‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda
: Canto-10: Chatura-Chaturbhuja)
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गीतगोविन्द : दशम सर्ग
(चतुर-चतुर्भुज)
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[श्लोक-१ : अत्रान्तरे मसृण-रोष]
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इतिमध्यरे समागत एबे
सन्ध्याबेळ,
राधिकाङ्कर क्रोध धीरेधीरे
हेला शिथिळ ।
बहुथिला घन खर निश्वास पबन,
दिशुथिला तेज मळिन ।
अनाइँथान्ति सखीमानङ्क
मुखकु लज्जाबशे,
हरि ए समये उभा हेले आसि
प्रियतमाङ्क पाशे ।
मने आनन्द लभि गोबिन्द
गद्गद होइ मधुस्वरे,
बोइले सुमुखी-सम्मुखरे ॥
*
[गीत-१: वदसि यदि किञ्चिदपि]
*
तुमे य़ेबे किछि आपणार
मुखरु बचन उच्चार,
तुमरि दन्तकान्ति-रूपिणी चन्द्रिका,
मो हृदुँ निबिड़ भय-अन्धार
हरण करिब गो राधिका !
मधुर अधरु मधुपान पाइँ
तुमरि सुमुख-कळाकर,
मोहरि नेत्र- चकोर य़ुगरे
लाळसा जगाए सुखकर ।
प्रिये ! मो उपरे
अभिमान तुम निराधार,
आगो चारुशीळे !
कर ताहा बेगे परिहार ।
दहुछि मो मन
मदन-बह्नि सत्वर,
दिअ मधुपान
तुमरि बदन-पद्मर ॥ (१)
*
सुरसिके ! यदि करिअछ रोष
पाशे मोर तुमे सतरे,
तेबे नेत्रर तीक्ष्ण सायक
प्रहार कर मो उपरे ।
बाहुपाशे मोते
बन्धन कर आहुरि,
दन्त-आघाते
क्षत कर देह मोहरि ।
तुमरि इच्छा य़ाहा कर,
य़ेपरि लभिब सुखसार ॥ (२)
*
तुमे हिँ मोहर अळङ्कार,
तुमे एका अट प्राण मोहर ।
संसार ए त
सुबिशाळ पाराबार,
तहिँरे तुमे त
मो लागि रत्नसार ।
निरते मोठारे प्रियसहि !
रह अनुकूळ भाब बहि ।
एथिपाइँ सखि ! अबिरत,
हृदय मोहर चेष्टित ॥ (३)
*
सुनीळ कञ्ज- पराय तुमरि
मञ्जुळ बेनि नयन,
किन्तु एकाळे बहिअछि से त
रक्त-बारिज-बरन ।
अनङ्ग-भाब अनुरागे,
रामा गो ! तुमरि निज आगे,
सेहि आरक्त नयने करिब
कृष्णकु य़दि रञ्जित,
तेबे उत्तम उचित कथा ए
निश्चित ॥ (४)
*
अभिमानिनि गो ! तुम्भर,
य़ुगळ उरज-कुम्भर
उपरे दीप्ति लभु मणिहार-मञ्जरी,
रञ्जित करु हृद-परिसर तुम्भरि ।
खेळा करु चारु मेखळा,
तुमरि पृथुळ जघनदेशरे चपळा ।
किणिकिणि नादे आपणा,
बीर मदनर निर्देश करु
घोषणा ॥ (५)
*
तुमरि चरण सुकुमार,
स्थळपद्मर कान्तिकि करे धिक्कार ।
मोर हृदयर बर्द्धन करे शोभा,
सुरतिकेळिर रङ्गे से मनलोभा ।
रञ्जिदेबि से पयर य़ुग्म
घेनि अलक्त रस मनोरम,
कोमळ-मधुर-सुबादिनि !
आज्ञा दिअ गो सङ्गिनि ! ॥ (६)
*
मस्तके मोर प्रिये ! तब सुकुमार
पाद-पल्लब थोइदिअ आपणार ।
से हेब मो शिरे आभरण,
करिब बिषम मन्मथ-बिष निबारण ।
सखि गो ! अङ्गे मोर,
कामसन्ताप-तपन जळुछि घोर ।
तहुँ सञ्जात बिकारसर्ब
करु हरण,
घेनि समुचित उपचार एबे
तब चरण ॥ (७)
*
एरूपे मानिनी राधिकाङ्कर
सन्निधिरे,
रसनिधि हरि भाषिले धीरे ।
सुमधुर अति मनोहर
चञ्चळ चाटु प्रिय गिर ।
श्रीमती पद्माबतीपति जयदेबङ्कर,
बिरचित एहि रुचिर बचन
भबे जय लभु शुभङ्कर ॥ (८)
*
[श्लोक-२ : परिहर कृतातङ्के]
*
अन्य तरुणी प्रति मो चित्ते
अछि आसक्ति भाबानुराग,
बोलि अभिमान करुअछ तुमे
कर से शङ्का परित्याग ।
राधा गो ! तुमरि पीन पयोधर
घन जघन,
करिछि मोहरि हृदये निरते
आच्छादन ।
एहि कारणरु अन्य रमणी बिषय,
चिन्ता कदापि करे नाहिँ मोर हृदय ।
अतनु व्यतीत आन
नाहिँ के भाग्यबान,
य़ेहु मो हृदय मध्यरे
सबळ प्रबेश करिपारे ।
तुम उरसिज परशे प्रणय-
आलिङ्गन,
करिबा अर्थे दिअ अनुज्ञा
प्रिय बचन ॥
*
[श्लोक-३ : मुग्धे ! विधेहि मयि]
*
मुग्धे ! य़दि मुँ करिअछि अपराध,
तेबे निर्दय दन्ते आघात
कर मोते निर्बाध ।
बाहु-बल्लरी प्रसारि निबिड़े
बन्धन कर मोते,
आहुरि कठोर बक्षोजे चापि
पीड़ित कर य़ुकते ।
भामिनि गो ! दिअ
मोते ए शास्ति प्रहार,
अन्तरे पाअ
तुमे आनन्द अपार ।
पञ्चसायक- चण्डाळ सते
साधुअछि मोरे कि दाउ,
ताहारि दारुण बाण-घाते मोर
पराण किन्तु न य़ाउ ॥
*
[श्लोक-४ : शशिमुखि ! तव भाति]
*
चन्द्रमुखि गो ! दिशे कुटिळ,
तुमरि रम्य भूरु य़ुगळ ।
मन बिमोहित करणे तरुण
जनङ्कर,
प्रते हुए काळ सर्प स्वरूप
भयङ्कर ।
तहुँ सञ्जात गरळ-भयर
निबारणे एकमात्र,
राधिके ! अमोघ औषध रूपे
रहिछि सिद्ध मन्त्र ।
मधु-सुधा सेहि परा,
तुमरि अधरु बिगळित रसभरा ॥
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[श्लोक-५ : व्यथयति
वृथा मौनं]
*
तन्वि गो ! तब नीरबता एबे
बिअर्थरे,
बेदना जगाए मो चित्तरे ।
मधुर बचन कहि पञ्चम
स्वर बिस्तार कर,
चारु चाहाँणीरे अनाइँ मोहर
हृद सन्ताप हर ।
तेज बिमुखता सुमुखि ! न भज बिराग,
किन्तु कदापि कर नाहिँ मोते तिआग ।
प्रेयसि गो ! तुमे मुग्धा,
तुमरि सेनेह-भाबे अतिशय बन्धा
निजे मुहिँ प्रियतम,
उभा होइअछि देख सम्मुखे तुम ॥
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[श्लोक-६ : बन्धुक-द्युति-बान्धवो]
*
तुमरि अधर बधूली फुलर
कान्ति बहिछि केड़े मनोहर ।
कपोळ य़ुगळ मधुक पुष्प
पराये दिशुछि परिशोभित,
नेत्र करुछि नीळ कमळर
कमनीयताकु तिरस्कृत ।
तिळ सुमनर समान,
नासिका तुमर शोभन ।
प्रियकान्ते गो ! दन्त तुम
सुन्दर दिशे कुन्द सम ।
पञ्च कुसुमे सुसञ्च तब
बदनर सेबा फळे,
पञ्चशर से मन्मथ बीर
बिश्व जिणइ हेळे ॥
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[श्लोक-७ : दृशौ तव मदालसे]
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‘मदाळसा’ तुम नेत्र-रीति,
सुन्दरि ! तुम बदन-माधुरी
‘इन्दुमती’ ।
जनमानङ्क ‘मनोरमा’ तुम गति,
भीरु गो ! य़ुगळ ऊरु तुम्भर
‘रम्भा’कु अछि जिति ।
रति ‘कळाबती’ शोहे चारु,
शोभन ‘चित्रलेखा’ बहिअछि बेनि भूरु ।
कृशगात्रि ! ए कथा बिचित्र
पृथ्वीलोकरे तुमे रहि,
स्वर्गपुरीर तरुणी रूपसी
अप्सराङ्कु अछ बहि ॥
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* *
हरिभाब अनुभबि,
गीतगोबिन्द काव्य लेखिले
शिरीजयदेब कबि ।
एथि समापत दशम सर्ग
बहिछि निज,
नामटि ‘चतुर-चतुर्भुज’ ।
मधुर पदरे पद्यानुबाद एहार,
बिरचना कले श्रीहरेकृष्ण मेहेर ॥
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* गीतगोविन्द दशम सर्ग सम्पूर्ण *
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