Sunday, August 7, 2011

Tapasvini Kavya Canto-8 (‘तपस्विनी’ काव्य अष्टम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)

TAPASVINI
(Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher, 1862-1924)

Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-8 has been taken from pages 147-162 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya ‘
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

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Tapasvini [Canto-8]
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तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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अष्टम सर्ग
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यौवन जैसे बढ़ता जीवन में,
वसन्त वैसे बढ़कर ग्रीष्म बन गया वन में ।
युवा-बल जैसे होता प्रखर,
आतप वैसे हो चला प्रचण्डतर ।
किया उसने सुन्दरी मृगतृष्णा का सञ्चार,
सुख-विषय भोग तृष्णा जिस प्रकार ॥

त्याग शाल्मली-तरु-निवास
उड़ चला कार्पास,
कृपण का धन समयानुसार
उड़ता जैसे छोड़ गुप्त भण्डार ॥

पलाश-अंग में रहा नहीं पहले का रंग,
वैसे है क्षण-भंगुर संसार-प्रसंग ।
ताप से हुआ बहुतर
मल्ली का विकास,
फैलने लगा उधर
उसके अंग से अधिक सुवास ।
ताप से अटल रहता साधु-हृदय,
फैलता उसीसे शान्ति-यश अतिशय ॥

देखा मल्ली की ओर कुटज ने हर्षित-अन्तर,
साधु अवश्य रमता साधु-संग पाकर ।
विचार किया दोनों ने एक हृदय में :
‘महका करेंगे हम ग्रीष्म-समय में ।
वर्षा जब प्रदान करेगी जल
वसुन्धरा हो जायेगी शीतल ।
शान्ति लाभ करेंगे तभी
जीवजन्तु सभी ॥

कृपण नहीं कदम्ब और केतकी
करने सौरभ प्रदान,
करेंगे वे जगत की
तृप्ति का विधान ।
उन्हें सौंप लोक-रञ्जन का भार श्रम
तरु-दुनिया छोड़ चलेंगे हँसते-हँसते हम ॥’

उद्दण्ड पद्मिनी ने शीश उठा सानन्द-मन
कहा उन बातों का करके समर्थन :
‘तुम्हारे संग मैं रहूँगी,
काल-सागर की उत्तुंग तरंगों में कूद पड़ूँगी ॥’

मल्ली बोली : ‘अरी हाँ !
तू ऐसा कर सकेगी कहाँ ?
छोड़ेंगे नहीं तुझे पाकर
तेरे प्रियतम दिवाकर ॥’

बोली पद्मिनी : ‘ छाएगी जब घटा घनघोर
प्रियतम निहारेंगे नहीं मेरी ओर ।
विपत्ति में बिताकर कुछ दिवस
संसार-व्रत उद्यापन करूँगी बस ॥

मेरे प्रियतम
मेघ-पटल भेदने अक्षम ।
दुःख झेलते हैं ये
लोक-कल्याण के लिये ॥

प्रियतम का प्यार अनुराग भोग
कहाँ कर पाऊँगी अधिक दिन तक ?
नहीं मेरा सौभाग्य योग ।
करती रहूँगी अनुक्षण
उनके चरणों का स्मरण,
मुझे वरण कर ले जाएगा अन्तक ॥

इस जनम में कुछ दिन दुःख सहूँगी
तो अवश्य कर पाऊँगी
अगले जनम में दर्शन
प्रियतम का प्यारा वदन ॥’

यह वचन जब सीता के ज्ञान-श्रवण में पहुँचा,
मान उसे जीवन का आदर्श ऊँचा
बोलीं सती :
‘पद्मिनि ! तू साधवी है री !
तुझे अवश्य दीखती
सरणी पुण्यभरी ।
मेरे विचार में मैं तेरी भगिनी हूँ,
उसके ऊपर फिर भाग्य-भागिनी हूँ ॥

तेरी तरह पाया वन में पति का प्रणय,
भवन में सुख निर्मल अमृतमय ।
दिवस-नाथ सूरज हैं
तेरे प्रियतम स्वयम् ।
उनके वंशज हैं
पृथिवीनाथ मेरे प्रियतम ॥

कहती जो अपने भविष्य की अवस्था,
पहले से ही मुझे प्राप्त है वही पन्था ।
धन्य तेरा हृदय महान्,
तू सति ! धन्य धन्य है री !
कर ले प्रदान
मेरे जीवन में शुद्ध-मति तेरी ॥

लोकापवाद से दुःखित-मन
मेरे प्रियतम ने
मुझे त्याग दिया ।
बोल दिव्य-दर्शने !
पर-काल में स्वामी के दर्शन
भाग्य मेरा कर पाएगा क्या ?’

शीतल कमल-पंखुरियों के नीचे बस
घन-श्यामल-हृदय सरसी-जल में सरस
मध्याह्न चक्रवाक-दम्पति ने बिताया
और राजहंस ने संग ले अपनी जाया ॥

कारण्डव-कवल से बचकर झींगा
अम्बुज-वन में लम्बी छलांग लगा
छत्र-विशाल पत्र-वन में रास्ता भूल अपना
अन्त में बगुले का आहार बना ॥

उद्दण्ड अरविन्द-पंखुरियों के अन्दर
गिरी शफरी नीर में लम्फ दे रही ।
कुमुदिनी के बंकिम नाल पर
बैठने से पूर्व ही
फुदक रहा मण्डुक
डुण्डुभ के भय से दुकदुक ॥

आम्र-शाखा पर सविषाद बैठ कोयल
काक-नीड़ के पास
पत्रों में छुप विह्वल,
झेल सारी प्यास
पञ्चम स्वर में वहीं
श्रवणामृत बरसाती थी नहीं ।
छुप गयी थी जैसे
चाण्डाल के भय से ॥

अपनी पूँछ पसार
बुलबुल किसी प्रकार
पूँछ-छोर में रंगीन पर
नहीं नचा रही उधर ॥

पंख हिलाकर
देख अपना सोदर
वह थी क्रुद्ध नहीं होती,
पुकारती नहीं दे चुनौती ।
आहार ही उसे लड़वाता,
अन्यथा भ्राता किसका शत्रु बन जाता ?

पीन-अपघन
परिपूर्ण-उदर
बैठी थी वह प्रसन्न-मन
विशाल शाल-पादप-डाल पर ॥

बैठकर मधुक-जंगल में
मधुक फल काट भोजन-छल में
द्विज-स्वभाव से शुकगण
सूक्ष्म-पञ्जिकानुसार उसी समय
भावी वृष्टि-लक्षण
कर रहे थे निर्णय ॥

तमसा-तट पर वटवृक्ष-तल
गहन पत्र-छाया से था सुशीतल,
जहाँ कुटज-सुरभित कुटीर में अनायास
ग्रीष्म लेता शान्ति-चरणों में आश्वास ॥

वहाँ समासीन वाल्मीकि मुनिवर
खोल अपने ज्ञान-लोचन
दर्शन कर रहे पावन रामायण ।
कहीं कहीं तापसगण
रहे अध्ययन-तत्पर,
कहीं कोई वेद-गान में मगन ॥

गुरु गर्भ-भार से आलसी-काया
तापसी-समुदाय-परिवृत श्रीराम-जाया
घने कुञ्ज-वन में
बैठ पत्रासन
स्थिर नयन में
करतीं शान्ति सेवन ।
जैसे परिधि-मण्डित चन्द्र-मण्डली
पूर्णिमा की बिदाई पर अस्ताचल को चली ।
सती के पाण्डुर कपोल-परिसर के घर्म-पटल
शिशिर सदृश, हिम नेत्र-जल ॥

तापसियों के बीच रहकर श्रीराम-पत्नी
लंका-राक्षसी वृत्ति लाकर स्मृति में अपनी
कर रहीं भावना :
‘भाव तापसियों का कितना स्वर्गीय,
फिर राक्षसियों का भाव नारकीय
कुत्सित कितना ॥’

पवन-देव की दी बधाई,
जब मानस में आई
वीर पवन-कुमार की याद ।
सादर तालवृन्त व्यजन झल
देवी ने पाया सुशीतल
ऊर्मि का प्रसाद ॥

उसी समय समक्ष आ चिन्ता-सुन्दरी
बोली वाणी विनयभरी :
‘देवीजी ! कुछ लोग द्वार पधारे
प्यासे हैं दर्शन पाने तुम्हारे ।
यात्रा कर चुके राह बहुत लम्बी ।
धन्य वह दर्शन-कामना
प्रखर आतप से नहीं दबी ।
बन जाता हृदय अपना
अपार प्रीति का भण्डार
उनके कमनीय रूप निहार ॥’

बोलीं देवी : ‘सखी मेरी !
ले आओ उन्हें न कर देरी ।
भाग्य मेरा धन्य,
मुझ पर इतने आदर हैं अनन्य ।
अवश्य पाप-ताप मिटा देंगे मेरे नयन
पाकर उनके दर्शन ॥’

देवी की आज्ञा मान
पहले आकर
एक् ने मधुर मुस्कान
धीरे बिखराकर,
कई दिनों से परिचित बन्धु समान
कहा प्यारी बातों में अमृत सान ॥

‘देवीजी ! स्मृति में है क्या घटना पिछली ?
किया था पदार्पण
तुमने मेरे घर ।
पाई है मेरी काया ने उसी क्षण
तुम्हारी तनु-ज्योति से सुन्दर
यह स्वर्गीय प्रभा की सम्पदा उजली ॥

मेरे निर्झर उस प्रभा के व्याज
आनन्द-विभोर झर्झर बहते आज ।
प्रफुल्ल-वदन पुष्प-समुदाय हास्य निखार
नन्दन-कानन का करते तिरस्कार ॥

सरिता-सलिल महकाकर सदा सुगन्ध मन्द
तटवासियों के मन में जगाता आनन्द ।
तुम्हारे प्यार-पले मयूर सारे
उच्च स्वर नित्य गाते गुण तुम्हारे ॥

प्रतिक्षण वारिद आकर बारी-बारी से
अटल अभिलाषा रख तुम्हारे दर्शन की,
ढूँढते घूम-घूम दरी-दरी से
‘कहाँ है सुन्दरी जानकी ।’
पूछते मुझसे गंभीर स्वर में सभी,
‘नहीं है’ उत्तर से मानते नहीं कभी ।
ले उजाला बिजली का खोजते पुनर्वार
‘निश्चित है सीता सुन्दरी’ यही विचार ॥

देवीजी ! आज पहचाना क्या
इस हतभाग्य को तुमने ?
बहुत दिनों बाद आया
तुम्हारे सामने ।
तुम्हारी चरण-धूलि से सुन्दर
अपना मुकुट सजाकर
बन चुका हूँ भाग्यवान्
मैं चित्रकूट सानुमान् ॥’

तदुपरान्त पधारी एक शुभांगी रंगीली नयी
विमल-समुज्ज्वल-कान्तिमयी,
प्रखर-आतप-ताप-दर्पहारिणी,
वन-सुन्दरी की चिर-सहचारिणी ।
गिरिमल्लिका-माला से कण्ठ है सज्जित हुआ,
ललाट पर रमणीय शिरोमणि महुआ ।
जम्बु-नीलरत्न कर्णाभरण,
शुक्ति-पङ्क्ति जिसका कटि-भूषण ।
वनवासी मुनिजनों का अन्तःकरण मोहती,
सुन्दर कुटिल नील वेणी से सुहावनी लगती ॥

प्रफुल्ल प्रसन्न-वदन
उसने व्यक्त किया प्रत्यक्ष,
सुकुमार धीर मधुर वचन
सती के समक्ष :
‘अयि सुशीले !
कृतज्ञता मेरी स्वीकार ले सादर,
तेरे स्नेह-ऋण से ऋणी हूँ निरन्तर ।
ऋण कहाँ चुका पाऊंगी ? नहीं मेरी शक्ति,
मुझे कृतार्थ कर, सति !
आन्तरिक भक्ति मेरी ले ॥

दुनिया में मेरे जैसे हैं नहीं कितने ?
इतनी कृपा तेरी पाई है कहाँ किसने ?
पाकर तेरी शुभ दृष्टि पावनी,
मेरी बालुका है स्वर्ण-रेणु बनी ।
क्रीड़ा से रम गये जब दिव्य नयन तेरे
तूने हीरा-क्षेत्र बना दिया वक्षस्थल को मेरे । [१]
विद्यमान नगेन्द्र-नन्दिनी श्रीविष्णुपदी,
फिर भी तेरी प्रदत्त उपाधि से मैं हूँ ‘महानदी’ ॥’

आई निर्मल-कलेवरा गोदावरी
वदन में विषाद की छाया है भरी ।
अश्रु बहाकर व्याकुल-मन
पोँछ-पोँछ आँचल से सरोज-नयन,
समुज्ज्वल रंगों से रञ्जित कई
विचित्र चित्र अपने संग थी लाई ।
सती की अनुज्ञा लेकर शीघ्र ही
खोल स्तर-स्तर दिखाने लगी वही ॥

कहीं पुष्प-पुञ्ज झड़कर लतागण से
सड़ रहे मार्त्तण्ड की प्रचण्ड किरण से ।
शुष्क पत्र-शय्या पर पतित
कई वृक्ष हैं मलिन-वेश प्रभा-रहित ॥

एक टूटी शाखा किसकी
उस तरु का अंग छोड़ न सकी ।
तृणराशि की शरण चाहती चूम किसीका सिर,
किसीके पैर पकड़ फिर ॥

खग-पुरीषों से पूरित पत्र
शुक्ल कर रहे किसीका तन ।
ले ऊर्णनाभ-जाल रूप मलिन वस्त्र
आनन्द खो चुका कोई ढँक अपना आनन ॥

बक-विक्रम देख कई भेक बारबार
छलांग लगा झेल रहे क्लेश अपार ।
कुछ तो पाषाण-तल में छुपकर
चुपचाप बैठ भर रहे उदर ॥

कहीं वन्य महिष-दल अधीर
पंकिल कर रहे सरोवर का नीर ।
क्षिप्त हो रहे कर्दम से सने कुछ कमल
महिषों के पैरों से चञ्चल ॥

कहीं अजगर ले आहार-लालसा
नीर के पास पड़ा है काष्ठ-सा ।
उसके समीप मृगों का मार्ग निहार अनुकूल,
छुप-छुप अधर-प्रान्त लेहन करता शार्दूल ॥

फिर दृश्य हुआ प्रबल दावानल
धूमान्धकार से घिर वनस्थल ।
असंख्य-शाखावाली प्रचण्ड
अग्नि-शिखाएँ लिपटती
और खण्ड-खण्ड
गगन में जा रहीं मिलती ॥

ज्वलित पत्र सब अम्बर में उठकर
धूम-वाहन में चल रहे ।
दूर वृक्षों पर बैठ सुनाकर खबर
अतिशय ताप से जल रहे ॥

कुछ मुरझाये पत्र ऊर्ध्व मार्ग चल
अम्बर में हो रहे ओझल ।
पलायन-रत हैं विहंगम गगन में उड्डीन,
कुछ तो अग्नि-गर्भ में हो रहे विलीन ॥

मृग, महिष, मातंग,
शशक, शूकर,
भल्लुकों के संग
दल-दल शृगाल,
धूम-पुञ्ज से ग्रस्त होकर
अग्नि की ओर दृष्टि डाल
कान्दिशीक हैं समस्त
अत्यन्त विकल त्रस्त ॥

उधर अनेक वानर
भीत चकित-मन
छलांग लगा वृक्षों पर
कर रहे पलायन ॥

कुछ अपने शावकों को पीठ में रखकर,
कुछ अपने कक्ष में पकड़ जोर
दौड़ रहे धूम के भीतर
सरिता की ओर ।
सरिता के सैकत स्रोत से पुलिन पर्यन्त
भर गये हैं जन्तुकुल व्याकुल अत्यन्त ॥

बोली गोदावरी :
‘देखी तूने, वत्से जानकी !
तेरी बिदाई के बाद दशा दुःखभरी,
दण्डका-वन की ?’

बोलीं पर-दुःख-कातर सती :
‘हा हा ! दण्डका !
मेरे केलि-निधान !
लेकर जल मेरे नयन-युगल का
दैव तुरन्त करे तेरी शान्ति विधान,
तो मैं अपने को धन्य समझती ॥’

तदुपरान्त आ
मिलकर अयोध्या
सती के सामने
शोक-गद्गद दुःख-विकृत स्वन में,
कम्पित-अधर लज्जा-विनत वचन में
लगी राजलक्ष्मी का पत्र पाठ करने ॥

‘सखि ! मैं रजनी,
तू थी चाँदनी ।
मेरे प्रफुल्ल नयन-कुमुद मूँद
बिदाई तूने ले ली ।
तेरे बिना, अरी प्यारी !
और नहीं मेरे सुख की एक भी बूँद ।
बन गई है तेरी यह सहेली
जैसे आभरण-शून्या नारी ॥

आज राजभवन
बन गया है वन ।
तेरा विरह-दावानल उधर
सब नष्ट कर चुका समाकर भीतर ।
फिर बची है क्या
पूर्व सौन्दर्य-विलास-चर्या ?

जल चुके उल्लास-पल्लव-बहुल
विशाल साधु-हृदय-पादप-कुल ।
सुहास-सुरभित प्रसून समस्त
ओह ! अनायास वहाँ हो चुके विध्वस्त ॥

शान्ति-हरिणी-दल
साथ धीरज-गज सकल
विषाद-धूम से व्याकुल-जीवन
जाकर उदर में तितिक्षा-सरिता के
अपना अपना तन
आकण्ठ डुबा चुके ॥

खल-हृदय बलवान् श्वापद वहीं,
उस विपत्ति ने उन्हें भी छोड़ा नहीं ।
केवल श्रीरघुवर के
हृदय-सागर के
अथाह गर्भ में गहन,
वह बन गया है बड़वा-दहन ॥

जैसे राहु-कवलित कलेवर कलाकर का,
तेरे बिना बाकी है केवल आकार नरेश्वर का ।
मणिमय भवन में
छा गया है अन्धकार,
तारा-पूरित गगन में
अम्बुद जिस प्रकार ॥

बैठी हैं श्वश्रूगण विदीर्ण-हृदया
जैसे पुष्करिणी शुष्क-तोया ।
मणि जैसे सर्पिणी की प्राण-सम्पत्ति,
उससे अधिक तुझे वे मानतीं सम्प्रति ॥

बन्द हो चुके
द्वार प्रमद-वन के ।
किसकी दृष्टि में फिर आयेगी सुमन ?
पतित पुष्प-राशि को उधर
सुखा रहे मुस्तक समस्त उठकर
गन्ध-वणिक् बन ॥

शुष्क हो रहे लता-वृक्ष-निकर
तेरी स्मृति में दुःख-विह्वल मन ।
संगमर्मर-निर्मित मनोरम मार्ग पर
शुष्क पत्रों ने बनाये हैं आसन ॥

प्रभु की बात मान सभी देवर
विनत-शीश हैं विषादित-अन्तर ।
उरग जैसे मन्त्र से हीन-बल
या निशित अंकुश से शंकित दन्तावल ॥

भगिनियों के कपोल-परिसर
निर्भर कर रहे कर-सरोज पर ।
दिनों दिन तन उनके हो रहे कृश
कृष्णपक्ष के ऋक्षपति सदृश ॥

मृदंग-मुख छुए बिना संगीत-संगिनियाँ
बैठी हैं अपने आप गूंगी वहाँ ।
जी रही हैं व्यथा ले गहरी
बासी सुमन-सी दासियाँ तेरी ॥’

पत्र-पाठ -समाप्ति के पूर्व ही अयोध्या
बैठ गयी मलिन-रूपसी अधैर्या ।
दशा उसकी देखते ही
करुणामयी वैदेही
विवश हो गयीं अपने आप
पाकर अत्यन्त क्षोभ सन्ताप ॥

आ गया दिवस का अवसान अभी,
अपने निवास लौट चले अतिथि सभी ।
तापसियाँ सती को सप्रेम संग लेकर
हो गयीं अपने अपने कार्यों में तत्पर ॥

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[पादटीका :
(१) सम्बलपुर के पास महानदी-गर्भ में ‘हीराकुद’ नाम का एक क्षुद्र द्वीप है । यहाँ हीरा मिलनेकी जनश्रुति है ।
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(तपस्विनी काव्य का अष्टम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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