Raghuvamsha - Mahakavya – Canto-II.
Original Sanskrit Epic By : Mahakavi Kalidasa
Oriya Metrical Translation By : Dr. Harekrishna Meher.
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Introduction :
‘Raghuvamsha’ written by
Poet Kalidasa bears significance as one among the five great epics of Sanskrit
Literature. This Mahakavya containing nineteen cantos treats of the
life-history of kings born in Raghu’s dynasty, where King Rama was also an
ideal descendent. In Sun dynasty (Surya-vamsha) the first king was Manu. His
son was King Dilipa. Dilipa’s son was King Raghu. Due to Raghu’s celebrity and
glory, his dynasty ibecame famous with his name.
The story of king Dilipa is
very interesting. In spite of royal opulence, Dilipa with his wife queen
Sudakshina was unhappy, because he was childless after several years of
marriage. So handing over the charge of administration to the ministers, the
king with his wife Sudakshina went to the hermitage of Sage Vasishtha, his kula-guru, the preceptor of his dynasty.
With due regards to revered seer, he expressed grievance to know about his
childlessness and its eradication. The sage consoled him and with yogic power
of meditation, came to know the details and expressed before the king how he
was cursed.
The matter goes on thus.
Long ago, King Dilipa had gone to heaven to give some assistance to the
god-king Indra. After accomplishment of work, Dilipa, eager for union with his
wife queen Sudakshina, immediately began to return to the earth. On the way in
heaven, he did not pay regards to the divine-cow kamadhenu Surabhi. Disregard to the respectable person causes
hindrance in auspicious activities.
Seeing the disregard by Dilipa, she cursed him that he would not get any
son without service and propitiation to her or her child. Due to the noisy sounds of divine-river Ganga
and of the elephants of directions, her curse was not heard by the king.
Then the preceptor sage
Vasishtha advised the king : “Kamadhenu Surabhi is now engaged with the
sacrificial rites of god Varuna in nether world. So your services and
propitiation to her are not possible. Her daughter cow Nandini abides in my
hermitage. So you with your wife devotedly render services to Nandini knowing
her as the representative of her mother Surabhi and thus the curse will be
eradicated and you will be blessed with son.”
By the admonitions of Sage
Vasishtha, the royal couple with sincere devotion engaged themselves in
services to the wish-fullfilling cow Nandini. King Dilipa daily in the morning used to go
after the cow in dense forest and protect her from all sides, and in the
evening used to return to the ashram and there at the doorway queen Sudakshina
used to render reception with worship. After twenty-one days of service, Nandini
tested king’s sincerity and devotion of service through an illusory lion who
attacked the cow Nandini herself and wanted to kill and eat her. But the king having
much arguments and conversations with the lion (illusory but speaking in human
voice), dedicated himself to protect the cow. King was prepared to offer his
own body as food and requested the lion to leave the cow. Hence, pleased with his
dedication and devotion, Nandini with propitiation gave boon to the king. In
due course, Dilipa and Sudakshina became blessed with a son, namely Raghu.
Later on after his name, his royal dynasty became well-known as Raghu-vamsha.
Canto-2 of Raghuvamsha epic
comprising seventy-five slokas elaborates the sincere service of King Dilipa to
the divine cow Nandini in the hermitage of Sage Vasishtha.
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My Oriya Metrical
Translation of Raghuvamsdha –Canto-2
has been completely
published in
‘Bartika’, Literary Quarterly,
Dashahara Special Issue,
‘Bartika’, Literary Quarterly,
Dashahara Special Issue,
October-December 2002
of Dasharathapur, Jajpur,
Orissa.
This Total Translation is
presented as follows.
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Part-1 (Verses 1 - 41) is presented here.
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For Part- 2 (Verses 42 - 75 End)
Link :
http://hkmeher.blogspot.in/2012/10/raghuvamsha-canto-2-oriya-version-part_25.html
Link :
http://hkmeher.blogspot.in/2012/10/raghuvamsha-canto-2-oriya-version-part_25.html
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रघुवंश : द्वितीय सर्ग
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि
कालिदास
*
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ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
(राग- बंगळाश्री)
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(प्रथम भाग : श्लोक १-४१)
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(१)
ए अन्ते प्रभात हुअन्ते आश्रमे
सुदक्षिणा महाराणी,
नन्दिनीङ्क पूजा अरचना कले
गन्ध पुष्पमाल्य आणि ।
क्षीर पान परे बत्सा बान्धि देइ
कीर्त्तिधन नरसाइँ,
मुकत कले से मुनिङ्क गाभीकि
बने बिचरिबा पाइँ ॥
*
(२)
नन्दिनीङ्क खुर- स्पर्शे
पूत हेला
मार्गर धूळि-निकर,
पतिब्रता-कुळ- शिरोमणि सती
धर्मपत्नी राजाङ्कर ।
सुदक्षिणा तहिँ चळिले एकाळे
धेनु-पथ अनुसरि,
श्रुतिर अर्थकु स्मृति करिथाए
अनुसरण य़ेपरि ॥
*
(३)
कीरति-शोभित कृपाळु दिलीप
सीमान्तरे आश्रमर,
राणीङ्कि फेराइ
निजे नन्दिनीङ्क
रक्षणे हेले तत्पर ।
गोरूप-धारिणी धरणीकि सते
पाळन करिले नृप,
सुरुचिर य़ार चारि पयोधर
चारि समुद्र स्वरूप ॥
*
(४)
य़ेते अनुय़ात्री थिले ताङ्कु मध्य
राजा देले निबर्त्ताइ,
से त शुभ ब्रत आचरि अछन्ति
नन्दिनीङ्क सेबा पाइँ
।
अन्यर साहाय़्य न लोड़िले राजा
आपणा तनु रक्षणे,
निज बळे एका निज रक्षाकारी
मनुबंशी नृपगणे ॥
*
(५)
मन ध्यान देइ नन्दिनीङ्कि राजा
सेबुथान्ति अनुक्षण,
केतेबेळे ताङ्क बदने दिअन्ति
सरस कोमळ तृण ।
केतेबेळे देह कुण्डाइ दिअन्ति
मक्षिकादि घउड़ाइ,
नन्दिनी य़हिँकि य़िबाकु इच्छन्ति
से स्थाने य़ाआन्ति नेइ
॥
*
(६)
गाभी ठिआ हेले राजा मध्य ठिआ,
से चालिले ए चालन्ति,
केबे से बसिले नरपति मध्य
आसन पारि बसन्ति ।
य़ेबे नीर पान करन्ति नन्दिनी
दिलीपङ्कु शोष लागे,
छायार सदृश रहिथान्ति से त
नन्दिनीङ्क पछभागे ॥
*
(७)
तेजिले बि राजा छत्रादि समस्त
राजकीय चिह्नमान,
बिशेष तेजरु हेउथिला ताङ्क
राजश्रीर अनुमान ।
बाह्ये मदधारा न बहिले मध्य
गजेन्द्र-कपोळुँ य़था,
रूप-दर्शनरु अनुमित हुए
आभ्यन्तर मदाबस्था ॥
*
(८)
बन्य लतातन्तु- राजिरे जड़ित
हेला ताङ्क केश शिरे,
करे धनुशर धरि से नरेश
बिहरिले बनानीरे ।
प्रते हेला सते ऋषि-होमधेनु
नन्दिनीङ्क रक्षा छळे,
अरण्यर दुष्ट जन्तुगणङ्कु से
दमन करन्ति बळे ॥
*
(९)
शुभुथिला पथ- पार्श्वे तरुमाळे
मत्त बिहङ्ग-काकळी,
होइला प्रतीत, सते बा सेकाळे
प्रसन्ने से बृक्षाबळी
।
बरुण-प्रतिम तेजस्वी नृपङ्क
उच्चारिले जयध्वनि,
पार्श्व-भृत्यगण फेरि य़ाइथिले
आगुँ राजादेश मानि ॥
*
(१०)
अनळ समान महातेजोबान
दिलीप से महीश्वर,
पबन-चळने दोळित मृदुळ
बाळ बल्लरीनिकर ।
पुष्प बरषिले पूज्य नृप-शिरे
पार्श्वे चळन्ते तत्क्षण,
शुभ लाजा बर्षि स्वागत करन्ति
य़था पुर-कन्यागण ॥
*
(११)
करे राजाङ्कर थिलेहेँ कार्मुक
ताङ्करि हृदये स्थित,
करुणा भाबकु हरिणी-समूह
जाणिले निर्भय चित्त ।
शङ्का परिहरि ताङ्क चारु तनु
बिलोकि मृगी सकळ,
सते अबा निज नेत्र-बिस्तारर
लभिले सार्थक फळ ॥
*
(१२)
शुणिले नरेश, अरण्य-कुञ्जरे
कानन-देबताबृन्द,
उच्च स्वरे ताङ्क शुभ कीर्त्तिगान
करुअछन्ति सानन्द ।
अनिळ पूरन्ते छिद्रमानङ्करे
सेहि देबगान सङ्गे,
बांशगण तहिँ मुरली बाइले
सुमधुर राग-रङ्गे ॥
*
(१३)
शैळ-झरणार सुशीतळ स्वच्छ
सलिळ-बिन्दु आहरि,
पादप-पन्तिकि धीरे दोहलाइ
पुष्प-बासे मन हरि ।
समीर आचार- पबित्र नृपङ्कु
सेबा कला तहिँ भले,
छत्र न थिबारु आतपे से य़ेबे
क्लान्ति अनुभब कले ॥
*
(१४)
बन अभ्यन्तरे प्रबेश करन्ते
रक्षक से नरेश्वर,
बर्षा बिना मध्य निर्बापित हेला
दाब-अनळ प्रखर ।
कानन-पादप समृद्धि लभिले
फळ-कुसुम-सम्भारे,
दुर्बळ प्राणीङ्कि सबळ पराणी
पीड़िले नाहिँ सेठारे ॥
*
(१५)
दिबसाबसाने नब किशळय-
राग परि ताम्र-बर्णा,
रबि-प्रभा पुणि बशिष्ठ मुनिङ्क
गाभी सुरभि-दुलणा ।
समस्त दिगकु परिपूत करि
गति य़ोगे आपणार,
उपक्रम कले निज निज गृह
अभिमुखे फेरिबार ॥
*
(१६)
देबता-अर्च्चन पितृश्राद्ध सह
अतिथि-चर्च्चा कार्य़्यर,
साधन-स्वरूपा नन्दिनीङ्क पछे
चळिले पृथिबीश्वर ।
दिलीप सङ्गते सौरभेयी तहिँ
शोभा पाइले एपरि,
सज्जन-सम्मत बिधि सङ्गतरे
साक्षाते श्रद्धा य़ेपरि
॥
*
(१७)
देखि चालिथान्ति नृपति दिनान्ते
श्यामळ रम्य कानन,
क्षुद्र सरुँ उठि शूकर-निकर
करन्ति प्रत्याबर्त्तन
।
तत्पर अछन्ति केकीगण निज
बास-तरु अभिमुखे,
श्याम तृण-क्षेत्रे मृग दळदळ
बसि रहिछन्ति सुखे ॥
*
(१८)
से त एकबार- प्रसूता नन्दिनी
बहि पीन पयोधर,
मन्द मन्द गति करिथान्ति पथे,
एणे मध्य नरबर ।
गुरु कळेबर बहि आपणार
चालिथान्ति धीरे धीरे,
तपोबन-मार्ग बिमण्डिले दुहेँ
सुन्दर गति-भङ्गीरे ॥
*
(१९)
कानन मध्यरु मुनि-धेनु पछे
राजाङ्कु फेरिबा जाणि,
पिइगले सते तृषातुर नेत्रे
प्रणयिनी महाराणी ।
पलक बिषये अळसता भजि
थिला ताङ्क पक्ष्मचय,
पति-दर्शनार्थी थिला सते
दीर्घ-
उपबासी नेत्र-द्वय ॥
*
(२०)
आश्रम-पथरे नन्दिनी पछरे
चालिथान्ति महीसाइँ,
राणी सुदक्षिणा आसिले सम्मुखे
स्वागत करिबा पाइँ ।
ए दुहिँङ्क मध्ये शोभिले नन्दिनी
रक्तबर्ण-कळेबरा,
दिबस-य़ामिनी- मध्यरे य़ेपरि
सन्ध्या अरुणिमा-भरा ॥
*
(२१)
धरिथिले हस्ते तण्डुळर पात्र
महाराणी सुदक्षिणा,
पूज्या पयस्विनी नन्दिनीङ्कि पूजि
कले शुभ प्रदक्षिणा ।
प्रणमि आदरे बेनि शृङ्ग मध्ये
बोळिले पूत चन्दन,
सते ताङ्क इष्ट सिद्धि-द्वार सेहि
शृङ्ग-य़ुग-ब्यबधान ॥
*
(२२)
बत्सा दरशन निमन्ते नन्दिनी
थिले मध्य उत्कण्ठित,
स्थिरे रहि पूजा घेनिबारु दुहेँ
हेले अति आनन्दित ॥
नन्दिनीङ्क भळि महातमागण
घेनि भक्तर अर्च्चना,
परसन्न हेले निश्चिते अचिरे
सफळ हुए कामना ॥
*
(२३)
निज बाहु बळे अराति-नाशक
दिलीप बसुधापति,
पूज्य कुळगुरु- गुरुपत्नी-पादे
सादर कले प्रणति ॥
सर्ब सायन्तन नित्यकर्म राजा
समापिले तदुत्तारे,
दोहन शेषरे बसन्ते नन्दिनी,
लागिले ताङ्क सेबारे ॥
*
(२४)
राणी सुदक्षिणा सङ्गतरे रहि
प्रजापाळ महामना,
पाशे पूजाद्रब्य दीप स्थापि
कले
नन्दिनीङ्क पूजार्च्चना
।
नन्दिनी शोइबा परे नरपति
चळिले शयन लागि,
प्रभातरे गाभी उठिला परे से
उठिले निद्रारु जागि ॥
*
(२५)
पत्नी सुदक्षिणा सङ्गते एभाबे
रखि पुत्र-लाभ आशा,
कठिन ए सेबा- ब्रत आचरिले
नरपति महाय़शा ।
दीनजनङ्कर उद्धार-करता
दिलीपङ्क एहिपरि,
एकबिंश दिन अतीत होइला
नन्दिनीङ्क सेबा करि ॥
*
(२६)
बशिष्ठङ्क होम- धेनु से नन्दिनी
अन्य दिन आगमन्ते,
निज सेबा-रत दिलीप नृपङ्क
भाब जाणिबा निमन्ते ।
पार्बती-पिअर हिमाद्रिर गुहा
मध्ये प्रबेशिले आगे,
गङ्गास्रोत य़ोगुँ नब तृणराजि
शोभुथिला तटभागे ॥
*
(२७)
कल्पनारे सुद्धा आपणा समीपे
नन्दिनीङ्कि हिंस्र प्राणी,
आक्रमिबा केबे सम्भब नुहइ,
राजा एहा थिले जाणि ॥
परबत-शोभा देखुथिले से त
कुतूहळ नयनरे,
ताङ्क अलक्षिते सिंह एक आसि
झाम्प देला गाभी परे ॥
*
(२८)
सिंह-आक्रमणे कामधेनु-सुता
हम्बा रड़ि कले भये,
गुहा भेदि प्रति- ध्वनित होइला
आर्त्त-रब ए समये ।
गिरीन्द्र-सौन्दर्य़्ये मज्जित दृष्टिकि
आर्त्तहारी राजाङ्कर,
फेराइ आणिला रश्मि आकर्षिला
परि से नाद सत्वर ॥
*
(२९)
नयन बुलाइ देखिले राजन
निज हस्ते धनु धरि,
पाटळ-बरना नन्दिनी उपरे
माड़ि बसिछि केशरी ।
बहिअछि शोभा य़ेह्ने धातुमयी
गिरि-अधित्यका परे,
पीतबर्ण्ण-पुष्प- राजि-बिमण्डित
लोध्र तरु चित्त हरे ॥
*
(३०)
ए उत्तारे सिंह- गामी महीपति
शरण-रक्षणकारी,
निज बळे बैरी- संहार-करता
दिलीप से दण्डधारी ।
पराभब लभि इच्छिले सेकाळे
दुष्ट सिंहर निधन,
तूणीररु शर काढ़िबा सकाशे
कर टेकिले बहन ॥
*
(३१)
प्रहारिबा लागि उठाइले राजा
दक्षिण हस्त अचिरे,
सहसा ताङ्कर कराङ्गुळिमान
लाखि रहिला तूणीरे ।
नखर ज्योतिरे कङ्कपत्र तहिँ
दिशिला केड़े शोभित,
शर काढ़िबारे उद्यत जनर
चित्र य़ेह्ने समङ्कित
॥
*
(३२)
तूणीर भितरे सब्येतर कर
जड़ि रहन्ते निजर,
दोषीकु प्रहारि न पारि नरेश
क्रोधे हेले जरजर ।
आपणार तेजे अन्तरे अन्तरे
जळिले अबनीपाळ,
मन्त्रौषधि-बळे रुद्ध-बळ हेले
य़ेह्ने बिचळित ब्याळ ॥
*
(३३)
साधुजन-बन्धु सिंह-पराक्रमी
पूज्य मनुकुळ-केतु,
नृपति दिलीप बिस्मय भजिले
धनु न चळिबा हेतु ।
ताङ्क बिस्मयकु आहुरि बढ़ाइ
केशरी से समयरे,
मनुष्य-बचन भाषि निज मुखुँ
प्रकाशिला ए रूपरे ॥
*
(३४)
“हे नृप ! बृथारे न कर प्रयास
मने भाबि मोते बध्य,
उद्यम निष्फळ हेब मोते लक्षि
अस्त्र निक्षेपिले मध्य
॥
फिङ्गिपारे तरु उपाड़ि मूळरु
य़ेउँ बायु बेगशाळी,
अटळ गिरिकि केबेहेले से त
तिळे बि न पारे टाळि ॥
*
(३५)
हे नरेश ! मुहिँ सर्बशक्तिमान
ईश्वरङ्क अनुचर,
निकुम्भर मित्र बोलि जाण मोते
नाम मोर कुम्भोदर ।
कैळास सदृश शुभ्र बृषभरे
शिब य़ेबे आरोहन्ति,
प्रथमे आपणा चरण रखि मो
पृष्ठ पबित्र करन्ति ॥
*
(३६)
देखुछ ए तुम सम्मुखरे य़ेउँ
देबदारु बिद्यमान,
निज पुत्र रूपे ताहाकु ग्रहण
करिअछन्ति ईशान ।
कुमार-जननी उमाङ्कर स्वर्ण-
कळश-रूपी स्तनरु,
सुमधुर पय- रस आस्वादन
करिअछि एहि तरु ॥
*
(३७)
थरे आपणार कण्डु निबारणे
आसि बन्य हस्ती एक,
कपोळ घषन्ते तहिँर बल्कळ
मन्थि होइला केतेक ।
एतिकिरे माता पार्बतीङ्क मने
जनमिला घोर ब्यथा,
दैत्य-शरे क्षत सेनानीङ्कि देखि
दुःख लागिथिला य़था ॥
*
(३८)
सेहिदिनुँ भय जन्माइबा लागि
बन्य गजङ्क हृदरे,
सिंह रूपे मोते नियोजि अछन्ति
प्रभु ए गिरि-कन्दरे ।
आहुरि आदेश देइछन्ति मोते
उदर-भरणे प्रभु,
य़ेते जीबजन्तु आसिबे समीपे
तोहरि आहार सबु ॥
*
(३९)
परमेश्वरङ्क निर्द्देशे उचित
खाद्य भोजन काळरे,
आसिछि ए गाभी ताकुभक्षि
मुहिँ
तृप्ति लभिबि मनरे ।
रुधिर पारणा हेब सुनिश्चय
क्षुधाकुळित मोहर,
इन्दुर अमृत राहु पाइँ य़था
होइथाए सुखकर ॥
*
(४०)
एपरि दशारे फेरि य़ाअ तुमे
एपरि दशारे फेरि य़ाअ तुमे
मनुँ लज्जा परिहरि,
देखाइदेल त निज गुरु प्रति
शिष्य-भकति तुमरि ।
आयुध बळरे कौणसि बस्तुर
रक्षा होइ न पारिले,
शस्त्रधारीङ्कर कीरतिरे केबे
हानि न घटइ तिळे ॥”
*
(४१)
पुरुष-प्रबर दिलीप नरेश
ए रूपे पशुराजर,
प्रगल्भ बचन शुणि सारि हृदे
बुझि पारिले निजर ।
महादेबङ्कर प्रभाबरु ताङ्क
रुद्ध हेला शस्त्र-गति,
तेणु निज प्रति अबमाननाकु
न्यून कले नरपति ॥
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For Part - 2 (Verses 42- 75 End) Oriya Rendering
of Raghuvamsha Canto-2,
Link :
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Related Links :
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Raghuvamsha : Odia Version : Blog Link :
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Translated Works of Dr. Harekrishna Meher :
(Tapasvini, Niti-Sataka, Sringara-Sataka, Vairagya-Sataka, Kumara-Sambhava,
Raghuvamsha, Ritusamhara, Naishadha, Gita-Govinda, Meghaduta etc.)
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Raghuvamsha, Ritusamhara, Naishadha, Gita-Govinda, Meghaduta etc.)
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