराम एवं आदर्श पत्नी हैं साध्वी पतिव्रता सती सीता
। ये दोनों भारतीय संस्कृति में युग-युग पूजास्पद और सदैव स्मरणीय हैं । कवि ने इस
काव्य के हर सर्ग में सीता के लिये ‘सती’ शब्द का प्रयोग करके उनके उज्ज्वल आदर्श चरित्र
का अनुपम चित्रण किया है ।
‘तपस्विनी’ के उपर्युक्त उदाहरण
केवल दिग्दर्शनमात्र हैं । समग्र पुस्तक में अपने सरस, लालित्य-माधुर्यपूर्ण एवं आनुप्रासिक
शब्दविन्यास के माध्यम से अनुवादक डॉं. हरेकृष्ण मेहेर ने स्वकीय अनुवाद-कला का एक
सफल निदर्शन उपस्थापित किया है । उनका सुरभारती-रूपान्तर में प्रस्तुत यह ‘तपस्विनी’
महाकाव्य निश्चित ही आधुनिक संस्कृत साहित्य की समृद्धि में विशेष सहायक होगा और सहृदय
काव्यामोदी विद्वानों का आदर-भाजन रहेगा, ऐसा विश्वास है ।
= = = = = = = = = = = = =
[ सौजन्य : ‘दृक्’ (समकालिक
- संस्कृत-साहित्य-समीक्षा-पत्रिका),
ISSN :
0976- 447X.
संयुक्त अंक : २८-२९ (जुलाई २०१२ - जून २०१३), पृष्ठ : ४२-४९,
प्रकाशिका : दृग् भारती, योजना-३, इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश ।]
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