Wednesday, August 3, 2011

Tapasvini Kavya Canto-5 (‘तपस्विनी’ काव्य पञ्चम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)

TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)

Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-5 has been taken from pages 90-100 of my Hindi 'Tapasvini' Book

Published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition 2000]
For Introduction, please see : ' Tapasvini : Ek Parichaya '
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

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Tapasvini [Canto-5]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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पञ्चम सर्ग
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राजोद्यान-सुषमा पारावार-तरंग
शीश पर धारण कर प्रसून -फेन-सम्भार ।
चरण-पुलिन में जिन सती-रतन के,
नख-मोती-ज्योति-सेवन से थी समुज्ज्वल,
उनका मंगल आगमन निहार
हर्षोल्लसित हो उठे संग संग
मुनि-उपवन के
पादप व्रतती कुसुम सकल ॥ (१)

एक तो मधुमय समय कुसुमाकर ;
फिर बालारुण की किरण सुनहरी,
हिम-सिक्त पल्लवों में प्रसारित हो सुन्दर
कर रही लीला रंगभरी ।
शिशिर-बूँदों में बिखरी
दिखला विचित्र कारीगरी
रच रही अगणित हीरे नीलम
मोती माणिक्य मनोरम ॥ (२)

सूर्य-प्रभ मणिराशि-विभूषित दशानन के
दशमुखों का ज्योति-गर्व था हर लिया
सतीकुल-रत्न के
जिन पावन चरणों ने,
मुनि-उद्यान में पधार आज उन्हों ने
मानो वही सारा मणि-गर्व बिखरा दिया ॥ (३)

सती का हृदय
श्यामल राममय ।
उसे हर ले तरु सकल
क्रम से बन गये घन-श्यामल ।
सती-मन की शरण पति केवल;
उनकी अंग-प्रभाओं ने आकर्षित होकर
सुमनों में क्रम से चल
बनाया अपना अपना घर ॥ (४)

भ्रमर ने ले ली केशों की चमक,
शरीर की आभा-सम्पदा ले गया चम्पक ।
लालिमा अधर-युगल की
जबा-पुष्प के पास चली
और गयीं सभी बाकी
जिसमे जिसकी थी रुचि भली ।
सब कान्तिमय उज्ज्वल
बन गये उस पल ।
मानो स्वर्गलक्ष्मी ने धरा पर पधार
बनाया उस उद्यान को अपना लीलागार ॥ (५)

सती की कान्ति
थी सुधा की भाँति ।
फूलों में आ बसा
मधु अमृत-सा ।
मृदुता मञ्जुता दोनों ने चल उसी प्रकार
फूलों के अंगों में किया स्थायी विहार ।
नीरस जीवन में
प्रभा-रहित तन में
हो गयीं काननवासिनी
तपस्विनी बन सती जनक-नन्दिनी ॥ (६)

करने सती का सत्कार विधान
रातभर सुन्दर चन्द्रातप तान
हेम-सुमनों के लम्बन
बनाये थे ऊर्णनाभों ने सुशोभन ।
कनक-गोलक रूप पक्व नागरंग
शत-शत डोल रहे थे उनके संग ॥ (७)

पङ्क्तियों में पत्र-पताका पकड़ी
रम्भा-सुन्दरी थी खड़ी ।
सुन्दर मुचुकुन्द, कुन्द,
साथ माधवी, नियाली, वकुल,
ये सभी वल्लरीवृन्द
निहार रही थीं ले पुष्पपुञ्ज मञ्जुल ।
समीप थी नवीना रजनीगन्धा,
सुमनों से था शोभित जूड़ा बँधा ॥ (८)

जब पहुँचीं उनके समीप जाकर
सखियों के संग जनक-तनूजा,
मृदुल बयार से पुलकित काया
किसीने चूम लिया सती का सिर
उस पर सुमन-माला सजाकर ।
किसीने हाथ मिलाया,
किसीने आलिंगन किया फिर
किसीने की चरणों की पूजा ॥ (९)

सुन्दर लोहित पैर लेहन करने
जिह्वा लम्बी कर दी पारिजात ने ।
मोती-द्युतिमय नख
चूमने की कामना रख
रहा अपना बदन खोल अनार ।
करुणा-ऋण पाने की आशा लेकर
चीनीचम्पा बन गयी हरिद्वर्णा उधर
राम-रूप के अनुसार ॥ (१०)

इन्दुकला-सम कोमल सुहावने
बाल-पादप सब स्थान-स्थान पर
उठाकर मस्तक अपने
झाँक रहे थे बाड़े के ऊपर
सती की ओर प्यासी आँखों में ।
नहीं उठ पाये जिनके मस्तक,
दर्शन करने एक झलक
वे बाड़े के भीतर ही
हो उठे अत्यन्त आग्रही
रन्ध्र की राहों में ॥ (११)

वृक्षों के बाड़े पर बैठी हुईं
चाञ्ची और फूलचुईं
सती की ओर थीं निहार रही,
कभी कभी गुञ्जार रही ।
पूँछ रही सानन्द हिल;
भावना रही, सती जब डालेंगी सलिल
सब आलबाल में बैठकर
नीर पान करेंगी निडर ॥ (१२)

ऊर्णनाभ कभी सती के पाँव गिर
पादप के ऊपर उठ रहा फिर ।
तरु से तरु पर लगा चञ्चल छलांग
कर रहा अपना सर्वांग
कारु-कौशल प्रदर्शन ।
उसका सूक्ष्म सूत्र-पुञ्ज शोभन,
कई रंगों से रंग रहे दिनकर
चित्रकर बनकर ॥ (१३)

स्वभाव से श्यामल-पत्रपूर्ण तरु सकल ;
तरु-शिखासीन कहीं चञ्चल
चञ्चू-मार्जन से समुज्ज्वल लगतीं
मरकत-कान्तिमय ठिण्ठिणी-पङ्क्तियाँ,
श्याम सागर की ऊर्मियों में लेटतीं
जैसे अंशुमान् की रश्मियाँ ॥ (१४)

प्रीति-प्रभामय
श्रीरामचन्द्र का हृदय
अस्थिर होकर राजसिंहासन में
मानो दौड़ आया है उपवन में
मिटाने सती की अन्तर्वेदना ।
नयन-रञ्जिनी मञ्जुल ज्योति वही
स्वाती-सलिल की भाँति कर रही
सती-हृदय में प्रेम-मोती की सर्जना ॥ (१५)

कहीं पर पनस-वन गहन,
कहीं अम्बर-चुम्बी आम्रवन ।
आम्रवन के तलप्रान्त में नभ था दृश्यमान
प्राकृतिक झील-सलिल के समान ।
तरु-शाखाएँ शत-शत
थीं प्रतीत हो रही,
जैसे सबने एकमत
निर्माण किया है कानन वही ॥ (१६)

शान्ति-सरोवर के तट निर्जन
मानो आश्रय लिया है तापस-समुदाय ने ।
गुरु विघ्नभार बहन कर
अपने सिर पर
मौन निश्चल गंभीर भाव सहित,
मानो कर रहे थे अवलोकन
सती सीता पर पतित
शीतांशु-खरांशु-रश्मियों का सन्ताप शान्त करने ॥ (१७)

प्रियंगु-संगत रम्य इंगुदी-कानन
कहीं बना चुके श्यामल भवन ।
रही वहाँ सरस स्वर-मधु वितर
श्यामा नववधू बनकर ।
इन्द्रनीलों से भव्य निलय बना
शचीदेवी इन्द्रादेश के अनुसार
मानो अर्पण करने नीराजना
सती को बुला रहीं वहीं पधार ॥ (१८)


चिक्कण उज्ज्वल नील पर्ण शोभन
अत्यन्त श्यामल पुन्नाग-वन
उड़िशा से उड़ गया था क्या ?
और सती का मन रंग दिया ।
नीलाचल-रूप धारण कर
मानो वह था स्वयम्
श्रीरामचन्द्र मनोरम,
प्राप्त करने सीता के प्रेम-सिन्धु की लहर ॥ (१९)

उद्यान में सती ने एक बार
सखियों के साथ किया विहार ।
आर्यावर्त्त-उर पर क्या भागीरथी
सखियों के संग अग्रसर थी ?
मार्ग भाने लगा सुन्दर
गन्धर्वबाला-विलसित चैत्ररथ का उपहास कर ॥ (२०)

तदुपरान्त ले तमसा-सलिल
आलबालों में भर दिया सबने मिल ।
जैसे नन्दन-वन में डालतीं
नीर मन्दाकिनी का
स्वर्ग-सुन्दरी कन्याएँ ;
जैसे प्लावित करतीं
उर मेदिनी का
सिन्धु-जल लेकर घटाएँ ॥ (२१)

कटि-तट आँचल कस
वे चल रहीं स्फूर्त्त निरलस ।
रूक्ष-कुन्तल मस्तक पर अपने
रखे थे कलस सुहावने ।
स्वेद-सरस था ललाट-परिसर,
पोंछ रही थीं हस्त उठाकर ।
बीच-बीच में ताक एक बार प्रतीक्षा की,
मन्दगामिनी राजनन्दिनी सीता की ॥ (२२)

अनुकम्पा इसी समय पधार
बोलीं वचन मधुमय सदुलार :
‘मेरी सीता सती
नीर बहना नहीं जानती ।
उसके सुकुमार प्राणों में व्यथा
हो रही होगी सर्वथा ।
अधिक श्रम मत करने दो,
केवल निहारने दो
उद्यान को एक झलक ।
पहली बार आई है यहाँ तक ॥ (२३)

आ जा, आ माँ !
बैठें शीतल छाया में यहाँ ।
मत कर दूसरा प्रयास,
आश्रम-रीति कुछ बताऊंगी तेरे पास ।’
अनुकम्पा कहकर इस प्रकार
ले गयीं दिखला प्यार ।
संग बैठीं सीता छाया में उधर,
नीर लाने हो गयीं तापसियाँ तत्पर ॥ (२४)

अनुकम्पा वहाँ बोलीं : ‘वत्से !
लोग कार्य करते श्रद्धा से ।
सुमन-सुमन में
जैसे तरह-तरह की महक रहती,
जीवन-जीवन में
वैसे श्रद्धा बसती ।
फल प्रदान करती स्वभावानुसार
दैवी, मानवी और आसुरी, श्रद्धा तीन प्रकार ॥ (२५)

दम्भ में, अहंकार में, काम-पोषण में, आसक्ति में,
आत्माकर्षण में, शारीरिक-शक्ति में
तप करते असुर-स्वभावी मानव ।
तेरे स्वभाव में ये नहीं संभव ।
देव-द्विज-गुरु-विद्वज्जनों का पूजन
करती तू शुद्ध-मन,
पवित्रता, सरलता तथा
श्रद्धा के साथ सर्वथा ॥ (२६)

शान्तिदायक सत्य प्रिय वचन
तेरे जीवन का प्यारा मण्डन ।
कपट तेरे मन को स्पर्श कर नहीं पाया;
फिर पास कैसे प्रवेश कर सकेगी माया ?
तेरी कमनीय सौम्य मूर्त्ति बताती यहीं,
विषय-गहन में तेरा अनुराग और नहीं ॥ (२७)

अरी वत्से !
तपस्विती तू दैव-स्वभाव से ।
दर्शन-मात्र से लिया मैंने तुझे पहचान,
अत्यन्त सुकुमार तेरे पवित्र प्रान ।
घोर तपस्या का है दुर्लभ फल;
पुण्य-वल्लरियों का फूल,
नयी तापसियों का श्रम सकल
नहीं उसका अनुकूल ॥ (२८)

तू जल लाती रहेगी
कुमारियों के संग रहकर तुम्बी भर
और जलाती रहेगी
उनका उत्साह-दीपक निरन्तर ।
छोड़ेंगे नहीं वे तेरे पास,
उन्हें समझा दिया है मैंने ।
झेल सारी भूख प्यास
तू लजाएगी नहीं पान-भोजन करने ॥ (२९)

कभी-कभी कन्याओं का उद्यान में हो काम
बस तू कर लेगी आराम ।
जिस वस्तु के लिये जब इच्छा होगी तेरी,
कन्याएँ पहुँचा देंगी न करके देरी ।
स्वयं विहर उद्यान में तू,
अपनी इच्छा के अनुसार
फल-पुष्प चयन हेतु
करेगी नहीं मन में शंका किसी प्रकार ॥’ (३०)

हो गयी प्रातः सप्त वादन बेला,
बैठ गयीं अनुकम्पा के निकट
अपने साथ ला
समस्त शून्य घट,
एक-एक हो धीरे से
स्विन्न-देहा कुमारियाँ ।
खिली धूस्तुर सुमन के पास जैसे
कुछ फल और पास ओसभरी कलियाँ ॥ (३१)


वहीं से उठ सम्पन्न कर स्नान दुबारा
सब लौट चलीं अपने आगार ।
लाये गये थे जो फलमूल तापसों द्वारा
सबने सादर किया आहार ।
मध्याह्न-बेला तापस-तापसियों ने बितायी
अध्ययन-अध्यापन करके नियमानुयायी ॥ (३२)

तापस-तापसियों के भरपूर
स्नेह-सुख ने भगा दिया दूर
समस्त व्यथाओं को सती-मन की ।
स्मृति की राह में उनकी
विलासमय राजसुख वहीं
एक बार भ्रमवश भी आया नहीं ।
उनके विमल हृदय-सरोवर में अविराम
विहर रहे राम-राजहंस अभिराम ॥ (३३)

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(तपस्विनी काव्य का पञ्चम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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