Monday, January 31, 2011

Kumāra-Sambhava (Canto-V) Oriya Version: Part-1 : Dr. Harekrishna Meher

Kumāra-Sambhava (Canto-V)
Original Sanskrit Mahākāvya by : Poet Kālidāsa
Oriya Version by : Dr. Harekrishna Meher    

(Extracted from Complete Version of the Epic) 
*
Theme of Canto-5 : Penance of Parvati
Number of Verses : 86

*   
(Entire Oriya Version of Canto-5th
with elaborate Introduction
has been published in
‘Bartika’, Literary Quarterly, Dashahara Special Issue,
October-December 2001, pp. 169 – 203,  
Dasarathapur, Jajpur, Orissa)
*
Here Part-1 comprises Verses 1 to 29.
Part-2 , Verses 30 to 62
Part-3 , Verses 63 to 86
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For Part-2,  Link : 
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For Part-3,  Link : 
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कुमार-सम्भव (पञ्चम-सर्ग)
मूल संस्कृत महाकाव्य : महाकवि कालिदास
ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर    

(महाकाव्यर संपूर्ण पद्यानुवादरु आनीत)
*  

* विषय : पार्वतीङ्क तपस्या *
राग : चोखि
प्रथम भाग : श्लोक  १ - २९.
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[1]
पिनाकपाणि शङ्कर –
कोपे भस्म हेले स्मर
देखि सम्मुखे निजर
ए अघटण,
भग्न हेला ग‍उरीङ्क
अभिळाष आन्तरिक,
हृदये निन्दिले धिक
सुन्दरपण ।
स‍उन्दर्य्य़ सार्थक ताहा,
प्रिय पाशे स‍उभाग्य लभ‍इ य़ाहा ॥
*

[2]
अबलम्वि एकाग्रता
मुनिब्रते हो‍इ रता
शारीरिक सुन्दरता
सार्थ-करणे,
बाञ्छिले आळस्यहीना
गिरीशबाळा नबीना,
ए बेनि किपरि बिना
तपश्‍चरणे ।
सेहिपरि प्रेम आबर,
सेपरि स्वामी लभिबा सम्भबपर ?
*

[3]
तपरे दृढ़-बरता
पार्बतीङ्क ए बारता
शुणि माता अधीरता
भजिले मने,
प्रिय कन्यार हृदय
शिबे करिअछि लय
जाणि एपरि निश्‍चय
मेना बहने ।
महातपस्यारु निरोधि,
पुत्रीकि उरे आलिङ्गि कहिले बोधि ॥
*

[4]
“माआ लो ! आमरि पुरे
अछन्ति ईप्‍सित सुरे,
काहिँ तप ? काहिँ दूरे शरीर तब ?
कोमळ शिरीष पुष्प
निज बळ-अनुरूप
सहि पार‍इ मधुप-
पाद- लाघब ।
मात्र पक्षी-चरण-भार,
सहिबा सकाशे शक्ति नाहिँ ताहार ॥“
*

[5]
एहिपरि पर्वतेश-
जाया देइ उपदेश
तप-उद्यमरु लेश-
मात्र पुत्रीकि,
पारिले नाहिँ निबारि,
स्थिर-चित्ता से कुमारी,
अभीष्ट बस्तुरे भारि
दृढ़ मतिकि ।
निम्नगामी बारिकि पुण,
फेराइ आणिबा लागि केबा निपुण ?
*

[6]
दिने प्रशस्त-हृदया
नगाधिराज-तनया
‘तपे मुहिँ दृढ़-लया
सिद्धि पर्य़्यन्त,
निज निबास कानने
रचिबि’ बोलि सुमने
प्रिय सजनी-बदने
पेषि उदन्त ।
अनुज्ञा मागिले पिताङ्क,
हिमाळय जाणिथिले अभीष्ट ताङ्क ॥
*

[7]
सुय़ोग्य अभिळाषरे
तोष लभि मानसरे
आज्ञा देले निबासरे
भूधरसाइँ,
तहुँ प्रसन्न मुखरे
गौरी चळिले सुखरे
शिखण्डीपूर्ण्ण शिखरे
तपस्या पाइँ ।
परे ताहा ‘गौरीशिखर’
बोलि लोके ख्यात हेला नामे ताङ्कर ॥
*

[8]
हृद स्थळे बिलेपित
चन्दनकु बिलोपित
करुथिला य़ा दोळित
दण्ड चञ्चळ,
से हारकु परिहरि
पिन्धिले बाळार्क परि
पिङ्गळ-बरण परि-
धान बल्कळ ।
उरज थिबारु उन्नत,
शिथिळ हेला बल्कळ-सन्धि समस्त ॥
*

[9]
सज्जित चारु कुन्तळ-
कान्तिरे मुखमण्डळ
दिशुथिला समुज्ज्वळ
पूर्बे य़ेभळि,
हेले मध्य जटागम
दिशिला ता मनोरम,
केबळ अळिरे पद्म
न उठे झळि ।
श‌इबाळ य़ोगे आबर,
हो‍इथाए जननेत्र-आनन्दकर ॥
*

[10]
घेनिले मेनादुहिता
तपोब्रते उत्साहिता
मञ्जुळा से त्रिगुणिता
मौञ्जी मेखळा,
ताङ्क देहे प्रतिक्षण
कर्कश कटि-भूषण
कला रोम-हरषण
से त कोमळा ।
आद्य बार पाइँ सूत्रटि,
पिन्धिबारु रक्तबर्ण्ण दिशिला कटि ।
*

[11]
स्तनाङ्गरागे अरुणी-
कृत कन्दुकरे पुणि
ओष्ठ-रञ्जने तरुणी
ग‍उरीङ्कर,
रत थिला य़ेउँ हस्त,
तेजि एबे से समस्त
अक्षमाळारे अभ्यस्त
हेला सादर ।
कला कुशाङ्कुर आदान,
बिक्षत हेला से लागि अङ्गुळिमान ॥
*

[12]
महार्घ मृदु शयने
पारुश परिबर्त्तने
केशुँ पतित सुमने
य़ेउँ गौरीकि,
हेउथिला कष्ट ज्ञान,
तपे से त बर्त्तमान
कले निज उपधान
बाहु-बल्लीकि ।
अनाबृत मुक्त भूमिरे,
उपबेशन शयन कले बिधिरे ॥
*

[13]
तपश्‍चरण-शेषरे
फेरि पाइबा आशरे
कोमळा लता पाशरे
सेकाळे आणि,
बिळास-भङ्गी निजर
अरपि देले आबर
एणीबृन्दरे सुन्दर लोळ चाहाणी ।
समर्पिले उमा सतेकि,
न्यास रूपे तहिँ एइ बस्तु बेनिकि ॥
*

[14]
निरळसा सुकुमारी
श‍इळ-राजकुमारी
देइ कुम्भ-स्तन-बारि
साजिले मात,
बाळ बृक्षङ्क बर्द्धन
कले निजे शुद्धमन,
परे पुत्र षड़ानन हेलेहेँ जात ।
अग्रज समग्र तरुर,
तनय-स्नेह केबे न करिबे दूर ॥
*

[15]
तपश्‍चारिणी अपार
स्नेहे मृगङ्कु आहार
देइ पाळिले नीबार
आहरि करे,
ताङ्क समीपे समस्त
एभळि थिले बिश्‍वस्त,
बढ़ाइ उमा स्वहस्त
कौतुकभरे ।
मृगङ्कर नेत्र सङ्गते,
मापुथिले सखीङ्कर नेत्र अग्रते ॥
*

[16]
करुथिले नित्य स्नान
से बल्कळ परिधान
अनळ होमबिधान
बेद-अभ्यास,
जाणि ए शुभाचरण
दर्शनार्थी ऋषिगण
करुथिले पदार्पण
ताङ्क आबास ।
धर्मबृद्ध ब्यक्ति पाशरे,
बयस गणना केबे केहि न करे ॥
*

[17]
बिरोधी प्राणीनिकर
तेजिले निज पूर्बर
बैरिभाब परस्पर
तपस्थळरे,
इष्टफळे तरुगण
कले अतिथि-तोषण,
अनुक्षण नब पर्ण्ण-
शाळा भितरे ।
दीप्त थिला होम-ज्वळन,
ए रूपे पबित्र हेला से तपोबन ॥
*

[18]
एपरि पूर्बाचरित
तपस्याबळे ईप्‍सित
फळ लभिबा निश्‍चित नुहे सम्भब,
ए कथा मने बिचारि
नगाधिराज-कुमारी
उपेक्षिले निज शारीरिक मार्दब ।
ता ठारु अधिक कठिन,
तपस्या आरम्भ कले हो‍इ तल्लीन ॥
*

[19]
कष्ट पा‍उथिले हेळे
सामान्य कन्दुक खेळे
निज पुरे सेतेबेळे
य़ेउँ सुन्दरी,
बर्त्तमान मुनिब्रते
मज्जिले से अबिरते
स्वर्ण्णपद्मे गढ़ा सते
तनु ताङ्करि ।
बहिथिला उभय गुण,
स्वभाबे कोमळ थिला कठिन पुण ॥
*
[20]
ग्रीष्मकाळे निज चारि
पारुशरे सुकुमारी
अनळ जाळि ताहारि
मध्ये रहिले,
रबिङ्क दहनात्मक
नयन-प्रतिघातक
रश्मि जिणि अपलक
नेत्रे चाहिँले ।
एकलये तपन प्रति,
सुमध्यमा शुभ्रहास-मुखी पार्बती ॥
*
[21]
एहिप्रकार प्रखर
मिहिर-तेज-निकर
बाजिबारु उमाङ्कर
मुख धबळ,
धारण कला सुन्दर
कान्तिकि अरबिन्दर
किन्तु तहिँ निरन्तर
तापे केबळ ।
दीर्घ बेनि नेत्र-प्रान्तरे,
काळिमा स्थान ग्रहण कला मन्थरे ॥
*
[22]
अय़ाचिते उपस्थित
सळिल-बिन्दु सहित
शशीङ्कर रसान्वित
रश्मि शीतळ,
एते मात्र सुलक्षणा
पार्बतीङ्कर आपणा
तपस्या काळे पारणा
हेला केबळ ।
पादपमानङ्क जीबन,
बृत्तिरु न थिला भिन्न एहि साधन ॥
*
[23]
गगनगामी तपन
इन्धन-दीप्त दहन
एभळि नाना ज्वळनङ्कर तेजरे,
अतिशय सन्तापिता
शैळाधिराज-दुहिता
तपान्ते हेले सिञ्चिता नब जळरे ।
उष्ण बाष्प निज शरीरु,
ऊर्द्ध्वकु तेजिले भूमि सङ्गे तहिँरु ॥
*
[24]
आद्य बारि-बिन्दु राशि
बर्षाकाळे मृदु्हासी-
नेत्रलोम परे आसि
मुहूर्त्ते थाइ,
ताड़ि कोमळ अधर
उच्च पीन पयोधर
उपरे पड़ि सत्वर
चूर्ण्णता पाइ ।
धीरे धीरे खसि बळीरे,
बिळम्बे प्रबेश कला नाभिस्थळीरे ॥
*
[25]
प्रबळ धारा-सम्पात
सङ्गते प्रचण्ड बात
बहन्ते शैळसुता त
दिबाबसाने,
अनाबृत शिळातळ-
शेय़े शो‍इले केबळ
सते सेकाळे चञ्चळ
य़ामिनीमाने ।
क्षणप्रभा-चक्षु मेलाइ,
देखुथिले तप-साक्षी स्वरूपे थाइ ॥
*
[26]
पौष रजनी काळरे
बायु तुषार-मेळरे
बहिबा बेळे जळरे
कले बसति,
तहिँ सम्मुखरे ताङ्क
परस्पर चक्रबाक-
दम्पति निशीथय़ाक
ब्याकुळे अति ।
बिरहे करन्ते रोदन,
दयार्द्र हेला उमाङ्क कोमळ मन ॥
*
[27]
आकण्ठ जळे केबळ
दिशिला मुख सुढळ
कम्पिला अधर-दळ
शीतळतारु,
पद्म-मुखुँ आपणार
सुबास कले प्रसार,
निशा समये तुषार
बर्षा हेबारु ।
नष्ट हेला कमळ-धन,
स्वमुखे से कले सते पद्म सर्जन ॥
*
[28]
बृक्षुँ स्वेच्छारे पतित
पत्र भक्षिले निश्‍चित
तपश्‍चर्य़्यार सेहि त
चरम सीमा,
किन्तु से पर्ण्ण आहार
पूर्ण्ण रूपे परिहार
कले तपे आपणार
पर्बत-जेमा ।
तेणु पुराणज्ञ-निकर,
देइअछन्ति ‘अपर्ण्णा’ नाम ताङ्कर ।
*
[29]
कमळिनीर पराय
सुकोमळ ताङ्क काय
दृढ़ ब्रत समुदाय
तहिँ आचरि,
कष्ट सहि निशिदिन
सुमुखी न हेले खिन्न,
तपस्वीगण कठिन
देहे निजरि ।
साधिथान्ति तपस्या य़ाहा,
अत्यन्त निऊन कले गिरिजा ताहा ॥
* * 


Related Link : 
Kumara-Sambhava Kavya : Odia Version by Dr. Harekrishna Meher :
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