Raghuvamsha - Mahakavya - Canto-II.
Original Sanskrit
Epic By : Mahakavi Kalidasa
Oriya Metrical
Translation By : Dr. Harekrishna Meher.
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My Oriya Metrical Translation
of Raghuvamsha - Canto-2
has been completely published in
‘Bartika’,Literary Quarterly,
Dashahara Special Issue,
‘Bartika’,Literary Quarterly,
Dashahara Special Issue,
October-December 2002
of Dasharathapur, Jajpur, Orissa.
This Total Translation is presented as
follows.
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For Introduction and Part - 1 (Verses 1- 41)
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Part-2 (Verses
42-75 End) is presented here.
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रघुवंश - द्वितीय सर्ग
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि
कालिदास
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ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
(राग- बंगळाश्री)
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(द्वितीय भाग : श्लोक
४२-७५)
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(४२)
शिब प्रति बज्र क्षेपणे उद्यत
थिले दिने पुरुहूत,
त्रिलोचनङ्कर निरीक्षण मात्रे
इन्द्र हेले स्तम्भीभूत
।
तादृश ए दशा लभिले दिलीप
य़ोचि न पारिले शर,
रुद्ध-हस्त राजा केशरीकि लक्षि
सत्वर देले उत्तर ॥
*
(४३)
“ मृगेन्द्र ! बिअर्थ हेला मो उद्यम
लाखि रहिबारु हस्त,
उपहसनीय होइब निश्चय
मोर बचन समस्त ।
अशेष प्राणीङ्क अन्तर्गत कथा
गोचर सबु तुम्भरे,
सेथिपाइँ किछि ब्यकत करुछि
मुहिँ तब सम्मुखरे ॥
*
(४४)
प्रभु मृत्युञ्जय मोर पूजनीय,
से त निखिळ बिश्वर,
स्थाबर जङ्गम सकळ प्राणीङ्क
सृष्टि-स्थिति-नाशकर ।
अग्निहोत्री गुरु महर्षिङ्क एहि
अभीष्ट गोधन एबे,
निज नेत्र आगे नष्ट हेबा देखि
सहि न पारिबि केबे ॥
*
(४५)
ए सकाशुँ तुमे गाभी परिबर्त्ते
भक्षि मोर कळेबर,
प्रसन्न मानसे उदर पूराइ
क्षुधा निबारण कर ।
किन्तु मृगराज ! छाड़िदिअ बेगे
गुरुङ्क ए गाभी-धन,
सन्ध्या हेबा जाणि बाळबत्सा
ताङ्क
हेउथिब ब्यग्र-मन ॥”
*
(४६)
राजाङ्क एभळि बाक्य शुणि तीक्ष्ण
दन्त-तेजरे निजरि,
गिरिगुहा-गत तिमिर-राशिकि
बेगे खण्ड खण्ड करि ।
महेश्वरङ्कर पारुश-सेबक
मृगराज स्मित-मुखे,
प्रकाशिला बाणी पुनर्बार नृप
दिलीपङ्कर सम्मुखे ॥
*
(४७)
“बिशाळ महीर तुमे एकच्छत्र
अधिपति हे राजन !
कळेबर तब दिब्य कमनीय
बहिछ नब य़ौबन ।
अळप निमित्त बहु किछि त्याग
करिबाकु बळे मति,
मो मते निश्चय लोप पाइअछि
तुम बिचार-शकति ॥
*
(४८)
जीबे दया बहि एते त्याग य़दि
कर ए धेनु निमन्ते,
तुमकु भक्षिले केबळ ए गाभी
बञ्चिब तुमरि अन्ते ।
प्रजानाथ ! तुमे जीबित रहिले
चिरदिन हेब हित,
पिता परि सर्ब प्रजाङ्कु बिपदुँ
रक्षा करिब निश्चित ॥
*
(४९)
ए गाभीर स्वामी अनळ-प्रतिम
गुरुदेबङ्कर प्रति,
अपराध हेब बोलि तुमे य़दि
डरुछ हे नरपति !
ता हेले पृथुळ स्तनभार-नता
दुग्धबती कोटि गाई,
समर्पि गुरुङ्क क्रोध हरि तुमे
पारिब ताङ्कु मनाइँ ॥
*
(५०)
ए हेतु अनेक मङ्गल-राशिर
प्रिय उपभोगकारी,
महाबली एहि कळेबर तब
रक्षा कर दण्डधारी ।
ज्ञानीमते मर्त्त्ये समृद्ध राज्य हिँ
स्वर्गपुर इन्द्र-पद,
केबळ भूतळ- स्परश मातर
रहिछि एहार भेद ॥”
*
(५१)
दिलीप छामुरे कहि एहिपरि
केशरी होइला तुनि,
शइळ-कन्दर भेदि ता बचन
प्रकाशिला प्रतिध्वनि
।
महीपति प्रति मुदित-हृदये
सते अबा गिरिबर,
सिंहर बाणीकि समर्थन कला
उच्च शबदे सत्वर ॥
*
(५२)
महाराजा एणे पशुराज-कथा
श्रबण कले कर्ण्णरे,
अपर पारुशे देखिले, केशरी
बसिछि नन्दिनी परे ।
कातर नयने चाहिँछन्ति धेनु
लक्ष्य करि नृपतिङ्कि,
दया-परबशे सिंह आगे राजा
निबेदिले भारतीकि ॥
*
(५३)
“आहे मृगराज ! ‘क्षत्रिय’ शबद
संसाररे सुबिदित,
क्षतरु अन्यकु त्राण करे बोलि
क्षत्रिय अर्थ निश्चित
।
तार बिपरीत आचरण
कले
राज्ये किस प्रयोजन ?
किस हेब अबा घेनि अपय़शे
कळङ्कमय जीबन ?
*
(५४)
अन्य दुग्धबती बहु धेनु देइ
महामुनि गुरुङ्कर,
कोपशान्ति अबा कि रूपे सम्भब
हेब आहे सिंहबर ?
सुरभिङ्क ठारु कउणसि रूपे
ऊणा नुहन्ति ए जाण,
शम्भु-तेजे सिना ताङ्करि उपरे
कल तुमे आक्रमण ॥
*
(५५)
ए सकाशुँ मुहिँ नन्दिनीङ्कु
निज
शरीर बिनिमयरे,
तुम कबळरु मुकत करिबि
उचित ए समयरे ।
एपरि कले त तुमरि
पारणा
भङ्ग कदापि नोहिब,
महर्षि गुरुङ्क य़ज्ञादि करमे
बाधा आउ न घटिब ॥
*
(५६)
मृगेन्द्र ! तुमे बि अट पराधीन
तुमकु एहा गोचर,
बहु य़तनरे रक्षा करुअछ
ए देबदारु बृक्षर ।
य़ाहा रक्षा लागि भृत्य नियोजित
से य़ेबे बिनाश य़िब,
भृत्य बञ्चि रहि स्वामी सम्मुखरे
केह्ने मुख देखाइब ?
*
(५७)
हिंसार भाजन नुहेँ मुहिँ य़दि
सिंह ! तुमरि बिचारे,
तेबे मोर कीर्त्ति- कळेबर प्रति
सुकरुणा कर बारे ।
पञ्चभूते गढ़ा भङ्गुर अनित्य
अटइ पार्थिब गात्र,
एपरि पिण्डरे मो परि लोकङ्क
आस्था नाहिँ तिळे मात्र
॥
*
(५८)
कथा आळापरे सम्बन्ध हुअइ
बोलि कहिथान्ति जने,
परस्पर तेबे मित्र हेलुँ आम्भे
मिलन्ते ए घोर बने ।
एथिलागि मोर अनुरोध एते
हे शङ्कर-अनुचर !
मित्रर प्रार्थना उपेक्षा करिबा
उचित नुहे तुमर ॥”
*
(५९)
राजाङ्क कथारे “ताहा हेउ ” बोलि
केशरी कला ब्यकत,
एकाळे राजाङ्क अबरुद्ध
हस्त
सहसा हेला मुकत ।
नरेश दिलीप स्वकीय सकळ
आयुध बरजि बेगे,
मांस-पिण्ड परि कळेबर निज
अर्पिदेले सिंह आगे ॥
*
(६०)
आपणार मुख नत करि राजा
भाबुथिले स्वहृदये,
‘एबे मो उपरे पराक्रमी सिंह
झाम्पि बसिब निश्चये ।’
सेकाळे सकळ- परजा-पाळक
नृप उपरे तत्क्षण,
बिद्याधर-बृन्द आकाशुँ आनन्दे
कले कुसुम बर्षण ॥
*
(६१)
“उठ बत्स !” बोलि इतिमध्ये ताङ्क
श्रबणे सुधा पराय,
मधुर बचन शुभिबारु धीरे
उठिले से नरराय ।
बिलोकिले राजा सम्मुखे निजर
स्नेहमयी माता भळि,
पयस्विनी गाभी रहिछन्ति किन्तु
नाहिँ सिंह महाबळी ॥
*
(६२)
चकित लोचने चाहिँले नरेश
नन्दिनी भाषिले तहिँ,
“हे साधु राजन ! माया रचि तब
परीक्षा करिलि मुहिँ ।
मुनिङ्क प्रभाबे य़म मध्य मोते
करिबाकु आक्रमण,
समर्थ नुहन्ति, किस बा करिबे
अन्य हिंस्र जन्तुगण
?
*
(६३)
गुरु प्रति दृढ़ भकति तुमरि
अशेष दया मो पाशे,
हे बत्स ! प्रसन्न हेलि तुम ठारे
बर माग ए सकाशे ।
जाणि रख मुहिँ क्षीर-प्रदायिनी
नुहेँ गाभी साधारण,
मोहरि प्रसादे सर्ब मनोबाञ्छा
अचिरे हुए पूरण ॥”
*
(६४)
‘बीर’ शबद य़े अरजि अछन्ति
भुजबळरे निजर,
य़ाचक-इष्टद राजा कर य़ोड़ि
मागिले ईप्सित बर ।
‘सुदक्षिणा-गर्भुँ जात हेउ मोर
तनय सौभाग्यबान,
बंशर करता हेउ से अशेष-
य़शोराशि-दीप्तिमान ॥’
*
(६५)
सन्तान निमन्ते य़ाचना करन्ते
दिलीप अबनीश्वर,
‘तथास्तु’ उच्चारि बर देले तोषे
सुकन्या सुरभिङ्कर ।
ऋषि-होमधेनु नन्दिनी आदेश
प्रदानिले ए अन्तरे,
“
पुत्र ! पत्र-पुटे क्षीर दुहिँ मोर
पान कर सुचित्तरे ॥”
*
(६६)
बोइले दिलीप, “मात ! तुम बत्सा
पान करिबा उत्तारे,
होम क्रियाबिधि- शेषे य़ेते क्षीर
बळिब, गुरु-आज्ञारे ।
से सबु सेबन करिबि आनन्दे
अभिळाष ए मोहर,
पृथिबी पाळन करि घेने मुहिँ
य़ेपरि षष्ठांश कर ॥”
*
(67)
एहि परकारे दिलीप नरेश
कले तहिँ निबेदन,
सुरभि-तनुजा ताहा शुणि हेले
अतिशय परसन्न ।
महीपतिङ्कर सहित महर्षि
बशिष्ठङ्क धेनु सुखे,
हिमाद्रि-गुहारु फेरिले ता परे
निजाश्रम अभिमुखे ॥
*
(६८)
नृप-शिरोमणि दिलीपङ्क शुभ्र
बिमळ चन्द्र-मुखर,
आनन्द-चिह्नरु अनुमित थिला
नन्दिनीङ्क कृपा-बर ।
से कथा गुरुङ्क आगे बर्ण्णिबारु
हेला पुनरुक्ति परि,
पश्चाते प्रेयसी- पाशे नरेश्वर
जणाइले मोद भरि ॥
*
(६९)
बत्सा क्षीर पिइ सारन्ते आहुरि
होमक्रिया बिधि शेषे,
साधुजन-प्रिय सुप्रशंसनीय
दिलीप गुरु-आदेशे ।
नन्दिनीङ्क क्षीर
पान कले तोषे
तृषातुर प्राये भूप,
सते शुभ्र य़श मूर्त्तिमन्त होइ
बहिअछि क्षीर रूप ॥
*
(७०)
दिलीपङ्क ब्रत पारणा समाप्त
हेबा परे बिधिमते,
राजकुळ-गुरु संय़मी बशिष्ठ
अन्य दिबस प्रभाते ।
आशीर्बाद देले राज-दम्पतिङ्कि
पथे कल्याण निमित्ते,
तदुत्तारे ताङ्क राजधानी प्रति
प्रेरित कले सुचित्ते ॥
*
(७१)
राजा होमकुण्डे आहुति-प्रापत
अग्निङ्कु भकतिभरे,
प्रदक्षिण कले, गुरु बशिष्ठङ्कु
अरुन्धतीङ्कु तापरे ।
नन्दिनीङ्कु बत्सा सङ्गे प्रदक्षिण
करि चळिले से नृप,
सुमङ्गळाचारे बढ़िला आहुरि
बळ ताङ्क अनुरूप ॥
*
(७२)
सहनशीळ से दिलीप भूपति
सङ्गे घेनि धर्मपत्नी,
रथे बसिय़ान्ते श्रबण-य़ुगळ
रञ्जिला घर्घर ध्वनि ।
बाधा न थिबारु सुख से लभिले
न पाइले क्लेश-लेश,
सते बा सफळ मनोरथे चढ़ि
पथ बाहिले नरेश ॥
*
(७३)
बहुदिनुँ राज- दर्शन न पाइ
ब्यग्र थिले सर्ब जन,
पुत्रलाभ-ब्रत आचरि राजाङ्क
क्षीण थिला अपघन ।
अतृप्त नयने प्रजागण ताङ्कु
अनाइले समुत्सुके,
नबोदित चन्द्र प्रति बारम्बार
निरेखन्ति य़था लोके ॥
*
(७४)
महेन्द्र समान श्रीमन्त दिलीप
अय़ोध्यारे हेले उभा,
स्वागत निमन्ते बहु ध्वजा उड़ि
उच्चे पाउथिले शोभा ।
प्रजाङ्क आदर लभि राजा पुरे
परबेशि पुनर्बार,
नागराज सम महाबळी भुजे
बहिले भूमिर भार ॥
*
(७५)
अत्रि-नेत्र-जात ज्योति चन्द्रमाङ्कु
बहिला य़था गगन,
अग्नि-क्षिप्त रुद्र- तेजकु बहिले
सुर-सरिता य़ेसन ।
दिलीप-बंशर ऐश्वर्य्य़ निमित्त
सुदक्षिणा सेहिपरि,
लोकपाळ-अंशे तेजस्वी गरभ
धारण कले सुन्दरी ॥
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(७६)
कबिकुळगुरु काळिदास-कृत
रघुबंश महाकाब्य,
द्वितीय सरग समापत हेला
सहृदय-जन-भाब्य ।
राजा दिलीपङ्क गोसेबा बर्णित
रम्य पञ्चस्तरी पदे,
मेहेर-श्रीहरे- कृष्ण-बिरचित
ओड़िआ पद्यानुबादे ॥
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(Here ends Dr. Harekrishna Meher’s
Oriya Translation
of Raghuvamsha
Mahakavya - Canto-2.)
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Related Links :
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Raghuvamsha : Odia Version : Blog Link
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Translated
Works of Dr. Harekrishna Meher :
(Tapasvini, Niti-Sataka,
Sringara-Sataka, Vairagya-Sataka, Kumara-Sambhava,
Raghuvamsha, Ritusamhara, Naishadha, Gita-Govinda, Meghaduta etc.)
Link:
Raghuvamsha, Ritusamhara, Naishadha, Gita-Govinda, Meghaduta etc.)
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