‘Meghaduta’
Original Sanskrit Kavya by :
Poet Kalidasa
*
Complete Odia Metrical Translation
by :
Dr. Harekrishna Meher
*
Published in ‘Bartika’, Odia
Literary Quarterly,
October-December 2017,
Dashahara Puja Special Issue,
Pages 690-728, Dasarathapur, Jajpur, Odisha.
Pages 690-728, Dasarathapur, Jajpur, Odisha.
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(Translation done in
1973)
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Complete Meghaduta Odia
Version :
Link :
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* मेघदूत *
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि कालिदास
ओड़िआ पद्यानुवाद (म-आद्यानुप्रास) : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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अनुवादकीय :
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अनुवादकीय :
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॥ १ ॥
महाकवि काळिदासङ्क ‘मेघदूत’ गीतिकाव्य संस्कृतसाहित्यरे एक महत्त्वपूर्ण्ण अनवद्य कृति । निजर साहित्यिक गुण य़ोगुँ एहि काव्य केबळ भारतीय साहित्यरे नुहे, समग्र विश्वसाहित्यरे मध्य अत्यन्त गौरवाबह स्थान लाभ करिपारिछि । देशबिदेशर बिभिन्न भाषारे एहार अनुबाद होइसारिछि । एहि काव्यर नायक हेउछि जणे य़क्ष य़ुबक । से य़क्षपति कुबेर राजाङ्कर सेबक एवं कैळास पर्बतर कोळरे अबस्थित अळकानगरीर अधिबासी । नबबिबाहित हेलापरे प्रिय प्रति अतिशय आसक्ति य़ोगुँ से निज कर्त्तव्यरे अबहेळा करिबारु प्रभु कुबेरङ्क ठारु अभिशाप एवं एकबर्ष पर्य़्यन्त निर्बासन दण्ड पाइछि । फळरे आपणार महिमारु बिच्युत ओ निस्तेज होइ प्रेयसीठारु बहुदूररे रामगिरिर आश्रमरे अबस्थान करिछि ।
आषाढ़-मासर प्रथम दिनरे रामगिरि-शिखररे एक बिशाळ हस्ती परि मेघर आबिर्भाब देखि बिरही य़क्षर अन्तररे प्रेमभाब जागिउठिछि । अळकापुरीरे निज भबनरे एकाकिनी रहुथिबा बिरहिणी प्रियतमा पत्नीकु सान्त्वना प्रदान करिबा निमन्ते मेघकु दूतरूपरे प्रेरण करिछि ओ निज कुशळ अबस्था सह अन्तरर भाबपूर्ण्ण सन्देश जणाइबा लागि अनुरोध करिछि । धूम, अग्नि, जळ ओ पबनर मिश्रणरे निर्मित मेघ त जड़ एवं निर्जीब । सबळ-इन्द्रियधारी चेतन प्राणी सिना बार्त्ताबहन पाइँ य़ोग्य होइथाए । मात्र कौणसि सन्देश पहञ्चाइबा पाइँ अचेतन मेघर सामर्थ्य नाहिँ । प्रकृतिकवि काळिदास ए कथा भलभाबरे जाणिछन्ति ओ लेखिछन्ति मध्य । बिरही य़क्ष अत्यन्त कामातुर हेबा य़ोगुँ चेतन एवं अचेतन मध्यरे भेद निरूपण करिबार शक्ति हराइछि । तेणु प्रियापाखकु शीघ्र निज बार्त्ता पहञ्चाइबा लागि मेघकु अनुरोध करिछि । य़क्ष मेघकु निजर सानभाइ ओ बन्धु बोलि सम्बोधन करिछि । एथिरु य़क्षर स्नेह, आत्मीयता ओ आन्तरिकता हृदयङ्गम कराय़ाइपारे । एहि सम्पर्क-दृष्टिरु य़क्षर प्रिया य़क्षिणीकु मेघर भ्रातृजाया (भाउज) ओ सखीभाबरे मध्य बर्ण्णना कराय़ाइछि । प्रकृतिर बिभिन्न बिभाबकु जीबन्तरूपरे चित्रण करिबारे सिद्धहस्त महाकबि काळिदास प्रकृति ओ मानब मध्यरे भाबपूर्ण्ण एकात्मतार सम्बन्ध दर्शाइछन्ति एवं निर्जीब मेघकु मध्य मनुष्य परि संबेदनशीळ ओ सुखदुःखर अनुभबीरूपरे उपस्थापन करिछन्ति ।
महाप्रभु श्रीहरि (श्रीजगन्नाथ) अनन्त-नागशय़्यारे शयन करन्ति बोलि पुराण-प्रसिद्धि रहिछि । आषाढ़मासर शुक्लपक्ष द्वितीया तिथिरे प्रभुङ्कर रथय़ात्रा महोत्सब अनुष्ठित होइथाए एवं एहि नबदिनात्मक उत्सबरे दशमी तिथिरे पाळित हुए बाहुड़ाय़ात्रा । एहि बाहुड़ादशमीर परदिन एकादशी तिथिरे प्रभुङ्कर शयन आरम्भ हुए । सेथिपाइँ ए दिन ‘हरिशयनी एकादशी’ बोलि परिचित । एहि दिनरु आरम्भ हुए चतुर्मास्या । महाप्रभु चारिमास पर्य्य़न्त शयन करन्ति एवं कार्त्तिक मासर शुक्लपक्ष एकादशी तिथिरे निद्रारु उठन्ति । शयनरु देबताङ्क उठिबा हेतु एहि दिनकु ‘देबोत्थान एकादशी’ कुहाय़ाए । भक्तगण महाप्रभुङ्कु उठाइबा य़ोगुँ एहि दिबसकु ‘देबोत्थापन एकादशी’ बोलि मध्य कहन्ति । मेघदूत काव्यर बर्ण्णनानुसारे आषाढ़ मासर प्रथम दिनरे रामगिरिर शिखररे क्रीड़ारत मेघटिए य़क्षर दृष्टिगोचर होइछि । कबि काळिदासङ्क भाषारे श्लोकटि एहिपरि :
‘आषाढ़स्य प्रथम-दिवसे मेघमाश्लिष्ट-सानुं
वप्रक्रीड़ा-परिणत-गज-प्रेक्षणीयं ददर्श ॥’ (श्लोक-२)
एहि प्रसङ्गरे केतेक आलोचक आषाढ़र ‘प्रथम-दिवस’ बोलि स्वीकार न करि पाठान्तरे ‘प्रशम-दिवस’ अर्थात् अन्तिम दिबस बोलि मतपोषण करन्ति । किन्तु एपरि अन्तिम दिवस मानिले गाणितिक दृष्टिरु एकबर्ष पर्य़्यन्त निर्बासन दण्डर एकमास गणना उपय़ुक्त रूपे होइपारे नाहिँ । सेथिपाइँ ‘प्रथम-दिवस’ पदकु बहु आलोचक स्वीकार करिथान्ति । तेबे ए गणना य़ाहा हेउ पछे, आषाढ़मास बेळकु य़क्ष प्राय आठमास शास्ति भोगिसारिछि । शारङ्ग-धारी महाप्रभु निद्रारु उत्थित हेले अर्थात् ‘देवोत्थान एकादशी’ आसिले कुबेर-राजाङ्क शापरु य़क्ष मुक्तिलाभ करिब । एहि निर्द्दिष्ट दिबस पर्य़्यन्त आउ चारि मासर दण्ड बाकी रहिछि बोलि कबि य़क्ष-मुखरे सूचना प्रदान करिछन्ति । उत्तरमेघरे बर्ण्णित एहि श्लोकटि हेउछि :
‘शापान्तो मे भुजग-शयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणौ
शेषान् मासान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा ।’ (श्लोक-११६)
नब-बिबाहिता बिरहिणी य़क्षिणीकु आश्वासनार बार्त्ता देइ कबि काळिदास दाम्पत्य प्रेमर अटळ बिश्वास एवं आन्तरिक माधुर्य़्यर सुप्रतिपादन करिछन्ति । ताङ्कर लेखनी काव्यिक बिषयबस्तु, सामाजिक जीबनर सुखदुःखभरा कथा एवं नैसर्गिक सौन्दर्य़्यर अम्लान चित्रण माध्यमरे सहृदय काव्यामोदीजनङ्कर अन्तरकु रसाप्लुत करिपारिछि । मेघदूत काव्यर एहि आलोचना सहित आउ एक बिशेष तथ्य रहिछि य़े अष्टादश शताब्दीरे ओड़िशार संस्कृत बिद्वान् महामहोपाध्याय पण्डित नरहरि निजे मेघदूत काव्यर ‘ब्रह्मप्रकाशिका’ टीकारे अन्य एक आभ्यन्तर अर्थ बुझाइछन्ति । प्रसङ्गानुसारे भिन्नअर्थरे से रामगिरिर अर्थात् नीळगिरिर निबासी य़क्षरूपी श्रीजगन्नाथ महाप्रभुङ्कर बिषय तथा रथय़ात्रा आदि उत्सबर माहात्म्य प्रतिपादन करिछन्ति ।
॥ २ ॥
बिषयबस्तु दृष्टिरु मेघदूत काव्य दुइभागरे बिभाजित, पूर्बमेघ ओ उत्तरमेघ । पूर्बमेघरे ६६ श्लोक एवं उत्तरमेघरे ५५ श्लोक रहिछि । एहा व्यतीत अळ्प केते प्रक्षिप्त श्लोक संस्कृत मेघदूत काव्यपुस्तकर केतेक संस्करणरे दृष्टिगोचर हुए । पूर्बमेघरे रामगिरिठारु आरम्भ करि अळकापुरी पर्य़्यन्त मेघर गमन-मार्गर क्रमिक बर्ण्णना रहिछि । माळक्षेत्र, आम्रकूट पर्बत, नर्मदा नदी, बिन्ध्यपर्बत, दशार्ण्ण देश ओ तार राजधानी बिदिशा नगरी, बेत्रबती नदी, नीच पर्बत, निर्बिन्ध्या नदी, काळसिन्धु नदी, अबन्तीदेश ओ तार राजधानी उज्जयिनी, सिप्रा नदी, गन्धबती नदी, महाकाळ मन्दिर, गम्भीरा नदी, शिबपुत्र कार्त्तिकेयङ्क निबास देबगिरि, चर्मण्वती नदी, दशपुर, ब्रह्माबर्त्त, सरस्वती नदी, गङ्गा नदी, पर्बतराज हिमाळय, क्रौञ्चपर्बत, कैळास पर्बत, मानस सरोबर एवं अळकानगरी -- ए सबु भौगोळिक दृष्टिरु कबिङ्क लेखनीरे सरस ओ रमणीय भाबरे चित्रित ।
उत्तरमेघरे बिरहिणी य़क्षपत्नीर शारीरिक ओ मानसिक अबस्था सहित य़क्ष-प्रेरित भाबात्मक सन्देश अत्यन्त हृदयस्पर्शी होइछि । शृङ्गार हेउछि मेघदूत काव्यर मुख्य रस । य़क्ष ओ य़क्षिणी परस्पर ठारु बिच्छेद प्राप्त होइथिबा य़ोगुँ बिप्रलम्भ-शृङ्गारर चित्रण रहिछि । केतेक नदी, अरण्य ओ पर्बत आदिर बर्ण्णना भितरे सम्भोग-शृङ्गारर उदाहरण देखिबाकु मिळे । एपरि बिबिध चित्रण थिले मध्य शिबभक्त कबि काळिदास ऐश्वरिक ओ धार्मिक भाबना सङ्गे भारतीय संस्कृतिर महत्त्व प्रतिष्ठा करिछन्ति । प्रकृतिर नानाप्रकार सुरम्य रूप एवं मानब-जीबनर बिभिन्न अबस्थार चित्रण एहि काव्यरे सरस भाबरे अनुभब कराय़ाइपारे । प्राणीजीबनर सामाजिक दशारे बिभिन्न धर्मशास्त्रगत बिषय मध्य प्रसङ्गानुकूळ भाबरे एथिरे स्थानित ।
बाल्मीकि-रामायणर बर्ण्णना अनुसारे सीतादेबी लङ्कापुरीर अशोकबनरे थिला समयरे बिरही प्रभु श्रीरामचन्द्र हनुमानङ्कु दूत करि प्रियापाखकु सन्देश पठाइथिले । सीतादेबीङ्क प्रति हनुमानङ्क बार्त्ताप्रदान प्रसङ्ग मेघदूतर उत्तरमेघरे बर्ण्णित अछि । संपृक्त श्लोकांश हेउछि :
‘इत्याख्याते पवन-तनयं मैथिलीवोन्मुखी सा ।’ (श्लोक-१०६) ।
रामायणर एहि सीता-हनुमान् उपाख्यान द्वारा अनुप्राणित होइ कबि काळिदास मेघकु दूत रूपे चित्रण करि य़क्षर सन्देश य़क्षिणी निकटकु पठाइछन्ति बोलि बिद्वान् आलोचकमानङ्क मत । संस्कृतर बिख्यात व्याख्याकार मल्लिनाथ मेघदूत काव्यर ‘सञ्जीवनी’ टीकारे एहा प्रकाश करिछन्ति : ‘सीतां प्रति रामस्य हनुमत्-सन्देशं मनसि निधाय मेघ-सन्देशं कविः कृतवान् इति आहुः ।’ एहा व्यतीत काव्यरे आद्य-श्लोकर ‘जनक-तनया--स्नान-पुण्योदकेषु’ पदरे जानकी सीताङ्कर उल्लेख रहिछि । अन्य एक श्लोकरे मध्य रघुपति श्रीरामङ्क उल्लेख रहिछि । कबि कहिछन्ति :
‘आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्ग-मालिङ्ग्य शैलं
वन्द्यैः पुंसां रघुपति-पदैरङ्कितं मेखलासु ।’ (श्लोक-१२)
प्रभु श्रीरामङ्कर पाबन बन्दनीय पाद-चिह्न रामगिरिरे बिद्यमान बोलि बर्ण्णना रहिछि । एहि उल्ळेखमानङ्करु मेघदूतरे रामायणर कथा स्पष्टरूपरे सूचित बोलि जणाय़ाए । कबि काळिदास ‘रघुवंश’ प्रमुख महाकाव्यर रचनाबेळे रामायणद्वारा प्रभाबित होइछन्ति । मेघदूतर अनुशीळनरे मध्य केतेक रामायण-बिषय आलोचनार परिसररे उपनीत होइथाए । सामग्रिक-रूपरे गीतिकाव्य ओ दूतकाव्य भाबरे मेघदूतर लोकप्रियता बिश्व-स्तररे बहुप्रशंसनीय ।
॥ ३ ॥
रेभेन्सा महाबिद्याळय, कटकरे संस्कृत (स्नातक सम्मान) श्रेणीरे अध्ययन करुथिला समयरे १९७३ मसिहारे ‘मेघदूत’ काव्यर ओड़िआ अनुबाद करिथिलि । मूळरु म-बर्ण्ण आद्यानुप्रासरे एहा रचित होइथिला ओ एथिरे कबि-गड़नायकीय शैळीर किछि प्रभाब रहिछि । परे अळ्प केतेक स्थानरे सामान्य परिबर्त्तन कराय़ाइछि एवं अनुप्रास-शैळीकु मध्य सुरक्षित रखाय़ाइछि । मूळ संस्कृतकाव्यर सम्पूर्ण्ण भाबकु ओड़िआ अनुबादरे निज भाषारे य़थासम्भब अक्षुण्ण रखिबा पाइँ प्रयास कराय़ाइछि । अनुप्रास-बिहीन रचनारे लेखकर पदय़ोजना स्वच्छन्द ओ स्वाभाबिक हेबा य़ोगुँ कौणसि प्रतिबन्धक न थाए । किन्तु अनुप्रास-सहित गीतरचना करिबारे, पुणि बिशेषरूपे काव्यरे, शब्दसंय़ोजनार परिसर निर्द्दिष्ट सीमा भितरे आबद्ध होइ रहे । फळरे केतेक शब्दर पुनरुक्ति प्राय परिलक्षित होइथाए । एहि मेघदूत-अनुबादरे प्रासङ्गिकता, आबश्यकता ओ आनुप्रासिकता दृष्टिरु केतेक शब्दर पुनरुक्ति रहिछि । तेबे अर्थबोधरे कौणसि व्यतिक्रम होइनाहिँ । सुधी पाठकबृन्द एहा अनुभब करिपारिबे । इतिमध्यरे बहुबर्ष बितिय़ाइथिले सुद्धा एहि काव्यानुबाद मुद्रित-रूपरे लोकलोचनकु आसिपारि नाहिँ । कारण हेउछि प्रकाशन-सुय़ोगर अभाब । एहिहेतुरु मोर अन्यान्य ओड़िआ-अनूदित काव्य रघुवंश, कुमारसम्भव, गीता आदि एपर्य़्यन्त पूर्ण्ण प्रकाशित होइपारि नाहिँ । प्रत्येक घटणार एक य़ोग थाए बोलि मोर बिश्वास । समय एका बळबान् ।
ओड़िशार सुप्रसिद्ध ओड़िआ त्रैमासिकी ‘बर्त्तिका’र बिभिन्न दशहरा-बिशेषाङ्क-मानङ्करे एथिपूर्बे संस्कृतकाव्यर मदीय ओड़िआ पद्यानुबाद, यथा, भर्त्तृहरि-कृत (नीति-शृङ्गार-बैराग्य)शतकत्रय, श्रीहर्ष-कृत नैषधचरित-नवमसर्ग, जयदेबकृत गीतगोबिन्द (संपूर्ण्ण), काळिदास-कृत ऋतुसंहार (संपूर्ण्ण), रघुवंश-द्वितीय-सर्ग, कुमारसम्भवर प्रथम-द्वितीय-पञ्चम-सप्तम-अष्टम-सर्ग, मेघदूतर संपूर्ण्ण कोशली गीत-अनुबाद (कोशली मेघदूत) प्रभृति प्रकाशित होइ पाठकमहलरे सुपरिचिति लाभ करिछि । एबर्ष दशहरा बिशेषाङ्क-२०१७रे मोर ओड़िआ मेघदूतानुबाद संपूर्ण्ण प्रकाशित हेउछि । एथिपाइँ गुणग्राही संपादक-मण्डळी तथा बिशेषरूपे मुख्यसंपादक डक्टर् नबकिशोर मिश्र महोदयङ्कु मोर आन्तरिक गभीर कृतज्ञता ओ धन्यबाद जणाउछि । सहृदय पाठकबृन्द एहि काव्यानुबादरु आन्तरिक आनन्द लाभ कले मोर परिश्रम सार्थक हेब ।
* हरेकृष्ण मेहेर
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मेघदूत
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उपक्रम
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महाकबि काळि- दास अम्लान
ज्योति संस्कृत साहित्यर,
महीमण्डळे बिमळ कीर्त्ति
बिराजे ताङ्क बिभास्वर ।
माता बाग्देबी- कण्ठे सुबास
काव्यराजिर मनोरम,
माळा सज्जित
करिअछन्ति
बिश्वकबि से अनुपम ।
महानुभब से प्रेमतत्त्वर
आदरशे,
मेघदूत गीति- काव्य रचना
करिअछन्ति आदिरसे ।
*
महादेबङ्क आराधना लागि
पुष्पचयने प्रतिबार,
मानि धनपति- आदेश थिला से
य़क्ष सेबारे तत्पर ।
मात्र से य़ुबा नबबिबाहित
हेला परे,
माति प्रिया साथे कला अबहेळा
कार्य़्यरे ।
महेश-पूजारे बाधा होइबारु
क्रुद्ध-मन,
मानबधर्मा शाप देले बिहि
निर्बासन ।
‘महीधर राम- गिरिरे रह तु
प्रिया-बिच्छेदे बर्षे काळ,
मुक्त होइबु य़थासमयरे
शास्तिरु तुहि आदेश पाळ ।’
मथा पाति सबु सहिला आपणा
करमे,
मन-दुःखरे य़क्ष समय-
आगमे ।
मेघकु निजर प्रेयसी निकटे
दूतरूपे करि प्रेरण,
मदन-आर्त्ते कुशळ बार्त्ता
जणाइथिला से तरुण ।
मेघ-य़क्षर चरित,
मार्मिक गाथा रसभाबराशि-पूरित ॥
*
मेहेर श्रीहरेकृष्णर,
मानस बळिछि ओड़िआ पद्य-
रूप रचने ए काव्यर ।
मर्य़्यादा सह करुछि निजर
सुप्रयास,
म-बर्ण्ण थिब एथिरे आद्य
अनुप्रास ।
मार्जिबे दोष थिले एथि सुधी
जनमाने,
मज्जाइ निज हृदय काव्य-
रसपाने ॥
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ओड़िआ अनुवाद
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मेघदूत : पूर्वमेघ
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Meghaduta
: Part-1: Purva-Megha (1)
Verses
1- 22
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(१)
मैथिळसुता- अबगाहनरे
य़हिँ पबित्र बिराजे बारि ।
महीरुहकुळ छायादाने रत
पत्र-बहुळ ताप निबारि,
मनोरम शोभे पूत रामगिरि-
आश्रमराजि सेहि,
महिमारु निज बञ्चित होइ
य़क्ष तरुण केहि ।
मठे तहिँ कला निबास रचना
प्रेयसीकि झुरि अन्तरे,
मर्मभेदिनी बिरह-बेदना
सह्य करि से बहुदूरे ।
मज्जि प्रियारे हेळा करिबारु
निज कर्मे से अन्यमन,
मुनिब कुबेर शाप देले तारे
बिहि बरषक निर्बासन ॥
*
(२)
मदनातुर से तरुण य़क्ष
झुरि कौणसि
मते,
मास केते प्रिया- बिरह दुःखे
य़ापिला से परबते ।
मणिबन्धटि शून्य दिशिला
ताहार शीर्ण्ण हातरु,
महारजतर कङ्कण खसिय़िबारु ।
मास आषाढ़र प्रथम बासरे
हेला ता नेत्रगोचर,
मेघटिए आसि घोटि रहिअछि
उच्च अचळ शिखर ।
मञ्जुळ से त दिशे कुञ्जर
खेळा करे य़ेउँरूपरे,
माटि उत्पाटि आपणा दन्त
प्रहारि बप्र उपरे ॥
*
(३)
मने कुतूहळ हेबारु बहुत
क्षण बसिरहि मेघ पुरते,
मयुराजङ्क सेबक बाष्प
रोधि चिन्तिला हृदयगते ।
मञ्जुळा प्रिया आपणा पाशरे
थिलेबि त,
मेघ दरशने मानस हुअइ
बिचळित ।
मात्र य़े जन प्रेयसी-कण्ठ-
मिळने आशायी समुत्कण्ठ
रहिअछि बहु
दूरे पुणि,
मर्मभाब ता केउँपरि अबा
हेब गुणि ?
*
(४)
मृदु प्रेयसी मो श्राबण मासर
आगम समीप जाणि,
मानसरे अति दुःख लभिब
अबळा से बिरहिणी ।
मो बिना एकाळे रक्षा करिबा
सकाशे ताहारि पराण,
मेघ माध्यमे आपणा कुशळ
बार्त्ता करिबि प्रेरण ।
मनासि एभळि घेनि से सद्य
फुल्ल कुटज पुष्पमान,
मेघकु लक्षि अर्घ्यरूपरे
अर्पण कला सन्निधान ।
मुदित हृदये मुखे दरशाइ
सादर पीरति आपणार,
मुदिर आगरे स्वागत बचन
जणाइला बिहि सत्कार ॥
*
(५)
मेघ काहिँ ? से त
धूम तेज नीर पबनर,
मिश्रणय़ोगे निर्मित जड़ कळेबर ।
मर्म-भाबित प्रिय सन्देश-
बिषय काहिँ ?
माध्यम साजि निपुणेन्द्रिय
प्राणी पारे य़ाहा पहञ्चाइ ।
मात्र ए कथा
उत्सुकतारु
बिचारि न पारि
से य़ुबक,
मेघ अग्रते गुहारि करिला
गुह्यक ।
मन्मथ-शरे पीड़ित आतुर
य़ेउँजन,
मोह-बिह्वळे बारि पारन्ति
नाहिँ चेतन बा अचेतन ॥
*
(६)
“मेघ हे ! सकळ
लोके प्रसिद्ध सुनाम,
मानी पुष्करा- बर्त्तक कुळे
लभिअछ तुमे जनम ।
मघबानङ्क बिश्वासी अट
मुख्यपुरुष आगुसार,
मुहिँ जाणे, तुमे स्वेच्छारे रूप
बहुपरकारे बहिपार ।
मन्द भाग्य कामिनी-बिरह
घटाइ पेषिला सुदूरे,
मिनति करुछि तुम पाशे मुहिँ
एथिपाइँ अति बिधुरे ।
मूढ़जन पाशे य़ाचना सफळ
हेलेबि त भल
नुहइ ताहा,
मागुणि व्यर्थ हेलेबि से भल
गुणीजनठारे
य़ाचित य़ाहा ॥
*
(७)
मुदिर ! तुमे त तापित जनर
आश्रय,
मोहरि प्रेयसी पाशे नेइय़ाअ
कुशळ बार्त्ता निश्चय ।
मरुछि झुरि मुँ बिच्छेद लभि
एकाळे दुःखे भारि,
मन्यु बहि त शास्ति बिहिले
कुबेर दण्डधारी ।
मेघ हे ! अळका नाम्नी नगरी
चळिय़िब तुमे अग्रसर,
महिमाशाळिनी बासस्थळी से
अटइ य़क्षपतिङ्कर ।
महादेब प्रभु बिराजिछन्ति
से पुरी बाहार उद्यानरे,
मौळिरु बिधु- किरण प्रसरि
सौधराजिकि धौत करे ॥
*
(८)
मरुत्पथरे आरोहि चळिब
तुमे य़ेबे,
मोदित मानसे पान्थबामाए
निरेखिबे ।
मस्तके चारु कुन्तळराजि
उपरकु टेकि
आपणा करे,
मने आश्वास लभिबे प्रबासी
स्वामी फेरिबार
बिश्वासरे ।
मेघ हे ! समीपे दृष्टिगोचर
तुमे हेले,
मिळनकामी के बर बिरहिणी
पत्नीकि तेजिपारे भले ?
मोहरि पराये पराधीन,
मर्य़्यादाहीन सेबारे निरत
होइ न थिब य़े आन जन ॥
*
(९)
मेघ !
सबुठारे स्वेच्छारे चळ,
प्रेयसीकि तुमे
भेटिब तहिँ,
मन-दुःखरे भाउज तुमरि
गणुथिब दिन
मो पथ चाहिँ ।
मृदु फुल परि
अटइ अबळा-हृदय,
मउळि भाङ्गि
पड़े बिरहरे अथय ।
मात्र प्रणयी नायिका-हृदकु
आश्वासि रखे सय़तन,
मिळन-आशार बन्धन ॥
*
(१०)
मरुत बहुछि मन्दगतिरे
अनुकूळभाबे य़ेपरि,
मार्ग तुमरि देखाइ देउछि
आगे आगे से त प्रसरि ।
आगे आगे से त प्रसरि ।
मधु-निस्वने आबर,
मोदे गर्बित चातक कूजइ
सव्य पारुशे तुमर ।
मूरति तुमर नेत्राभिराम
बास्तबरे,
माई बगमाने
आकाशे एकाळे
हर्षभरे ।
माळमाळ होइ आपणा पक्ष
दोहलाइ,
मेघ !
तुम सेबा करिबे निश्चे
गर्भाधानर सुख पाइ ॥
*
(११)
मन्द्र निनाद तुम जनमाए
कन्दळीराजि अपार,
मेदिनी सुफळा करिबा अर्थे
अछि सामर्थ्य ताहार ।
मधुर से नाद शुभिले काने,
मानसरोबर अभिमुखे य़िबे
उत्सुक राजहंसमाने ।
मृणाळ-पत्र- खण्ड कोमळ
पाथेय सञ्चि
घेनि चञ्चूरे निजरि,
मराळपन्ति साथी हेबे तुम
कैळास य़ाए
गगनमार्गे बिहरि ॥
*
(१२)
मध्य भागरे मुद्रित अछि
एहि उन्नत शिखरीर,
मर्त्त्य-भुबन- बन्द्य राघब-
चरण-चिह्न सुरुचिर ।
महीधर ए त
तुम आत्मीय
बन्धु लागे,
मेलाणिकि मागि ताकु आलिङ्गि
य़ाअ हे आगे ।
मिळन होइब तुमरि सङ्गे
ए आशारे,
मेघ !
अपेक्षा करिथाए प्रति
बरषारे ।
मित्रभाबरे दीर्घदिनर
बिरह य़ोगुँ से निजर,
मुञ्चि उषुम बाष्प सेनेह
प्रकाश करइ सादर ॥
*
(१३)
मन देइ तुमे प्रथमे श्रबण
कर त,
मार्ग य़ाहा कि तुमरि गमन-
उचित ।
मुहिँ पश्चाते कहिबइँ,
मङ्गळभरा मधुर बारता
शुणिब कर्णे प्रिया पाइँ ।
शुणिब कर्णे प्रिया पाइँ ।
मार्गे आसिले क्लान्ति तनुरे तब,
महीधरशिखे बिश्राम तुमे नेब ।
मध्ये तृषारे क्षीण हेले निज
अपघन,
मधु लघुनीर झरणारु पिइ
तृप्ति लभिब आहे घन ! ॥
*
(१४)
मुदिर ! ए बेत- भरा पर्बत-
भूमि तेजि तुमे
कले गमन,
मुग्धा सिद्ध- बामाए भाबना
करिबे चकिते
टेकि बदन ।
‘मितणि ! देख ए उच्च शिखर
आकाशे उड़ाइ
निए कि बात’,
माड़िय़िब तहुँ उत्तरे पारि
होइ दिङ्नाग-
कर-आघात ॥
*
(१५)
मनोज्ञ एहि इन्द्रधनुष
बल्मीक आगे
भ्रान्तिकि जनमाए,
मिळि एकत्र सतेबा य़तने
रतन-कान्ति
उज्ज्वळ शोभा पाए ।
मण्डिछि एहि धनु,
मेघ ! तब नीळ तनु ।
मनोहर रूप बहिअछ तुमे
सेहिपरि,
मोहन गोपाळ बेशरे कृष्ण
मयूर-पुच्छे य़ेउँपरि ॥
*
(१६)
मेघ !
कृषि तब इच्छाअधीन,
एथिलागि केते
ग्राम-लळना,
महासमादरे चाहिँबे तुमकु
जाणि नाहान्ति
भूरु-चाळना ।
माळक्षेत्ररे आरोहिब तुमे
बारिबह !
माटि बासुथिब तहिँरे सद्य
हळकर्षणे महमह ।
मन्थर गति करि किञ्चिते
पश्चिमे,
मोड़ि उत्तर मुखरे आगेइ
य़िब तुमे ॥
*
(१७)
मुषळ धारारे आम्रकूटर
दाबानळ बारे
देब लिभाइ,
मस्तके निज आश्रा देब से
तुम उपकार
एतिकि पाइ ।
मित्र-हितरे क्षुद्र बि केबे
सत्कार दाने
बिमुख नुहे,
मेदिनीधर त निजे उन्नत,
ता कथा आउ कि
बर्ण्णिबा हे ! ॥
*
(१८)
माकन्द तरु- राजि चउपाशे
मण्डळाकारे
बिद्यमान,
मधुर पक्व फळरे पूरित
पाण्डुर दिशे
ए सानुमान ।
मसृण बेणीर समान श्यामळ
कळेबर,
मेघ !
तुमे तार शिखे आरोहिब
सत्वर ।
मुहँ तळ करि उपरु सेकाळे सुमन-
मिथुनबृन्द करिबे य़े अबलोकन ।
मही-नायिकार पयोधर परि
दृश्य हेब से पर्बत,
मझिरे श्यामळ, अबशेष भाग
पाण्डुबरण बिस्तृत ॥
*
(१९)
मुहूर्त्तकाळ रहिब सेथिर
बनेचर-बधू-
केळिगृहरे,
मन्द गतिकि तेजि आगेइब
बृष्टिहेतुरु
लघुदेहरे ।
मेकळ-कन्या बहुधारे बहे
उन्नतानते
पादरे बिन्ध्य
गिरिर,
मतङ्गजर देहे भङ्गीरे
बिरचित य़था
शृङ्गार-गार रुचिर ॥
*
(२०)
मत्त कानन- बिहारी बारण
बृन्दर,
मदरस मिशि महकुथिब से
नदी-नीर ।
मधुर कषाय अम्बु थिब ता
जम्बु-कुञ्जे
रुद्ध हेबारु धारा,
मुदिर ! तुमर उदर रिक्त
थिब त आगरु
बर्षाबमन द्वारा ।
मळहीन सेहि जळ पिइब,
मुदित चित्ते आगेइय़िब ।
मेघ !
तुमे हेले अन्तर्जळे
बळबान,
मारुत तुमकु दोळाइ पारिब
नाहिँ जाण ।
मर्य़्यादा आउ गौरब दिए
पूर्ण्णता एका बास्तबिक,
मातर शून्य- सार सर्बदा
निऊन-भाबर परिचायक ॥
*
(२१)
मधुकर-दळ सबुज-पिङ्ग
अर्द्ध-बिकच
नीप कुसुमकु लक्षि,
मृगराजि तोषे जळाभूमि पाशे
नब मुकुळित
कन्दळीमान भक्षि ।
महीर अधिक सुरभि महक
बने आघ्राणि
हस्तीगण,
मार्ग तुमरि सूचाइबे य़िबा
बेळरे बर्षि
सलिळकण ॥
*
(२२)
मदिर चातक नबीन उदक
घेनिबार करि
निरीक्षण,
मने व्यग्रता लभिबे सेकाळे
प्रणयाबद्ध
सिद्धगण ।
मोदे आपणार कर टेकि,
मञ्जु प्रेयसी पाशे देखाइबे
गणि से बळाका-पन्तिकि ।
मन्द्र शबद सिद्धागणर
हृदे जगाइब
आकम्पन,
मानिबे तुमकु सिद्ध सकळ
लभि प्रियाङ्क
आलिङ्गन ॥
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Continued : Meghaduta : Purva-Megha (2):
Verses 23 - 66
Link :
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Complete Odia ‘Meghaduta’
on
Web :
Link :
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Related Links :
Complete ‘Kosali Meghaduta’ :
(Honoured with ‘Dr.
Nilamadhab Panigrahi Samman’
conferred by Sambalpur
University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Odisha in 2010)
Link :
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Translated Kavyas by :
Dr.Harekrishna Meher :
Link :
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