Thursday, August 4, 2011

Tapasvini-Kavya Canto-1 (‘तपस्विनी’ काव्य प्रथम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)

TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)

Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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[Canto-1 has been taken from pages 29-46 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

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Tapasvini [Canto-1]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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प्रथम सर्ग
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कौन तू ज्योतिर्मयी ?
वेश तेरा पावन समुज्ज्वल,
इन्द्रनीलमणि-कान्ति-जयी
सुन्दर हैं तेरे कुन्तल ॥

तेरा शुभ्र सूक्ष्म परिधान
भेदकर निकली,
हृदय में कर रही आह्लाद प्रदान
कान्ति कलेवर की उजली ॥

तू चाँदनी घनी होकर
क्या बन गयी है शरीराकार ?
लेट रहा तेरे पैरों पर
केशों के व्याज अन्धकार ॥

समुज्ज्वल मञ्जुल सुविरल
तारा ग्रह सकल
रत्न अलङ्कार बन
कर रहे हैं तेरा कलेवर मण्डन ॥

अनगिन सुमन हार धवल
भा रहे तेरे गले में उज्ज्वल ।
अद्भुत कौशल से ये
सब हैं पिरोये गये ॥

शुभांग-सौरभ से मोहित
हो रही धरती ।
आ रही उसके सहित
प्राणों में प्रफुल्लता उभरती ॥

हाथ में क्या लेकर सही
है तू डाल रही ?
लोग उसे पीकर ज्योतिष्मान्
बन रहे हैं देवता समान ॥

क्या मन्त्रदीक्षा दे रही तू फिर से
चुन-चुन कर लोगों में से ?
वे रच रहे हैं प्रकाश
करके अन्धकार का विनाश ॥

तेरे चरण-चिह्न पर विमल
खिल रहे हैं शुभ्र कमल ।
लगता सार्थक नहीं इसी कारण
तेरे लिये ‘चाँदनी’ नाम उच्चारण ॥

दारिद्र्‌य-पंक से भरा
जीवन-सरोवर मेरा ।
लेकर जंजाल-जलद-सलिल
उदर हो गया है आविल ॥

शरत् समान तेरे दर्शन पाकर
हो रहा स्वयं प्रसन्न-अन्तर ।
खिल रहा इस पल
अपना हृदय-उत्पल ।
देवि ! सच क्या
तेरा चरण-सम्बल उसने प्राप्त किया ?

तेरे चरण स्पर्श करके
प्राण मेरे मोहित हो चुके ।
जैसी तेरी इच्छा,
कर ले जो लगे अच्छा ॥

वाल्मीकि-आश्रम की ओर मन है दौड़ चला
करने निर्वासिता सीता के दर्शन ।
जीर्ण हृदय उन्होंने सीं लिया कैसे भला ?
किसके साथ कैसे बिताया जीवन ?

अयि कृपावति !
कृपया तू दे शक्ति ।
पवित्र हो जाये मेरा मन देखकर
और हाथ लिखकर ॥

वन के भीतर थी
बह रही भागीरथी,
पश्चिम तट पर
उछाल ऊँची लहर । (१)
वन-दृश्य देखने अग्रसर वही
विकल जीवन में मानो पग थी बढ़ा रही ॥

उसी तट पर ही
खड़ी होकर वैदेही
निहार रही थीं पूरब की ओर,
छा गया था मन में दुःख घोर ॥

उनके नयनों से आँसू उछल
वक्ष पर गिर रहे थे अनर्गल,
जैसे उमड़ पश्चिम दिशा में बादल
प्रबल वृष्टि से प्लावित करते अस्ताचल को ।
जैसे गजराज के सूँड से निकल
सरसी के उर पर गिर अविरल
बिन्दु बिन्दु जल
भिगा देते सायंकालीन कमल को ॥

‘हा नाथ !’ उच्चार व्याकुल कोमल-अन्तर
देवी सीता विवश मुह्यमान
धीरे बैठते-बैठते धरा पर
गिर पड़ीं उत्तान ।
चेतना अपनी खोई,
थामने पास न था कोई ॥

जिनके चरणों में सेवा-निरत
थीं सेविकायें शत-शत,
दारुण विपत्ति उनकी
कोई भी देख न सकी ॥

अहो ! नियति की रीति यह भयंकर,
देखने से हृदय में किसके आयेगा नहीं डर ?
कानन ऐसा देखकर
रो पड़ा विहग-मुख में अधीर ।
निश्वास-रूप प्रखर
बहने लगा समीर ॥

सरसराहट ध्वनि प्रश्वास बनकर
हुई श्रुतिगोचर ।
कारुण्य कल्लोल समान
पल्लव हो गये कम्पमान ॥

इधर-उधर देख चकित नयन
सारे मृग रह गये व्याकुल-मन ।
माता की रुलाई निहार
उसका अर्थ न जान,
व्यस्त हो जाती जिस प्रकार
उसकी सन्तान ॥

नियति के विरुद्ध
छेड़ने युद्ध
प्रबल गरज उठा ले तलवार
ताल तरु हाथ में अपने ।
मानो निकाला उसने
पत्र का तीर,
हिलाकर बारबार
बया-नीड़ का तूणीर ॥

काँपती सरिता की ऊर्मियों से उभर
पुलिन पर
पड़े सीकर
तरंग-चोटियाँ त्याग कर ।
निकाल तरंग-तोप
सीसक-गोलियाँ भर
मानो प्रहार किया सकोप
भागीरथी ने नियति के ऊपर ॥

सरोवर के अन्दर
विचलित अरविन्दों ने छेड़ा रण,
कमल-व्यूह रचकर
प्रहार भ्रमर-मार्गण ॥

बनफूल वृन्त छोड़कर
धरती पर गिर धूलि-धूसर,
हुए तत्पर
मल्ल-युद्ध में परस्पर ।
ऊर्णनाभ-तन्तु-रूप नियति-बन्धन तोड़
लता उछल पड़ी क्रोध से दिखला होड़ ॥

भग्न-हृदय शीर्ण-काय वारिधर
दौड़ आया सक्रोध अपना दलबल लेकर ।
आँखें तरेर करके गम्भीर गर्जना
दिखला दी नियति को तर्जना ॥

सती के आनन पर सुशीतल
बिन्दु-बिन्दु जल
सींच-सींच कर अपना
उनके जीवन में लाया चेतना ॥

साध्वी कुल-वधू की दुर्दशा करके दर्शन
दिवाकर ने लज्जावश छुपा लिया लपन ।
सारी दिशा-वधुओं ने उदास-मुख बैठकर
मन्द्र स्तनित-क्रन्दन से हिला दिया अम्बर ॥

कुछ समय के अनन्तर
चेतना-प्राप्त महादेवी कातर
अतिशय निराश-मति
निहारने लगीं दश दिशाओं प्रति ॥

सारी दिशायें उसी समय
दृश्य हुईं श्रीरामचन्द्रमय ।
बैठे हैं उदास-अन्तर
प्रभु रघुवीर ।
कृताञ्जलि खड़े हैं उधर
समक्ष लक्ष्मण सुधीर ॥

दोनों के नयन हैं बने
अश्रुओं के झरने ।
पूछ पाते नहीं रघुनन्दन
देवी सीता की खबर,
व्यक्त होता नहीं वचन
लक्ष्मण के मुख से बाहर ॥

लगीं सूरज की ओर देखने;
सूरज की गोद में रघुनन्दन
हाथ रख माथे पर अपने
बैठे हैं विनत-वदन ॥

दृष्टि गयी भागीरथी की ओर तदनन्तर,
देखा, भगीरथ के पीछे चले हैं रघुवर ।
गंगाप्रवाह-सा
राम-नयनों का नीर ।
कभी उसमें वे डूब जाते सहसा,
कभी बह जाते अधीर ॥

वहीं से आँखें मोड़कर
देखा सती ने अपना उदर ।
तब स्वयं ही निरर्गल
बरसाने लगीं अश्रु-जल ॥

संकुचित हो गयीं जानकी
निहार दूर्वाएँ श्याम-वर्ण की ।
चलने शिला की ओर लगा मन अपना,
परन्तु करके कुछ भावना
उधर भी न चलीं श्रीराम-नायिका,
रोक न सकीं आवेग रुलाई का ॥

करुण आर्त्त स्वन में
दग्ध वदन में
विलाप-विह्वल सती ने उस पल
स्तब्ध कर दिया बनस्थल ॥

दुःखिनी का था स्वर :
“ हा हा प्राणेश्वर !
करुणा-रत्नाकर !
स्नेह-जलधर !
किस कुलग्न में किया था आपने
इस अभागिन का पाणिग्रहण ?
आप दारुण दुःख-भवन बने
उसीके ही कारण ॥

प्रभु की अपार महिमा न जान
एक धनुष रखा था
मैंने गरिमा से घिर सर्वथा ।
तोड़ उसे इक्षुदण्ड समान
आपने मुझे थी मान ली
उसकी मधुरिमा रसीली ॥

वन-भ्रमण में वीर-शेखर !
मुझे चरण-शृंखला न समझकर
स्नेह से आपने
साथ लिया अपने ।
चरण-शृंखला को हार
हृदय का बनाकर
आपने किया विहार
पुनीत तीर्थों पावन आश्रमों पर ॥

मुझ पर स्नेह कितने
वन में थे बरसाये ।
कैसे भूल सकूंगी उन्हें
जीवन में हैं गहरे समाये ॥

तुच्छ यह दासी
क्षुधा से जायेगी तरस,
वन में करके भावना ऐसी
फलमूल लाते थे आप निरलस ॥

पल्लव-शय्या
होगी नहीं निद्रा-योग्या,
उसके लिये यही विचार
अंक-पलंक में करते थे झुला तैयार ॥

तुच्छ-सी मेरे
स्नेह-बन्धन में घेरे
आपने लाँघ महासागर
छेड़ा लंकापति से भयंकर समर ॥

सह लिये उसमें कई महास्त्रों के प्रहार,
समझते थे उन क्षतों को हृदय का हार ।
पदक में उस हार के
योग्या विचार करके
मुझे रखते थे मनोहर
मध्य-मणि बनाकर ॥

देख जब क्षत-चिह्न सकल
होता था मेरा मन विकल,
आप वाणी में अमृत सान
सदा करते थे मुझे सन्तोष प्रदान ॥

कहा था आपने :
‘इस घोर समर-यज्ञ में
अर्पण कर लहु की आहुति हमने
तुम्हीं दुर्लभ विभूति को पाया है, प्रियतमे !’

आज तक तीर-चोटों के चिह्न हैं मिटे नहीं,
हाय ! बिछड़ गयी आपसे अभागिन मैं यहीं ।
कृपया मिटा दें
हृदय-फलक से मेरी यादें,
आती रहेगी अन्यथा
पल-पल मनोव्यथा ॥

मैं तुच्छ क्या हूँ ?
आपके प्रजा-जनों में खुशी भर आये ।
मैं मर जाऊँ,
कलंक आपका मिट जाये ॥

इसीसे निकलेगी जो कीर्त्ति अक्षया,
उसीकी अटूट मूर्त्ति बनाकर
आप रख लें कृपया
अपने हृदय के भीतर ॥

आपके वंश-जनक ये अंशुमान्,
करने संसार को कल्याण प्रदान
स्वयं मुक्त-कर
हैं निरन्तर ॥

धरित्री की धात्री-रूपिणी ये भागीरथी
आपके कुल की विश्रुत कीर्त्ति शाश्वती ।
कीर्त्ति की तो रक्षा करने
मुझे त्याग दिया आपने ।
महाभाग ! यह आप ही का
अनुरूप है कर्म ।
रहेगा इस कीर्त्ति-केतन में चित्र पापिनी का,
परन्तु है यह विचित्र विषम ॥

धिक् मेरा जीवन,
नाथ ! केवल मेरे लिए
बने अपयश के भाजन
आप निष्कलंक होते हुए ॥

त्याग आपके चरण
किसकी शरण
ले लूंगी मैं ?
जब मेरा तन
जला नहीं सकता ज्वलन,
किससे जलाऊंगी मैं ? (२)

अपना ली है इन सारी
दूर्वाओं ने आपकी आभा प्यारी ।
इन्हें छोड़ वन में दूसरा
लूंगी मैं किसका आसरा ?

आपकी अनुकम्पा शिला पर
दरशाती असर । (३)
भला मुझे लेकर किसलिये
दण्डित होंगी ये ?

आपने जो भण्डार रत्न का
मेरे गर्भ में है स्थापित किया,
उपाय उसके रक्षण का
क्या है, नहीं बताया ॥

हृदय में गहरी
आशा पली थी मेरी,
सौंप यही अमूल्य रतन
करती मैं आपका अंक मण्डन ॥

परन्तु परिणाम उस आश का
बन गया प्रसून आकाश का ।
धन्य रे दैव ! नमस्कार
तुझे सहस्र बार ॥

पिता हैं महाराज
संसार में विशाल कीर्त्तिमान् ।
अरे दैव ! उनके कुमार की आज
करेगा तू कैसी दशा विधान ?

पर्वत के अंग पर
होता वज्राघात प्रखर ।
उसी संग गिरिवासी का संहार
है कैसा हाहाकार ?

धन्य नाथ ! मुख आपका
निष्यन्द है अमृत का ।
हृदय-पर्वत है अपार
अमृत-हिमशिलाओं का भण्डार ॥

यदि कभी जलता
वही हृदय दुःख से,
फिर भी अन्य कुछ नहीं निकलता
अमृत-अतिरिक्त मुख से ॥

समाचार मेरे अपवाद का हठात्
हुआ आपका श्रवण-गोचर,
अवश्य आया होगा दारुण व्यथाघात
आपके हृदय के भीतर ॥

परन्तु बोले नहीं, प्राणेश्वर !
आप एक पद भी कठोर बात ।
मधुमयी आशा देकर
मुझे त्याग दिया अकस्मात् ॥

मेरा अर्जित पाप ही
मेरे दुःख का कारण सही ।
उस पाप का स्मरण
मुझे हो रहा है इसी क्षण ॥

मेरे स्वामी महिमा-पारावार,
परन्तु उन्हें इतर मान
‘रक्षा करो लक्ष्मण’ पुकार
उनकी समझ बैठी मैं अज्ञान ॥

निम्न मन में अपने
लक्ष्मण को नीच विचार कर
बाध्यतापूर्वक प्रेषित किया मैंने
आपके समीप सत्वर ॥

उस पाप के कारण तत्काल
बढ़ाने उन प्रभु की महिमा विशाल,
हुआ चिरन्तन
इस पापिनी का निर्वासन ॥

दिया था जो तिरस्कार
निर्दोष लक्ष्मण के प्रति,
उसका समुचित पुरस्कार
मैंने प्राप्त किया संप्रति ॥

मुझसे उन्हें दूर हटाने
अत्यन्त व्यग्र होकर मैंने
उनके हृदय पर बारबार
किया था वचन-वज्र का प्रहार ॥

भक्ति-परायण लक्ष्मण
प्रणिपात कर मेरे चरणों तले
विनय-वचन कहकर तत्‌क्षण
मुझे दूर त्याग चले ॥

एक छिन्न मस्तक लाकर दशमुख ने
दिखलाया मेरे पापी नयनों के सामने ।
समझ उसे स्वामी का सिर
व्याकुल-प्राणा मैं सत्वर
रो पड़ी अधीर,
अश्रु-धारा में बहकर ॥

वही शीश देखकर भी
मेरा मरण न आया तुरन्त ही ।
उसी पाप से हूँ अभी
मैं जीते-जी जल रही ॥

आपके चरणों का सेवा-सुख
समझकर हल्का,
आश्रम-दर्शन का सुख
चाहा मैंने दो पल का ।
मुझे आपसे बिछड़ाकर सही
कह रहा पाप वही,
‘पापिनि ! अब कर वैसी
तेरी इच्छा जैसी ॥’

अयोध्या-राजलक्ष्मी के प्रेम-बन्धन में न आये
आपने संग मेरे कई दिन बिताये ।
थी मौका ढूँढ रही
राजलक्ष्मी ईर्ष्या से जल,
बहुत दिनों तक वही
न सकी और सम्हल ॥

उसके दुःख के साथी बन
थे जो नगरवासी प्रजाजन
उन्हें करा दिया स्मरण
मेरे निर्वासन के लिये उसी क्षण ॥

अयोध्या में विराजती
सपत्नी-शक्ति गरीयसी ।
उसे दमन कर नहीं सकती
पति-शक्ति महीयसी ॥

जब हुआ सफल
पराक्रम कैकेयीजी का,
उस देश में आ गया प्रबल
बल राजलक्ष्मी का ॥

‘प्रजा-रञ्जन की यदि हो आवश्यकता
प्राण-सी सीता को भी मैं त्याग सकता ।’
अष्टावक्र मुनि के समक्ष
कहा था आपने प्रत्यक्ष ।
उन वचनों का आप करते होंगे स्मरण
शिथिल होने न देकर अपना प्रण ॥

पितृ-वचन पालन में आप विमुख नहीं,
पति-वचन पालन में यदि मेरा दुःख नहीं,
तब ही बन सकूँगी मैं भवदीया
पत्नी-पदवी की योग्या ।
मन मेरा निश्चय
समझ लेगा यही विषय ॥

प्रजा-रञ्जन में व्रती आप अग्रणी,
मैं आपकी सहधर्मिणी ।
आपके चरण-चिह्न पर
गति मेरी है निरन्तर ॥

प्रजा-मन में सन्तोष जगाये
मेरा यह निर्वासन ।
सम्पूर्ण निर्दोष बन जाये
प्रभु का व्रत पावन ॥”

सती के रोदन से स्तम्भित
हो गयी पवन की गति ।
जल-स्थल के सहित
कातर हो उठी प्रकृति ॥

वेग रुक गया गंगा-तरंगों का,
वन में बन्द हो गया कलरव विहंगों का ।
एक भी पल्लव वृक्षों का
न हिला वहीं ।
लीलामयी लताओं का
तन भी डोला नहीं ॥

डाल-डाल पर आसीन विहंगमगण
करने लगे लय श्रवण में सकल,
प्राणों में भर प्रतिक्षण
सन्ताप का प्रवाह प्रबल ॥

मृग-शावक माता के स्तन पर मुख डाल
स्थिर रहा क्षीर न चूस तत्काल ।
मृग-मृगीगण स्थिर निरख
मुख के कुश-ग्रास मुख में ही रख,
रह गये ग्रीवा भंग कर
शोक-ध्वनि में निमग्न-अन्तर ॥

मयूर-मयूरियों ने
साथ ले अपने छौने
चित्रित-तुल्य रहकर
चपलता त्याग दी सत्वर ॥

शावकों के संग हस्ती हस्तिनी सकल
काष्ठ-गज समान,
रह गये राह पर निश्चल
भूल गंगा की ओर प्रस्थान ॥ *
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[पाद-टीका :
(१) वाल्मीकि-आश्रम गढ़वाल के पास गंगा दक्षिण-वाहिनी । वहींसे अयोध्या पूर्वदिशा में अवस्थित ।
(२) लंका की अग्निपरीक्षा में सीता दग्‌ध नहीं हुई थी ।
(३) श्रीराम के पावन पदरज-स्पर्श से पाषाणी अहल्या दिव्य नारी बनी थीं ।]
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(तपस्विनी काव्य का प्रथम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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1 comment:

विमल कुमार शुक्ल 'विमल' said...

श्रेष्ठ विषय पर श्रेष्ठ रचना व उसका सुंदर अनुवाद।