Friday, December 30, 2011

Three Poems of Mahendra Bhatnagar (Oriya: Harekrishna Meher)

डॉ. महेन्द्र भटनागर की तीन कवितायें
मूल हिन्दी से ओड़िआ भाषान्तर : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = =


Three Hindi Poems of Dr. Mahendra Bhatnagar
Oriya Translation By : Dr. Harekrishna Meher
= = = = = = = = =


१. बिजलियाँ गिरने नहीँ देंगे :
विद्युत्‌पात हेबाकु देबुँ नाहिँ :

http://hkmeher.blogspot.in/2011/12/mahendra-bhatnagars-poem-oriya-version_28.html
*
२. अदम्य :
अदम्य :
http://hkmeher.blogspot.in/2011/12/mahendra-bhatnagars-poem-oriya-version.html
*
३. ओ भवितव्य के अश्वो ! :
हे भबितव्यर अश्वगण ! :

http://hkmeher.blogspot.in/2011/12/hindi-poem-of-mahendra-bhatnagar-oriya.html
= = = = = = = = =


Biography of Poet Dr. Mahendra Bhatnagar : http://www.srijangatha.com/profiles_Args_34


= = = = = = = = = =




Thursday, December 29, 2011

Indradhanu & Aamrakuta (Kosali Meghaduta: Harekrishna Meher)

Indradhanu & Aamrakuta
From ‘Kosali Meghaduta’
of Dr. Harekrishna Meher:
= = = = = = = = = = =


इन्द्रधनु एवं आम्रकूट पर्वत
= = = = = = =


इन्दर् धनु केते सुन्दर् दिशुछे इ साम्‌ने,
बिनोमुँड़िर् टिपिनुँ से उठिछे जतने ।
गुटे ठाने मिशि गले
रतन् केते बानि,
तेज् झल्‌मल् करुछे सते
मन्‌के नेसि टानि ।
इ धनु त तोर् साम्‌ला देहिके,
सजेइ देबा केते रंगे
अएन् दिश्‌बु सेनुँ ।
खोच्‌ले य़ेन्ति रङ्ग्‌रङ्गिआ मजूर्-चूल्,
गोपाल्-बेशे सुन्दर् देही
नन्दनन्दन् काह्नु ॥

[15]

*
आम्रकूटे तिहिड़ि देइ मुषल् धारा बिषम्,
जंग्‌ली जूएर् उत्पात्‌के करि देबु खतम् ।
बाट् चालिचालि तुइ त थाकि
य़ाइथिबु केते,
आदर् करि शुर्‌ङ्गे निजर्
ठान् देबा से तोते ।
आस्‌रा लागि पाशे बन्धु आएले
सेतार् आघर् उप्‌कार्‌के इ बेले,
हेतेइ करि कृपण् घले
अनादर् करे नाइँ ।
देखुछु त आम्रकूट पर्बत
केड़े उँचा बहिछे मान् महत,
इतार् सरि साधुर् कथा
काणा कहेमि मुइँ ॥

[17]
= = = = = = = = = =


( कोशली मेघदूत : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर )
= = = = = = = = = = =

Wednesday, December 28, 2011

Mahendra Bhatnagar’s Poem विद्युत्‌पात हेबाकु देबुँ नाहिँ (Oriya Version : Harekrishna Meher
























= = = = = = = = = = = = = = =

मूल हिन्दी कविता : बिजलियाँ गिरने नही देंगे
रचयिता : डॉ. महेन्द्र भटनागर
= = = = = = = = = = = = = = = =


कुछ लोग
चाहे जोर से कितना
बजाएँ युद्ध का डंका
पर, हम कभी भी
शान्ति का झंडा
जरा झुकने नहीं देंगे ।
हम कभी भी
शान्ति की आवाज को
दबने नहीं देंगे ।

क्योंकि हम
इतिहास के आरम्भ से
इन्सानियत में,
शान्ति में
विश्वास रखते हैं,
गौतम और गान्धी को
हृदय के पास रखते हैं ।
किसीको भी सताना
पाप सचमुच में समझते हैं,
नहीं हम व्यर्थ में पथ में
किसी से जा उलझते हैं ।

हमारे पास केवल
विश्व-मैत्री का,
परस्पर प्यार का सन्देश है,
हमारा स्नेह
पीड़ित ध्वस्त दुनिया के लिए
अवशेष है ।

हमारे हाथ
गिरतों को उठाएंगे,
हजारों
मूक, बंदी, त्रस्त, नत,
भयभीत, घायल औरतों को
दानवों के क्रूर पञ्जों से बचाएंगे ।

हमें नादान बच्चों की हँसी
लगती बड़ी प्यारी,
हमें लगतीं
किसानों के
गडरियों के
गलों से गीत की कड़ियाँ मनोहारी ।
खुशी के गीत गाते इन गलों में
हम
कराहों और आहों को
कभी जाने नहीं देंगे ।


हँसी पर खून की छींटें
कभी पड़ने नहीं देंगे ।
नये इनसान के मासूम सपनों पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे ।
= = = = = = =


Hindi Poem of Dr. Mahendra Bhatnagar
Oriya Translation By : Dr. Harekrishna Meher
(Bidyutpaata hebaaku debun naahin)
= = = = = = = = =
विद्युत्‌पात हेबाकु देबुँ नाहिँ
(मूल हिन्दी कविता –
बिजलियाँ गिरने नहीँ देंगे : डॉ. महेन्द्र भटनागर)

ओड़िआ भाषान्तर : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = =

किछि लोक य़ेते जोर्‌रे
य़ुद्धर डिण्डिम पिटुथान्तु पछे,
आमे केबेहेले
शान्तिर वैजयन्तीकु
टिकिए बि नइँबाकु देबुँ नाहिँ ।
आमे केबे बि
शान्तिर उदात्त उच्चारणकु
दमित हेबाकु देबुँ नाहिँ ॥

कारण हेउछि,
आमे इतिहासर प्रारम्भरु
विश्वास रखिछुँ
मानविकतारे
आउ शान्तिरे ।
गौतम आउ गान्धीङ्कु
आमे रखिछुँ
आपणार हृदय निकटरे ।
काहारिकि पीड़ा देबा
आमे बास्तबरे पाप बोलि बुझुँ ।
काहारि सङ्गे
तुच्छाटारे रास्तारे
आमे कळिद्वन्द्व करुँना ॥

आमठारे रहिछि
बार्त्ता केबळ विश्वमैत्रीर,
परस्पर प्रेमर ।
पीड़ित ध्वस्त दुनिआ लागि
अबशिष्ट रहिछि
आमरि आन्तरिक स्नेह ॥

आमरि हात
कराइब निश्चित
पतितमानङ्कर उत्थान ।
हजार हजार
मूक बन्दी त्रस्त नत
भयभीत आहत
महिळामानङ्कु सुरक्षा करिब
दानबमानङ्कर क्रूर पञ्झारु ॥

निरीह निष्कपट
शिशुमानङ्कर हस
आमकु बहुत भल लागे ।
कृषकमानङ्कर
आउ मेषपाळकमानङ्कर कण्ठरु
निर्गत गीत-पङ्क्ति
आमकु लागे
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी ।
आनन्दर गीत गाउथिबा
एइ कण्ठमानङ्करे
दुःखर उच्छ्वास आउ य़न्त्रणाकु
केबेहेले प्रबेश कराइ देबुँ नाहिँ ॥

हस उपरे रक्तर छिटा पड़िबाकु
केबेहेले देबुँ नाहिँ ।
नूतन मणिषर निश्छळ स्वप्न उपरे
केबेहेले बिद्युत्पात
हेबाकु देबुँ नाहिँ ॥

= = = = = =


Mahendra Bhatnagar’s Poem अदम्य (Oriya Version: HK Meher)

= = = = = = = = = = = = = =

मूल हिन्दी कविता : अदम्य
रचयिता : डॉ. महेन्द्र भटनागर
= = = = = = = = = =

दूर-दूर तक छाया सघन कुहर,
कुहरे को भेद
डगर पर बढ़ते हैं हम ।

चट्टानों ने जब-जब पथ अवरुद्ध किये,
चट्टानों को तोड़ नयी राहें गढ़ते हैं हम ।

ठंडी तेज हवाओं के वर्तुल झोंके आते हैं,
तीव्र चक्रवातों के सम्मुख सीना ताने
पग-पग अड़ते हैं हम ।

सागर-तट पर टकराता भीषण ज्वारों का पर्वत,
उमड़ी लहरों पर चढ़ पूरी ताकत से लड़ते हैं हम ।

दरियाओं की बाढ़ें तोड़ किनारे बहती हैं,
जल-भँवरों, आवेगों को थाम
सुरक्षा-यान चलाते हैं हम ।

काली अंधी रात कयामत की
धरती पर घिरती है जब-जब,
आकाशों को जगमग करते
आशाओं के विश्वासों के
सूर्य उगाते हैं हम ।
मणि-दीप जलाते हैं हम ।

ज्वालामुखियों ने जब-जब
उगली आग भयावह,
फैले लावे पर
घर अपना बेखौंफ बनाते हैं हम ।

भूकम्पों ने जब-जब
नगरों गावों को नष्ट किया,
पत्थर के ढेरों पर
बस्तियाँ नयी हर बार बसाते हैं हम ।

परमाणु-बमों उद्जान-शस्त्रों की
मारों से
आहत भू-भागों पर
देखो कैसे
जीवन का परचम फहराते हैं हम ।
चारों ओर नयी अँकुराई हरियाली
लहराते हैं हम ।

कैसे तोड़ोगे इनके सिर ?
कैसे फोड़ोगे इनके सिर ?
दुर्दम हैं,
इनमें अद्भुत खम है ।
काल-पटल पर अंकित है -
‘जीवन अपराजित है ।’

= = = = = =

Hindi Poem of Dr. Mahendra Bhatnagar
Oriya Translation By : Dr. Harekrishna Meher

(Adamya)
= = = = = = = = =

अदम्य
मूल हिन्दी कविता - अदम्य : डॉ. महेन्द्र भटनागर .
ओड़िआ भाषान्तर : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = =


बहु दूर य़ाए छाइ य़ाइछि
गहन कुहेळिका ।
सेइ कुहेळिका भेदि
आमे आगेइ चालिछुँ रास्तारे ॥
*
बड़ बड़ पथर-खण्डगुड़िक
य़ेबे य़ेबे रास्ता अबरुद्ध करे,
सेइ पथर-खण्डगुड़िकु भाङ्गिदेइ
नूतन मार्ग निर्माण करुँ आमे ॥
*
शीतळ प्रखर पबनर घूर्णि झड़ आसे,
तीब्र चक्र-बात सम्मुखरे
बक्ष प्रसारित करि
अटळ रहुँ आमे प्रति पद-क्षेपरे ॥
*
सिन्धु-तटरे आघात दिए
भीषण जुआरर पर्बत ।
प्रबळ ढेउ उपरे चढ़ि
समस्त शक्ति लगाइ
आमे तत्पर होइथाउँ घोर संग्रामरे ॥
*
स्रोतस्विनी-समूहर बन्या
कूळ भाङ्गि बहि चाले ।
जळ-भउँरी आउ आबेगकु स्थिर रखि
आमे चाळना करुँ सुरक्षार य़ान ॥
*
प्रळयर कळा अन्धकार रात्री
य़ेबे य़ेबे पृथिबीकु घेरिय़ाए,
ब्योम-परिसरकु उज्ज्वळतारे भरिदेइ
आमे कराइथाउँ सूर्य्य़ोदय
आशार आउ बिश्वासर ।
कराइथाउँ आमे
मणि-प्रदीप प्रज्वळित ॥
*
आग्नेय-गिरिराजि य़ेबे य़ेबे
भयङ्कर अग्निर उद्गिरण करे,
बिस्तृत लाभा उपरे
निज भबन निर्माण करुँ
आमे निर्भयरे ॥
*
भूमिकम्प य़ेबे य़ेबे
नगर आउ ग्राम-समूहकु नष्ट करे,
ध्वस्त प्रस्तर-स्तूप उपरे
नूतन बसति
निर्माण करुँ आमे प्रति थर ॥
*
परमाणु बोमार, उद्जान शस्त्रराशिर
प्रबळ प्रहार य़ोगुँ
आहत भूखण्ड उपरे
देख केमिति
उड़ाइथाउँ आमे
जीबनर बैजयन्ती ।
चतुर्दिगरे आमे दोळायित करुँ
नब अङ्कुरराजिर सबुजिमा ॥
*
केमिति भाङ्गिब तुमे सेमानङ्क मस्तक ?
केमिति फटाइब तुमे सेमानङ्क मुण्ड ?
सेमाने अत्यन्त दुर्द्दम;
सेमानङ्क निकटरे अछि अद्भुत साहस ।
काळ-पटळ उपरे अङ्कित होइ रहिछि
“ जीबन अपराजित ” ॥
= = = = = = = =

Tuesday, December 27, 2011

Hindi Poem of Mahendra Bhatnagar (Oriya Rendering: Harekrishna Meher


= = = = = = = = = = = = = = =


मूल हिन्दी कविता : ओ भवितव्य के अश्वो !
रचयिता :
डॉ. महेन्द्र भटनागर
= = = = = = = = = = = = = =


ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास
हम
आश्वस्त अंतर से सधे
मजबूत हाथों से दबा
हर बार मोड़ेंगे ।

वर्चस्वी,
धरा के पुत्र हम
दुर्धर्ष,
श्रम के बन्धु हम
तारुण्य के अविचल उपासक
हम तुम्हारी रास
ओ भवितव्य के अश्वो !
सुनो
हर बार मोड़ेंगे ।

ओ नियति के स्थिर ग्रहो !
श्रम-भाव तेजोदृप्त
हम
अक्षय तुम्हारी ज्योति
ग्रस कर आज छोड़ेंगे ।

तितिक्ष अडिग
हमें दुर्ग्रह नहीं अब
अन्तरिक्ष अगम्य ।
निश्चय
ओ नियति के
पूर्व निर्धारित ग्रहो !
हम ..
हम तुम्हारी ज्योति
ग्रस कर आज छोड़ेंगे ।

ओ अदृष्ट की लिपियो !
कठिन प्रारब्ध हाहाकार के
अविजेय दुर्गो !
हम उमड़
श्रम-धार से
हर हीन होनी की
लिखावट को मिटाएंगे ।

मदिर मधुमान
श्रम संगीत से
हम
हर तबाही के
अभेदे दुर्ग तोड़ेंगे ।
ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास मोड़ेंगे ।


= = = = =


Hindi Poem of Dr. Mahendra Bhatnagar
Oriya Translation By : Dr. Harekrishna Meher

(He Bhavitavyara Aśvagaņa ! )

= = = = = = = = =

हे भबितव्यर अश्वगण !
मूल हिन्दी कविता - ओ भवितव्य के अश्वो ! : डॉ. महेन्द्र भटनागर.
ओड़िआ भाषान्तर : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = =


हे भबितव्यर अश्वगण !
तुमरि लगाम्
आमे समस्ते
आश्वस्त चित्तरे प्रवृत्त
शक्तिशाळी हातरे दबाइ
प्रति थर मोड़ि चालिबुँ स्वेच्छारे ॥
*
महाबळशाळी आमे,
बसुन्धरार सन्तान ।
दुर्द्धर्ष समस्ते,
श्रमर बन्धु आमे,
तरुणिमार अबिचळित उपासक आमे ।
हे भबितव्यर अश्वगण !
शुण,
तुमरि लगाम् आमे स्वेच्छारे
मोड़ि चालिबुँ प्रति थर ॥
*
हे नियतिर स्थिर ग्रहगण !
श्रम-भाब तेजोदृप्त
आमे अक्षय
तुमरि ज्योतिकु
आजि ग्रास करिबुँ निश्चय ॥
*
तितिक्षु अचळ आम पाइँ
आजि आउ दुर्ग्रह नुहे
अन्तरीक्ष अगम्य ।
हे नियतिर पूर्ब-निर्द्दिष्ट ग्रहगण !
आमे,
आमे तुमरि ज्योतिकु
ग्रास करिबुँ निश्चय ॥
*
हे अदृष्टर लिपिगण !
कठिन प्रारब्ध हाहाकारर
अपराजेय दुर्गराजि !
श्रम-धारारे उच्छळ होइ
प्रत्येक हीन घटणार लेखाकु
आमे लिभाइदेबुँ ।


मदिर आउ मधुमान् श्रम-सङ्गीत य़ोगे
आमे प्रत्येक ध्वंसर
अभेद्य दुर्गकु भाङ्गिदेबुँ ।
हे भबितव्यर अश्वगण !
आमे तुमरि लगाम्
मोड़ि चालिबुँ निज इच्छामते ॥
= = = = = = = =

गंगाधर मेहेर की कविता: नर और मयूर * हिन्दी अनुवाद: हरेकृष्ण मेहेर


‘Nara O Mayura’ (नर ओ मयूर)
Original Oriya Poem
By : Svabhava-Kavi Gangadhar Meher (1862-1924)

Hindi Translation By : Dr. Harekrishna Meher
(Extracted from ‘Arghya-Thaali’)

= = = = = = = = =

नर और मयूर
मूल ओड़िआ कविता : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = = =


बैठे थे नरेश्वर
हस्ती के पृष्ठ पर
चित्रमय राजकीय वस्त्रों से सुन्दर
अपना शरीर सुसज्जित कर ॥

रहकर गिरि-शिखर पर
मयूर वही निहार कर
झेल न सका
कृत्रिम बड़प्पन नरेश का ।
अपनी पूच्छ पसार
बोला केकानाद से पुकार ।

“ हे नरेश्वर !
तुम नहीं हो मेरे-जैसे
सुन्दर या ऊँचे ।
देखो मुझे,
तुम कितने छोटे हो मुझसे ।
फिर किसलिये अपनेको
ऊँचे मानकर
बड़ा गर्व करते हो ?

मेरी पूंछ के साथ
अगर तुलना करोगे सही,
अपने वेश को नरनाथ !
तुच्छ समझोगे निश्चित ही ॥

तुम यदि कहोगे भला
‘ज्ञान होता है मनुष्य का,
कहाँ हो सकेगी पक्षी-जाति
मनुष्य की भाँति ?’

मण्डुक के विकट रव के प्रति
ध्यान देती नहीं मेरी श्रुति ।
मेघ का गर्जन सुनकर ऊपर
रहता हूँ मैं नृत्य-तत्पर ॥

झेल नीच जन का दुर्वचन,
उच्च जन की भर्त्सना
हित समझकर अपना,
करते हो क्या उच्च का अर्चन ?

निगलता हूँ भयानक विषधर भुजंग को;
यदि तुम्हारे हृदय में
विनाश की इच्छा जन्मे,
तो क्या विनाश करते हो ?

इन्द्रधनुष के दर्शन से सदा
मेरे मन में खुशी बढ़ जाती ।
क्या दूसरों की सम्पदा
तुम्हारे मन में आनन्द जगाती ?

जो सुख है मेरा पर्वत पर,
भूमि पर भी सुख है वो ।
अटारी में और कुटीर में, हे नरेश्वर !
क्या तुम समान सुखी रहते हो ?”


* * * * *


[‘अर्घ्यथाली’ कविता-संकलन से]
* * * * *

Ref : Nawya (Hindi e-magazine):
http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/अर्घ्यथाली-काव्य-से-दो-कवितायें.html
= = = = = = =


Friday, December 23, 2011

गंगाधर मेहेर की कविता : उसे भी कहते हैं धर्मावतार * हिन्दी रूपान्तर : हरेकृष्ण मेहेर

'Taaku Madhya Bolithaanti Dharma-Abataara'
(ताकु मध्य बोलिथान्ति धर्मअबतार)
Original Oriya Poem
By : Svabhaava-Kavi Gangadhar Meher (1862-1924)
Hindi Translation By : Dr. Harekrishna Meher
(Extracted from ‘Arghya-Thaali’)
= = = = = = = = =


‘उसे भी कहते हैं धर्मावतार’
मूल ओड़िआ कविता : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = = =


पराया धन लुण्ठन करने
मन जिसका व्यस्त निरन्तर,
कुचली जाती जिसकी सम्पत्ति
गणिकागण के चरणों पर ।
जिसका जीवन लाखों लोगों का बोझ अपार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥


जिसकी विद्या धर्मनीति का शीश मरोड़ती,
बुद्धि जिसकी सौ सत्यों को चूर डालती ।
धन से खरिदा जाता जिसका विचार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥


हरण कर स्वर्ण का
जो ताम्र दान करता,
धनों से अपने प्रभु का
सन्तोष जगाता रहता ।
दोषोंको ढँकने अर्पण करता कई उपहार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥


भ्रमण खर्च के लिये
प्राप्त करता है भत्ता,
दरिद्रों के मस्तक मरोड़कर
इधर खाता रहता ।
करता रहता क्षमता का अपव्यवहार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥


घर से खाली हाथ निकलता बाहर,
अपने घर भरता गाड़ी-गाड़ी द्रव्य लाकर ।
बाजार दिखलाता उन द्रव्यों को पुनर्बार,
उसे भी कहते हैं धर्मावतार ॥


* * * * *


[‘अर्घ्यथाली’ कविता-संकलन से]
= = = = =


Ref : Nawya (Hindi e-magazine):
http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/अर्घ्यथाली-काव्य-से-दो-कवितायें.html
= = = = = = = = = =

Love Knows No Distance : Upendra Bhanja (English Version : HKMeher)

Love Knows No Distance


Original Oriya Poem : Kavi-Samrāt Upendra Bhanja


(English Version by : Dr. Harekrishna Meher)


= = = = = = =


Dūre thile pāśe achhi thibu ehā gheni /


Kete dūre Chandra kete dūre Kumudinī //


Prīti abheda tāńkara /


Jete dūre thile je jāhāra se tāhāra //


= = = = = = =



“Even far, I’m thy very near,


This always keep in the heart, My Dear !


Moon and Lily both are


from each other, away very far.


Still flows all the while


their love ever-juvenile.


For a loving couple, see,


the distance may whatever be,


Hers is he


and his is she.”


= = = = = = =



(Taken from Upendra Bhanja’s Oriya Kavya ‘Prema-Sudhānidhi’ Chapter-XIV,


English Rendering by : Harekrishna Meher)


= = = = = = = = =