/* "जयतु जननी" देशभक्तिगीत के बारे में * हरेकृष्ण मेहेर
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कुछ परिचित व अपरिचित सज्जनों के वार्त्तालाप से ज्ञात हुआ कि मेरा रचित संस्कृत गीत "जयतु जननी" हमारे भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों में विभिन्न प्रतियोगिताओं में मुख्यत: छात्र-छात्राओं द्वारा परिवेषण किया जा चुका है एवं किया जा रहा है । यह बहुत खुशी और प्रसन्नता का विषय है । सभीको मेरा आन्तरिक धन्यवाद एवं आभार व्यक्त करता हूं ।
पता चला है कि किसीने मूलगीत के कुछ शब्दों को मनमानी परिवर्त्तित कर दिया है । कुछ गीत-संकलन पुस्तकों में यह गीत प्रकाशित हुआ है । मूल लेखक को इसके बारे में कोई सूचना नहीं दी गई है । शुद्ध गीत को अशुद्ध कर दिया गया है । यह कार्य सर्वथा अनुचित है । कुछ मनमानी परिवर्त्तित शब्दों में व्याकरण की दृष्टि से अशुद्धि है और छन्द की दृष्टि से भी ।
जैसे,
(१) मूलशब्द 'हिमगिरि-शिखा' के स्थान पर 'शिखा-हिमगिरि' कर दिया गया है ।
(२) मूलशब्द 'रम्य-गङ्गा-सङ्ग-यमुना' के स्थान पर 'रम्य-गङ्गा-यमुनया सह' कर दिया गया है ।
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अन्यत्र फिर (३) मूलशब्द 'महानदीह' के स्थान पर 'महानद्यथ' कर दिया गया है ।
(४) मूलशब्द 'मानविकता-प्रेम-गीतं ' के स्थान पर 'मानवानां प्रेम-गीतं ' कर दिया गया है । इस प्रकार मनमानी परिवर्त्तन नितान्त अनुचित एवं अनावश्यक हस्तक्षेप है । जिसने भी परिवर्त्तन किया है, गीत और गीतकार के विचार से अच्छा नहीं किया है । जो हो गया है, उसे छोड़ दीजिए ।
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मूल शुद्ध गीत "जयतु जननी" अधोलिखित रूप में प्रस्तुत है । सुधी संगीतज्ञों से सादर अनुरोध है, कृपया सुविधानुसार अपरिवर्त्तित रूप में इसका सदुपयोग करें । स्वर-रचना किसी राग में अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं । रूपक ताल (३+२+२=७ मात्रा) या दीपचन्दी ताल (७+७=१४) में गीत परिवेषणीय है । चाहें तो कहरवा ताल (४+४=८) में भी गीत प्रस्तुत किया जा सकता है ।
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गीत के प्रकाशन के बारे में *
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"जयतु जननी" गीत पहले 'मातृगीतिका' शीर्षक में अधिक दो अन्तरा-पदों के साथ १९९० में केन्द्र साहित्य अकादमी दिल्ली की "संस्कृत-प्रतिभा" मुखपत्रिका में प्रकाशित हुआ था । बाद में भारतीय विद्याभवन, मुम्बई की "संविद्" पत्रिका में प्रकाशित हुआ । १९९३ में गीतकार की (मेरी) अनुमति व स्वीकृति लेकर "गेयसंस्कृतम्" (बेंगलुरु) के तत्कालीन सम्पादक महोदय ने गीत के ध्रुवपद एवं तीन अन्तरा-पदों को लेकर उसे "जयतु जननी" शीर्षक में प्रकाशित किया । बाद में कुछ गीत-संकलन पुस्तकों में यह गीत प्रकाशित है । कहीं कहीं कुछ परिवर्त्तित अशुद्ध रूप में । यह बात बिलम्ब से मुझे ज्ञात हुई ।
संपृक्त संकलित पुस्तकों के संपादक महोदयों से सादर निवेदन है, जहां अशुद्ध छपा है, कृपया अगले संस्करण में मूल शुद्धरूप गीत प्रकाशित करके गीत की तथा जन्मभूमि की मर्यादा सुप्रतिष्ठित रखेंगे ।
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पता चला, "गेयसंस्कृतम्" (संस्कृत भारती, बेंगलुरु) पुस्तक का पुनर्मुद्रण हुआ है २०१० में । पूर्ववत् उसमें मूल शुद्धरूप गीत प्रकाशित है । उसका फोटोकॉपी नीचे संलग्न है । कृपया उसीके अनुसार गीत का सदुपयोग करेंगे । सादर ससम्मान हार्दिक धन्यवाद ।
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"जयतु जननी" (देशभक्तिगीत) :
गीतिकार : डा. हरेकृष्ण मेहेर
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जयतु जननी जन्मभूमि:
पुण्य-भुवनं भारतम् ।
जयतु जम्बू- द्वीपमखिलं
सुन्दरं धामामृतम् ।
पुण्य-भुवनं भारतम् ।। (०)
*
धरित्रीयं सर्व-दात्री
शस्य-सुफला शाश्वती,
रत्नगर्भा कामधेनु:
कल्पवल्ली भास्वती ।
विन्ध्य-भूषा सिन्धु-रशना
हिमगिरि-शिखा शर्मदा,
रम्य-गङ्गा- सङ्ग-यमुना
महानदीह नर्मदा ।
कर्म-तपसां सार्थ-तीर्थं
प्रकृति-विभवालङ्कृतम् ।
जयतु जम्बू- द्वीपमखिलं
सुन्दरं धामामृतम् ।
पुण्य-भुवनं भारतम् ।। (१)
*
आकुमारी- हिमगिरे-र्नो
लभ्यते सा सभ्यता,
एक-मातु: सुता: सर्वे
भाति दिव्या भव्यता ।
यत्र भाषा- वेष-भूषा-
रीति-चलनै-र्विविधता,
तथाप्येका ह्यद्वितीया
राजते जातीयता ।
ऐक्य-मैत्री- साम्य-सूत्रं
परम्परया सम्भृतम् ।
जयतु जम्बू- द्वीपमखिलं
सुन्दरं धामामृतम् ।
पुण्य-भुवनं भारतम् ।। (२)
*
आत्मशिक्षा- ब्रह्मदीक्षा-
ज्ञान-दीपैरुज्ज्वलम्,
योग-भोग- त्याग-सेवा-
शान्ति-सुगुणै: पुष्कलम् ।
यत् त्रिरङ्गं ध्वजं विदधत्
वर्षमार्षं विजयते,
सार्वभौमं लोकतन्त्रं
धर्मराष्ट्रं गीयते ।
मानविकता- प्रेम-गीतं
विबुध-हृदये झङ्कृतम् ।
जयतु जम्बू- द्वीपमखिलं
सुन्दरं धामामृतम् ।
पुण्य-भुवनं भारतम् ।। (३)
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"जयतु जननी" * मूल संस्कृत गीत एवं हिन्दी भावानुवाद : डा. हरेकृष्ण मेहेर *
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