'Taaku Madhya Bolithaanti Dharma-Abataara'
(ताकु मध्य बोलिथान्ति धर्मअबतार)
Original Oriya Poem
By : Svabhaava-Kavi Gangadhar Meher (1862-1924)
Hindi Translation By : Dr. Harekrishna Meher
(Extracted from ‘Arghya-Thaali’)
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‘उसे भी कहते हैं धर्मावतार’
मूल ओड़िआ कविता : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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पराया धन लुण्ठन करने
मन जिसका व्यस्त निरन्तर,
कुचली जाती जिसकी सम्पत्ति
गणिकागण के चरणों पर ।
जिसका जीवन लाखों लोगों का बोझ अपार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥
जिसकी विद्या धर्मनीति का शीश मरोड़ती,
बुद्धि जिसकी सौ सत्यों को चूर डालती ।
धन से खरिदा जाता जिसका विचार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥
हरण कर स्वर्ण का
जो ताम्र दान करता,
धनों से अपने प्रभु का
सन्तोष जगाता रहता ।
दोषोंको ढँकने अर्पण करता कई उपहार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥
भ्रमण खर्च के लिये
प्राप्त करता है भत्ता,
दरिद्रों के मस्तक मरोड़कर
इधर खाता रहता ।
करता रहता क्षमता का अपव्यवहार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥
घर से खाली हाथ निकलता बाहर,
अपने घर भरता गाड़ी-गाड़ी द्रव्य लाकर ।
बाजार दिखलाता उन द्रव्यों को पुनर्बार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥
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[‘अर्घ्यथाली’ कविता-संकलन से]
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Ref : Nawya (Hindi e-magazine):
http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/अर्घ्यथाली-काव्य-से-दो-कवितायें.html
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