‘Meghaduta’
Original
Sanskrit Kavya by : Poet Kalidasa
*
Complete
Odia Metrical Translation by :
Dr.
Harekrishna Meher
*
Published
in ‘Bartika’, Odia Literary Quarterly,
October-December
2017, Dashahara
Puja Special Issue,
Pages 690-728,
Pages 690-728,
Dasarathapur,
Jajpur, Odisha.
*
(Translation
done in 1973)
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Complete
Meghaduta Odia Version :
Link
:
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मेघदूत
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि कालिदास
ओड़िआ पद्यानुवाद (म-आद्यानुप्रास): डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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मेघदूत : पूर्वमेघ
Meghaduta
: Part-1: Purva-Megha (2)
Verses 23- 66
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(२३)
मो कान्ता पाइँ शीघ्र य़िबारे
इच्छा कलेबि
तुमे एकाळे,
मणुछि, तुमरि बिळम्ब हेब
कुटज-बासित
अद्रिमाळे ।
मयूरे हरषे अश्रु बरषि
प्रकाशिबे मधु
केका-बचन,
मानना ताङ्क स्वीकारि झटति
य़िबार चेष्टा
करिब घन !
॥
*
(२४)
मिळिब तापरे दशार्ण्ण देशे
दिनाकेते थिबे
मराळगण,
मधुर जम्बु फळ पाचिबारु
बनसीमा तार
श्यामबरण ।
मुकुळिथिबारु केतकी कुसुम
उपबन-बेढ़ा
दिशे पाण्डुर शोभन,
मौकुळि केते नीड़ रचिबारु
गहळ सकळ
ग्रामतरु सह सदन ॥
*
(२५)
मुख्य ता पुरी बिदिशा नामरे
राजधानी से त सुबिदित,
महीरे ताहारि य़श चौदिगे
बिस्तृत ।
मथित मनरे सेथिरे लभिब
तुमे बिळासीर
फळ सारा,
माति चञ्चळ लहरीरे बहे
बेत्रबतीर
जळधारा ।
मञ्जुळ भूरु य़ोगे कुञ्चित
चित्तहर,
मुख चुम्बिबा पराये तुमे हे
अम्बुधर !
मन्द्रे गरजि तार तीरे
मज्जि रहिब रस-नीरे ॥
*
(२६)
मेण्टाइब हे नीरद ! तुम,
मार्गचळन-जनित सर्ब परिश्रम ।
मिळि तहिँ नीच पर्बते,
मेळ तब लभि प्रफुल्ल नीप
फुले पुलकित हेब सते ।
महीधर से त प्रकाशित करे
बिमोहन,
मदन-रङ्क य़ुबाजनङ्क
उन्मादभरा य़ौबन ।
मञ्जिकागण सङ्गते केळि
रचिबा समये
तनु-लेपित,
मधुर सुबास अङ्ग-रागरे
शिळागृह तार
सुगन्धित ॥
*
(२७)
मद्रे अळप बिश्राम सारि अद्रिरे,
मिळिब हे ! बन-नदी तीरे ।
मञ्जुळ य़ूई कुसुम-कळिका
बिकशिथिब ता
उपबने,
मृदु नीरकण सिञ्चिब तहिँ
उल्लास देइ
अपघने ।
माळिनीमाने त फुल तोळुथिबे
सङ्गे होइब
परिचित,
मुखे ताङ्करि तुमरि शीतळ
छाया देइ केते
मुहूरत ।
मार्जना-फळे कपोळ-य़ु्गरु
घर्म-सलिळ बारबार,
मउळिथिबटि खरताप य़ोगे
कर्ण्णकमळ ताङ्कर ।
मुदिर हे ! तुमे तहुँ निजर,
मार्गरे हेब अग्रसर ॥
*
(२८)
मार्ग तुमरि य़िब अबश्य बङ्काइ
उत्तर दिग
अभिमुखे गले बढ़ि,
मानस तेबे बि रखिब निजर मज्जाइ
उज्जयिनीर
उच्च सउधे चढ़ि ।
मारिब दामिनी सेकाळे चकिते
कामिनीगण,
मुग्ध चपळ चाहाँणीरे तहिँ
करिबे तुमकु निरीक्षण ।
मने अनुभब करिब हर्ष
दरशन लभि
ताहाङ्कर,
मेघ ! ता नोहिले तुमरि जन्म
मोघ हेला बोलि
चित्ते धर ॥
*
(२९)
मार्गे रहिछि प्रिय-बान्धबी
निर्बिन्ध्या य़े सरिता,
मिळिब उषते तार सङ्गते
तुमरे से भाब-भरिता ।
मेखळा रचित ताहारि,
मधु कळरबे मज्जित खग-
पङ्कति जळबिहारी ।
मन्दे मन्दे निक्वण शुभे
मर्म-मोदन
चपळ ऊर्मि-दोळने,
मुग्धकारक अङ्ग-छबि ता
बहुछि पाषाणे
खसि चञ्चळे य़तने ।
मञ्जुळ जळा- बर्त्त-नाभिकि
देखाए तुमरि आगरे ।
मज्जित हेब जीमूत हे ! तुमे
रस तार घेनि भितरे ।
महिळाए य़ेते भाबभङ्गीकि
देखाइथान्ति प्रियठारे,
मोहिनी ताङ्क प्रेमर प्रथम
भाषा अटइ ए संसारे ॥
*
(३०)
मेघ हे ! भेटिब सिन्धु तटिनी
अटइ तुमरि बान्धबी,
मूरति बहिछि क्षीण नीरधारा
एकबेणी परा तार छबि ।
मोद नाहिँ तार हृदये तुमरि
दीर्घ बिरहे
बर्त्तमान,
म्लान तनु दिशे तीर-पादपरु
पड़िले शुष्क
पत्रमान ।
महाभाग तुमे बिरहिणी से त
प्रकाशइ सउभाग्य तब,
मेघ ! से उपाय
करिब य़ेपरि
क्षीणता ताहार दूर होइब ॥
*
(३१)
मेघ ! य़े देशरे
बत्स-नरेश
उदयनङ्क काहाणी,
मानस रञ्जि ग्रामर बृद्ध
गण थाआन्ति बखाणि ।
मिळिब य़ाइ से अबन्तीरे,
मोदभरे तहुँ पहञ्चिब ता
राजधानीरे ।
मुहिँ पूर्बरु सूचना देइछि ताहारि,
महिमाशाळिनी शिरी-उज्ज्वळा
उज्जयिनी से नगरी ।
महाआनन्दे सुकृतीबृन्द
स्वर्गपुरीरे
सुखभोग कला परे,
मान्द्य भजिला तहिँ सञ्चित
आपणा पुण्य
फळ य़थासमयरे ।
मर्त्त्यभुबन करिले प्रत्त्या-
बर्त्तन य़ेतेबेळे,
महानुभब से निज अबशेष
अळप पुण्यबळे ।
मने हुए सते, स्वर्गर एक
दीप्त खण्ड आणिले घेनि,
महीयसी पुरी अटइ से परा
उज्जयिनी ॥
*
(३२)
महकपूरित शिप्रा नदीर
पबन,
मन्द-मन्द बहे उषाकाळे
हे घन !
मदिर सरस बिरुत सारस
पन्तिर,
मुदे करइ से चतुर्दिगरे
बिस्तार ।
मञ्जु बिकच कञ्ज-राजिर
सुरभि सह,
मित्रता करि प्रसरिय़ाए से
कि महमह ।
मरुत परश करिले शरीर,
मने उल्लास जगाए सधीर ।
महिळाङ्कर मन्मथ-केळि-
खेद करिथाए निबारण,
मधुर बाक्ये तोषामोदकारी
प्रेमिक तुल्य समीरण ॥
*
(३३)
‘महासेन राजा प्रद्योत थिले
सुबिदित एहि धामरे,
ममता-पात्री थिले सुपुत्री
बासबदत्ता नामरे ।
मोहित हृदये एथि उदयन
बत्सदेशर नरेश,
मनोरमा राज- कुमारीङ्कि त
हरि घेनिगले स्वदेश ।
महाधातुमय ताळ-बृक्षर
कानन,
महीपतिङ्क थिला एथि केड़े
शोभन ।
मदे उद्धत मातङ्ग नळगिरि नामे,
महाउत्पात रचिथिला एथि
स्तम्भ उपाड़ि संभ्रमे ।’
मित्र अतिथि आगमिले एथि
अभिज्ञ लोके बहु सरागे,
मनोरञ्जन करिथाआन्ति
बखाणि एसबु ताङ्क आगे ॥
*
(३४)
मुक्त बिपणी- माळे सज्जित
रहिछि उज्जयिनीर,
मुकुता कम्बु शम्बुक आदि
कोटिकोटि केते रुचिर ।
मूल्यबान य़े शुद्ध हार,
मध्यरे मणि- गुटिका सुढळ
चमत्कार ।
मृदु तृण सम श्यामळ-बरण
मरकत मणि अछि पूरि,
मयूख ताहार ऊर्द्ध्वे झटके
अङ्कुरि ।
मझि बिपणीरे ताहारि,
मण्डित बहु प्रबाळ-खण्ड आहुरि ।
मने हुए प्रते निरेखिले सबु
एहिरूपरे,
मात्र सलिळ अबशेष अछि
रत्नाकरे ॥
*
(३५)
मूर्द्धज निज गन्धदरब-धूपरे,
मार्जना करु थिबे रमणीए
सज्जा बिरचि रूपरे ।
मार्गे बाहारि बातायनर,
मुदिर ! से धूप पुष्ट करिब
तनु तुमर ।
मित्र-सेनेहे सेतेबेळे तहिँ
सदन-पाळित सुकुमार,
मयूरबृन्द देबे आनन्दे
तुमकु नृत्य उपहार ।
महके सुमन- गन्ध प्रसरि
बिशाळ सौध-समूहरे,
मृदुळा रमणी- चरण-अळता
चिह्न तहिँरे मन हरे ।
मेघ ! एहिपरि उज्जयिनीर
शिरी-बैभब अबलोकि,
मोदभरे दूर करिब निजर
मार्गजनित क्लान्तिकि ॥
*
(३६)
मिळिब तापरे त्रिभुबन-गुरु
बन्दनीय,
महाकाळङ्क पुण्य-धामरे
सुनिश्चय ।
मेचक तुमर तनुरूप जाणि
प्रभु-कण्ठर
बर्ण्ण-सरि,
महादेबङ्क गणमाने तहिँ
चाहिँबे तुमकु
आदर करि ।
मन्दे मन्दे उद्यान करि
आन्दोळित,
मरुत बहइ सरिता गन्ध-
बतीर गन्धे सञ्चाळित ।
महक आहरि नित्य खेळे,
मञ्जुळ नीळ कञ्ज--पराग
पुञ्ज मेळे ।
माखि बिलेपन तनुरे आपणा
नीरकेळिरता
तरुणीए,
मद्रे स्नाहान कला बेळे से त
धीरे सुगन्ध
हरि निए ॥
*
(३७)
महाकाळङ्क मन्दिरे पुणि
अन्य समये मिळिब,
मिहिर तुमर नेत्र-गोचर
थिबाय़ाए तहिँ रहिब ।
महेशङ्कर सान्ध्य पूजारे
प्रशंसनीय
बिरचि पटह-बाद्यनाद,
मन्द्रघोषर अखण्ड फळ
अम्भोधर हे !
तुम्भे लभिब सुप्रसाद ॥
*
(३८)
मञ्जिकामाने करुथिबे तहिँ
नर्त्तन,
मञ्जु-मेखळा ध्वनि शुभुथिब
सय़तन ।
मोहुथिब मन नृत्यकाळे,
मृदुळ पयर-भङ्गी ताळे ।
मणि-सुदीप्त दण्ड-शोभित
चामर चाळने सबळ,
मनोरमाङ्क सुकुमार कर
होइथिब तहिँ शिथिळ ।
मन्दे नबीन सलिळबिन्दु
सिञ्चिब तुमे सेहि पाशे,
मनस्कार से लभिबे तनुर
नखचिह्नरे उल्लासे ।
मिळिन्दमाळा परि लम्बित
अपाङ्ग चाळि आपणार,
मुदिर ! तुमकु अनुरागभरे
चाहिँबे निश्चे बारबार ॥
*
(३९)
महेश नृत्य
आरम्भ कले
सेकाळे सद्य बिकशित,
मन्दार सुम पराये सान्ध्य
तेजे हेब तुमे रञ्जित ।
मातिबे आपणा प्रिय ताण्डबे
उत्तोळि बाहु-तरु शिब,
मण्डळाकारे तुमे ताङ्करि
चउपाशे लागि घेरिय़िब ।
महानटङ्क तनुरे आर्द्र
आबरण गज-चर्मर,
मनस्कामना पूर्त्ति होइब सत्वर ।
मेघ हे ! तुमरि भक्तिकि तहिँ
समादरे,
मेनानन्दिनी अनाइँ रहिबे
स्थिर निश्चळ लोचनरे ॥
*
(४०)
महातमोमय रजनीसमय
राजपथ तहिँ
नेत्रय़ुगळे न य़ाए देखा,
मार्ग तुमे त बिजुळिर तेजे
चिह्नाइ देब
कषटिरे य़था स्वर्ण्ण-रेखा ।
मनोज-आबेगे सेहिसमये,
मज्जित होइ अभिसारिकाए
य़ाउथिबे निज प्रिय-निळये ।
मन्द्रघोष न करिब आबर
बर्षिब नाहिँ
तहिँ बारि,
मानसे ताङ्क भय उपुजिब
अबळा सेमाने
सुकुमारी ॥
*
(४१)
मोदे बहुबेळा रचि नाना खेळा
य़ेबे तुम प्रिया
रम्या चपळा थकिय़िबे,
मेघ ! कौणसि उच्च भबन
शिखे रहिय़िब
केते य़े कपोत शोइथिबे ।
मने तोष भरि तहिँ बिभाबरी
बिताइब ।
मित्र उदय हेले अबशेष
पथ बाहि तुमे आगेइब ।
मित्रगणर कार्य़्यसाधने
प्रदानि अङ्गीकार,
मठ करन्ति नाहिँ केबे जने
स्वपथे अग्रसर ॥
*
(४२)
मार्जिबे सेहि प्रभात बेळारे
गृहे आसि प्रेमी अनेक,
मानमयी निज खण्डिता नारी
गणर नेत्रुँ लोतक ।
मारतण्ड बि सेतेबेळे निजे
फेरि आसिबे,
मृणाळिनी-चारु- पद्ममुखरु
हिम-अश्रुर हरणे तेबे,
मिहिरङ्कर आगमन लागि
तरतर,
मार्ग एहेतु छाड़िदेब तुमे
जळधर !
मना घेन, तुमे ताङ्कर कर
रोध न करिब निश्चितरे,
मयूखमाळी से नोहिले बहुत
क्रुद्ध होइबे तुम उपरे ॥
*
(४३)
मेध्य बिमळ
बहे गम्भीरा-
नदी-जळ,
मानस य़ेपरि प्रसन्न आउ
निरिमळ ।
मनोहर तुम रूप बास्तबे
स्वभाबरे,
मूरति छायार बहि सेहिकाळे
प्रबेशिब तुमे से बनरे ।
मीन-नयना से कुमुद-धबळ
शफरी-लम्फे
चाहिँब य़ेबे,
मोघ न करिब तार चञ्चळ
कटाक्ष तुमे
धैर्य़्य-भाबे ॥
*
(४४)
मन्थरे तार तीरे बेतशाखा
दोळुथिब,
मृदु बारिधारे अळ्प परश
करुथिब ।
मने हेब सते पिन्धिला नीळ
बर्ण्णर नीर-बसन,
मोहिनी तटिनी बेत-हाते टेकि
सम्भाळुअछि य़तन ।
मुकुळि थिबटि एकाळे कम्य
तार घन तट-जघन,
मथित मानसे लम्बित होइ
घेनिब ता रस हे घन !
मग्न हेलेबि भाबरे,
मित्र हे ! तुमे चेष्टा करिब
शीघ्र य़िबाकु आगरे ।
मधुरस य़ेहु करिछि आस्वादन,
मुक्त-जघना प्रेयसीकि पाशे
तेजिपारे कि से जन ?
*
(४५)
मुहाँइले तुमे गमिबा इच्छि
तत्परे देबगिरि आगे,
मन्दे बहिब शीतळ पबन
अनुरागे
महक प्रसार करे से तुमर
बर्षाहेतुरु उज्जीबित,
मही-गन्धर परशरे निजे
परिप्लुत
मतुआळ बहु आरण्यक,
मतङ्गज से बायु आघ्राण
करन्ति नासा-
छिद्रे शबद रचि मोहक
मधुर बिपिन- उदुम्बरर
पक्वता बिहिबारे,
माध्यमरूपे एहि समीरण
बहु साहाय़्य करे ॥
*
(४६)
महेश-कुमर कुमार सेथिरे
नित्य-निबासी बिराजित,
मुदिर हे ! तुमे तहिँरे पुष्प-
मेघाकारे हेब रूपायित
मुदिते गगन- गङ्गा-सलिळ-
सिक्त कुसुम-बरषाधारे,
माजणा ताङ्क समापिब सेहि
तीर्थे बारे
मघबा-सैन्य सुरक्षा लागि
अग्निदेबता-बदने,
मृगाङ्कधारी अर्पण कले
आपणार तेज सुमने
मरीचिमाळीकि जिणि सेहि तेज
बिख्यात,
महासेन से त साक्षात ॥
*
(४७)
मयूरकु तुमे
नचाइब प्रेम-
छन्दरे,
मन्द्र निनादे गरजि से गिरि-
कन्दरे
मञ्जु धबळ अपाङ्ग तार
उज्ज्वळ करे कळाकर,
मस्तके थाइ महेशङ्कर
प्रसारि रश्मि मनोहर
मेचक सुरेख दिशे चकचक
खसिगले केबे ता देहे,
माता पार्बती हस्ते घेनि ता
प्रिय पुत्रर सेनेहे,
मनोरम नीळ- पद्म-शोभित
आपणार बेनि कर्ण्णरे,
मण्डन करिथाआन्ति केते यत्नरे ॥
*
(४८)
महासेन देब षड़ाननङ्क
पूजा सारि पथ हेब पारि,
मिथुन-बृन्द सिद्धगणर
बीणा निज करे थिबे धरि
मार्ग तुमरि छाड़िदेबे नीर
बिन्दुपतन भीतिरे,
मिळिब तापरे चर्मण्वती नदीरे
माननीया तार
सत्कार लागि
करिब क्षणक अबतरण,
महीश रन्ति- देबङ्कर से
कीर्त्ति जाण
मखशाळे गोरु बध करिबारु
अमाप रुधिर धारार,
मूर्त्ति बहि से तटिनीरूपरे
महीरे लभिछि प्रसार ॥
*
(४९)
माधब समान श्याम-काय तुमे
नइँय़िब नीर घेनिबा पाइँ,
महाकाशचारी- बृन्द देखिबे
ऊर्द्ध्बरु तळ धारा अनाइँ
मेघ ! से नदीर पृथुळ धारा बि
सूक्ष्म दिशिब
दूरे थिबारु,
मेदिनीराणीर बक्षरे ताहा
मोतिहार सम
शोभिब चारु
मध्यभागरे मेदित इन्द्र-
नीळ पदक समान,
मधुरिमा बहि जळधर ! तुमे
दिशिब शोभायमान ॥
*
(५०)
मुदे नदी पार होइ दशपुर
अभिमुखे य़िब
तुमे य़ेबे,
मनोरमा नारी- गण कौतुके
तुमकु नयने
अनाइँबे ।
मदाळस भूरु- बल्ली चाळने
परिचित सेहि लोचन,
मृदु पलकर उत्क्षेप बेळे
ता उपरांश शोभन ।
माधुरी प्रकाश करइ कृष्ण
धबळ कान्ति बहि,
मानस निअइ मोहि ।
माघ्य कुसुम दोळायित हेले
तार अनुसारी खेळारत,
मधुपर शोभा हरण करे से
नयन-य़ुगळ निश्चित ॥
*
(५१)
मेघ ! तदन्ते ब्रह्माबर्त्त जनपदरे,
मुदे परबेशि छायारूपरे,
मिळिब हे ! कुरुक्षेत्रे य़ाइ,
महाभारतीय क्षत्रिगणर
रण-सन्तक बहिछि सेइ
मार्गण पेषि शतशत घनघन,
मुनरे ताहारि बीर गाण्डीब-
धनुर्द्धारी य़े अरजुन,
मथा करिथिले निपातित बहु
राजाङ्कर
मुषळ बृष्टि- धारे तुमे य़था
पद्मराशिकि नष्ट कर ॥
*
(५२)
मुदिर ! तुमे से क्षेत्रबरे,
मेध्य सलिळ सरस्वतीर
ग्रहण करिब श्रद्धाभरे ।
मन पबित्र होइब तुमर
बारिबह !
मेचक बरण हेलेहेँ बाहारे
बिग्रह ।
महाभारतर रण उपेक्षि
कुरु-पाण्डब-
मैत्री लागि,
मुषळी से बन करिले सेबन
मद्य निजर
देले तिआगि
मधुबासभरा स्वादु य़ेउँ सुरा
थिला लोभनीय
आस्वादित,
मुखे नेबाबेळे थिला य़े रेबती
नयन-बिम्ब
सुचिह्नित ॥
*
(५३)
मिळिब तापरे कनखल पाशे
झरझर सुर-सरिता,
महीतळे बहि आसुअछि तहिँ
हिमालयुँ अबतरिता ।
मोक्ष देला य़े सगर-तनुज
मानङ्कर,
मन्दाकिनी से स्वर्गसोपान-
पङ्कति साजि शुभङ्कर ।
मस्तके थाइ दोहलाइ निज
फेनराशि,
मेनासुताङ्क भूरु-भङ्गीकि
सते उपहास परकाशि ।
मृगलाञ्छने लहरी-हस्त
थोइ से य़े,
महेशङ्कर केश आकर्षि
थिला निजे ॥
*
(५४)
महाबिळे तुमे निज देह पछ
अर्द्धेक भाग लम्बाइब,
मुदिर हे ! तेबे अमर-हस्ती
पराये तुम्भे शोभा पाइब ।
मन्दाकिनीर नीर निरिमळ
स्फटिक तुल्य शोभन,
मुहँ बङ्काइ
पिइबार पाइँ
करिब सेकाळे य़तन ।
मेघ हे ! शीघ्र स्रोतरे ताहारि
बिम्बित हेले छाया तब,
मानसे प्रतीति जात हेब ।
मिशे अस्थाने आगत य़मुना
तरङ्गिणीर सङ्गे य़दि,
मनोरम रूप- रङ्गरे शोभा
बहिअछि सते गङ्गा नदी ॥
*
(५५)
मिहिका-धबळ राजे हिमाळय
पर्बत,
मन्दाकिनी त होइछि तहिँरु
निर्गत ।
मुदे तुमे य़ाइ पहञ्चिय़िब सत्वरे,
मृगमद-बास महके तहिँर
मृगे बसन्ते प्रस्तरे
मार्गजनित क्लान्ति करिबा
निमन्ते अपनोदन ।
मेदिनीधरर शिखरे करिब
सहर्ष उपबेशन ।
मञ्जुळ तुमे दिशिब जळद !
उत्खेळा-बेळे ससम्भ्रम,
महेश-बाहन शुभ्र बृषर
शृङ्गे जड़ित पङ्क सम ॥
*
(५६)
मरुत प्रबळ बहिले सरळ
काण्डराजिर घरषणे,
माड़िय़िब य़दि अनळ जन्मि तक्षणे,
मुञ्चि कणिका दहिब चमरी
मृगमानङ्क पुच्छलोम,
महीधर-देहे पीड़ा जगाइब
परकाशि दाह पराक्रम ।
मुषळधारारे बरषि सलिळ
अप्रमित,
मुमुचान ! तुमे करिब सर्ब
अग्निकि तहिँ निर्बापित ।
मनस्वी सदा उत्तम जन
बित्त निजर
बितरिथान्ति नियत,
मोचन करिबा निमित्त भबे
बिपदे ग्रस्त
प्राणीर दुःख आरत ॥
*
(५७)
मेण्ट बान्धि डेउँथिबे तहिँ
शरभदळ,
मार्ग तुमे त छाड़ि देलेबि से
देखाइ बळ ।
मन्यु आचरि अङ्ग-भङ्ग
लागि बेगरे,
माड़ि बसिबेटि य़दि आक्रमि
तुम आगरे ।
मुहाँमुहिँ तुमे करका-निकर
प्रखर बर्षि सेतेबेळे,
मूढ़मानङ्कु छिन्न-छत्र
करिदेब तहिँ अबहेळे ।
मोघ कार्य़्यरे य़े जन,
मतिकि बळाए न हुए कि सेहु
तिरस्कारर भाजन ?
*
(५८)
महीधर हिमा- ळयरे देखिब
पाषाणरे एक सङ्केत,
महादेबङ्क पाबन पयर
चिह्न होइछि अङ्कित ।
मानस शुद्धि भजि ताहा निति
पूजिथाआन्ति सिद्धगण,
मेघ ! तुमे तहिँ भक्तिरे नइँ
करिब निश्चे प्रदक्षिण ।
मङ्गळमय से हर-पादर
दरशने,
मुक्ति सकळ पातकरु लभि
ए जीबने ।
मरणधर्मा कळेबर नाश
परे श्रद्धाळु भक्तजन,
महेशङ्कर गणरूप बहि
रहिथाआन्ति चिरन्तन ॥
*
(५९)
मरुत बहिले रन्ध्र पूरित हेबारु,
मधुर शबद कीचक-निचय
रचिथाआन्ति सुचारु ।
मिळित कण्ठे किन्नरीगण
मधुरागे,
मधुरागे,
महादेबङ्क त्रिपुर-बिजय
गान करन्ति अनुरागे
महीधर-गुहा भेद करि,
मृदङ्ग परि प्रसारिब य़दि
गम्भीर नाद तुम्भरि ।
मेघ हे ! सेकाळे निश्चित,
महानटङ्क पूजार्च्चनारे
पूर्ण्ण होइब सङ्गीत ॥
*
(६०)
महीधर-तटे य़ेते रहिअछि
बिशेष दर्शनीय,
मनोरम सबु अबलोकि पार
होइब य़थासमय ।
मोड़ि अळपके क्रौञ्च-रन्ध्र बाङ्करे,
मुहाँइ चळिब उत्तर दिगे तत्परे
मारि मार्गण बीर भार्गब
छेदिथिले से बिबर,
मार्ग से तेणु अटइ ताङ्क
कीरति बिस्तारर ।
माध्यमरे से रन्ध्रर,
मराळपन्ति गति करन्ति
लक्षि मानस सरोबर ।
मन्थरे तुमे प्रबेशिब सेहि
सूक्ष्म बिळे,
मुरारि बळिकि पाताळ भुबने
चापिबा बेळे ।
मेदुर बरण लम्ब बाङ्क
चरण परि,
मञ्जुळ तुमे दिशिब सेकाळे
चित्त हरि ॥
*
(६१)
मेघ ! तदन्ते ऊर्द्ध्वे चळिब
धीरे धीरे,
मुदे आतिथ्य लभिब तुम्भे
मिळि कैळास अद्रिरे ।
महीधर बहि रहिछि स्वच्छ
शुभ्र शरीर सुन्दर,
मुकुर-रूप से स्वर्ग-रूपसीबृन्दर ।
मेघनाद-पिता टाळिछि ता सानु
सन्धिकि बाहुधापे निजरि,
मापिछि गगन कइँफुल सम
उच्च शिखर सुबिस्तारि ।
महानटङ्क स्फुरित अट्ट-
हास्यमान,
हास्यमान,
मिशि प्रतिदिन स्तूपाकारे सते
मूर्त्त गिरि ए बिद्यमान ॥
*
(६२)
मतङ्गजर सद्य छिन्न
दन्त पराय शुभ्रतर,
माधुरी बिकशे कैळासर ।
मर्द्दित चारु चिक्कण कळा
कज्जळ-निभ शोभित तुमे,
मोहरि बिचारे,
गिरितटे य़ाइ
य़ेबे पहञ्चिय़िब आरामे ।
मुषळीङ्कर धबळ कन्धे
न्यस्त य़ेसन नीळ बसन,
मनोहर तुमे दिशिब घन !
मेदिनीधर त स्वभाबे प्रिय,
मुकर पलक- बिहीन नेत्रे
हेब सेतेबेळे दर्शनीय ॥
*
(६३)
मृड़ानीङ्कर सम्मुखरे,
महेश हस्त बढ़ाइले सेहि
क्रीड़ापर्बते अनुरागरे ।
मण्डळी घेरा होइथिबा य़ोगुँ
य़दि भयरे,
मुञ्चि से कर उमा चालिय़िबे
बेनि पयरे ।
मेनासुताङ्क अग्रते य़ाइ
घनीभूत नीरे सोपान सम,
मेघ हे ! तुरित रूपान्तरित
करिब आपणा तनुकु तुम ।
मणितटे थोइ पाद निजरि,
मुदित चित्ते आरोहिबे तहिँ
महेश्वरी ॥
*
(६४)
मोहिनी अमर- तरुणीबृन्द
आपणार कर-कङ्कणर,
मुन आघातरे तुमरि तनुरु
नीर झराइबे बारम्बार ।
मित्र ! तुमकु सेमाने ग्रीषम
समयरे पाइ निश्चित,
महाउत्साहे करिबे य़न्त्र-
धारागृह रूपे परिणत ।
मुक्ति तुमकु तहिँ कबळरु
ताङ्कर,
ताङ्कर,
मिळिबनि यदि, करिब भीषण
गर्जन तुमे सत्वर ।
मजा करुथिबे केळि-चञ्चळा
कौतुकबशे सन्निकट,
मानसे करिब भय सञ्चार
कम्पाइदेब कर्ण्णपुट ॥
*
(६५)
मानसर पान करिब सरस उदक,
मधुर से निति कनक-पद्म-जनक ।
मुखे निश्चय सेकाळे ऐराबतर,
मुहूर्त्ते पाइँ सुख जगाइब
अम्बर-आबरणर ।
मनोरम झीन परिधेय परि
रुचिर कळ्प-पादपर,
मृदु पल्लब- राजिकि पबने
दोळाइब तुमे फरफर ।
मज्जाइ निज मन बहुभाबे
क्रीड़ारसरे,
महाउल्लासे बिहरिब तुमे
कैळासरे ॥
*
(६६)
मान मानसरु परिहरि,
मण्डन करे प्रेमिकर कोळ
य़ेपरि रमणी सुन्दरी ।
माति भाबभरे सेपरि,
महीधर सेहि कैळास कोळे
शोभित अळका नगरी ।
मुख उज्ज्वळ दिशे उन्नत
सप्ततळ य़े सौधमान,
मथारे ताहार बर्षाकाळरे
अम्बुदराजि बिद्यमान ।
मुदिर बहइ बिन्दु बिन्दु
बारि सुन्दर ढळढळ,
मुकुतापुञ्ज- खचित होइले
मञ्जुळ य़था कुन्तळ ।
मन्दाकिनी ता रम्य दुकूळ
खसि लम्बिछि तनुरे तार,
मने बाञ्छिले तुमे य़हिँतहिँ
बिहरि पार ।
मनोज्ञ रूप देखि से पुरीकि
ता बिग्रहे,
मेघ हे ! तुमे य़े चिह्निब नाहिँ,
सेमिति नुहे ॥
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(Purva-Megha
Ends) *
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Continued ‘Meghaduta’ : Part-2 : Uttara-Megha :
Link :
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Complete Odia ‘Meghaduta’
on
Web :
Link :
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Related Links :
Complete ‘Kosali Meghaduta’ :
(Honoured with ‘Dr.
Nilamadhab Panigrahi Samman’
conferred by Sambalpur
University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Odisha in 2010)
Link :
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Translated Kavyas by :
Dr.Harekrishna Meher :
Link :
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