Thursday, September 1, 2011

Tapasvini Kavya Canto-11 (‘तपस्विनी’ काव्य एकादश सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)


TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)
Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
= = = = = = = = = =

[Canto- 11, the Last Canto of this epic poem, has been taken from pages 191-214 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : 'Tapasvini : Ek Parichaya'
Link : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

= = = = = = = = = = = = = =
Tapasvini [Canto-11]
= = = = = = = = = = = = = =



‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


= = = = = = = = = = =
एकादश सर्ग
= = = = = = = == = =

एक दिन मेदिनी प्रदक्षिण कर
श्रम-क्लान्त दिनकर
क्षीणतेज - शरीर
नील नीर में पश्चिम वारिधि के
डूब गये गभीर,
अभिलाषी अवगाहन-विधि के ॥

छोड़ न पाकर अपना प्रियतम,
अत्यन्त दीन-कलेवर
एक पल भी रहने अक्षम
दिवस चला उनके पीछे सत्वर ॥

पति बिना पत्नी की अवस्था
क्या होती सर्वथा,
भोलीभाली नलिनी-बाला ने यह न जानकर
त्यागा नहीं अपना घर ॥

पलभर में लूटकर
रंगीन वास-कोष उसीका,
प्रदोष ने बना दिया अम्बर पर
पादास्तरण रजनी का ॥

इस प्रकार देखकर
कोमलांगी कमलिनी का अपमान,
शिरीष पादप लज्जा-जर्जर
हो गया अत्यन्त म्लान ॥

सूर्यास्त में सम्पन्न कर
अग्निदेव की सपर्या
महामना वाल्मीकि ने सादर
शिव-कृपा का स्मरण किया ॥

आश्रम में कुशासन पर
विराजे थे मुनिवर ।
सोच रहे थे मन-ही-मन
श्रीराम का सुशासन ।
साथ ही विषय
कुमारों की योग्यता का,
फिर कैसे होगा परिचय
पुत्रों के सहित पिता का ॥

‘धनुर्वेद और राजधर्म की शिक्षा के द्वार
इसी समय पहुँच चुके हैं युगल कुमार ।
तापसों के संग उभय
जब कानन में रहेंगे,
मूल्यवान् समय
तो व्यर्थ बीत जाएंगे ॥

यदि राजधर्म में कुशल
हो न पाएंगे राजकुमार,
समस्त गुण हो जाएंगे निष्फल
बन्ध्य पादप जिस प्रकार ॥

वीरत्व-विभूषण से इसी समय
मण्डित न होंगे यदि ये,
दुःसह दूषण आन पड़ेगा निश्चय
वीर-वंश के लिये ॥

कौन कह सकेगा,
दायाद-रत्न श्रीराम का
एक दिन नहीं खोजेगा
राजसिंहासन कोशल-धाम का ॥

राजसम्मान-रक्षा की क्षमता
उसी समय यदि न रहेगी,
उनकी नीति-अधमता
प्रकटित हो जाएगी ।
कैसे बिना आदर्श के युगल सहोदर
उसमें प्रवीण बनेंगे यहीं वन में रहकर ?

होते सभी दान-वीर
रघुवंशी नरेशगण विशेषरूप से ।
वही आदर्श ऋषि-कुटीर
सिखला सकेगा कैसे ?

अविकल रामरूप प्रतिबम्बाकार
अवयवधारी हैं युगल कुमार ।
दर्शन से ही रघुकुल-शेखर
अपने पुत्रों को पहचान लेंगे सत्वर ।
वहाँ वीर शत्रुघन
कर देंगे संशय मोचन ॥

पहुँचा देने पर पुत्र-युगल को वहीं
श्रीरामचन्द्र करेंगे स्वीकार,
तब हमारी होगी नहीं
निन्दा किसी भी प्रकार ॥

परन्तु अपनी प्रियतमा पत्नी को
पतिव्रता सती जानकर सही,
लोकापवाद-भय से ही
उन दोहदिनी को
भेज दिया निर्दय राजा ने
कानन में दोहद-पूरण के बहाने ॥

बारह वर्षों के अनन्तर
सन्तान की ममता
जन्मेगी उनके हृदय के भीतर,
यह सम्भव नहीं लगता ।
प्रजा के प्रति हैं किये
उन्होंने सारे पुत्र-प्रेम समर्पित ।
उसकी सम्मति इसलिये
अभी चाहेंगे निश्चित ॥

अपने विश्वास पर
जिनकी है नहीं आस्था,
उन्हें सहस्र बार कहकर
समझाने से क्या होगा सर्वथा ?
इसी विषय पर परामर्श अवश्य चाहिये
महामुनि वसिष्ठ और लक्ष्मण को संग लिये ॥’

इसी समय राजदूत ने
कृताञ्जलि हस्त से अपने,
पत्र प्रदान किया वाल्मीकि-कर में सत्वर
चरणों में प्रणिपात कर ॥

पत्र-पाठ पश्चात् मुनीन्द्र को चला पता
इष्ट सिद्धि हेतु मिल गया रास्ता ।
भेजा है निमन्त्रण राजा रघुवर ने
अश्वमेध याग में योगदान करने ॥

सोचने लगे मुनिवर,
‘विधि ने अनुकूल होकर
दिखलाया तट
भावना-पयोधि के निकट ॥

मुनिकुमार-वेश में शिष्यों के बहाने
लव-कुश को ले चलेंगे यज्ञ दिखलाने ।
यज्ञ-क्षेत्र में स्थान-स्थान करके भ्रमण
दोनों गायेंगे मधुर नव्य काव्य रामायण ॥

प्रीति-सुधा बरसाकर श्रीराम-आख्यान
अवश्य हर लेगा लोगों का चित्त ।
निहार युगल कुमार श्रीराम-समान
लोग राम-पुत्र ज्ञान करेंगे निश्चित ॥

स्वयं रघुवंश-शेखर
अपने प्रतिबिम्ब-रूप दर्शन कर
डुबा देंगे हृदय
प्रेम-पीयूष-कूप में निश्चय ॥

यदि कुण्ठित होंगे रघुकुल-तिलक
स्वीकारने अपने दोनों बालक,
उधर देवी कौशल्या
भू-लुण्ठित नहीं होंगी क्या ?

सीता का स्पर्श नहीं कर सका दशानन,
रामायण से सुन यह विवरण
होगा आनन्द-मगन
समस्त जनों का अन्तःकरण ॥

सती जनक-दुहिता
हो चुकी हैं अग्नि-परिक्षिता ।
इस कथा का श्रवण कर
पुलकित होगा नहीं किसका कलेवर ?

रामायण काव्य करेगा
भारती-ज्योति का विस्तार ।
त्रिभुवन से हट जायेगा
लोक-निन्दा का अन्धकार ॥’

मन-ही-मन इस प्रकार
मुनिवर ने किया विचार ।
हो उठा प्रफुल्ल अतिशय
आनन्द से उनका हृदय ॥

मधुर वचनों में उधर
राजदूत को विश्राम की अनुज्ञा देकर,
शिष्यगण को नियोजित किया
निभाने अतिथि-सत्‌क्रिया ॥

सानन्द मुनीन्द्र ने तदुपरान्त
सीता के पास चल बताया अश्वमेध-वृत्तान्त,
‘वत्से ! श्रीराम-दूत इधर
आया है निमन्त्रण लेकर ।
संग ले शिष्य-दल
प्रस्थान करूंगा कल ॥

उनके साथ शिष्यरूप हमारे
चलेंगे लव कुश प्यारे ।
कई मुनिजनों के करेंगे दर्शन
और पाएंगे आशीर्वचन ॥’

सती मैथिली ने समर्थन किया
महर्षि-दत्त प्रस्ताव का ।
उन्हें दृढ़ रूप से सौंप दिया
सारा दायित्व कुश-लव का ॥

अन्तेवासियों से तदुपरान्त
कहा मुनिशेखर ने :
‘जब होगा निशान्त
यात्रा करेंगे अश्वमेध अध्वर देखने ।
लव कुश के संग समस्त सहाध्यायी कुमार
पाथेय साथ ले जाओगे हो तैयार ॥

बाबा कुश लव ! साथ वीणा लेते रहोगे,
सुसंगीत संग शिक्षा सार्थक करोगे ।
जो श्रीराम हैं नायक
रामायण काव्य के,
हो चुके हैं हर्ष-दायक
तुम्हारे हृदय के,
वही श्रीराम सद्गुण-निधान
कर रहे हैं महायज्ञानुष्ठान ।
कई देशों से महानुभावगण
करेंगे उधर पदार्पण ॥

पधारे होंगे विभीषण
लंकापुरी-विभूषण,
असुर-संघ संग लेकर
लाँघ सुविशाल सागर ॥

भले-भले भल्लुक प्लवंग
अंगद-प्रमुख चल,
आये होंगे सुग्रीव के संग
खुशियों से मलकर वदन-मण्डल ॥

जो समझते लोष्ट-खण्ड-सा सानुमान्,
वही महावीर हनुमान्
अमित-बलवान्
विहरते होंगे वहीं सिंह-समान,
सानन्द सजाकर हृदय पर मुक्ताहार
सीता-प्रदत्त उपहार ॥

नाना-विहंग-लोममालाओं से सुन्दर
अलंकृत कर अपना अपना अंग,
आये होंगे अनेक शबर
निषादराज गुहक के संग ॥

जिन्होंने भ्रातृभक्ति-बल द्वारा
अनायास ठुकरा दिया आलिंगन प्यारा
दुर्लभ राजलक्ष्मी का,
स्थापित कर अग्रज की पादुका
राजसिंहासन पर
फलमूलाहार से बिताये चौदह वत्सर,
ऊँचा किया जीवन
जटाजूट बाँधकर,
जिसे निहारता ऊर्ध्व-वदन
हिमगिरि का तुंग शिखर,
होंगे वही भरत
वहीं श्रीराम के अनुगत,
आकाश में राकेश के समान
कीर्त्ति-कान्तिमान् ॥

क्षणजन्मा लक्ष्मण को देखोगे वहीं
संसार में जिनके सदृश दूसरा कोई नहीं ।
स्वयं वज्र-हस्त
जिसके भय से थे त्रस्त,
उस मेघनाद का घमण्ड सकल
उन्होंने पैरों से दिया है कुचल ॥

मेघनाद-निधन की खबर
कालाग्नि बन
धधक उठी प्रखर
समाकर रावण के हृदय में गहन ।
संग-संग अंग-बल की आहुति डाल
असुरेश्वर ने बना दिया उसे उग्रतर कराल ।
तपाकर उसमें प्रदीप्त शक्ति क्रोधभर
निक्षेप किया वीर लक्ष्मण पर ॥

शक्तिघात-जनित क्षतों का लक्षण
अपने उर पृष्ठ पर
धारण करके वे वीरवर
यथार्थ-नामा हैं ‘लक्ष्मण’ ॥

अक्षियों से देखोगे सामने
जो अक्षरों से देखा है तुमने ।
करोगे सबकी कथा गान
सबके सम्मुख विद्यमान ॥

श्रवण करेंगे वहाँ संगीत सुस्वर
शत-शत नरेश्वर,
साथ तपस्तेज से दीप्त-कलेवर
शत-शत यतिवर ॥

परिचय यदि कोई पूछेंगे उधर
तुम बोलोगे अवश्य :
‘हम युगल सहोदर
महर्षि वाल्मीकि के शिष्य ॥’

बुलायेंगे यदि रघुनन्दन
उनके समक्ष करोगे रामायन गायन ।
वे कौतूहलपूर्ण -हृदय
पूछेंगे यदि तुम्हारा परिचय
तुम दोनों दोगे उत्तर :
‘वाल्मीकि-शिष्य हम युगल सहोदर ॥’

यदि राजा रघुनन्दन
प्रदान करेंगे धन,
लोभ त्याग कर तुम उभय
बोलोगे सविनय :
‘हम क्या करेंगे नरेश्वर !
तापस-कुटीर में धन लेकर ?’

वाल्मीकि-मुख से करके श्रवण
वार्त्ता अश्वमेध-यज्ञ-विधि की,
वैदेही के हृदय में उसी क्षण
जाग उठी व्यथा आकस्मिकी ॥

सीता लगीं सोचने :
‘निश्चित ही रघुकुल-चन्द्र ने
बिठायी गोद में अपनी
लाकर द्वितीया पत्नी ॥

धन्य वही सीमन्तिनी
सौभाग्य-शालिनी,
जिनके तपोवृक्ष में फल बने आकर
सगर-कुल-सागर के कलाकर ॥

कहाँ किसप्रकार कौन-सी
घोर तपस्या की उन्होंने ?
अन्तःकरण मेरा अत्यन्त लालसी
उस तपश्चरण में प्रवृत्त होने ॥

कौन करेगा मुझे सूचित
उस तपश्चर्या का नियमादिक ?
करूंगी तपश्चरण निश्चित
उसीसे भी कठोर अधिक ॥

किसको पता उनकी पूर्व तपस्या का रहस्य ?
वसिष्ठ आदि महर्षिवृन्द जानते होंगे अवश्य ।
अन्यथा उन्हें महारानी चुनी कैसे ?
प्रभु ने किया होगा परिणय उनके मत से ।
तब किसी भी उपाय का प्रयोग कर
लाऊंगी निश्चय वही गुप्त मन्तर ॥’

मन में करके ऐसी भावना
सती ने आरम्भ किया विनय-पत्र लिखना :
‘शरण-वत्सल -केतन,
बैरी-वारणांकुश भीषण,
दुःख-पर्वत-पवि दर्शन
करते जिनमें ज्ञानीगण,
राजराजेश्वर के उन पावन
चरणारविन्द में करती वन्दन
यह दीन भिक्षुका
दूर से अपना शीश झुका ॥

मधु-आशा का अन्धकार
भेदन करने किसी प्रकार
कान्तार में रहकर कातर-मन
प्रेषित करती यह निवेदन ॥

हयमेध महायज्ञ में महाराज
आप स्वयं दीक्षित हो चुके ।
दर्शन दे रही होंगी आज
नवीना वामा वामांक में प्रभु के ॥

मुग्‌ध होंगी मुग्‌धा वल्लभी,
यही विचार करके
शत-गुणित बढ़ते होंगे अभी
सद्गुण आपके ॥

महाक्रतु में प्रदान करेंगे आप अनन्त धन
रत्न-राशि क्षौम वसन ।
पूर्ण होगी वहीं याचक-जनों की कामना ।
जागी है मेरे मन में एक याचना ॥

प्रदान करने यही भिक्षा नगण्य
कृपया आपका न होगा कार्पण्य ।
आप तो स्वयं हैं अपार
दया-रत्नमय दान-पारावार ॥

मैं कौन, जानने की नहीं आवश्यकता,
आप सदा तापसों के अशान्ति-हर्त्ता ।
रहता नहीं तापसों के प्रति
आपका अदेय कुछ ।
मैं तपस्विनी सम्प्रति,
आप न समझेंगे मुझे तुच्छ ॥

आपकी अंक-योग्या सुभगा
जो बनी हैं आज,
सभक्तिक दर्शन कर रहा होगा
जिन्हें जगत का जन-समाज,
कौन-सी घोर तपश्चर्या
पहले कभी उन्होंने की ?
कितने काल तक किधर
किस मन्त्र का जप कर ?
केवल इतनी ही सुदया
करेंगे प्रभु मुझे बताने की ।
अन्य कोई भी धन
नहीं आवश्यक मेरे लिये, हे राजन् ! ॥

कोटि अश्वमेध अध्वरों में दान
की जाती जितनी सम्पदा,
उसीसे भी समझूंगी अधिक महान्
मेरे विचार में उसे सदा ॥

और एक बात का है निवेदन,
अति अबोध हैं इस दुःखिनी के युगल नन्दन ।
पिता के अंक में उपवेशन का
सौभाग्य नहीं उनका ।
जन्म से ही ये कुमार
जानते नहीं पिता का प्यार ॥

जानते हैं रुलाने जननी का जीवन
वीणा-तन्त्री संग करके रामायण गायन ।
कौन रोएगा नहीं फिर
करके मानव-हृदय धारण ?
जिसे सुन हो जाते अस्थिर
वल्लरी-पादप-गण ॥

आपके चरित से स्वयं मोहित होकर
जा रहे हैं महर्षि के साथ दोनों सहोदर ।
दर्शन करने आपके पाद-पद्म पावन
खींच ले रहा उन्हींका मन ॥

आपके अतीत दुःखों की कथा
सुनाएंगे दोनों भ्राता,
जिसे श्रवण कर सर्वथा
हृदय इस दुःखिनी का विदीर्ण हो जाता ॥

श्रवण न करने से उसकी ओर
मन सदा दौड़ता रहता ।
दमित नहीं की जा सकती जोर
उसकी उत्सुकता ॥

हे धीर-धुरन्धर !
उसी कथा को लेकर
यदि आपका श्रवण
दिलाएगा दीना वैदेही का स्मरण,
स्वप्न ही समझ लेंगे आप उसी का प्यार
नयी प्रणयिनी का प्रफुल्ल वदन निहार ॥’

लिख रही थीं पत्र इसी तरह
विकल-हृदया सती ले अपनी गाथा ।
नेत्रनीर-झर से वह
धौत हो रहा था ॥

और लिखूंगी क्या ?
सोच रही थीं बैठ रामप्रिया ।
सहर्ष हँसते-हँसते वहाँ
पहुँच गये कुश लव ;
बोले : ‘ माँ माँ !
धन्य धन्य वे राघव,
धन्या उनकी प्रणयिनी
सती सौभाग्य-शालिनी ॥

श्रीरामचन्द्र कौशल्या-पुत्र
प्रारम्भ कर रहे हयमेध अध्वर ।
साथ ले निमन्त्रण पत्र
एक दूत आया है इधर ॥

दूत से पूछकर जाना हमने इसप्रकार,
रामचन्द्र के कारण आज धन्य यह संसार ।
लोकापवाद उन्होंने मिटा दिया
त्यागकर सीता, अपनी प्राणप्रिया ॥

हयमेध यज्ञ में समीप अपने
रघुकुल-प्रदीप ने
सहधर्मिणी के स्थान है स्थापित की
कनक-मूर्त्ति जानकी ॥

जननी ! दुर्लभ थी क्या
उनके लिये कोई प्रिया ?
कामना उन्होंने नहीं की
द्वितीया पत्नी की ॥

कहाँ गयीं माँ ! सती जनक-तनया ?
जीवित न होंगी क्या ?
इस विषय का ज्ञान हमें
प्राप्त हो न सका रामायण में ॥

माँ ! चलेंगे दोनों भ्राता हम
श्रीराम के कमल-चरण दर्शन करेंगे ।
कह रहे हैं मुनिसत्तम,
हमें संग ले चलेंगे ॥’

पुत्र-युगल के रसान्वित
वचनामृत-सिन्धु की ऊर्मियों ने उछल
कर दिया मज्जित
सीता के जीवन को उस पल ।
था सती का हृदय
जैसे तप्त-सिकतामय ।
प्लावित हो गया उधर
बरसा जब राम-प्रेम का जलधर ॥

मन-ही-मन कहने लगीं सती,
‘हाय ! मैं चिर-पापाचारिणी,
लिख रही थी भारती
प्रभु-हृदय की सन्ताप-कारिणी ॥

मैं तो अबला दुर्बल-हृदया अत्यन्त,
मेरे प्रभु का अनुग्रह अथाह अनन्त ।
प्रभो ! क्षमा-पारावार अगाध !
क्षमा कीजिये मेरा अपराध ।
विधि ने मुझे बना दिया इस पल
आपके हृदय का गरल ॥’

पत्र छुपा तदनन्तर
बोलीं जानकी हर्ष व्यक्त कर :
‘ जाओ प्यारे युगल नन्दन !
करने महाराज के पद-सरोज दर्शन ॥

कह रहे थे तात
वहीं तुम दोनों भ्रात
करोगे संगीत गान ।
स्वभाव से वह तो सुधा-समान ॥

पुण्यमय यज्ञ-क्षेत्र में
वह अमृत-प्रवाह बन
प्रत्येक हृदय-परिसर में
व्याप्त हो जाएगा सघन ॥

तुम्हें बुलाएंगे यदि रघुवंश-प्रदीप,
जाओगे उनके समीप
तुम युगल भ्रात,
करोगे चरणों में सभक्तिक प्रणिपात ॥

उधर देखोगे उनके अनुज-त्रय,
चरणों में उनके प्रणाम करोगे सविनय ।
तुम युगल सहोदर
राजमाताओं के पद-सरोज-रज पावन,
लगाकर मस्तक पर
सफल करोगे अपना जीवन ॥

उन तीनों के समीप आसीन
होंगी सीता की भगिनियाँ तीन ।
चरणों में उनके तुम युगल सहोदर
सीता-सी उन्हें मान प्रणाम करोगे सादर ॥

‘तुम दोनों किसके तनय ?’
यदि पूछेंगे कोई परिचय,
वहाँ दोगे उत्तर :
‘तपस्विनी-धन हम युगल सहोदर ॥’

इसप्रकार वचन से जननी के,
आनन्दित हो उठे नन्दन युगल ।
भर गया मन में उन्हींके
नवल कौतुहल ॥

न रहा भोजन शयन में आदर ;
उनके हृदय के भीतर
नृत्य करने लगी सर्वथा
श्रीराम की गौरव-गाथा ।
कथालाप कर राम-प्रसंग परस्पर
आ गये निद्रा की गोद में दोनों सहोदर ॥

जानकी का जीवन बहता रहा
पतिभक्ति-सरिता-धारा में प्रखर ।
आवर्त्त में भ्रमता रहा
वहाँ अस्थिर होकर ॥

उसे गोद में बिठाने
हुआ नहीं निद्रा का बल ।
इसलिये बताया उसने
योगमाया के समीप चल ॥

कहा : ‘देवीजी ! आज जीवन रामवधू का
मानवी हृदय-सीमा अतिक्रम कर चुका ।
बारह वर्षों तक
बरसाकर लोतक
भिगाकर अपनी शय्या
सीता जनक-तनया
धीरे से आती थी किसी भी प्रकार
मेरे अंक में एक बार ॥

मधुर वाणी में आज बारबार
कितना दे रही हूँ पुकार ।
परन्तु सती कुछ न श्रवण कर
स्वर्ग-राज्य की ओर है अग्रसर ॥

इस पल नेत्र-प्रतिमा पुत्र-युगल
हो जायेंगे उसकी आँखों से ओझल ।
उसके लिये दशों दिशायें सारी
हो जायेंगी अन्धकारभरी ।
सुख-सूर्योदय नहीं
उसके इस जीवन में कहीं ॥

पतिव्रता बनी मैथिली,
परन्तु उसे क्या सुफलता मिली ?
दुःखिनी देख सके अवश्य,
समुज्ज्वल कर दो उसका भविष्य ॥

प्राण-आलबाल में नयनों का पानी डाल
पाया अबला ने पतिभक्ति का उद्यान विशाल ।
वहीं न फूल खिला,
न कोई फल मिला ।
कहो तो उसका जीवन अपना
होगा घोर व्याकुल कितना ?’

योगमाया बोलीं : ‘चलो री सहचरी !
ढलने जा रही शीतल विभावरी ।
सीता के समीप जाकर
हम दोनों अभी सत्वर
उसका भविष्य-रहस्य
प्रकट कर देंगी अवश्य ॥’

तुरन्त निद्रा के संग योगमाया आयीं,
सीता की पर्णकुटी के अन्दर समायीं ।
दिव्य ज्योति से वनस्थल
उठा जगमगा ।
दिव्य सौरभ से महीतल
महकने लगा ॥

पाकर वही सौरभ मन्द-मन्द
जानकी के जीवन में भर गया पुलक ।
ज्योति-प्रभाव से हो गयी बन्द
उनके नयनों की पलक ॥

आया दृश्य यही,
ज्योतिर्मयी विराजी हैं जानकी ।
धरती है जगमगा रही
ज्योति से उनकी ॥

स्वयं मैथिली को साथ लेकर
रत्न-सिंहासन पर
विराजमान हैं प्रसन्न-वदन
ज्योतिर्मय श्रीरघुनन्दन ।
कुश बैठे हैं गोद में पिता की
और लव गोद में सीता की ।
समीप करके छत्र धारण
विद्यमान लक्ष्मण ऊर्मिला-रमण ॥

चन्द्रकिरण-सा शुभ्र सुन्दर चामर
चला रहे भरत स्वधर्म पालन कर ।
मयूर-चन्द्रिका-विरचित व्यजन
ले अपने हाथ झल रहे शत्रुघन ॥

भविष्य-मुख में सबकी जीवन-ज्योति प्रखर
बह रही सरिता का स्रोत बनकर ।
कोटि-कोटि नर नारी सभी मान
पुण्य तीर्थ महान्,
कर रहे हैं उस पावन
प्रवाह में अवगाहन ॥

सुदूर काल-समुद्र की ओर
चल रही जोर,
प्रतिक्षण अपना आकार
बढ़ाकर वही धार ॥

ऊपर से सभी अमर विद्याधर
बरसा रहे सुमन मनोहर ।
अमरों के संग दानव
नाग, अप्सरा, मानव
सबके ‘जय सीताराम’
उच्चार से व्याप्त हो गया धराधाम ॥

घर-घर में, प्राण-प्राण में, नगर-नगर में,
सरिता-नाव में, सागर-पोत में, कन्दर-कन्दर में,
दिन में, रात में,
प्रदोष में, प्रभात में,
सुख में, दुःख में,
धनी निर्धन सभीके हृदय में
‘जय सीताराम’
ध्वनि गूँज उठी है अविराम ।
मुग्ध हो गयीं निहार यही
सती-रमणी-कुल-शिरोमणि वैदेही ॥

* * * *

(तपस्विनी का एकादश सर्ग समाप्त)
= = = = = =


* स्वभावकवि-गंगाधर मेहेर-प्रणीत
ओड़िआ महाकाव्य ''तपस्विनी'' का
डॉ. हरेकृष्ण मेहेर-कृत हिन्दी अनुवाद
सम्पूर्ण *

॥ श्रीः ॥


* * * * *



[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]

* * * * *

No comments: