Thursday, May 28, 2009

Kumārasambhava Kavya (Canto-VII): Part-2 : Odia Version: Dr.Harekrishna Meher

Kumāra-Sambhava (Canto-VII)    
Original Sanskrit Kāvya by : Mahākavi Kālidāsa
Oriya Metrical Translation by : Dr. Harekrishna Meher  

(Theme : Wedding Ceremony of Śiva-Pārvatī ) 
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Part -1: Link : 

http://hkmeher.blogspot.com/2009/05/kumarasambhavam-canto-vii-hkmeher.html  
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Kumārasambhava: Canto-VII : Oriya Version
*
(Extracted from My Oriya Version of ‘Kumārasambhava – Saptama Sarga’ 

published in ‘Bartikā’, Puja Special Issue, October-December 2004, 
pp.996–1021, Dasarathapur, Jajpur, Orissa)  
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( Part – 2 )
कुमारसम्भव (सप्तम सर्ग) * शिव-पार्वती-परिणय * 
मूळ संस्कृत काव्य : महाकवि कालिदास 
ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ. हरेकृष्ण-मेहेर 
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नगर-उपकण्ठरे  नीळकण्ठ धीरे,
नभ-मार्गरु ओह्लाइ  रहिले भूमिरे ।
त्रिपुरासुर-बिजय  बेळरे सराग,
निज नाराचे चिह्नित  थिला सेहि मार्ग ।
मुख टेकि उपरकु  पुर-बासीगण,
निरेखिले पिनाकीङ्क  शुभाबतरण ॥ (५१)
*
शिब-आगमे सानन्द  भूधराधिराज,
बसाइ गज-राजिरे  बान्धब समाज ।
स्वागत करिबा पाइँ  गले शीघ्र चळि,
गज-य़ूथ देखि प्रते  हो‍इला एभळि ।
गति करुअछि सते  अद्रिपतिङ्कर ,
फुल्ल पुष्प-तरु-य़ुक्त  कटक सुन्दर ॥ (५२)
*
हुअन्ते नगर-द्वार  तहिँ उन्मुकत,
सुदूर-बिस्तारी बहु  कोळाहळ-रत ।
देब-पक्ष गिरि-पक्ष  बेनि बर्ग आसि,
एक सङ्गे मिशिगले  उल्लास प्रकाशि ।
मध्य सेतु भङ्ग हेले  दुइ पारुशर,
जळराशि य़था मिशि  य़ाए परस्पर ॥ (५३)
*
त्रिलोक-पूजित हर  करन्ते प्रणति,
लज्जित हेले अन्तरे  तहिँ शैळपति ।
प्रथमरु निज मथा  शिब-महिमारे,
नत थिलेहेँ जाणि न  पारिले सेठारे ॥ (५४)
*
आनन्दे प्रफुल्ल-मुख  पर्बत-सम्राट,
जामाताङ्क अग्रे चळि  देखाइले बाट ।
अगणित पुष्पराशि  बिपणीर मार्गे,
गुल्फ परिय़न्ते ब्याप्त  थिला अनुरागे ।
परबेश कराइले  शिबङ्कु सुमने,
मणि-मुकुता-समृद्ध  नगर-भबने ॥ (५५)
* * *
महेश-दर्शन आशे  रमणी सकळ,
मधुगन्ध-सुबदन  टेकिले चञ्चळ ।
नयन-भृङ्ग-मण्डित  मुखे बिलोकन्ते,
सहस्र दळे शोभिला  बातायन सते ॥ (६२)
*
पताका-तोरण माळे  सुन्दर सुसज्ज,
राजमार्गे पहञ्चिले  य़ाइ बृषध्वज ।
दिबसरे मध्य शिर-  चन्द्र-कर बाजि,
द्विगुण शोभा बहिला  शुभ्र सौधराजि ॥ (६३)
*
अपलक नेत्र-य़ुगे  शिबे करि लय,
नारीगण बिस्मरिले  अपर बिषय ।
सेमानङ्कर इन्द्रिय-  ब्यापार समस्त,
नयन-य़ुगळे सते  हेला समागत ॥ (६४)
*
“सुकुमाराङ्गी पार्बती  ए बर निमित्त,
दुस्तर तप साधिले,  ताहा समुचित ।
धन्या से त य़े शिबङ्क  सेबिका हो‍इब,
ता सौभाग्य कि बर्ण्णिबा  अङ्के य़े शो‍इब ॥ (६५)
*
परस्पर शोभाकर  पार्बती-शङ्कर,
परिणय न हुअन्ता  य़दि दुहिँङ्कर ।
गढ़िला य़े प्रजापति  ए रूप य़ुगळ,
सर्ब परिश्रम तार  हुअन्ता बिफळ ॥ (६६)
*
दहिले कामदेबकु  शङ्कर क्रोधित,
मो बिचारे ए बचन  नुहे समुचित ।
शिब-शोभा देखि लज्जा- बशे पञ्चशर,
निजे एका भस्म कला  निज कळेबर ॥ (६७)
*
सखि ! आम्भ गिरिराज  शिबङ्क बाञ्छित,
सम्बन्ध सौभाग्य बळे  लभिले निश्‍चित ।
धरा-धारणे उन्नत  शिरकु निजर,
चिरकाळ उच्चतर  करिबे एथर ॥“ (६८)
*
ए ऋपे ओषधिप्रस्थ-  नगर-बासिनी,
रमणीगणङ्क मुखुँ  श्रुति-उल्लासिनी –
कथामान शुणि शुणि  प्रभु त्रिलोचन,
पहञ्चिले मोदभरे  हिमाद्रि-भबन ।
आचार मते प्रचुर  क्षिप्त लाजा-राजि,
चूर्ण्ण हेउथिला तहिँ  बाहु-बन्धे बाजि ॥ (६९)
*
बिष्णुङ्कर कर धरि  शशाङ्क-भूषण,
अबतरिले बृषभ-  पृष्ठरु तक्षण ।
शारदीय बळाहक-  पृष्ठरु य़ेभळि,
अबतरण करन्ति  देब अंशुमाळी ।
प्रबेशिले शिब गिरि-  सदन- कक्षरे,
प्रथमरु ब्रह्मा तहिँ  थिले आसनरे ॥ (७०)
*
प्रशस्त कार्य़्य आरम्भ  हेले य़ेप्रकार,
सुफळ अनुगमन  कर‍इ ताहार ।
सेहिपरि मघबादि  देबता-निकर,
सप्तर्षि-प्रमुख महाऋषिए आबर ।
गण-माने शिबङ्कर  पछे पछे थाइ,
श‍इळ-सदन मध्ये  प्रबेशिले य़ाइ ॥ (७१)
*
गिरिश आसने बसि  हिमाळय-दत्त,
मधु-य़ुक्त गब्य, अर्घ्य  रतन समस्त ।
सङ्गे नब पट्ट बस्त्र  य़ुगळ सेठारे,
ग्रहण कले समन्त्र-  बिधि अनुसारे ॥ (७२)
*
दुकूळ-शोभी शिबङ्कु  अन्तःपुर जने,
उमा पाशे सबिनय  नेले हृष्ट मने ।
इन्दु-रश्मि-राशि य़था  फेन-पुञ्ज-भर,
अम्बुधिकि बेळा पाशे  निअ‍इ सादर ॥ (७३)
*
उल्लसे बिश्व भुबन  शरदागमने,
पार्बतीङ्क मुख-चन्द्र-  कान्तिरे तेसने ।
त्र्यम्बक-नेत्र-कुमुद  मुदकु भजिला,
चित्त-नीर निरिमळ  रूपे बिराजिला ॥ (७४)
*
सेकाळे चन्द्रशेखर  गिरि-जेमाङ्कर,
नयन-य़ुग चञ्चळ  भाबे परस्पर ।
मिळि किछि क्षण पुणि  हेउथिले भिन्न,
लज्जा-अभिभूत हेले  बहि प्रेम-चिह्न ॥ (७५)
*
गिरि-गुरु गौरीङ्कर  ताम्राङ्गुळि कर,
बढाइबारु ग्रहण  कले महेश्वर ।
शोभिला से हस्त शिब- भये उमा-काये,
गुप्त कामदेबङ्कर  आद्याङ्कुर प्राये ॥ (७६)
*
रोमाञ्च हेला सेकाळे  पार्बती-शरीरे,
स्वेद जन्मिला शिबङ्क  अङ्गुळि-राजिरे ।
मदन-ब्यापार पाणि- मिळन हुअन्ते,
बेनि जन ठारे सम  भाग हेला सते ॥ (७७)
*
बिबाहे सान्निध्य लभि  शिब-उमाङ्कर,
बढ़‍इ शोभा सामान्य  बर-कन्याङ्कर ।
उभा य़हिँ बर-कन्या  स्वयं शिब- शिबा,
ताङ्क दिब्य शोभा आउ  कि बर्ण्णि पारिबा ? ॥(७८)
*
प्रज्वळित दीप्तानळ  प्रदक्षिण करि,
उमा सङ्गे गङ्गाधर  शोभिले एपरि ।
मेरु-प्रान्त भागे सते  मिळि परस्पर,
परिक्रमा करुछन्ति  रजनी बासर ॥ (७९)
*
परस्पर स्परशरे  नेत्र हेला बुजि,
पुरोहित शिब-उमा  आगे अग्नि पूजि ।
प्रदक्षिण तिनि बार  तोषे कराइले,
शैळजा-हस्तरे लाजा- होम सम्पादिले ॥ (८०)
*
सुगन्धित लाजा-धूम  कराञ्जळि करि,
मुखे घेनिले पुरोधा-  बचने सुन्दरी ।
से धूम भ्रमि ताङ्करि  कपोळ उपरे,
मुहूर्त्ते शोभिला कर्ण्ण- भूषण रूपरे ॥ (८१)
*
लाजा-धूम निज मुखे  ग्रहण कलारु,
लोहित स्वेदाक्त हेला  कपोळ सुचारु ।
लम्बिला कृष्ण कज्जळ  नयन-य़ुगरे,
य़बाङ्कुर मळिनता  भजिला कर्ण्णरे ॥ (८२)
*
पुरोधा बो‍इले, “बत्से ! एहि बैश्वानर,
करम-साक्षी अटन्ति  तुम्भ बिबाहर ।
स्वामी शङ्कर सङ्गरे  शङ्का परिहरि,
बिधिमते धर्म-कृत्य  थिब गो आचरि ॥“ (८३)
*
आदरे डेरि आनेत्र- बिस्तृत श्रबण,
पुरोधा-बचन उमा  करिले ग्रहण ।
आतप काळे उत्तप्ता  क्षिति य़ेरूपरे,
आद्य मेघ जळबिन्दु  घेने समादरे ॥ (८४)
*
ध्रुब-दरशन लागि  पतिङ्क आज्ञारे,
बदन टेकिले निज  शैळजा लज्जारे ।
धीरे चारु बिम्बाधरी  मधुर बचन,
बो‍इले शङ्कर आगे, “कलि दरशन” ॥ (८५)
*
बिश्व-पिताङ्कर बिश्व-माताङ्क सहित,
बिभा सम्पादिले बिधि- बेत्ता पुरोहित ।
पद्मासने बिराजित  ब्रह्माङ्क पादरे,
बर-बधू प्रणिपात  कले समादरे ॥ (८६)
*
आशिष देले स्वयंभू  पार्बतीङ्कि शुभे,
“आगो सुकल्याणि ! बीर-प्रसू हुअ तुम्भे ।“
कि आशिष देबे तहिँ  ईश्वरङ्क प्रति,
चिन्ति न पारिले से त  हेलेहेँ बाक्‍पति ॥ ((८७)
*
तहुँ पुष्प-शोभी चतुरस्र बेदी परे,
स्वर्ण्ण पीठे बर-कन्या  बसिले मोदरे ।
लोकाचार मते निज  देहे बिच्छुरित,
आर्द्राक्षत अनुभब  करिले तुरित ॥ (८८)
*
पत्र-धारे लग्न जळबिन्दु-मुक्ता-य़ुत,
दीर्घ नाळ दण्ड य़ोगे  बिमण्डित पूत ।
श्वेत पद्म-छत्र धरि  लक्ष्मी निज करे,
शिब-शिबाङ्कर शिरे  मण्डिले तोषरे ॥ (८९)
*
बेनि-रूपा बाणी य़ोगे  देबी सरस्वती,
बन्दिले से दम्पतिङ्कि  परसन्न-मति ।
ईश्वरङ्कु स्तुति कले  बिशुद्ध संस्कृते,
उमाङ्कु सुबोध-पद- बिन्यास प्राकृते ॥ (९०)
*
पञ्चसन्धि मध्ये बृत्ति- भेदरे ब्यञ्जित,
शृङ्गारादि रस य़ोगे  मधुरागान्वित ।
परिपाटी-भरा नाट्य  अपसराङ्कर,
प्रेमे निरेखिले क्षणे  ग‍उरी- शङ्कर ॥ (९१)
*
मुकुट-बद्धाञ्जळिरे  प्रणमि अमरे,
सपत्‍नीक पिनाकीङ्कु  बन्दिले आदरे ।
शाप अन्ते देहधारी कामदेबङ्कर,
सेबा निमन्ते प्रार्थना  करिले आबर ॥ (९२)
*
प्रसन्न मानसे तहिँ  शिब निज ठारे,
अनुमति प्रदानिले  मदन- ब्यापारे ।
प्रभुङ्क समीपे उपय़ुक्त अबसरे,
प्रार्थना कले सफळ   हुए निश्चितरे ॥ (९३)
*
सुरगणङ्कु बिदाय  देइ शूळधारी,
आपणार हस्ते धरि  प्रिया सुकुमारी ।
भव्य कौतुक-भबने  हेले उपस्थित,
भूमिपरे चारु शय़्या  थिला सुसज्जित ।
सुबर्ण्ण कळश-श्रेणी  पाउथिला शोभा,
रम्य चित्रमान तहिँ  थिला मन-लोभा ॥ (९४)
*
नब-परिणय-बेशे  नगेश-दुलणा,
मथा पोति रहिले से  लज्जा-आभरणा ।
शिब स्वहस्ते टेकन्ते  से नत बदन,
लाजे लुचाइले गौरी  बुलाइ बहन ।
शय़्या-सखी पचारिले  उत्तर ताहार,
क‍उणसि मते देले  बहि लज्जा-भार ।
प्रमथ-गणङ्क मुख-भङ्गी माध्यमरे,
हास्य जन्माइले शम्भु  शुभाङ्गी-अन्तरे ॥ (९५)
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( Kumārasambhava Canto-VII of Harekrishna Meher Complete. )
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Related Links :
Kumara-Sambhava : Odia Version by Dr. Harekrishna Meher : 
*
Translated Works of Dr. Harekrishna Meher : 
(Tapasvini, Niti-Sataka, Sringara-Sataka, Vairagya-Sataka, 
Kumara-Sambhava, Raghuvamsha, Ritusamhara, Naishadha, 
Gita-Govinda, Meghaduta etc.) 
Link:
*
Literary Works of Dr. Harekrishna Meher :  
Literary Awards and Felicitations to Dr. Harekrishna Meher:
http://hkmeher.blogspot.com/2018/09/literary-awards-and-felicitations-to-dr.html
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