Saturday, August 20, 2011

Tapasvini Kavya Canto-10 (‘तपस्विनी’ काव्य दशम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)


TAPASVINI
Original Oriya Mahakavya by :
Svabhava-Kavi Gangadhara Meher (1862-1924)

Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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[Canto-10 has been taken from pages 180-190 from my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see :
' Tapasvini : Ek Parichaya'
Link : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html

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Tapasvini [Canto-10]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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दशम सर्ग
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पाकर तनय-रत्नद्वय
यत्न करके प्राणातिशय
तत्पर हुईं लालन-पालन में जनक-तनया,
निविड़ स्नेह-बन्धन लग गया ।
एक पल न छोड़ा समीप उनका,
हल्का समझा भार जीवन का ॥ (१)

स्नानार्थ दिन में एक बार वैदेही
थोड़ी दूरी में रहतीं तो आर्द्र वस्त्र में ही
दौड़ चली आतीं सत्वर
अत्यन्त व्याकुल-अन्तर ।
व्यग्र रहता उनका जीवन
करने नन्दनों के वदनारविन्द दर्शन ॥ (२)

शर्वरीश-कला का गर्व कुचल
बढ़ने लगे कुमारों के अंग युगल ।
आनन पूर्ण सोम समान
दिनोंदिन बने सौन्दर्य-निधान ।
मुख जननी का वे लगे पहचानने,
उन्मुख होने लगे गोद में उठने ॥ (३)

हँसते थे माता का मुख निहार,
गोद ढूँढ तुरन्त रोते ।
जननी वहाँ करके दुलार
गोद में बिठाने से आनन्द-झूलों में मस्त होते ।
निहार वदन बारबार
हँसते-हँसते हँसाते थे युगल कुमार ॥ (४)

मन में नहीं थी सती की कल्पना,
देखा भी नहीं था सपना ।
अपने दग्ध वदन में पुनर्बार
छा जायेगा मुस्कान का निखार ।
अपूर्व सुख की अपूर्व मुस्कुराहट
अपने आप हो जाती थी प्रकट ।
स्वामी ने नहीं लिया उस सुख का हिस्सा,
सोचकर मन में ऐसा
अपने भाग्य को सती
प्रतिदिवस थीं कोसती ॥ (५)

वदन-सरोज में रदन के बहाने
विराज समुज्ज्वल वाग्‌देवता ने
निसर्ग ज्योति बिखराई अपनी
कुन्द-चन्द्र-हिम-मोती-जयिनी सुहावनी ।
बजाई पहले वीणा मनोरमा,
सजाकर सुर
मृदुल मधुर
मा मा मा मा मा मा ॥ (६)
[1]

वही स्वर्गीय स्वन मलय पवन बन
पल्लवित करता जननी का जीवन ।
माता के अधरोष्ठ पर संग-संग
निखर आता प्रवाल-पाटल रंग ।
बढ़ती थीं दशन-पुष्प की कलियाँ उधर
लेकर चाँदनी की आभा सुन्दर ॥ (७)

मन भास्कर-सा भास्वर,
अधिकार कर इन्द्रासन का,
[2]
कुबेर-कोष की ओर हो अग्रसर
ससन्तोष बढ़ाता था प्रभाव वदन का ।
सोचता, अपना हस्तगत अभी
संसार सुख सौभाग्य सभी ॥ (८)

वाणी तुतली बोलने लगे दोनों कुमार
अधखिले सरसिज जिस प्रकार ।
उन भारती के हाव मनोरम,
नयन-विलास, लावण्य-विभ्रम
और सौम्य वेश निहार
होता था सती-प्राणों में पुलक-संचार ।
मोह था नृत्य-तत्पर
मन-भवन में निरन्तर ॥ (९)

बैठे चले
धरती के तले
धीरे-धीरे दोनों प्यारे
जानु-करतलों के सहारे ।
कुछ दूरी में ठहर
सती ने सहर्ष पुकार कर
चलन-शक्ति उनकी बढ़ाई ।
मुस्कुराकर सकौतूहल
माता के समीप चंचल
चले जाते दोनों भाई ॥ (१०)

कभी हाथों में मिट्टी लेते,
जिह्वा पंकिल कर देते ।
माता सुन्दर फल पकड़वातीं उन्हें,
वदन हिलाकर फेंकते मुन्ने ।
चारु चूर्ण चिकुर डोलकर भाते,
जैसे अरविन्द पर मिलिन्द मँडराते ॥ (११)

माता के हाथ थाम होने लगे खड़े ;
क्रम से अपने पैरों पर
दोनों करके निर्भर
चलने लगे हाथ पकड़े ।
अपने आप चरण चला फिर
क्रन्दन करते थे जब जाते गिर,
तब सती चूम सौम्य वदन
प्रसन्न करातीं उनका मन ॥ (१२)

वन-पंछियों को दोनों पुकारते,
सकौतुक उनका मनोहर रंग निहारते ।
मयूरों को पकड़ने दौड़ते,
पंखों को चाहते समीप जाकर ।
मृग-छौनों को पकड़ क्रीड़ा करते
सुमनों से उनका वेश सजाकर ॥ (१३)

कुमारों को ले घुमाते कानन के भीतर
तापस-तापसीगण प्रफुल्ल-अन्तर ।
उनके मस्तक और कपोल
सुमन-मालाओं से सजाते,
कुसुमित लताओं के झूलों में झुलाते ।
‘और’ ‘और’ बोल
हठ करते युगल सहोदर
खुशियों की कलियाँ खिलाकर ॥ (१४)

कुमारों के उज्ज्वल श्याम कलेवर
फूलों के झूलों में लगते नयन-प्रीतिकर ।
वनलक्ष्मी जैसे नथिया सुन्दर
लाड़ से डुलाती हरिन्मणि से अलंकृत कर ।
तरु-शाखा डोलने लगती
संग ले मस्ती ।
हँसी उड़ाकर दूसरी शोभाओं की,
दिखलाती भंगी भौहों की ॥ (१५)

मृगराज-बल से कुमारों को मण्डित कर
क्रम से बीत गये पाँच वत्सर ।
सरिता, उद्यान, शाद्वल, कानन में विहार
करने लगे स्वच्छन्द युगल कुमार ।
श्वापद-विपदाओं को मानता नहीं तनिक
उनका मन निर्भीक ॥ (१६)

चूड़ाकर्म कुमारों का उधर
सम्पन्न कर यथाविधान
ज्ञानोदधि महर्षि वाल्मीकि ने
बना दिये उन्हें
केशरी बलवान्,
लाकर सुदुस्तर विद्या-वन के भीतर ।
अज्ञान-कुञ्जरों का करने लगे संहार
वहाँ विहर दोनों कुमार ॥ (१७)

रस-रत्नभरा काव्य-सानुमान्
जहाँ राम-मृगराज विराजमान ।
रावण-गज की रुधिर-धार झर-झर
बहती बनकर निर्झर ।
रोतीं सिंही आश्रय कर गिरि-कन्दरा
झेल दन्तावल के दन्ताघात का दुःख गहरा ॥ (१८)

ऋषि-शेखर ने उस शैल के शिखर
कौशल से कुमारों को चढ़ाकर
खिलवाया उन्हें मृग-शावक मान,
परन्तु वे खेलने लगे शार्दूल समान ।
रामचन्द्र को किया मृगेन्द्र ज्ञान
सिंह-शावकों ने पिता को न पहचान ॥ (१९)

माता के समीप युगल नन्दन
करते महर्षि-प्रणीत रामायण गायन ।
वीणा बजाकर तान-लय संग सुस्वर
रामभक्ति-रस में मन डुबाते,
प्रेम-लहरों में अस्थिर होकर
अपने मस्तक नयन डुलाते ॥ (२०)

गान-गान में होते प्रकटित
तर्जन, गर्जन, विलाप हास्य सहित ।
स्फीत हो उठते वक्षस्थल
साथ बाहु-युगल ।
कभी-कभी बहने लगता
नयनों से नीर ।
काव्य-भाव की विद्युल्लता
प्राणों में समा जाती गभीर ॥ (२१)

कुमारों की रसना में रम्य-मूर्त्ति शोभना
निर्मल समुज्ज्वल नवीन भारती,
करके विचित्र मधुर लास्य रचना
थीं उल्लास वितरती ।
बरसाता उल्लास वही बनकर बादल
प्राण-प्राण में पीयूष-धारा सुविमल ॥ (२२)

तापसियाँ सीता के संग उधर
विशुद्ध संगीत-सुधा पानकर
हर्ष विषाद शान्ति सन्ताप सहित
सुख दुःख अनुभव करतीं अमित ।
आनन्द-क्षोभ से जाता हृदय पिघल,
बह जाता नयनों से अश्रु-जल ॥ (२३)

रामायण-नायक राघव के हृदय-हार की
मध्य-मणी जो जानकी,
कुमारों की हैं गर्भधारिणी जननी,
भागीरथी-तट-काननवासिनी बनी ।
थी यही बात
कुमारों को अज्ञात ।
छुपा उसे रखा था
महर्षि के निषेध ने सर्वथा ॥ (२४)

गाते राम-सीता के गुण-गौरव
अतिशय उत्सुकता से कुश लव ।
लज्जित रहतीं सती ले श्रवण-रस,
सुख में डुबा देतीं मानस ।
गोपन रख अपनेको सावधान
समय यापन करतीं तापसी-समान ॥ (२५)

रमणीय काव्य रामायण
सुन विमुग्ध मृगगण
लगा श्रुति करते ध्यान
निश्चल नयनों में काष्ठ-मृग समान,
भूल सब आहार ग्रास
विचरण प्यास ।
भरते मौन विहंगकुल
हृदय में श्रुति-संपत्ति अतुल ॥ (२६)

पादपगण पूर्णकुण्ड-कवरी के अन्दर
भर पुष्प-गुच्छ सुन्दर
अनुगान में रहते मगन,
करके साभिनय लता-हस्त की भंगी प्रदर्शन ।
लेटती रहती विभोर तमसा
अपूर्व आनन्द में विमुग्ध-मानसा ॥ (२७)

वसुधा के उर पर
धन्यवाद-ध्वनि में नृत्य-तत्पर
सुधा बहने लगती ।
चहुँदिशाओं से आये वनवासी-जन
उसी धारा में रहते मगन ।
अशेष श्रुति-गह्वर में उछल
अमरावती को प्रतिपल
वही धारा प्लावित करती ॥ (२८)

ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र आदि देवगण
वही गान सुन करते धन्यवाद अर्पण ।
प्रतीची, प्राची,
उदीची, अवाची,
सारी दिशा-सुन्दरियाँ
नृत्य करतीं ले मस्तियाँ ।
अपने गान-गर्व की टोकरियाँ बिखराकर
संग गन्धर्वों के अप्सरायें रहतीं तत्पर ॥ (२९)

लोक-लोक में करके विहार
व्यक्त करने लगे हर्ष अपार
मुक्त-कण्ठ मधुस्वर
नारद मुनिवर,
प्रशंसा कर वाल्मीकि-कविता-रस की,
सीता-राम के विमल यश की,
उनके पुत्रों के गायन की
और सुधावर्षी वीणा-निस्वन की ॥ (३०)

विश्व-विश्रुत जिनकी
अपनी वल्लकी,
वे बालकों की वल्लकी से आनन्दित स्वयम्
उसे कहकर उत्तम
प्रचार करने हुए तत्पर,
धन्य धन्य वे मुनिवर ।
दूसरों की प्रशंसा की प्रफुल्ल-मन,
साथ साथ किया अपना गौरव वर्धन ॥ (३१)

अपने गुणों के रहते लोग मुक्तस्वर
दूसरों के सद्गुणों की प्रशंसा में प्रवीण होकर
स्वगुण-पादप फलाते ।
धनुर्गुण से ही तीर चलाये जाते ।
सुमन-सुगन्ध ले समीरण
करता संसार में अधिक आनन्द वितरण ॥ (३२)

एकादश-वर्ष-वयस्क
हुए जब युगल बालक,
सम्पन्न हुआ उनका उपनयन ।
वेदाध्ययन बाद प्राप्त किये ज्ञान-नयन ।
प्रतिभा देख वेदज्ञ युगल सन्तान की
सारा दुःख त्याग देतीं जानकी ॥ (३३)

यमुना-नीर में अरुण-किरण की भाँति
नवीन तरुण रमणीय कान्ति
विचित्र कौशल दरशाकर
यमज कुमारों के श्यामल कलेवर में इधर
धीरे-धीरे लगी मण्डन करने,
वरुण-भण्डार से ऋण लेकर रत्न-किरनें ॥ (३४)

उनकी ज्ञान-मार्जित भाषा अपनी
श्रुति-हृदय की बनी पावनी ।
भाषानुसार हुआ व्यवहार,
चरित्र में देवत्व का सञ्चार ।
देदीप्यमान मानस, वचन और कलेवर
तीनों ने जीवन में रची प्रभा की लहर ॥ (३५)

श्लोक पाठ करते जब युगल नन्दन
भर जाता सुख-ज्योति से माता का जीवन ।
शोक-स्मृति की विभावरी
बन जाती अधिकाधिक मनोरञ्जनभरी ।
सुख का मूल्य समझता दुःखीजन,
सदा-सुखी का सुख वहाँ तुल्य नहीं कदाचन ॥ (३६)

निहार तनय-युगल के प्रफुल्ल रूप नूतन
रत्न-स्तूप मानते जननी-नयन ।
पुत्र-प्रशंसा माता की स्मृति में समाती,
सुधा की मधुर धारा बन जाती ।
उसमें स्वामी का सुयश महीयान्
सती के लिये बन गया स्वर्ग-सोपान ॥ (३७)

माता की गोद जिस दिन से त्याग कर
यमज बालक विहरने लगे निडर,
उसी दिन से जानकी अनुक्षण
करने लगीं तपोव्रत आचरण ।
बिताने लगीं अवशिष्ट जीवन
पति-चरणों में समर्पित-मन ॥ (३८)

ग्रीष्मकालीन नदी-प्रवाह की भाँति हो चला
सती जानकी का जीवन दुबला ।
कृष्णपक्षीय चन्द्र तुल्य उसने समझ ली
मृत्यु अमा-रात्री अपनी लक्ष्य-स्थली ।
[3]
स्वामी श्रीराम को मान
अंशुमान् समान
की यही कामना,
उससे संगम होगा अपना ॥ (३९)

सोचतीं सती : ‘ किसी प्रकार
स्वामी के पावन चरण दर्शन कर एक बार
समर्पित कर युगल नन्दन
तोड़ देती मेरे तन का बन्धन ।
उस मुक्ति-वन में प्राण-मृग मेरा
तुरन्त जाकर रचता अपना बसेरा ॥’ (४०)

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(पादटीका :
[1] ‘सा रे गा मा पा धा नि’ - इन सात स्वरॊं में से ‘मा’ स्वर । अन्य अर्थ में ‘माँ’ उच्चारण ।
[2] इन्द्रासन = इन्द्र का आसन और पूर्व दिशा । कुबेर-कोष = कुबेर का भण्डार और उत्तर दिशा ।
[3] अमावस्या में सूर्य-चन्द्र-संगम होता है ।)
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(तपस्विनी काव्य का दशम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]

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