Thursday, June 17, 2010

Vyasakavi Fakir Mohan Senapati (व्यासकवि फकीरमोहन सेनापति): Dr. Harekrishna Meher

Vyasakavi Fakir Mohan Senapati 
Hindi Article By : Dr. Harekrishna Meher 
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व्यासकवि फकीरमोहन सेनापति (१८४३- १९१८)
 डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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ओड़िआ साहित्य में फकीरमोहन सेनापति कथा-सम्राट्‍ के रूप में परिचित हैं । ओड़िआ कहानी एवं उपन्यास रचना में उनकी बिशिष्ट पहचान रही है । इन महान् सारस्वत साधक का जन्म हुआ था बालेश्वर जिल्ला के मल्लिकाशपुर गाँव में, १४ जनवरी १८४३ ई. मकर-संक्रान्ति के दिन । फिर विचित्र संयोग की बात है कि इनका देहान्त हुआ था १४ जून १९१८ ई. रजसंक्रान्ति के दिन । इनका आविर्भाव हुआ था संक्रान्ति में और तिरोभाव भी संक्रान्ति में । इसी कारण ओड़िआ साहित्य-जगत् में फकीरमोहन ‘”संक्रान्ति-पुरुषके रूप में चर्चित हुए हैं । इस संक्रान्ति के कारण से ही संभवतः इनकी लेखनी से साहित्य-क्षेत्र में एक विशेष क्रान्ति आई और एक नव्य युग का सूत्रपात हुआ । बाल्य काल में उनके पिता-माता के अकाल निधन के बाद वृद्धा पितामही द्वारा फकीरमोहन का लालन-पालन हुआ । बाल्य में इनका नाम था ब्रजमोहन । परन्तु पितृमातृहीन पौत्र को फकीर वेश में सजाकर उनका जीवन सम्हाला था शोक-संतप्ता पितामही ने । तदनन्तर ब्रजमोहन सेनापति फकीरमोहन सेनापतिके नाम से परिचित हुए ।

शैशव में पितृमातृहीन, यौवन में पत्नी-हीन और परिणत उम्र में पुत्र से बिच्छिन्न होकर फकीरमोहन भगवत्‌‍-करुणा के पात्र थे और असाधारण प्रतिभा के अधिकारी भी । गाँव की पाठशाला में पढ़कर उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अध्ययन जारी रखा । समयक्रम से बालेश्वर मिशन्‌ स्कूल में प्रधानशिक्षक बने । धीरे धीरे अपनी सारस्वत साधना से प्रतिष्ठित हुए । मातृभाषा ओड़िआ की सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने साहित्य में एक विप्लवात्मक पदक्षेप लिया । उनके जीवन-काल में अनेक जंजाल और संघर्ष आये । परन्तु वे अविचलित होकर सब झेल गये । सबल आशावादी होकर उन्होंने अपना जीवन निर्वाह किया । बालेश्वर में उनका गृह-उद्यान “शान्ति-कानन” आज भी साहित्यप्रेमी जनों के लिए एक पबित्र स्थल के रूप में दर्शनीय है ।

फकीरमोहन की विद्यालय-शिक्षा अल्प थी; लेकिन अपनी चेष्टा और दृढ़ मनोबल से उन्होंने शास्त्रादि अध्ययन पूर्वक अधिक ज्ञान अर्जन किया था । अंग्रेज शासन में बालेश्वर के जिल्लाधीश जन्‌ बीम्‌स् बड़े साहित्यानुरागी थे । उनको पढ़ानेके लिये संस्कृत, बंगाली और ओड़िआ- इन तीन भाषाओं के एक ज्ञानी पण्डित की आवश्यकता होने पर फकीरमोहन बीम्‌स्‌‍ के साथ भाषा-चर्चा करते थे । फकीरमोहन का अंग्रेजी-ज्ञान साहित्यानुरूप विशेष नहीं था । फिर भी स्वपठित सामान्य ज्ञान गडजातों में दीवान और मैनेजरी कार्य़ करते समय कुछ उपयोगी हुआ था । ज्ञानार्जन की उच्चाकांक्षा ने फकीरमोहन को एक महनीय साहित्यकार बनाकर प्रतिष्ठित किया । महामुनि व्यास-कृत संस्कृत ‘महाभारत’ ग्रन्थ को ओड़िआ में अनुवाद करनेके कारण फकीरमोहन सेनापति “व्यासकवि” नाम से प्रसिद्ध हैं । उन्होनें रामायण, गीता, उपनिषद्‍ आदि ग्रन्थों का भी ओड़िआनुवाद किया है । वे एक कहानीकार, उपन्यासकार, कवि एवं अनुवादक के रूप में लोकप्रिय रहे हैं ।

फकीरमोहन प्रथम ओड़िआ साहित्यकार हैं, जिनकी कहानियों और उपन्यासों में तत्कालीन समाज के अति नगण्य, दीन हीन चरित्र सारिआ, भगिआ आदि दृष्टिगोचर होते हैं । उनकी लिखी कहानियों में ‘रेवती’, 'पैटेण्ट्‍‍ मेडिसिन्‌‍’, ‘डाक-मुन्सी’, ‘सभ्य जमीदार’ प्रमुख उल्लेखनीय हैं । ‘रेवती’ उनकी पहली कहानी है, जहाँ तत्कालीन समाज में नारी-शिक्षा एवं नारी-जागरण के लिये प्रथम उन्मेष का सूत्रपात हुआ । 'पैटेण्ट् मेडिसिन्‌' कहानी के नायक मद्यप स्वामी चन्द्रमणिबाबु को सही रास्ते में लाने के लिये पत्नी ने इस्तेमाल किया झाडू का, जो 'पैटेण्ट् मेडिसिन्‌' बन गया है । 'डाक-मुन्सी' में एक अंग्रेजी-पढ़ा युबक गोपाल अपने वृद्ध ग्रामीण रुग्ण पिता हरिसिंह को अपने आवास मे निकाल देता है । इनके अलावा फकीरमोहन ने अनेक कहानियाँ लिखीं, जो पाठक-मन में समादृत हुईं ।
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उनके उपन्यासों में ‘छमाण आठ गुण्ठ’, ‘मामुँ’, ‘प्रायश्चित्त’, 'लछमा’, आदि प्रमुख हैं । प्रसिद्ध उपन्यास ‘छ माण आठ गुण्ठ’ ओड़िआ सिनेमा के रूप में लोकप्रिय बन चुका है । इस उपन्यास का नायक गाँव का टाउटर रामचन्द्र मंगराज धन-लोलुपता के कारण दिलदार मियाँ की जमीदारी और सारिआ-भगिआ की छह माण आठ गुण्ठ किसानी जमीं को कैसे हड़पने की चेष्टा करता है, उसका वास्तव चित्रण हृदयस्पर्शी है । 'मामुँ' उपन्यास में शहरी दुर्वृत्त नाजर नटवर अत्यन्त स्वार्थी और लोभी बनकर भगिनी की सम्पत्ति को अधिकार करने षडयन्त्र में प्रबृत्त होता है । 'प्रायश्चित्त' उपन्यास में सारे शिक्षित, सभ्य और भद्र लोगों के आधुनिक दर्शन और रुचि के बारे में चित्रण हुआ है । कहानीकार सारे खल चरित्रों के कुकर्मों की कुपरिणति के बारे में भी सचेतन हैं और वैसी कुफलों की वर्णना भी की है । चम्पा, चित्रकला आदि खल-नायिकाओं का चित्रण भी स्वाभाविक एवं जीवन्त प्रतीत होता है । नारी-पात्रों के मार्मिक चित्रण करने में भी फकीरमोहन की निपुणता प्रशंसनीय है । 'रेवती', 'राण्डिपुअ अनन्ता' प्रमुख कुछ कहानियाँ भी दूरदर्शन में प्रसारित हुई हैं । उनकी रचनाओं में विषयवस्तु, चरित्रचित्रण, भावनात्मक विश्लेषण एवं वर्णन-चातुरी अत्यन्त आकर्षणीय हैं । भाव और भाषा का उत्तम समन्वय परिलक्षित होता है । प्रकृति-जगत्‌ की सुरक्षा के साथ पर्यावरण में परिष्कृति और स्वच्छता लाने हेतु भी उनका सारस्वत प्रयास सराहनीय है ।
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कवि के रूप में उन्होंने 'अबसर-बासरे', 'बौद्धावतार काव्य' आदि लिखे, जिसमें कवि की भावात्मकता एवं कलात्मकता का रम्य रूप दृश्यमान होता है । 'उत्कलभ्रमणं' काव्य में हास्य-व्यंग्य वर्णन सहित ओड़िशा के तत्‍कालीन साहित्य-साधकों की बहुत उत्साहभरी प्रशंसा की है । 'आत्मजीवनचरित' में उन्होंने अपने संघर्षमय जीवन की विशद अवतारणा की है । सांवादिकता-क्षेत्र में भी उनका विशेष अवदान रहा है । 'संवादबाहिनी' और 'बोधदायिनी' पत्रिकाओं के प्रकाशन की दिशा में ओड़िआ सांस्कृतिक संग्राम के एक प्रवीण सेनापति रहे । वास्तविक कर्मक्षेत्र में भी उन्होंने विचक्षणता के साथ कर्त्तव्य संपादन किया था । जमीदार के विरुद्ध केन्दुझर में घटित 'प्रजा-मेलि' (भूयाँ जाति का आन्दोलन) में अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से परिस्थिति को सम्हाल लिया था ।

उनकी रचनाओं में समसामयिक समाज मे प्रचलित अन्धविश्वास, कुसंस्कार, दुर्बलों के प्रति धनियों का अन्याय-अत्याचार, बाल्यविवाह की कुपरिणति आदि तत्त्व दृग्गोचर होते हैं । इन सबके विरुद्ध फकीरमोहन ने क्रान्तिकारी लेखनी जोरदार चालना की । उनकी लालिका (पैरोडी) रचनाओं में सांस्कृतिक भित्ति, हास्य परिवेषण और मनोरञ्जन के कई उपादान सन्निवेशित हुए हैं । विदग्ध तथा साधारण पाठक दोनों के लिये ये लालिकायें भावभरी और आनन्ददायिनी अनुभूत होती हैं । शैशव से लेकर जीवन की आखरी साँस तक कई दुःख, पीड़ा, लाञ्छना, प्रवञ्चना आदि से जञ्जालभरी राहों पर फकीरमोहन के पैर क्षताक्त रहे । पीड़ा और कारुण्य़ से उनका जीवन गाम्भीर्यपूर्ण था । परन्तु दूसरों के मुख में उन्होंने ऐसी हास्य-भंगी निखार दिखलायी, जिसकी कोई तुलना नहीं । वास्तव में फकीरमोहन एक युगप्रवर्त्तक, समाज-संस्कारक, जनजीवन के यथार्थ चित्रकार, नवीनता के वार्त्तावह और कथासाहित्य के उन्नायक 
थे 

वास्तव जगत् के कर्मक्षेत्र में ओड़िआ साहित्य के फकीरमोहन एवं हिन्दी साहित्य के प्रेमचन्द - ये दोनों प्रसिद्ध कथाकार परस्पर तुलनीय़ हैं । इनकी कहानियों में तत्कालीन समाज में अनुभूत भारतकी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थनीतिक और सांस्कृतिक अवस्थाओं का सम्यग् रूपायन किया गया है । सामाजिक द्वन्द्व का समाधान, न्याय-अन्याय-विचार, आदर्शवाद, नैतिकता, परस्पर सद्‍भाव प्रतिष्ठा आदि दोनों कहानीकारों का अभीष्ट है । भारतीय भावधारा दोनों की रचना में परिप्लुत है । पाश्चात्य शिक्षा-सभ्यता के प्रति व्यंग्य और कटाक्ष सहित स्वकीय भाषा-साहित्य के प्रति गभीर अनुराग दोनों में अनुभूत होता है । दोनों गाँव में जन्मे थे निम्न मध्यवित्त परिवार में । दुःख- जञ्जाल संघर्षों से भरा था दोनों का जीवन । तत्कालीन सामाजिक स्थिति में व्यापक थे अनेक तत्त्व, जैसे ग्रामीण जीवन में आई जातिप्रथा, धनी-गरीब का भेदभाव, नारी-जाति प्रति अत्याचार और शोषण, बाल्यविधवा समस्या, कुसंस्कार, अन्धविश्वास आदि । इन सबका निराकरण हेतु दोनों का सारस्वत प्रयास अदम्य रहा । किसानों की दुर्दशा दूर करने दोनों की लेखनी तत्पर रही । पुञ्जिपतियों की शोषणक्रिया से किसानों की मुक्ति के लिये उनका सारस्वत उद्यम जारी रहा । प्रेमचन्द का किसान होरी और फकीरमोहन का भगिआ - इन दोनों में अनेक समानता परिलक्षित होती है । भारतीय साहित्य-जगत्‌‍ में फकीरमोहन एवं प्रेमचन्द - ये दोनों स्वाधीनचेता महान् कथाकार वास्तव में चिरस्मरणीय एवं अमर हैं । (फकीरमोहन -जन्म १८४३, निधन १९१८, रचनासृष्टि १८९७ । प्रेमचन्द - जन्म १८८०, निधन १९३६, रचना १९०५ के आसपास ) ।

आधुनिक ओड़िआ कथासाहित्य के जनक फकीरमोहन सेनापति के जीवन और रचनाओं के बारे में अब तक बहुत शोधग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । विशेष बात यह है कि लन्दन विश्वविद्यालय के पूर्वतन प्रोफेसर डॉ. जे. वी. बौल्‍टन्‌ महोदय ने फकीरमोहन सेनापति के जीवन एवं कथा के बारे में गवेषणा करके १९६७ में उसी विश्वविद्यालय से पीएच्‌. डी. उपाधि प्राप्त की है । (Dr. J. V. Boulton, Professor of Oriental Learning, London University. Ph.D. Thesis : Phakirmohana Senapati : His Life and Prose-Fiction, 1967). । फकीरमोहन के महनीय नाम के सम्मानार्थ बालेश्वर में प्रतिष्ठित हैं 'फकीरमोहन स्वयंशासित महाविद्यालय' एवं 'फकीरमोहन विश्वविद्यालय', व्यास-विहार ।
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Reference : सृजनगाथा : 

Srijan-gatha (E-Magazine): Article Link: Published in June 2010 : 
Ref : http://www.srijangatha.com/hastakshar_16jun2k10 
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