‘Meghaduta’
Original
Sanskrit Kavya by : Poet Kalidasa
*
Complete
Odia Metrical Translation by :
Dr.
Harekrishna Meher
*
Published
in ‘Bartika’, Odia Literary Quarterly,
October-December
2017, Dashahara
Puja Special Issue,
Pages 690-728,
Pages 690-728,
Dasarathapur,
Jajpur, Odisha.
*
(Translation
done in 1973)
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Complete
Meghaduta Odia Version :
Link
:
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मेघदूत
मूल संस्कृत काव्य : महाकवि कालिदास
ओड़िआ पद्यानुवाद (म-आद्यानुप्रास): डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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मेघदूत : उत्तरमेघ
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Meghaduta
: Part-2: Uttara-Megha (1):
(Verses 67-103)
(Verses 67-103)
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(६७)
महिमाशाळिनी अळकापुरीर
प्रासादसमूह कमनीय,
मेघ हे ! निजर बिशिष्ट गुणे
तुमरि सङ्गे तुळनीय ।
मञ्जु तरुणी गण रहन्ति
ता भितरे,
ता भितरे,
मनोरमा प्रिया
दामिनी य़ेपरि
खेळा करे तुम अङ्करे
मनोज्ञ नाना
बर्ण्णबिभार
चित्ररे से त सज्जित,
महेन्द्रधनु संय़ोगे तुमे
होइथाअ य़था मण्डित
मृदङ्ग बाजे
तहिँ सङ्गीत
गान निमित्त सुमधुर,
मन्द्र मोहन
ध्वनि गम्भीर
रहिछि य़ेपरि तुम्भर ।
मणि-रतनरे निर्मित शोहे
भूमितळ तहिँ उज्ज्वळ,
मेघ हे ! तुमरि भितरे य़ेह्ने
सलिळ बिन्दु ढळढळ ।
महोच्च दिशे गगनचुम्बी
अग्रभाग से हर्म्यर,
महनीय य़था
तुमे उन्नत
उत्तमगुणे शोभाकर ॥
*
(६८)
महिळानिकर करे बहन्ति
लीळा-पुष्कर अबहेळे,
माघ्य सुमन सद्य बिकच
राजे सुन्दर कुन्तळे ।
मुख-लाबण्य दिशे पाण्डुर
शोभायमान,
मर्द्दिबा य़ोगुँ लोध्र-कुसुम
परागमान ।
मणीबक शोहे
नब कुरबक
ताङ्करि केशबन्धरे,
मन मोहिनिए
शिरीष सुमन
खचित य़ुगळ कर्ण्णरे ।
माङ्गरे तहिँ
नागरीङ्कर
परिशोभित,
मुदिर ! रम्य नब कदम्ब
तब आगमे य़े प्रस्फुटित ॥
*
(६९)
महीरुहराजि शोहे तहिँ निति
कुसुमे भरा,
मधुपबृन्द गुञ्जन-रत
गन्धलोभरे आत्महरा ।
मृणाळिनी तहिँ नित्य कमळ-
मण्डित,
मण्डित,
मराळबृन्द बेढ़ि रहन्ति
मेखळा रूपरे सुशोभित ।
मेचक निरत
उज्ज्वळ य़ार
शोभइ, से गृहपाळित,
मयूरपन्ति उद्ग्रीब होइ
करन्ति केका बिरुत ।
मसी-तमोराशि निबारि नित्य
सुन्दररूपे बिरचि खेळा,
मोद जन्माए
चन्द्रिकाभरा
सन्ध्या-बेळा ॥
*
(७०)
मुदे रसि एका य़क्षगणर
नयनरु नीर झरे,
मातर अन्य
कौणसि हेतु
नाहिँ एहि बिषयरे ।
मदन-जनित सन्ताप एका
रहिअछि,
मानसे ताङ्क नाहिँ सन्ताप
आउ किछि ।
मिळन घटिले
प्रियजनङ्क
सङ्गतरे,
मार-सन्ताप से हुए शान्त
निश्चितरे ।
मानबशे प्रेम-
कळह जागिले
परस्पर,
मुहाँमुहिँ एका
बिच्छेद हुए
तहिँ निमित्त नाहिँ अपर ।
मेघ हे ! ताङ्क सरस,
मोहन तरुण
बयसुँ भिन्न
नाहिँ किछि आन बयस ॥
*
(७१)
मेघ ! अळकारे शोहे सुरम्य
प्रासादराजिर सुधबळ,
मणि-निर्मित भूमितळ ।
मनोरम तारा-
बिम्ब पतने
दृश्य प्रसरिय़ाए,
मञ्जुळ नाना
सुमनपुञ्जे
सज्जित हेला प्राये ।
मत्तकाशिनीगण गहणे,
मनोरञ्जने तहिँ चळन्ति
य़क्षगणे ।
मन्द्र निनाद शुभे य़ेउँपरि तुमर,
मन्दे बादित
ढक्का शबद
होइले श्रबणगोचर ।
मादकताभरा कळ्पपादप-
सञ्जात ‘रतिफळ’ नामक,
मद्य सेबन
करिथाआन्ति
अन्तरे होइ समुत्सुक ॥
*
(७२)
मुष्टिरे निज
सुर-मनीषिता
कुमारीमाने,
मणि धरि खेळ खेळिथाआन्ति
केते गोपने ।
मन्दाकिनीर स्वर्ण्णबालुका
भितरे थान्ति लुचाइ,
मजारे सेकाळे
अन्य केतेके
खोजिथाआन्ति सूचाइ
मृदु समीरण
गङ्गा-सलिळ-
बिन्दु बहि,
मुद जन्माए ताङ्क हृदये
मन्दे बहि
मन्दार तरु राजि तीरदेशे
सुशीतळ छाया बिस्तारि,
मारतण्डर चण्ड तेजरु
करे सुरक्षा ताङ्करि ॥
*
(७३)
मन्मथ-बाणे प्रणयीबृन्द
बिभोळ होइ,
मौने चपळे
पलङ्के निज
कर बढ़ाइ ।
मानिनीङ्कर नीबिबन्धन
फिटाइ टाणिले अम्बर,
मन्दाक्षरे बिम्बाधरीए जर्जर ।
मुठारे ताङ्क
कुङ्कुम आदि
चूर्ण्णराजिकि
धरि बेगे,
धरि बेगे,
मणिदीप-शिखा उपरे फिङ्गि
देइथाआन्ति
उद्बेगे
उद्बेगे
मात्र से दीप ऊर्द्ध्व-तेजरे
समुज्ज्वळ,
मोघ हुए तेणु प्रयास ताङ्क
तहिँ सकळ ॥
*
(७४)
मरुत सेपुरे
सौधराजिरे
तुम परि,
मेघमानङ्कु उच्चभूमिकि
घेनिय़ाए धीरे सञ्चरि ।
मुञ्चि सलिळ
बिन्दु अमित
कान्थरे तहिँ सुसज्जित,
मञ्जु चित्र-
पटपन्तिकि
तिन्ताइ देइथान्ति से त ।
मने शङ्कित
होइ सते किबा
आचरि थिबारु दूषण,
मूर्त्ति धूमर बहिबारे निजे
प्रबीण ।
प्रबीण ।
मार्गरे तहिँ बातायनर,
मौने सहसा भग्न शरीरे
पळाइय़ान्ति से तरतर ॥
*
(७५)
मध्य-य़ामिनी बेळारे तुमरि
आबरण य़ेबे अपसरे,
मृगलाञ्छन बितरे स्वच्छ
किरण ताहारि प्रभाबरे ।
मण्डप-सूता- जाले लम्बित
चन्द्रकान्त-मणिनिकर,
मुञ्चि बिमळ सलिळ बिन्दु-
बिन्दु झर,
महिळाङ्कर क्लान्तिकि धीरे
दूर करे,
मैथुनय़ोगे सञ्जात य़ाहा
अङ्गरे ।
मनसिज-बशे निज प्रियङ्क
बाहुर शिथिळ आलिङ्गनुँ,
मुक्त होइले मृदुळ तनु ॥
*
(७६)
मनोहारी तहिँ
बहिरुद्यान
बैभ्राज नाम ताहार,
मारबशे कामी
य़क्षसमूह
निति करन्ति बिहार ।
मधुर आळाप
बिरचि अमर-
गणिकागणर सङ्गरे,
माति रहन्ति रङ्गरे ।
मन्दिरे पूरि रहिछि ताङ्क
अशेष,
अशेष,
महार्घ धन- रत्नादि निधि
बिशेष ।
बिशेष ।
मयुपतिङ्क कीरति गायने निरत,
मधुर-कण्ठ किन्नरगण
रहिथाआन्ति सहित ॥
*
(७७)
मिळनोत्सुका अभिसारिकाए
रभसे,
रभसे,
मदन-आबेगे केबण मार्गे
गमिथिले निशा उरसे ।
मिळिथाए सबु सूचना तार,
मिहिर उदित
होइले प्रभाते
परिष्कार ।
मन्थर गति
तेजि चञ्चळ
चळने कम्प हेतुरु,
मन्दार फुल
खसिय़ाइथाए
ताङ्करि केशपाशरु ।
मृदुळ पत्र- राजि ठाबे ठाबे
होइथाए तहिँ निपतित,
मञ्जुळ निज
स्वर्ण्ण कमळ
कर्ण्णरु हुए बिच्युत ।
मोतिफळमान पड़िथाए तहिँ
उरज-य़ुगळे शोभाकर,
मुकुतार हार सूत्र छिन्न
हेबारु गळइ ताङ्कर ॥
*
(७८)
मयुराजङ्क सखा साक्षात
महेश्वर,
महिमामय से
अळकापुरीरे
बास करन्ति निरन्तर ।
मकरकेतन सेहि कारणरु
भयरे,
मधुकर-गुण- य़ोचित धनुष
स्वकरे धारण न करे
मात्र सफळ
हुए ता कार्य़्य
करिबा अर्थे
कामी-लक्ष्यर भेदन,
मोघ न हुअइ केबेहेले एहि
साधन ।
साधन ।
मोहिनी चतुरी
कामिनीङ्कर
भ्रूकुटि-कुटिळ
चाहाँणी सह,
चाहाँणी सह,
मदाळस चारु
बिळासभङ्गी
शृङ्गारभरा
बार्त्ताबह ॥
बार्त्ताबह ॥
*
(७९)
महिळाङ्कर बेश आभरण
पाइँ प्रसाधन दरब,
मनोरथदायी कळ्प-पादप
करिथाए एका प्रसब ।
मदिरा य़ाहा कि दक्ष अटइ
चारु कटाक्ष-शिक्षादाने,
मोहन चित्र
बस्त्रनिचय
अङ्गे माने ।
मृदु किशळय सङ्गे बिबिध
सुमन,
माल्यादि नाना प्रकार भूषण
शोभन ।
मुक्तरूपे से
दिए रक्तिम
अलक्तक,
मण्डनोचित पाद-कञ्जर
सुरञ्जक ॥
*
(८०)
महाबळशाळी अश्वसमूह
पल्लब सम
श्यामळ अङ्ग धरे,
मयूखमाळीर हय-बृन्दकु
निज शक्तिरे
प्रतिस्परधा करे ।
मत्त बारण रहिअछन्ति
महीधर सम रूप बहन्ति ।
मेघ हे ! तुमरि धारा परि त,
मद बर्षण करिथाआन्ति
अप्रमित ।
मण्डन परि केते शोभा पाए
क्षतचिह्न य़े
बीरगणङ्क अङ्गरे,
मण्डळाग्र- घात-जात ताहा
रणे य़ुझिबारु
दशग्रीबर सङ्गरे ॥
*
(८१)
मयुराटङ्क अट्टाळिकार
उत्तर भागे शोभन,
मोहरि भबन
दूरुँ चिह्निब
करि तुमे अबलोकन ।
मनोरम तार तोरण सार,
महेन्द्र-धनु
तुल्य बिबिध
बर्ण्णे रचित बिभास्वर ।
ममतामयी मो प्रियतमा निजे
पुत्र पराये
क्षुद्र एक,
मन्दार तरु
गृहर प्रान्ते
बढ़ाइछि देइ
स्नेह अनेक ।
मण्डा कुसुम- भारे मण्डित
नइँथिब कळेबर,
मेघ हे ! तळरु तोळिहेब ताहा
बढ़ाइ आपणा कर ॥
*
(८२)
मोर सेहि प्रिय निबासर,
मध्यरे एक बापी रहिअछि सुन्दर ।
मरकत-मणि- शिळारे सोपान-
सरणी तार,
मण्डणि होइ अछि अतिशय
चमत्कार
मनोहर सदा
व्याप्त तहिँरे
बिकशित बहु स्वर्ण्ण-बरण
कञ्जमान,
मेदित सुचारु
बइदूर्य़्यर
तेज सम य़ार नाड़ समस्त
दीप्तिमान ।
मराळपन्ति मुदित चित्ते
खेळा करन्ति सलिळे,
मुदिर ! तुमरि दर्शन पाइ
दुःख बरजि सेकाळे ।
मानस थिलेबि समीपबर्त्ती
सरोबर,
सरोबर,
मानस ताङ्क व्यग्र नोहिब
गमिबा अर्थे सत्वर ॥
*
(८३)
मनोरम एक क्रीड़ापर्बत
रहिअछि तीरे बापीर,
मसारक मणि य़ोगे सज्जित
होइअछि चूड़ा गिरिर ।
महाधातुमय रम्भा पादप
बेढ़ा रहिअछि चौदिगरे,
मन हरे तेणु दर्शनरे
मोहिनी दामिनी चमकइ य़ेबे
तुम नीळतनु पारुशे,
मेघ ! से दृश्य निरेखिले बारे
नेत्र-य़ुगळे बिबशे ।
मानस हुअइ बिचळित,
मने पड़े मोर प्रेयसीर अति
प्रियभाजन से पर्बत ॥
*
(८४)
माधबीफुलर मण्डप तहिँ
कुरुबके बेढ़ा होइछि,
मृदुळ चपळ पल्लबराशि
लोहित अशोक बहिछि ।
मञ्जु बकुळ सङ्गतरे,
मनोरम सेहि पर्बतरे ।
मोहरि सहित अशोक तरु,
मनीषा करइ लभिबाकु तुम
सखीर सव्य पाद सुचारु
मोहरि सङ्गे तरु बकुळ,
मनासइ पुणि दोहद छळे ता
बदन-मधुकु होइ आकुळ ॥
*
(८५)
मध्यभागरे से बेनि तरुर
कनक य़ष्टि रहिछि,
मञ्जुळ एक स्फटिकर पीठ
तहिँरे खञ्जा होइछि ।
मूळभागरे से दण्डर होइ
अछि सुन्दर बिजड़ित,
मणिराजि य़ाहा तरुण बांश-
कान्तिकि करे प्रकटित ।
मेलि चन्द्रिका सेथि बसे एका
प्रीत मने,
मयूर बन्धु
तुमर सन्ध्या
आगमने ।
मो प्रिया सेकाळे करताळि देले
उत्साहरे,
मधु रुणुझुणु कङ्कण-नाद
शुणि आनन्दे नृत्य करे ॥
*
(८६)
मनेरख सारा हृदुँ अपाशोरा
कहिलि एतेक सङ्केत,
मेघ हे ! आहुरि रहिछि तहिँर
दुआर पारुशे अङ्कित ।
मङ्गळमय शङ्ख पद्म
निधिर आकार य़ुगळ,
मन्दिर मोर चिह्निब तुमे
देखि लक्षण सकळ ।
मोहरि बिहुने निश्चिते तार
तेज न थिब,
मिहिर बिना त दीप्तिकि निज
प्रकाशि पारइ
नाहिँ राजीब ॥
*
(८७)
मातङ्ग-शिशु परि तेबे तुमे
बहने,
मूरति बहिब
प्रबेशिबा लागि
सदने ।
मोहरि कथित
रमणीय-शिख
बिहार-शैळे
बिश्राम नेब हर्ष भरि,
मिञ्जि-मिञ्जि अळप आलोक
प्रसारिब तुमे
ज्योतिरिङ्गण-बृन्द परि ।
मेलाइ तुरित
बिजुळि-नेत्र
घन ! तब,
मोहरि भबन
भितरकु धीरे
अनाइँब ॥
*
(८८)
मृदुळा श्यामा मो सुन्दरी,
मधुर अधर शोभइ पक्व
बिम्ब समान छबि धरि ।
मत्तकाशिनी सूक्ष्म-दन्ती
थिब सेठारे,
मझि कृश तार, नाभि ता गभीर
अळ्प नत से उरज-भारे
मन्थरे चाले सुचारु,
मनोरमा निज गुरु नितम्ब
थिबारु ।
थिबारु ।
मृगी-चाहाँणीकि प्रकाश करइ
से त चञ्चळ सुनयना,
मने हुए सते तरुणी-कुळे से
बिधातार आदि सर्जना ॥
*
(८९)
मित-सुबादिनी से जाण,
मोहरि द्वितीय पराण ।
मुग्ध-हृदया चक्रबाकीर
पराये,
मानिनी एकाळे एकाकिनी थिब
अथये ।
मूरुछि ताहारि सङ्गति,
मरुछि झुरि मुँ बहुदूरे सहि
दुर्गति ।
मानसिक घोर बिषादे प्रेयसी
दीर्घ बासर य़ापिछि,
मुहिँ एतेबेळे भाबुछि ।
मूरति अपर बहिथिब प्रिया
जीबधनी,
मथिता होइले तुषारे य़ेह्ने
कमळिनी ॥
*
(९०)
मुकर नेत्र फुलिथिब तार
कान्दि कान्दि अतीब दुःखे
मो बिरहरे,
मउळिथिब ता रङ्ग अधर
उष्ण शुआस बहिबारु तार
अति कोहरे
मृदुळ हस्ते थापिथिब से त
आपणा गण्डदेश,
मुखरे आबर ताहारि लम्बि
थिब अय़त्न केश
म्लानि भजिथिब ताहारि सर्ब
मधुरिमा,
मेघ ! तुमे य़था ढाङ्किले दिशे
चन्द्रमा ॥
*
(९१)
मदीय सदने चाहिँब बहने
देब पूजुथिब
प्रिया य़ु्बती,
मने केते भाबि अबा बान्धबी
आङ्कुथिब मो
क्षीण मूरति
मिष्टबादिनी शारीकि धीरे,
मति-उत्सुके पचारुथिब से
पिञ्जरारे,
‘मने पकाउ कि प्रिय पतिङ्कि
आलो रसिका !
ममता सेनेह करुथिले बहु
तोते से एका ॥’
*
(९२)
मळिन थिबटि पिन्धिला बास
बान्धबीर,
मृदु कोळे निज बीणा रखिथिब
प्रिया मोहर
मो नामरे पद रचि सम्बोधि
उच्चे गायन लागि,
मानस ताहार होइथिब अनुरागी
महादुःखरे कोमळ हस्ते
प्रिया तार,
मार्जना करु थिब लोतकरे
तिन्तिबा देखि बीणा-तार
मूर्च्छना निजे
बिरचिथिले बि
सङ्गीतर,
मो कथा भाबि से भुलिय़ाउथिब
बारम्बार ॥
*
(९३)
मृगलोचना से
देहळीरे थिबा
फुल गोटिगोटि
रखि भूतळे,
मास केते आउ बिरहर दाउ
अछि बोलि गणु
थिब बिकळे
मानसे आपणा कळ्पना रचि
अथबा,
अथबा,
मोहरि साथिरे मन्मथ-केळि
अनुभबुथिब सधबा ।
महिळाङ्कर ए सबु कार्य़्य
स्वामी-बिरहर समयरे,
मनोबिनोदन उपाय अटइ
प्राय देखाय़ाए जगतरे ॥
*
(९४)
मो बिरह तुम सखीकि दिबसे
व्यथित करु न थिब सेतिकि,
मग्न थिबारु नानादि करमे
व्यस्तता हेतु घरे एकाकी ।
मात्र मोर ए भाबना,
मनोबिनोदन उपाय बिनुँ त
निशिरे बढ़िब बेदना ।
मेदिनी उपरे करुथिब प्रिया
शयन,
मातर निद्रा भजु न थिब ता
नयन ।
मोहरि बार्त्ता परकाशि,
मरमे ताहार जगाइबा लागि
सुखराशि ।
मध्यरजनी बेळारे धीरे,
मोहरि भबन- गबाक्षे थाइ
देखिब साधबी
प्रियाकु बारे ॥
प्रियाकु बारे ॥
*
(९५)
मनोदुःखरे क्षीण होइथिब
तनु तार,
मोहरि बिरहे
शोइथिब सेत
एक पारुशरे शय़्यार ।
मूळरे पूर्ब दिशार,
मात्रकळाए अबशेष थिबा
मृगाङ्क-लेखा प्रकार,
मळिन छबिकि थिब बहि,
मेघ हे ! मोहरि प्रियसही ।
मुहूर्त्ते भळि य़ेउँ रातिकि,
मोदे निमज्जि बिताइछि निजे
इच्छारतिरे से कौतुकी ।
मो बिरहे अति दीर्घ प्रतीत
हेउथिब सेहि रजनी,
मुञ्चि उषुम लोतक-बारिकि
बिताउथिब मो सजनी ॥
*
(९६)
मृगलाञ्छन- सुधामय शीत
कर-निकर,
मार्गे सेकाळे पड़िले भबन-
गबाक्षर ।
मुहूर्त्तक से
पूरुब सेनेह
अनुराग य़ोगुँ अनाइँब,
मात्र बिरह दुःखरे निज
दृष्टि सहसा फेराइब ।
मनोबेदनारे करिथिब प्रिया
नयन आच्छादित,
मृदु अश्रुळ पलकराजिरे
भाबे होइ अभिभूत ।
मेघ ढाङ्किले दिबसरे,
मुदि न रहे कि फुटि न पारइ
स्थळपद्मिनी य़ेरूपरे ॥
*
(९७)
मृदुळ अधर- पत्रे प्रियार
व्यथा हेउथिब
दीर्घ शुआस बाजि,
मालपा-बिहीन स्नानय़ोगुँ तार
कर्कश होइ
थिब कुन्तळराजि ।
मुकर दोळित थिब अय़त्ने
लम्बि कपोळ परिसरे,
मनोरमा ताहा खेळाउथिब य़े
निज करे ।
मोहरि सङ्गे स्वप्ने हेलेबि किभळि
मिळन घटिब, आपणा हृदये छइळी,
मनासिब से त कौणसिमते
निद्रा लभिबा
निमन्ते सुखकर,
मातर नेत्र- नीरबाधा य़ोगुँ
न आसिब तहिँ
निद्रार अबसर ॥
*
(९८)
माळा परिहरि कबरीकि प्रिया
बान्धि रखिछि
आद्य बिरह दिने,
माखरा से केश- मूळरे परश
करिले कष्ट
लागइ मोहरि बिने
मोचन होइले शाप मोर,
मुकुळा करिबि शोकहीन होइ
से दृढ़ बेणीकि प्रेयसीर
मुहुर्मुहु से अपसारुथिब
आपणा कपोळ परिसरु,
मृदु अछिन्न- नख हस्तरे
उठाइ ताहारे प्रियभीरु ॥
*
(९९)
माल्यादि सारा बिभूषणमान
आपणार,
मृदुळ तनुरु करिथिब प्रिया
परिहार ।
मुहुर्मुहु से शय़्याकोळे,
महाकष्टरे निबेशिथिबटि
क्षीण कळेबर भाबभोळे ।
मेघ हे ! सेठारे नयनुँ तब,
मोचन निश्चे
कराइब प्रिया
नबनीरमय अश्रु-लब ।
मृदुळ दयाळु य़ेउँमानङ्क
अन्तर,
अन्तर,
मरम तरळि
य़ाए जगतरे
देखिले दुःख अन्यर ॥
*
(१००)
मुँ जाणे, निश्चे मानसे तुमरि
सखीर,
मो प्रति सेनेह प्रीति रहिअछि
गभीर ।
मने जागइ मो सेहि कारणरु
ए तर्कणा,
मार-तापे एते दशा भजिथिब
आद्यबिरहे सुलक्षणा ।
मणि आपणाकु सउभाग्यर
अभिमानी,
मुखर भाबरे बखाणुनाहिँटि
एते बाणी ।
मो कथा कहिलि य़ेउँपरि,
मेघभाइ ! सबु देखिब शीघ्र
नेत्र पुरते सेहिपरि ॥
*
(१०१)
मने भाबुछि मुँ एपरकार,
मिळिले पाशरे तुमे प्रियार ।
मृगलोचनार नेत्र-य़ुगर
स्फुरिब ऊर्द्ध्वभाग,
मुञ्चिअछि से
कज्जळ-गार
मो बिनुँ भजि बिराग ।
मुखे बिशीर्ण्ण कुन्तळ हेतु
अपाङ्ग य़ाए
न पारे बुलि,
मदिरा सङ्ग तेजिथिबारु ता
य़ाइथिब भूरु-
भङ्गी भुलि ।
मीनमानङ्क आलोड़न य़ोगुँ
कम्पित,
कम्पित,
मञ्जुळ नीळ कञ्ज परि से
नेत्र दिशिब सुशोभित ॥
*
(१०२)
मानिनी प्रियार स्फुरित होइब
सेकाळे सरस चारु,
मोचा पादपर स्तम्भ समान
गौर य़े बाम उरु ।
मो नखचिह्नमान,
मुद्रित होइ
नाहिँ तहिँ य़ेणु
बिरहे बर्त्तमान ।
मुकुताखचित सुरुचिर चिर-
परिचित,
मेखळाधारणुँ होइअछि एबे
दैबय़ोगे से बञ्चित ।
मञ्चाळि रति-अबसाने,
मोर हस्त से ऊरुरे नित्य
तत्पर हुए सुखदाने ॥
*
(१०३)
मोहरि कान्ता सेतिकि बेळे,
मज्जित य़दि
रहिथिब सुखे
निद्राकोळे ।
मुखरता तुमे न भजिब,
मौनभाबरे रहिय़िब ।
मन्द्र निनाद तेजि निजर,
मटाळिब तुमे ताहारि पारुशे
एक प्रहर ।
मजारे सजनी कौणसिमते
स्वपने,
मोते अनुरागे आलिङ्गिथिले
गहने ।
मृदुळ ताहार बाहुबल्लरी-
बन्धन,
मोहरि कण्ठुँ न तुटिब य़था
चेष्टित हेब आहे घन ! ॥
* * *
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Continued : Meghaduta : Uttara-Megha (2) :
Verses 104-121 Last :
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Complete Odia ‘Meghaduta’
on
Web :
Link :
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Related Links :
Complete ‘Kosali Meghaduta’ :
(Honoured with ‘Dr.
Nilamadhab Panigrahi Samman’
conferred by Sambalpur
University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Odisha in 2010)
Link :
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Translated Kavyas by :
Dr.Harekrishna Meher :
Link :
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