Tuesday, October 25, 2022

Kumara-Sambhava Kavya (Canto-2): Odia Version by Dr.Harekrishna Meher

 Kumara-Sambhava Mahakavya * 

Original Sanskrit Epic Poem : Mahakavi Kalidasa 
Odia Metrical Translation : Dr. Harekrishna Meher
* * 
Canto-2 (Dvitiya Sarga):
Prayer of gods to Brahma and Appearance of Kamadeva  
(Taken from Complete Odia Version)
*  
Published in BARTIKA (बर्त्तिका), Literary Odia Quarterly,
Dashahara Special Issue, October-December 2006, Pages 923-929.
Saraswata Sahitya Sanskrutika Parishad, Dasharathpur, Jajpur, Odisha.
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कुमारसम्भव महाकाव्य
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि कालिदास *
संपूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर 
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कुमारसम्भव : द्वितीय सर्ग * 
विषय : ब्रह्माङ्कु देबताङ्क प्रार्थना एवं कामदेवागमन * 
समुदाय श्लोक संख्या : ६४ * 
ओड़िआ छन्दरे अनूदित : राग कळहंसकेदार *    
अनुवाद काल : १९७१ ख्रीष्टाब्द  
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(१)
से समये तारक  दानबपति । देबगणङ्कु पीड़ा  देबारु अति ॥ 
बासबे आग करि  सर्ब सुमन । स्वायंभुब-भुबने  कले गमन ॥   
*
(२)
म्लान-मुख अमरगण सम्मुख । आसि उभा होइले चतुरमुख ॥ 
सुप्त-पुष्करय़ुत  सर-निकर । समक्षे प्रात:काळे  य़था भास्कर ॥  
*
(३)
तहुँ सर्बतोमुख  विश्वकरता । बागीश बिधाताङ्कु  सर्ब देबता ॥ 
प्रणिपात जणाइ  बिनम्र शिरे । स्तुति आरम्भ कले  य़थार्थ गिरे ॥  
*
(४)
सर्जना पूर्बे प्रभो ! हे बेदबर !। एक स्वरूप रहिथाए तुमर ॥ 
सृष्टिरे सत्त्व रज  तुमे भिआइ । ब्रह्मा बिष्णु महेश  नाम बोलाइ ॥ 
तुमे त्रिमूर्त्ति करिथाअ धारण । प्रणमुँ तब पदे  देबतागण ॥    
*
(५)
सलिळ मध्ये तुमे अज हे ! निज । बपन कल नेइ अमोघ बीज ॥ 
सेथिरु चराचर  ए बिश्व जात । तुमे बिश्वकरता बोलि बिख्यात ॥    
*
(६)
तुमे त एकरूप अट बिश्वरे । तिनि अबस्था य़ोगुँ  तिनि रूपरे ॥ 
आपणार महिमा  करि प्रकट । सृष्टि स्थिति लयर कारण अट ॥ 
*
(७) 
सृष्टि इच्छारे निज  शरीर घेनि । बिभक्त कल स्तिरी पुरुष बेनि ॥ 
से बेनि बिभाजन  सरजनारे । पितामाता स्वरूपे  ख्यात संसारे ॥  
(८)
आपणा काळ परिमाणे तुमर । कल्पित होइथाए  रात्रि बासर ॥ 
जगत लय लभे  शयने तब । जागरणे हुअइ  सृष्टि सरब ॥   
(९)
तुमे हिँ निजे सृष्टिकर्त्ता बिश्वर । सृष्टिकरता केहि  नाहिँ तुमर ॥ 
तुमे हिँ जगतर  लय-कारक । नाहिँ अपर केहि  तब नाशक ॥ 
तुमे त आदि अट  ए जगतर । तुमर आदि केहि  नाहिँ अपर ॥ 
एक ईश्वर तुमे  सर्ब बिश्वर । हे प्रभो ! केहि नाहिँ  तब ईश्वर ॥   
(१०)  
निज द्वारा हिँ तुमे  निजे गोचर । निज द्वारा निजकु सर्जना कर ॥ 
बिश्वसर्जना कार्य़्य़  शेषे अचिरे । बिलीन हुअ निजे निज शरीरे ॥   
(११) 
तुमे तरळ पुणि कठिन अति । तुमे हिँ अट स्थूळ सूक्ष्म मूरति ॥ 
लघु गुरु तुमे हिँ ब्यक्त अब्यक्त । सर्ब ऐश्वर्य़्य तुम  स्वहस्तगत ॥  
(१२) 
बिराजइ य़ाहार  आद्ये ओंकार । स्वर-त्रयरे उच्चारण य़ाहार ॥ 
य़ज्ञ य़ाहार कर्म स्वरग फळ । सेहि बाणीर तुमे उद्भब-स्थळ ॥  
(१३) 
ज्ञानीङ्क मते तुमे  मूळ प्रकृति । पुरुषार्थ पाइँ य़े  दिए प्रवृत्ति ॥ 
से प्रकृतिर उदासीन दर्शक । पुरुष अट तुमे  विश्वनायक ॥  
(१४) 
पिता अट तुमे त पितृगणर । देवङ्कर देवता अट आबर ॥ 
श्रेष्ठङ्क ठारु मध्य श्रेष्ठ आपण । सृष्टिकर्त्ताङ्क मध्य सृष्टिकारण ॥ 
(१५) 
हे प्रभो ! तुमे हव्य आबर होता । शाश्वत तुमे भोज्य तुमे हिँ भोक्ता ॥ 
तुमे त ज्ञेय पुणि  अट हे ज्ञाता । तुमे परम ध्येय  आबर ध्याता ॥ 
(१६) 
देवताङ्क एपरि  य़थार्थ स्तब । शुणि हरषे ब्रह्मा कमळोद्भब ॥ 
प्रसन्न बदनरे  देबङ्क प्रति । प्रकाश कले धीरे  मधु भारती ॥ 
(१७) 
पुरणकबि बिश्व-बिधाताङ्कर । चतुर्मुखुँ व्यकत चतु:शब्दर ॥ 
चतुर्बिध प्रवृत्ति  से समयरे । चरितार्थ होइले  एहि रूपरे ॥ 
(१८) 
हे परक्रमी देवे ! आजानुहस्त । स्वबळे अधिकार  धरि समस्त ॥ 
होइछ तुमे एक  सङ्गे आगत । तुममानङ्कु मुहिँ  करेँ स्वागत ॥ 
(१९) 
शिशिर-पाते य़था  नक्षत्रगण । करिथान्ति मळिन  कान्ति धारण ॥ 
तुमरि मुखमान  पूरुब दीप्ति । प्रकाश करु नाहिँ  कह केमिति ॥ 
(२०) 
वृत्रहन्ता इन्द्रङ्क  बज्रायुधर । धार कुण्ठित परि हुए गोचर ॥ 
ज्योति लिभि य़ाआन्ते  होइछि म्लान । इन्द्रधनु तहिँरे अविद्यमान ॥ 
(२१) 
स्वकरे बैरीजन-दुर्बार एहि । य़ेउँ फाश बरुण अछन्ति बहि ॥ 
ताहा त मन्त्रे हीन-बीर्य़्य सर्पर । दीन दशाकु भजिअछि आबर ॥ 
(२२) 
शाखा भाङ्गिले वृक्ष पराये दीन । कुबेरङ्कर बाहु  गदा-बिहीन ॥  
मानसिक शल्यर  तुल्य उत्कट । पराभबकु सते करे प्रकट ॥ 
(२३) 
य़मङ्क दण्ड-अस्त्र निस्तेज दिशे । हस्ते धरि खोदन्ति धरणीकि से ॥ 
अव्यर्थ हेलेहेँ त  मणन्ति य़म । असार निर्वापित- अलात सम ॥ 
(२४) 
निष्प्रभ हेले कि ए द्वादशादित्य । ताप क्षय हेबारु भजिले शैत्य ॥ 
दिशन्ति चित्राङ्कित प्राये केसने । चमक न जन्मान्ति  जन-नयने ॥ 
(२५) 
सम्मुख-बाधा हेतु सलिळ-धार । अवरुद्ध हुअइ  य़ेउँ प्रकार ॥ 
सेरूपे बायुङ्कर बेगाबरोध । गति-स्खळन य़ोगुँ  हेउछि बोध ॥ 
 
(२६)  
अबनत होइछि  रुद्रगणङ्क । जटाजूट-भूषित  सर्बमस्तक ॥ 
शशाङ्क-रेखामान लम्बिछि तळे । दैन्य-क्षोभित होइछन्ति सकळे ॥ 
रुद्रङ्कर हुङ्कार-शकति-क्षय । सूचना देउछन्ति  ए शिरचय ॥  
(२७) 
प्रथमुँ तुमेमाने  सुप्रतिष्ठित । होइ रहिछ गउरब-मण्डित ॥ 
एबे कि हीन-बळ हेल सकळे । अधिक-शक्तिशाळी शत्रु कबळे ॥ 
तेजिल स्वाधिकार  हे सुरबर्ग ! । य़ेपरि अपबाद बळे उत्सर्ग ॥ 
(२८)  
हे पुत्रगण ! तेबे  केउँ आशारे । आसिअछ, प्रकाश कर मो ठारे ॥ 
सर्जना-कार्य़्य सिना  अटे मोहर । लोक-रक्षण कार्य़्य सबु तुमर ॥  
(२९) 
तदन्ते चाळि निज नेत्र-पङ्क्तिकि । सङ्केत देले इन्द्र वृहस्पतिङ्कि ॥ 
सेहिकाळे सहस्र  चक्षु ताङ्कर । भजिला सुन्दरता अरबिन्दर ॥ 
सरोबरे बहिले  मन्द पबन । दोळित हुए य़था  कमळ-बन ॥ 
(३०) 
सहस्र नयनरु  बळि दर्शन ।- पारङ्गम य़ाहार बेनि लोचन ॥ 
इन्द्र-नेत्र-स्वरूप  से गुरु धीर । कर य़ोड़ि ब्रह्मारे  बोइले गिर ॥ 
(३१)  
प्रभो ! बचन तब  नुहे अनृत । आमरि पद बैरी-बळे बिच्युत ॥ 
तुमे त अन्तर्य़्यामी बिश्वे व्यापत । तुमरे केउँ कथा अछि गुपत ?॥ 
(३२) 
तब प्रसादे लभि अमोघ बर । तारक नामे दैत्यकुळ-शेखर ॥  
सकळ भुबनर  उत्पात लागि । धूमकेतु पराये  रहिछि जागि ॥  
(३३)  
से महासुर-पुरे  प्रचण्ड रबि । बहिअछन्ति भये  निस्तेज छबि ॥ 
प्रसार करिथान्ति  एते कर से । बिकशे अरबिन्द  य़था सरसे ॥ 
(३४) 
सकळ-कळापूर्ण्ण  तारा-दयित । सेबिथान्ति सर्बदा  महादइत ॥ 
केबळ शिबङ्कर शिरोभूषण । एक कळा करि न थान्ति ग्रहण ॥ 
(३५)  
समीर पुष्पचोर  साजिबा डरे । स्वच्छन्दे न चळन्ति ता उद्यानरे ॥ 
ता पाशे व्यजनर बायुरु अति । केबेहेँ न बहन्ति  सतत-गति ॥ 
(३६) 
पर्य़्याय-क्रम तेजि  ऋतु समस्ते । कुसुम-राशि घेनि  एक सङ्गते ॥ 
उद्यानमाळी सम  सेबा करन्ति । तारकासुर पाशे  तोषि ता मति ॥ 
(३७)  
सिन्धु-गर्भे अमूल्य रत्नराजिर । संपूर्ण्ण परिपक्व  हेबा स्थितिर ॥ 
अपेक्षा करिथान्ति  बरुण नित्य । उपहारे तोषिबा पाइँ दइत्य ॥ 
(३८) 
बासुकि आदि महासर्प समस्त । उन्नते टेकि फणामणि ज्वळन्त ॥ 
स्थिर प्रदीप रूपे  नाशि तिमिर । निशिसेबा करन्ति दैत्यपतिर ॥ 
(३९)  
दूत-हस्तरे निति  शचीरमण । कल्पवृक्षर बहुमूल्य भूषण ॥ 
उपहार पठाइ निज अराति । तारक राक्षसकु प्रीत करान्ति ॥ 
(४०) 
ए भाबे सेबा पाइ  मध्य आमर । त्रिलोके पीड़ा दिए  एका पामर ॥ 
प्रत्यपकारे शान्त  हुए दुर्जन । उपकार ता पाइँ  नुहे साधन ॥ 
(४१)  
बिबुध-बधूगण  नन्दन-बने । स्वकरे किशळय  सदय मने ॥ 
तोळन्ति कर्ण्ण-आभरण सकाशे । मात्र तारक सर्ब  तरु बिनाशे ॥ 
निष्ठुर भाबे पत्र छेदिबा फळे । भोगुअछन्ति कष्ट  वृक्ष सकळे ॥ 
*  
(४२) 
बन्दी सुरबामाए  दैत्यराजर । शयन बेळे बिञ्चिथान्ति चामर । 
दु:खे श्वास बहइ से बायु परि । चामरुँ अश्रुबिन्दु  पड़इ झरि ॥ 
(४३) 
सूर्य़्यदेवङ्क अश्व-खुराग्र बाजि । क्षत मेरुर स्वर्ण्ण शिखरराजि ॥ 
उत्पाटि दैत्यपति  निज गृहरे । स्थापि रखिछि क्रीड़ाशैळ रूपरे ॥   
(४४) 
स्वर्ण्णकमळ सर्ब स्वर्ण्णदीङ्कर । उत्पाटि रखिअछि सरे निजर ॥ 
एबे दिग्गजङ्कर  मद-य़ोगरे । आबिळ जळ अछि अबशेषरे ॥ 
(४५) 
तारकासुर-भये  देबतामाने । भ्रमुनाहान्ति शून्य-मार्गे बिमाने ॥ 
अन्यलोक-दर्शन-प्रीतिरु एबे । बञ्चित होइ रहिछन्ति सरबे ॥ 
(४६) 
य़ज्ञरे य़जमान आममानङ्क । आहुति अरपण कले नि:शङ्क ॥ 
मायाबी दैत्य अग्नि-मुखुँ बेगरे । बळपूर्बक सर्ब  हरण करे ॥ 
(४७) 
प्रभो ! पुरन्दरङ्क  बहुकाळर । अर्जित मूर्त्तिमन्त कीर्त्ति भास्वर ॥ 
अश्व-रतन  उच्चै:श्रवाकु हरि । असुर निज पुरे  रखिछि भरि ॥ 
(४८) 
सन्निपात व्याधिरे अति उत्तम । औषध मध्य व्यर्थ  हेबार सम ॥ 
क्रूर तारकासुर  पाशे निष्फळ । हेउछि आम प्रतिकार सकळ ॥ 
(४९) 
य़ा पाशे जय-आशा अछि आमर । से बिष्णु-चक्र मध्य  दैत्यराजर ॥
शिळा सम कठोर कण्ठ आघात । करन्ते हुए दीप्त  तेज सञ्जात ॥ 
राक्षस-कण्ठे आभरण समान । से तेज होइथाए  प्रतीयमान ॥  
(५०) 
ऐराबत करीकि  करि परास्त । रक्षपतिर बळी  हस्ती समस्त ॥ 
पुष्कराबर्त्तकादि  मेघ-देहरे । दन्ताघात अभ्यास  करन्ति खरे ॥   
(५१) 
प्रभो ! संसार-कर्मबन्ध-छेदक । धर्म इच्छन्ति य़था  मुमुक्षु लोक ॥ 
सेरूपे असुरर  नाश-कारण । सेनानी इच्छुँ आमे  अमरगण ॥ 
(५२) 
अग्रते रखि सेहि  सेनापतिङ्कि । शत्रु-बन्दिनी समा जयलक्ष्मीङ्कि ॥ 
मुक्त करि लभिबा  पाइँ य़ेसन । समर्थ हेबे निश्चे  पाकशासन ॥ 
(५३) 
एरूपे शुणि सुरगुरुङ्क बाणी । भाषिले धीर चित्ते  से कुशपाणि ॥ 
मेघ-गर्जन परे  वृष्टि य़ेपरि । अनुभूत होइला  बाक्य ताङ्करि ॥ 
(५४) 
केतेक काळ तुमे अमरगण । अपेक्षा कर बाञ्छा  हेब पूरण ॥ 
मातर से तारकासुर-निधने । न हेबि नियोजित  निजे सर्जने ॥ 
(५५) 
मो ठारु पाइछि से  शिरी-सौभाग्य । मो द्वारा नुहे तेणु  बिनाश-य़ोग्य ॥ 
बिष-तरुकु मध्य  करि बर्द्धित । निज हस्ते छेदिबा  नुहे उचित ॥ 
(५६) 
तुष्ट हेलि देखि ता तपश्चरण । न मारिबाकु मुहिँ  करिछि पण ॥ 
करि न थान्ति य़दि  ए बर दान । तपाग्नि दहिथान्ता  तिनि भुबन ॥ 
(५७) 
संग्राम-पारङ्गम दैत्यपतिर । सम्मुखीन होइब  के अबा बीर ?॥ 
शम्भु-रेत-सम्भूत पुत्र व्यतीत । समर्थ नुहे केहि  साधने हित ॥ 
(५८) 
परम तेजोमूर्त्ति  प्रभु शङ्कर । अबिद्यारु सेहि त अटन्ति पर ॥ 
मुहिँ आबर बिष्णु ताङ्क महिमा । कळि पारिबा नाहिँ, नाहिँ ता सीमा ॥ 
(५९) 
नगेन्द्र-नन्दिनीङ्क  सुन्दरपणे । समाधि-रुद्ध शिब-मानस क्षणे ॥ 
आकर्षिबा सकाशे  कर उपाय । चुम्बक-सय़ोगरे  लौह पराय ॥ 
(६०) 
बेनि जनङ्क बीज  बहन अर्थे । समर्था दुहेँ रहिछन्ति जगते ॥ 
ईशानङ्क अमोघ  रेत धारणे । उमा एका समर्थ अटन्ति जणे ॥ 
मोर बीज धारण  पाइँ आबर । समर्थ जळमयी  मूर्त्ति ताङ्कर ॥ 
(६१) 
तुम सेनानी होइ  ईशान-भब । परकाशि असीम  शक्ति-बैभब ॥ 
बन्दिनी बृन्दारक-बामाङ्क बेणी । मोक्ष करिबे नाशि राक्षस-श्रेणी ॥ 
(६२) 
जगत-सृष्टिकर्त्ता  कमळासन । अन्तर हेले सुरे  कहि एसन ॥ 
तदन्ते मने चिन्ति  कार्य़्य निजर । चळिले स्वर्गधामे  सर्ब निर्जर ॥ 
(६३) 
निश्चय कले स्वर्गे  अमरसाइँ । सुरबर्गर कार्य़्य  पूरण पाइँ ॥ 
द्विगुण-बेग-व्यग्र  मने तत्क्षण । बीर रतिबरङ्कु  कले स्मरण ॥ 
(६४) 
इन्द्र-अग्रते उभा  हेले बहन । बिनये बेनि कर य़ोड़ि मदन ॥ 
रति-कङ्कणाङ्कित  कण्ठे ताङ्कर । लम्बाइथिले पुष्प-धनु सुन्दर ॥ 
लळित लळनाङ्क  भ्रूलता सम । थिला धनुर शृङ्ग  सुमनोरम ॥ 
कम्र आम्र-बकुळ- शर तोषरे । अर्पिथिले से मित्र  बसन्त-करे ॥ 
(६५) 
महाकबि श्रीकाळिदास-प्रणीत । महाकाव्य कुमारसम्भब ख्यात ॥ 
द्वितीय सर्ग पूर्ण्ण  चौषठि पदे । हरेकृष्ण-मेहेर- कृतानुबादे ॥ 
ब्रह्मा समीपे देबताङ्क प्रार्थना । मन्मथ-आगमन  कथा बर्ण्णना ॥ 
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(कुमारसम्भब द्वितीय सर्ग सम्पूर्ण्ण ) 
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Related Links : 

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Kumara-Sambhava Kavya : Odia Version : (Cantos 1 to 8): 
Link :
*
Translated Works of Dr. Harekrishna Meher : 
Biodata English : Dr. Harekrishna Meher:  
Link :  http://hkmeher.blogspot.com/2012/06/brief-biodata-english-dr-harekrishna.html
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