‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-7 : Nagara-Narayana)
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गीतगोविन्द : सप्तम सर्ग
(नागर-नारायण)
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[श्लोक-१ : अत्रान्तरे च कुलटा-कुल]
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इतिमध्यरे उदे होइ बिधु
रश्मिजाले निजर,
आलोकित कला उज्ज्वळ तेजे
बृन्दाबन भितर ।
बिटपीङ्कर सङ्केत बाटे
किरण बिञ्चि देइ,
पाप अर्जिबा य़ोगुँ सते अबा
से कळङ्कित-देही ।
शोभा बहिअछि मनोरमा
दिगङ्गनार भाले चन्दन
बिन्दुरूप से चन्द्रमा ॥
*
[श्लोक-२ : प्रसरति शशधर-बिम्बे]
*
चन्द्रबिम्ब प्रसरिला एबे अम्बरे,
हरि-आगमने अति-बिळम्ब होइबारे
अधीरा राधिका बिरहरे,
बहुताप लभि उच्चे बिळाप
कले तहिँ नाना परकारे ॥
*
[गीत-१ : कथित-समयेऽपि हरिरह]
*
आहा ! कि दुःख जागे मो मने,
बचन-दत्त बेळारे सुद्धा
न चळिले हरि कुञ्ज-बने ।
ए मोर मधुर रूप लाबण्य
नब तारुण्य उज्ज्वळ,
सबु हेला एबे निष्फळ ।
बञ्चिता हेलि प्रियसखीङ्क कथारे,
हाय !
ए समये
आश्रय नेबि काहारे ?
(१)
*
य़ाहा सङ्गते मिळन आशारे
घोर बनस्ते बसिछि निशारे,
से नटनागर प्रियबर,
ताङ्करि य़ोगुँ पञ्चबाणरे
पीड़ित ए मोर अन्तर ॥ (२)
*
पिन्धिलि आहा
! ताङ्करि पाइँ
ए परकार,
रत्न-खचित कङ्कण आदि
रमणीय मणि अळङ्कार ।
एबे समस्त लागे असार,
बहिछि बहुत दूषणभार ।
उष्ण अतीब कृष्ण-बिरह-अनळ,
बहिअछि य़ेणु मोर एइ तनु
कोमळ ॥ (३)
*
मोर मरण हिँ श्रेयस्कर,
व्यर्थ मोहर ए कळेबर ।
चेतना हराइ सारिलिणि,
ए गहने रहि बिरह-बह्नि
सहिबि केते मुँ बिरहिणी ?
(४)
*
आहा !
बसन्त ऋतुर रात्रि
केते मधुरा,
किन्तु एकाळे करुअछि मोते
केते बिधुरा ।
अटइ से केउँ गोपय़ुबती,
निश्चिते बहुपुण्यबती ।
प्रेम अनुभब करुअछि केळि-रङ्गरे,
प्रियतम हरि सङ्गरे ॥ (५)
*
हृदे लम्बित मृदुळ पुष्पमाळा,
निर्दय-भाबे करुछि एकाळे
पञ्चसायक-लीळा ।
कुसुम-कोमळ-अङ्ग-धारिणी मोते,
कष्ट देउछि केते ॥ (६)
*
बसि रहिअछि मुँ बिरहिणी,
ए घोर बिपिन- बेतस भितरे
भीति न गणि ।
से मधुबैरी तथापि ताङ्क चित्तरे,
स्मरण मोहरि करुनाहान्ति
केबे थरे ॥ (७)
*
श्रीहरि-चरणे आश्रित कबि
जयदेबङ्क ए बाणी,
शोभे सुकुमारी कळाबती य़था
चित्तहारिणी तरुणी ।
रसिक भक्तजनङ्कर,
हृदे बास करु निरन्तर ॥ (८)
*
[श्लोक-३ : तत्किं कामपि कामिनी]
*
प्रिय देइथिले सङ्केत,
मञ्जु बेतस- लताकुञ्जरे
हेबा निमन्ते समागत ।
एपरिय़न्त किन्तु काहिँकि
न पहञ्चिले एइठारे ?
चालिगले कि से केउँ रमणीर
अभिसारे ?
अबा केते केळि कौतुकरे,
मातिथिबे निज मित्रगणर सङ्गतरे ?
अन्धारभरा गहन बिपिन मध्यरे,
होइ पथहरा भ्रमुथिबे कि से दुःखरे ?
थका मने अबा चालिबा पाइँकि
दूर पथ,
समर्थ हेले नाहिँ एसमये
प्राणनाथ ?
॥
*
[श्लोक-४ : अथागतां माधवमन्तरेण]
*
सङ्गे न आणि बनमाळी,
फेरिअछन्ति प्रिय-आळी ।
अतीब दुःख हेतुरु
कथा न बाहारे मुखरु,
आसिअछन्ति एका,
देखिले एहा राधिका ।
मनरे ताङ्क जागिला शङ्का
एहिपरि,
अन्य य़ुबती सङ्गे सुरति
केळिरे मत्त प्रियहरि ।
नेत्र पुरते देखिला पराये
परते होइला ताङ्कर,
प्रकाशिले तेणु व्यग्र मानसे
सखीअग्रते एइ गिर ॥
*
[गीत-२ : स्मर-समरोचित-विरचित]
*
सजनि गो !
अछि के य़ुबती,
मो ठारु अधिक गुणबती ?
मज्जि रहिछि रतिरे
मधुरिपुङ्क साथिरे ।
मन्मथ-रण अनुरूप बेश
बिरचिछि सेइ नायिका,
शिथिळ-बन्ध होइछि ताहारि अळका ।
खोषिथिला य़ेते कुसुममाल्य लळित,
होइछि सकळ गळित ॥ (१)
*
लभिबार लागि प्रियवल्लभ-आलिङ्गन,
लागुछि ताहार अतिउत्सुक व्यग्र मन ।
पीन बक्षोज- कळस युगळ
उपरे तार,
दोळे चञ्चळ लम्बित चारु
मुक्ताहार ॥ (२)
*
तार कुञ्चित कुन्तळ,
बिञ्चि हेबारु सुसञ्च दिशे
बदन-इन्दु उज्ज्वळ ।
रसनिधिङ्क मधुर अधर
पान करि,
केळि-आनन्दे तन्द्रा भजिछि सुन्दरी ॥ (३)
*
श्रुति-कुण्डळ चपळ,
बाजिबारु तार दळित गण्ड-य़ुगळ ।
किणिकिणि नादे मुखरित तार
कटि-मेखळा,
जघनर गति य़ोगे से य़ुबती
दिशे चपळा ॥ (४)
*
प्रियबदनकु निरेखि,
हसि देउअछि लज्जा-आबेगे सुमुखी ।
मज्जाइ दिए सुरति रसरे ताहारि
मुखरु अनेक बिहङ्ग-रुत बाहारि ॥ (५)
*
बहु शिहरण बहिबारु तार
अपघन,
जागिछि सरागे तहिँ ऊर्मिळ कम्पन ।
नासार शुआस चळनरु
दर-मुद्रित नयनरु
प्रतीत हेउछि निश्चय,
प्रसरिछि तार काम-उद्रेक
अतिशय ॥ (६)
*
रतियुद्धरे धैर्य्य़बती से निपुणा,
प्रिय हरिङ्क बक्ष उपरे
शरीर निबेशि आपणा ।
पड़ि रहिअछि तरुणी,
भाबाबेगे अनुरागिणी ।
मन्मथ-रसे मज्जिथिबारु ताहारि,
श्रमज घर्म- बिन्दुरे तनु
सुन्दर दिशे आहुरि ॥ (७)
*
कबि जयदेब बर्ण्णित हरि-
सुरति चारु,
ए कळिय़ुगर पातक सर्ब
निपात करु ॥ (८)
*
[श्लोक-५ : विरह-पाण्डुर-मुरारि]
*
बिरह बशरे श्रीहरिङ्कर
बदन-कञ्ज- धारण
करिछि पाण्डु बरण ।
छबिकि ताहारि बहन करिछि
अस्तगामी ए कळाकर,
शीत रश्मिरे किछि उपशम
करुछि बेदना मो मनर ।
मात्र से परा मित्र अटइ मदनर,
काम-सन्ताप बढ़ाइ सखि गो !
करुछि मो हृद अस्थिर ॥
*
[गीत-३: समुदित-मदने रमणी-वदने]
*
काळिन्दी नदी तीर बिपिनरे
संप्रति मुरसूदन,
बिजयी कृष्ण ब्रजयुबतीर
सङ्गते रति-मगन ।
भाग्यबती से गोप-नायिकार
चारु लपन,
बहिछि घञ्च पञ्चसायक-
उद्दीपन ।
ताहारि अधर सुमधुर,
चुम्बन योगे रसभर ।
से बदने प्रियहरि
घन रोमाञ्च भरि,
लेखुअछन्ति चारु कस्तूरी तिळक,
चन्द्ररे ताहा हरिण तुल्य
प्रते हुए मनमोहक ॥ (१)
*
सेहि रमणीर सुकुन्तळ,
मन्मथ-मृग बिहरिबा पाइँ बनस्थळ ।
कले ताहा अबलोकन,
तरळित हुए तरुणङ्कर लपन ।
नबीन मुदिर परि सुन्दर
सेइ केश,
रसिकबर से करुअछन्ति
चारुबेश ।
तहिँरे दामिनी समान
खोषुअछन्ति केते कुरुबक सुमन ॥(२)
*
से अङ्गनार बिपुळ अङ्ग
रति-सदन य़े जघन,
पञ्चबाणर से त काञ्चन आसन ।
प्रिय-मानसरे काम-बासना
जगाउछि भरि उद्दीपना ।
बिस्तार करि तहिँरे काञ्ची मणिमय,
पिन्धाइ देउछन्ति माधब रमणीय ।
प्रसारि शोभा-बिळास,
करुअछि ताहा चारु मङ्गळ
तोरणकु उपहास ॥ (३)
*
पदय़ुग नबपल्लब-रूप सुकुमार,
बहिछि शोभार सम्भार ।
नखरूप मणि- राजिरे भूषित
बिराजे सेइ,
से पद बेनिकि पद्मा-सदन
हृदे लगाइ ।
करुअछन्ति हरि अलक्त रञ्जित,
बाह्याबरण समुचित ॥ (४)
*
सेहि तरुणीर कस्तूरी लेप-
शोभित रुचिर उज्ज्वळ,
सुघन य़ुग्म-उरज गगन-मण्डळ ।
प्रियहरिङ्क नखाङ्क-रूप
अर्द्धचन्द्र धारण करि,
दिशे मञ्जुळ चित्त हरि ।
तहिँरे खचित करन्ति हरि
मुक्ताहार,
ताराबळी से त दिशुअछि केते
चमत्कार ॥ (५)
*
मृणाळ-खण्ड छबिकि जिणि,
सुकुमार-गुणे शोहे तरुणीर
य़ुग्म पाणि ।
शोभइ से पुणि तुषार तुल्य
केड़े शीतळ,
बिराजे कोमळ करतळ तार
पद्म-दळ ।
मुदे पिन्धाइ देउअछन्ति प्रियबर,
करे मरकत मणि-कङ्कण
भ्रमरपन्ति-रूपधर ॥ (६)
*
हळधरङ्क खळ सहोदर हरि,
केउँ सुनयना नायिका सङ्गे
मातिथिबे रस भरि ।
कह तेबे आगो प्रियसहि !
बिरस बदने थिबि मुँ किम्पा
बसि रहि ?
आहुरि दीर्घ समय,
घनतरुभरा ए घोर कानने
कराइ चित्त अथय ॥ (७)
*
हरिपदयुगे सेबाकारी य़ेहु
प्रिय भकत,
रसमय लीळा बर्ण्णिबारे से
लेखनीरत ।
जयदेब कबि-नृपति
बिरचिले एहि सुगीति ।
भक्त-हृदय सरस,
तहिँरे कळिर पातक न करु परश ॥ (८)
*
[श्लोक-६ : नायातः सखि निर्दयो]
*
सखि दूतिका गो !
नटबर,
शठ हरि से त निष्ठुर ।
मोपाशे नइले कण्ट देइ से,
दुःख काहिँकि करुछ मानसे ?
एथिरे कि दोष अछि तुमरि ?
स्वेच्छारे केळि करुअछन्ति
केते सुन्दरी सङ्गे धरि ।
बहुबल्लभ हेलेहेँ ताङ्क
गुणे बिमुग्ध मोर मन,
सते अतिशय व्यग्रताबशे छनछन ।
कान्त-मिळन सुख पाइँ
निजे सत्वरे य़िब धाइँ
ताङ्क समीपे होइब आजि से
उपस्थित,
प्रियसखि !
देख सुनिश्चित ॥
*
[गीत-४ : अनिल-तरल-कुवलय]
*
पबने दोळित नीळ पङ्कज सम,
नेत्रयुगळ हरिङ्क मनोरम ।
सुन्दर सेइ बनमाळा-बिभूषित,
प्रिय सङ्गरे य़ेउँ अङ्गना
होइअछि केळिरत ।
से त उल्लसि नब पल्लब
रचित कोमळ शय्य़ारे,
अनुभब करु न थिब अतनु
सन्ताप-शर अन्तरे ॥ (१)
*
बिकशित नब इन्दीबर समान
सुन्दर य़ार बदन दीप्तिमान,
एपरि कृष्ण सहित,
रमि से तरुणी पुष्पबाणर
प्रहारे न थिब पीड़ित ॥ (२)
*
पीयूष पराय मधुर कोमळ
य़ार बाणी,
एपरि माधब सङ्गे रमइ
से तरुणी ।
आपणा अङ्गे करि सुशीतळ
चन्दन लेप चर्चित,
दाह अनुभब
करु न थिबटि किञ्चित ॥ (३)
*
य़ाहार हस्त युगळ पयर
स्थळारबिन्द परि सुन्दर,
एपरि कृष्ण सङ्गे आचरि पीरति,
शीतळ चन्द्र- किरणे दग्ध
हेउ न थिब से युबती ॥ (४)
*
सुरम्य य़ार शरीर,
शोभइ य़ेह्ने उदकपूर्ण्ण मुदिर ।
एपरि कृष्ण सङ्गते रमि
धन्य गोपिका से आपणा,
हृदे अनुभब करु न थिबटि
दीर्घ बिरह यन्त्रणा ॥ (५)
*
निकष पाषाणे मार्जित हेम परि,
उज्ज्वळ चारु पीत अम्बर-
परिहित य़ेउँ हरि ।
ताङ्क साथिरे से युबती,
अछि सङ्गम-रसे माति ।
सहि सखीङ्क उपहास,
करु न थिब से
तिआग दीर्घ निःश्वास ॥ (६)
*
सर्ब भुबन जन मध्यरे
तरुणबर य़े सुगुणी,
एपरि कृष्ण सङ्गे बिळासे
रत अछि सेइ तरुणी ।
भोगु न थिबटि भाग्यबती,
बिरह बशरे करुण दशारे
कष्ट अति ॥ (७)
*
जयदेब कबि-रचित ए मधु
बाणी-माध्यमे सुबेश,
सन्तापहारी हरि करन्तु
भक्तहृदये प्रबेश ॥ (८)
*
[श्लोक-७ : मनोभवानन्दन-चन्दन]
*
कन्दरपर आनन्दकर
चन्दनभरा मन्द समीर !
तुमे परा अट दक्षिण,
सुपरसन्न हुअ मोर पाशे
बर्जन कर बामपण ।
आहे जगत-पराण !
क्षणमात्र बि प्रियतमङ्कु
मोर सम्मुखे आण ।
पश्चाते मोर पराण,
करिब निश्चे हरण ॥
*
[श्लोक-८ : रिपुरिव सखी-संवासो]
*
सखीमानङ्क सह एकत्र बसति,
प्रतीत हेउछि
य़ेह्ने प्रबळ अराति ।
शीतळ पबन देहकु त,
हेउछि य़ेह्ने प्रखर बह्नि अनुभूत ।
सुधाकर-कर शीतळ,
एबे त मो पाइँ
लागुछि य़ेह्ने गरळ ।
य़ाहाङ्कु- मोर अन्तरे भजि
सहुछि एभळि दुःखभार,
सेहि निर्दय प्रियठारे बळे
हृदय बळुछि पुनर्बार ।
नीळपङ्कज- नयनाङ्कु त
आपणा बश,
करि रखिअछि बाम कामदेब
सदा अतिशय-निरङ्कुश ॥
*
[श्लोक-९ : बाधां विधेहि मलयानिल]
*
हे मळय बात !
य़ेतिकि पार,
दिअ मो हृदये बेदनाभार ।
ए मोर तुच्छ हीन पराण,
नेइय़ाअ तुमे पञ्चबाण !
एबे आपणार गृहकु मुहिँ,
आउ आश्रय करिबि नाहिँ ।
निश्चळे काहिँ
रहिछ गो य़म-भग्नि !
प्रशमित हेउ
मो देहे बिरह-अग्नि ।
खेळाइ तुङ्ग लहरी,
सिञ्चिदिअ गो सकळ अङ्गे मोहरि ॥
* * *
कबि जयदेब रचिले काव्य
गीतगोबिन्द अनुपम,
हेला समाप्त एठारे सर्ग सप्तम ।
बहिछि ‘नागर- नारायण’ नाम
सर्ग ए त,
ओड़िआ भाषारे पद्यानुबाद
श्रीहरेकृष्ण-मेहेर-कृत ॥
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* गीतगोविन्द सप्तम सर्ग सम्पूर्ण *
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