‘Nara O Mayura’ (नर ओ मयूर)
Original Oriya Poem
By : Svabhava-Kavi Gangadhar Meher (1862-1924)
Hindi Translation By : Dr. Harekrishna Meher
(Extracted from ‘Arghya-Thaali’)
नर और मयूर
मूल ओड़िआ कविता : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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बैठे थे नरेश्वर
हस्ती के पृष्ठ पर
चित्रमय राजकीय वस्त्रों से सुन्दर
अपना शरीर सुसज्जित कर ॥
रहकर गिरि-शिखर पर
मयूर वही निहार कर
झेल न सका
कृत्रिम बड़प्पन नरेश का ।
अपनी पूच्छ पसार
बोला केकानाद से पुकार ।
“ हे नरेश्वर !
तुम नहीं हो मेरे-जैसे
सुन्दर या ऊँचे ।
देखो मुझे,
तुम कितने छोटे हो मुझसे ।
फिर किसलिये अपनेको
ऊँचे मानकर
बड़ा गर्व करते हो ?
मेरी पूंछ के साथ
अगर तुलना करोगे सही,
अपने वेश को नरनाथ !
तुच्छ समझोगे निश्चित ही ॥
तुम यदि कहोगे भला
‘ज्ञान होता है मनुष्य का,
कहाँ हो सकेगी पक्षी-जाति
मनुष्य की भाँति ?’
मण्डुक के विकट रव के प्रति
ध्यान देती नहीं मेरी श्रुति ।
मेघ का गर्जन सुनकर ऊपर
रहता हूँ मैं नृत्य-तत्पर ॥
झेल नीच जन का दुर्वचन,
उच्च जन की भर्त्सना
हित समझकर अपना,
करते हो क्या उच्च का अर्चन ?
निगलता हूँ भयानक विषधर भुजंग को;
यदि तुम्हारे हृदय में
विनाश की इच्छा जन्मे,
तो क्या विनाश करते हो ?
इन्द्रधनुष के दर्शन से सदा
मेरे मन में खुशी बढ़ जाती ।
क्या दूसरों की सम्पदा
तुम्हारे मन में आनन्द जगाती ?
जो सुख है मेरा पर्वत पर,
भूमि पर भी सुख है वो ।
अटारी में और कुटीर में, हे नरेश्वर !
क्या तुम समान सुखी रहते हो ?”
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[‘अर्घ्यथाली’ कविता-संकलन से]
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Ref : Nawya (Hindi e-magazine):
http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/अर्घ्यथाली-काव्य-से-दो-कवितायें.html
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