‘Gita-Govinda’ Kavya of Poet
Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda Canto-2 :
Aklesha-Keshava)
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गीतगोविन्द : द्वितीय सर्ग
(अक्लेश-केशव)
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[श्लोक-१: विहरति वने राधा-साधारण]
[श्लोक-१: विहरति वने राधा-साधारण]
*
अन्य बरज-अङ्गनागण सङ्गरे,
हरि त बिहार करुअछन्ति स्वेच्छारे ।
लक्ष्य कले ता निजे राधा,
जागिला मनरे घोर बाधा ।
गोपीगणङ्क गहणरे से त
असाधारण,
प्रणयिनी रूपे अछि आपणार
श्रेष्ठपण ।
सेथिरे आघात लागिछि बिचारि
ईर्ष्याभरे,
चालिगले तहुँ प्रिय-सखीङ्क
सङ्गतरे ।
आन कौणसि लताकुञ्जर अन्तराळे,
बसिले चिन्ता जालरे छन्दि
होइ एकाळे ।
सेइ निकुञ्ज-शिखर,
अळिपुञ्जर मधु गुञ्जने
थिला चञ्चळ मुखर ।
तहिँ एकान्ते जणाइ निजर
मनोव्यथा,
व्यकत करिले सखी-सम्मुखे
मर्म-कथा ॥
*
[गीत-१ : सञ्चरदधर-सुधामधुर]
*
ताङ्क अधर-पीयूषर झरे सिञ्चित,
मधुर नादरे मोहनबंशी झङ्कृत ।
ताङ्क चपळ अपाङ्गर,
भङ्गी-चाळने दोळइ भूषण
मस्तकर ।
साथे कुण्डळ कर्ण्णे दोळे,
मत्त से य़ेबे नृत्यभोळे ।
रचि शारदीय रास,
करिथिले हरि बिबिध केळि-बिळास ।
केते हास परिहास,
मोहरि सङ्गे करिथिले पीतबास ।
स्मरण करुछि मन मोहर,
लीळामय सेहि रम्य मुरली-
धारीङ्कर ॥ (१)
*
चन्द्रकराजि-रञ्जित,
रम्य मयूर- पुच्छ-समूहे
ताङ्क चिकुर बेष्टित ।
बिपुळ बर्ण्ण- बिभा-सुन्दर
इन्द्रधनुर संय़ोगरे,
चित्रित मेघ- पटळ य़ेपरि
नेत्रमोहन कान्ति धरे ॥ (२)
*
से नितम्बिनी गोपनारीङ्क
बदन चुम्बिबारे,
लाळायित कामनारे ।
बधूली फुलर घेनि रक्तिम आभा,
दिशुछि ताङ्क मधुर अधर-
पल्लब मनलोभा ।
उल्लासभरा मन्दहास,
बदने लभिछि सुप्रकाश ॥ (३)
*
अति उल्लासे पुलकित निज
भुज-पल्लब प्रसारि,
तहिँ सहस्र गोपनारीङ्कि
बेढ़िअछन्ति मुरारि ।
हस्त पयर उरे ताङ्कर
परिशोभित
बिबिध रत्न मणि आभरणुँ
बिच्छुरित,
रश्मिराशिर प्रभाबरे तहिँ
केळि-निकुञ्ज-भूमिर,
अपसरिय़ाए तिमिर ॥ (४)
*
जीमूत-पटळे चळित चन्द्र-
कान्तिकि जिणि अधिक,
ताङ्क ललाट पटरे शोभित
चारु चन्दन तिळक ।
गोपीमानङ्क पीन बक्षोज
मर्दन करिबारे,
ताङ्क बिशाळ हृदय-कपाट
निर्दय रूप धरे ॥ (५)
*
श्रबणे धारण करिअछन्ति
मणिमय
मकर-आकार कुण्डळ युग
रमणीय ।
बिराजे ताहारि दीप्ति घेनि,
ताङ्क रुचिर कपोळ बेनि ।
सुन्दर पीत अम्बर,
कळेबरे शोहे ताङ्कर ।
मुनि मनुष्य देबता असुर
सरबे सेरूपे आकर्षित,
ताङ्क रसरे परिप्ळुत ॥ (६)
*
चारु कुसुमित कदम्ब तरु
तळे से कृष्ण उभा,
कळिर पातक- भय निबारणे
बहिअछन्ति शोभा ।
तरङ्गायित काम-चञ्चळ सुनयने,
निरेखि मो सह केळि करन्ति
मने मने ।
रासे लीळामय एपरि हरि,
स्मरण करुछि ताङ्कु एकाळे
मन मोहरि ॥ (७)
*
बर्णिले कबि जयदेब,
मधुअरिङ्क मन-बिमोहन
रम्य मूरति अभिनब ।
बर्त्तमानर कळियुगे
श्रीहरिङ्कर पदयुगे
धिआने मज्जि चिन्तिबा लागि
उपयोगी समुचित,
पुण्यबन्त लोकमानङ्क-
निमन्ते एहि गीत ॥ (८)
*
[श्लोक-२ : गणयति गुणग्रामं]
*
सखि गो !
मोहरि मन,
गुणुछि ताङ्क गुणराशि अनुदिन ।
कोप करिबाकु ताङ्क उपरे
भ्रमरे सुद्धा चाहेँ नाहिँ थरे ।
सन्तोष लभे ताङ्क पाशरे अपार,
दुरुँ बर्जन करे थिले दोष असार ।
मात्र से हरि एबे मोते करि
परित्याग,
प्रकाशि आपणा हृदये सबळ
प्रेमानुराग ।
घेनि सङ्गते अन्य अनेक
गोपयुबती,
अछन्ति केळि-बिळासे माति ।
मन मोर बाम ताङ्कु हिँ करे कामना,
कि करिबि आउ जाणेना ॥
*
[गीत-२ : निभृत-निकुञ्ज-गृहं]
*
सङ्केत-मते ताङ्कु भेटिबा पाइँ,
रातिरे कुञ्जे चळि एकान्ते
एकाकिनी थिलि मुहिँ ।
करि अपेक्षा प्रिय-नागरे,
चकित मानसे अनाउँथिलि मुँ
चौदिगरे ।
लुचि रहिथिले पूर्बरु तहिँ केशब,
निरेखुथिले मो आकुळताभरा ए भाब ।
प्रबेशि सहसा सधीरे,
प्रेम-रङ्गरे हसिदेले से त मधुरे ।
अभिळाषी मोर मानस,
लभिबाकु एबे मन्मथ-रस-बिळास ।
मोरे अनुराग सहित,
ताङ्क मन बि मोहित ।
एथिपाइँ सखि !
साथिरे मोहरि
मिळन कराइ दिअ थरे,
उदार-हृदय केशि-मथन से
गोपीनाथङ्कु निशीथरे ॥ (१)
*
आद्य मिळने केते लज्जारे
होइथिलि मुहिँ जर्जर,
निपुण से पुणि नाना चाटुबाणी
कहिले मो आगे सुमधुर ।
बिकाशि मन्द हास्य मुँ तहिँ
कहिथिलि गिर तरळ,
जघनुँ से मोर बसन फिटाइ
करिथिले धीरे शिथिळ ॥ (२)
*
मृदु पल्लब- शय्य़ा उपरे
निबेशि मो तनु य़तन,
मो उर उपरे प्रिय बहुबेळ
करिथिले मुदे शयन ।
करिथिलि मुहिँ ताङ्कु निबिड़
चुम्बन सह आलिङ्गन,
मोते आलिङ्गि अधर-पानरे
मज्जिथिले से मधुसूदन ॥ (३)
*
अळसता बशे मुदि होइथिला
मोहरि नेत्र युगळ,
बहु शिहरणे मनोहारी थिला
श्रीहरिङ्कर कपोळ ।
व्यापिथिला मोर सकळ अङ्गे
बिन्दु बिन्दु श्रमजळ,
थिले मन्मथ उन्मादभरे
प्रियतम अति चञ्चळ ॥ (४)
*
येह्ने लळित शुभे कोकिळर
कळरुत,
केळिकाळे मोर मुखरु मधुर
ध्वनि हेउथिला निःसृत ।
मदनशास्त्र- तत्त्व जिणि से
प्रबीण रम्य मूरति,
माधब बिरचि थिले सुमधुर
बिबिध बन्धे सुरति ।
फिटि य़ाइथिला कबरीभार मो
अय़तने,
तहिँरे खचित पुष्प सकळ
शिथिळित थिला अपघने ।
शोभुथिला मोर
उरज पृथुळ उन्नत,
ताङ्क नखर
रेखा-अङ्कने चिह्नित ॥ (५)
*
मोहरि पयरे परिहित मणि-नूपुर,
करुथिला धीरे सिञ्जन मृदु मधुर ।
कटिर मेखळा चञ्चळभाबे
करुथिला मधु निस्वन,
कुन्तळ मोर भिड़ि से निबिड़े
देउथिले मुखे चुम्बन ।
समस्त रति-बिस्तार तहिँ रसभरे,
परिपूर्ण्णता भजिथिला हरि-हस्तरे ॥ (६)
*
रतिसुख बेळे रस आस्वादि
बारबार,
हेला अबश्य आळस्य बशे
अबसन्न मो कळेबर ।
पीरतिरे परि- तृप्ति पाइ मो
सुकुमार,
तनु-बल्लरी पड़ि रहिथिला
सह्य न करि श्रमभार ।
ताङ्क युगळ नेत्र-कमळ
होइथिला दर-उन्मीळित,
मन्मथभाब मो नाथ-चित्ते
थिला प्रमत्त उत्तेजित ।
एहिपरि प्रिय हरिङ्कि रति-रङ्गरे,
मिळन कराइ दिअ सखि !
मोर
सङ्गरे ॥ (७)
*
कवि जयदेव- बिरचित एइ
मधुगीत,
शिरीपतिङ्क सुरति-रङ्ग-
शृङ्गार-केळि रूपायित ।
बर्णित एथि बिरह-बिधुरा
राधिकाङ्कर गोपन बाणी,
सौख्य बितरु भक्त-हृदये
पदाबळी एइ सुकल्याणी ॥ (८)
*
[श्लोक-३ : हस्त-स्रस्त-विलासवंश]
*
बिपिन मध्ये गोप-रूपसीए
चउपाशे,
बेढ़ि रहिथिले प्रिय-हरिङ्कि
मधुरासे ।
मोहरि उपरे हेबामात्रके
दृष्टिपात,
हृदे हरिङ्क- हेला अतिशय
लज्जा जात ।
कपोळ-युगळ स्वेदबिन्दुरे
सिक्त होइला तेणु,
खसिला शिथिळे करुँ ताङ्करि
मोहन बिळास-बेणु ।
बङ्किम भूरु- लतारे शोभिता
युबतीङ्कि से चाहिँ,
निज अपाङ्गे देले इङ्गित
अपसरि य़िबा पाइँ ।
माधबङ्कर दिशिला मुग्ध बदन,
सुधामय मधु मन्दहासरे शोभन ।
सेहि लीळामय हरिङ्कि एबे
अबलोकि मोर नेत्र पूत,
हृदय मोहर हेउछि हरषे
उल्लसित ॥
*
[श्लोक- ४: दुरालोकस्तोक-स्तवक]
*
अळप गुच्छ होइ बिकशिछि
नबीन अशोक कढ़ी,
ताहा मो नेत्रे देखिला मात्रे
शोक य़ाउअछि बढ़ि ।
पुष्करिणीर सुशीतळ नीर
परशि एकाळे आहुरि,
उद्यानर ए मन्द समीर
पीड़ा दिए हृदे मोहरि ।
देख गो ! आम्र तरुर बिकच
सुकोमळ,
मञ्जरी दिशे तीक्ष्ण-शिख ए मञ्जुळ ।
भ्रमरी-पन्ति सौरभरे ताहारि,
भ्रमि चञ्चळ करुअछन्ति
गुञ्जन मनोहारी ।
हेलेबि ए कळी कि सुन्दर,
लागुनाहिँ एबे सखि गो ! मोलागि
सौख्यकर ॥
* * *
कवि जयदेव-विरचित,
गीतगोविन्द काव्य जगते चर्चित ।
नाम ‘अक्लेश-केशव’ बहि,
पूरिला द्वितीय सर्ग एहि ।
पद्यानुवाद ओड़िआ भाषारे सरसे,
श्रीहरेकृष्ण-मेहेर रचिले हरषे ॥
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* गीतगोविन्द द्वितीय सर्ग सम्पूर्ण *
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