‘Meghaduta’
Original
Sanskrit Kavya by : Poet Kalidasa
*
Complete
Odia Metrical Translation by :
Dr.
Harekrishna Meher
*
Published
in ‘Bartika’, Odia Literary Quarterly,
October-December
2017, Dashahara
Puja Special Issue,
Pages 690-728,
Pages 690-728,
Dasarathapur,
Jajpur, Odisha.
*
(Translation
done in 1973)
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Complete
Meghaduta Odia Version :
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मेघदूत
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि कालिदास
ओड़िआ पद्यानुवाद (म-आद्यानुप्रास): डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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Verses 104 - 121 Last
मेघदूत : उत्तरमेघ
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Meghaduta
: Part-2: Uttara-Megha (2): Verses 104 - 121 Last
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(१०४)
मन्दे चळाइ तुमरि सलिळ-
बिन्दु-शीतळ पबन,
मत्तकाशिनी प्रियाकु मोहर
जगाइब तुमे हे घन !
माळती-मुकुळ केते सङ्गते
फुटि उठिबे,
मानबती मोर उठिब तेबे
मटक न मारि सुनयने,
मम प्रियतमा चाहिँब सेकाळे
रहिथिब तुमे बातायने ।
मेघ ! आपणार अपघने तुमे
चपळाकु रखि गुपते,
मन्द्र मधुर गिर आरम्भ
करिब प्रियार पुरते ॥
*
(१०५)
‘मेघ बोलि मोते सौभागिनि गो !
जाण निकर,
मुँ अटइँ प्रिय मित्र तुमरि
स्वामीङ्कर ।
मङ्गळमय बारता पठाइ
अछन्ति तुम कतिकि,
मर्मबचन घेनि ताङ्कर
आसिअछि मुहिँ एथिकि
मार्गचारी य़े प्रबासी दुःखे
रहिथाआन्ति सुदूरे,
मानिनीङ्कर बेणीबन्धन
मोचन इच्छि आतुरे
मन्द्रमुखर निनादे ताङ्कु
करिथाए मुहिँ त्वरान्वित,
मिळन अर्थे प्रिया सङ्गते
सदनरे होइ उपस्थित ॥’
*
(१०६)
मेघ ! ए बचन शुणि तुमर,
मुहँ टेकि निज व्याकुळ चित्ते
चाहिँब तुमकु
प्रिया मोहर ।
मिथिळानरेश-प्रिय-दुलणी,
मारुतिकि य़था ऊर्द्ध्व-बदने
अनाइँथिले ता
बाक्य शुणि ।
मुग्धा प्रेयसी तुमरे आदर
करिब,
मन देइ तुम मुखुँ सन्देश
शुणिब ।
मित्र-आनीता स्वामीर बार्त्ता
पत्नी लागि आपणा,
मिळन-जनित सुखरु अटइ
अळ्प-मातर ऊणा ॥
*
(१०७)
मेघ हे आयुष्मान !
मङ्गि मोहरि मिनतिभरा ए
कथारे बर्त्तमान ।
मङ्गळ पर- उपकार साधि
एपरि,
एपरि,
मणिबा अर्थे आपणाकु तुमे
कृतार्थ बोलि आहुरि ।
मोहरि प्रेयसी पाशरे कहिब
ए गिर ।
‘मृदु अबळा गो ! तुमरि जीबन-
साथी एबे रामगिरिर,
मठे अछन्ति पचारुछन्ति
तुमरि कुशळ सेनेही,
मृत नुहन्ति जीबित से दूरे
रहिअछन्ति बिरही ’
मित्र घन हे ! बिपदे पतित
थाआन्ति य़ेउँ पराणीगण,
मर्मर कथा ताङ्करि पाइँ
एहि त आद्य सम्भाषण ॥
*
(१०८)
मन्द दइब बइरीभाबरे
एकाळे तुमरि पतिङ्कर,
मार्ग सकळ अबरोध करि
अछि निकर ।
मळीमस दीन कळेबर,
महाबिषादरे दूरे अछन्ति
प्रियबर ।
मरम-तापित अश्रुपूरित
ताङ्क देही,
मुञ्चे उषुम दीर्घ शुआस
दुःख बहि ।
मने कळ्पना केते करन्ति
तहिँ बसि,
मिळन-सुख से अनुभबन्ति
तुम सङ्गते प्रेमे रसि ।
मित्र पराये
परकाश करे
प्रिय-बिरहिणी तुमर,
मृदु क्षीण तनु लोतकोच्छ्वास
आकुळ अतीब कातर ॥
आकुळ अतीब कातर ॥
*
(१०९)
मुकत-कण्ठे सखीङ्क आगे
कथनीय मधुबाणी सरब,
मुख परशिबा
लोभे चञ्चळ
कहुथिले काने काने य़े तब
मङ्गळरूप तुम पतिङ्क
देखा नाहिँ,
मिठाकथा एबे श्रबणरे आउ
शुभुनाहिँ ।
मुह्यमान से मानसे,
मुखरे मोहरि पेषिछन्ति ए
सन्देश तुम सकाशे ॥
*
(११०)
‘मञ्जुळ तुम अङ्ग-छबि मुँ
देखे सङ्गिनि !
प्रियङ्गु लता-गात्ररे,
मुख-दीप्तिकि मृगाङ्क पाशे
चाहाँणी तुमरि
चञ्चळ एणी-नेत्ररे
मयूर-पुच्छ- भारे रहिअछि
कान्ति तुमरि कुन्तळर,
मधुरिमा भूरु- भङ्गीर दिशे
कृश तरङ्गे नदीङ्कर
मात्र आहा ! ए केउँ बिधान,
मानिनि ! तुमरि साम्य काहिँ बि
एकठाबे नुहे बिद्यमान ॥
*
(१११)
मानरुषाभरा तुमरि छबिकि
आङ्कि पाषाणे
धातुरसरे,
मनाइबा आशे तुम पादतळे
पड़िबा इच्छा
कले मनरे ।
मो नयन-य़ुग आच्छादि रखे
बारबार बहु
लोतक बहि,
मेळ तुम मोर दारुण दैब
चित्रपटे बि
न पारे सहि ॥
*
(११२)
मिळन तुमरि कौणसिमते
स्वप्नरे लभि
प्रिये ! अचिर,
प्रिये ! अचिर,
मर्मे जागि मुँ आलिङ्गिबाकु
शून्ये प्रसारि
दिए मो कर
दिए मो कर
मन्युभरा मो ए दशा तहिँर
देबताबृन्द अनाइँ,
मुकुतातुल्य पृथुळ लोतक
झराइ ।
झराइ ।
महीरुहङ्क उदित,
मृदु पल्लब- राजिरे सजनि !
बरषिथान्ति अमित ॥
*
(११३)
मिहिकागिरिर बायु देबदारु
तरुराजिर,
मृदुळ नबीन
पल्लब शिख
भेदि सधीर ।
महक प्रसारि ता रसझरे,
मन्दे बहइ दक्षिणरे ।
मणइँ तुमरि
तनुकु परशि
पूरुबे,
मरुत आसिछि एठाबे ।
मुहिँ एथिलागि आगो गुणबति !
प्रसारि कर,
महासुख पाए ताकु आलिङ्गि
बारम्बार ॥
*
(११४)
मानिनि ! तुमरि
बिरहे दीर्घ-
प्रहरा सकळ राति,
मुहूर्त्त परि
कौणसिमते
य़ाआन्ता हेले बिति ।
मन्दे मन्दे दिबस मध्य
देउथाआन्ता
ताप समस्त ऋतुरे,
मज्जि एभळि कळ्पनाभाब-
राज्यरे निति आतुरे ।
मनोरथ केबे पूर्ण्ण हेबार
नाहिँ त सम्भाबना,
मर्मभेदक तीब्र तपत
तुम बिरह-य़ातना ।
मन मोहर ए सकाशे,
मञ्जु-चपळ- नेत्रि ! एकाळे
अनाथ लागुछि निराशे ॥
*
(११५)
मति कौणसि मते आश्वासि
सम्भाळिछि मुँ
प्राण मोहर,
मङ्गळमयि ! सङ्गिनि ! तुमे
न होइब केबे
अति कातर
मज्जि के अबा रहे नियत सुखरे,
मरे केबा झुरि नियत दुःखभरे ?
मर्त्त्ये प्राणीर दशारे पतन
उत्थान बेनि
आसइ भ्रमि,
माड़िय़ाए नीचे चळइ उच्चे
क्रमे य़ेउँपरि
चक्रनेमि ॥
*
(११६)
मुहिँ अभिशापुँ राजाङ्कर,
मुक्त होइबि अहि-शयनरु
उठिले श्रीहरि शार्ङ्गधर ।
मुदि आपणार बेनि नयन,
मास चारि बाकी कौणसिमते
कर य़ापन ।
मिळन तापरे घटिब,
मानिनि गो ! आमे सरब
मनस्कामना पूराइबा प्रीति-
दोळारे,
मर्मे य़ेतेक भाबिछुँ बिरह
बेळारे ।
मज्जि शरद ऋतुर,
मधु चान्दिनी- भरा सुन्दर
रजनीराजिरे निकर ॥
*
(११७)
मित्र आहुरि
कहिअछन्ति
‘प्रिये ! मो कण्ठ
भिड़ि उषते,
मज्जि निदरे तुमे केबे थरे
चेइँल सहसा
कान्दि केते
मुरुकि भितरे उत्तर देल
बहुबार पचारिला परे,
‘मातिछ अपरा रामा सह परा
निरेखिलि छळि ! स्वप्नरे ॥’
*
(११८)
मोहरि बिषये अभिज्ञान त
देलि तुमपाशे एहिपरि,
मङ्गळे मुहिँ
रहिछि जाणिब
सुनीळ-नयना सुन्दरि !
मोठारे सजनि !
कदापि न य़िब
अपरते,
मिथ्यापबाद न घेनिब केबे
हृदगते
ममता सेनेह
प्रेमीजनङ्क
बिरहकाळरे लोके,
मरिय़ाए बोलि काहिँकि केजाणि
कहिथाआन्ति थोके ।
मातर ए सत नुहे बास्तबे,
मत रहिअछि भिन्न ए भबे
मने य़े बस्तु बाञ्छित,
मिळन बिना से सेनेह सर्ब
ताठारे हुअइ सञ्चित,
मिशि रस बहुगुणरे,
मधुर प्रणय रूपरे ॥
*
(११९)
मोहरि आद्य
बिरहे असीम
दुःखमना,
मृदुळ-हृदया सखीकि तुमरि
देइ समुचित आश्वासना ।
महीधर सेहि
कैळासुँ तुमे
फेरि आसिब हे मुदिर !
मृड़-बृष-खुर घाते बिक्षत
होइअछि यार शिखर ।
मळिनता भजे
कुन्द येपरि
प्रभातरे,
मृतकळ्प मो पराण रहिछि
सेरूपरे ।
मेघ ! तुमे एका करिब ताहार
परित्राण,
मनोरमा पाशुँ घेनि जणाइब
बार्त्ता समेत अभिज्ञान ॥
*
(१२०)
मित्रर एहि
कार्य्य़ साधने
तुमे तत्पर होइब कि ?
मोहरि प्रियार
प्रतिसन्देश
आणि मो आगरे कहिब कि ?
मणिबि नाहिँ मुँ तुमे ए कार्य़्य
कले य़ाइ,
महानता तुम रहिब बोलि हे
मेघभाइ !
मागिले चातक तुमठारे,
मौन भाबरे नीर दान करि
थाअ तारे ।
महत जनर ए त अटे प्रति-
उत्तर,
मनस्कामना पूर्ण्ण करिबा
य़ाचकर ॥
*
(१२१)
मैत्रीबशे बा बिरही बोलि बा
करुणा हेतु बा
मोहरि प्रति,
मने सुबिचारि मुदिर ! ए प्रिय
कार्य़्य पूरण
कर झटति ।
मागुणि रहिछि मोर एते,
मात्र तुमरि आगे जणाइलि
अनुचिते ।
मनोबाञ्छित देशे देशे य़ाइ
मुदित हृदये बिहर हे भाइ !
मधुर बर्षा ऋतुर आगमे
बहिथाअ रूप
सौम्य चारु,
मुहूर्त्तक बि नोहु बिच्छेद
तुम प्रियतमा
शम्पाठारु ॥”
* * * * *
(Uttara-Megha
Ends)
* * * * *
(उपसंहार)
(१२२)
महाकबि काळिदास,
मनीषीगणरे चिर-बरणीय
कबिता बहिछि सुबिळास ।
महनीय प्रिय लेखनी ताङ्क
निखिळ भुबने अद्भुत,
मधुमय गिरे शृङ्गार रसे
रचिले काव्य मेघदूत ।
मेघ-मुखे य़ुबा बिरही य़क्ष
प्रिया पाशे बहुदूररु,
मार्मिक भाब-
भरा सन्देश
पेषिथिला रामगिरिरु ।
मानबधर्मा जाणिपारि सेहि
प्रेमीय़ुगळर प्रेमकथा,
मुक्त करिले शापरु ताङ्क
य़क्षय़ुबाकु सर्बथा ।
मोहिब ए गीति कामीजन-मति
प्रकाशि आहुरि सांसारिक,
मानब-जीबने अनुभबनीय
अनेक तत्त्व बास्तबिक ।
मानबिकतार चिन्तन-धारा
बिबिध धरम-शास्त्रगत,
मधुर सरस
बाणी माध्यमे
होइछि काव्ये सुव्यकत ।
मेहेर श्रीहरे-
कृष्ण रचिले
ओड़िआ पद्य अनुबाद,
मज्जाउ मन
काव्य-रसिक-
जनरे बितरि आह्लाद ॥
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Meghaduta
Kavya
Odia
Version by Dr. Harekrishna Meher
Complete
Here
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Meghaduta : Part-1: Purva-Megha :
Link:
*
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Complete Odia ‘Meghaduta’
on
Web :
Link :
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Related Links :
Complete ‘Kosali Meghaduta’ :
(Honoured with ‘Dr.
Nilamadhab Panigrahi Samman’
conferred by Sambalpur
University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Odisha in 2010)
Link :
* * *
Translated Kavyas by :
Dr.Harekrishna Meher :
Link :
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