‘Gita-Govinda’ Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
*
Link:
= = = = = = = = = =
महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
= = = = = = = = = =
(Gita-Govinda : Canto-5 : Sakamksha-Pundarikaksha)
*
गीतगोविन्द : पञ्चम सर्ग
(साकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष)
= = = = = = = = = =
[श्लोक-१ : अहमिह निवसामि याहि]
*
‘बसिछि मुँ एइ सदने,
य़ाअ सखि ! तुमे बहने ।
मुँ कहिछि बोलि राधिकाआगरे
कर अनुनय परकाश,
शीघ्र मोहरि समीपे ताङ्कु-
नेइ आस ।’
मधुअरिङ्क अनुरोध शुणि एहिपरि,
सेहिठारु निजे सहचरी
फेरि राधापाशे पुनर्बार,
कहिले बचन एपरकार ॥
*
[गीत-१ : वहति मलय-समीरे]
*
धीरे धीरे बहे मळयाचळर
ए पबन,
सङ्गते घेनि अनङ्ग-भाब
रसायन ।
बिरहीगणर हृदय-दारण सकाशे,
फुटिछि पुष्प बिबिध रूपरे
मन हरि निज सुबासे ।
राधा गो ! तुमरि
बिरह-बाधारे अतीब,
दुःखितमना बनमाळधारी माधब ॥(१)
*
चन्द्रकिरण शीतळ हेलेबि
दहुछि ताङ्क कळेबर,
मरण तुल्य य़न्त्रणा भोग
करुअछन्ति प्रियबर ।
कामर पञ्चशर-पात य़ोगुँ अमाप
बिह्वळभाबे करुअछन्ति बिळाप ॥ (२)
*
भ्रमरपुञ्ज मधुगुञ्जन य़ेबे करे,
श्रुति आच्छादि रहन्ति से त निज करे ।
तुमरि बिरहे आगो सजनि !
बहु सन्ताप भोगुअछन्ति
प्रतिरजनी ॥ (३)
*
तेजिअछन्ति शोभन निबास-भबन,
भ्रमि एणेतेणे एबे आश्रय
करिअछन्ति कानन ।
लोटिरहन्ति तुम बिना भूमि
शयनरे,
बिळपन्ति से बहुभाबे तब
नाम उच्चारि बदनरे ॥ (४)
*
कोकिळबृन्द करिले कूजन
सुमधुर,
चौदिगे धाइँ य़ाआन्ति हरि
प्रियबर ।
तहिँ उपहास करिले जने,
नाहिँ किछि नाहिँ बोलि बिरहरे
प्रळपन्ति से दुःखमने ॥ (५)
*
बिहङ्ग-कुळ कळरुत कले
ताहा शुणि,
तुमरि बचन सुमरन्ति से
मने गुणि ।
तुम रतिसुख-सम्पदरे,
करन्ति बहु गुणर कळना
प्रिय गोबिन्द आनन्दरे ॥ (६)
*
मङ्गळमय मासर बोधक तुम नाम
केहि उच्चार करिले बदने सप्रेम
राधा गो ! माधब शुणन्ति केते
शरधारे,
जप करन्ति तुमरि से नाम
रसभरे ।
तुमे होइअछ ताङ्क हृदय-गत,
कान्त तुमरि नुहन्ति पर
तरुणीजनरे रत ॥ (७)
*
जयदेबङ्क कबि-लेखनीर सर्जना,
ए मधुर गीत करे हरिङ्क
बिरहर गाथा बर्ण्णना ।
पुण्यहेतुरु प्रेम-उत्साह-
प्राचुर्य्य़भरा भक्तिपूत,
अन्तरे सेहि हरि हुअन्तु
आबिर्भूत ॥ (८)
*
[श्लोक-२ : पूर्वं यत्र समं त्वया]
*
एथिपूर्बरु प्रियबर य़ेउँ कुञ्जरे
नाना मञ्जुळ केळि रचि तुम सङ्गरे
मदनबाञ्छा-सिद्धिकि लभिथिले निजर,
ताहा परा महा- तीर्थ होइछि
एबे रतिनाथ मन्मथर ।
तुमे आराध्या देबी,
से अहर्निश धिआने मग्न
तुम कथा भाबि भाबि ।
पुनर्बार से कुञ्जे आगत माधब,
तुमरि लळित पूर्ब आळाप सरब
मन्त्र रूपरे बिचारि,
जपुअछन्ति श्रीहरि ।
एबे आउ थरे सखि गो ! तुमर
उच्च उरज- कळस युगर,
सरस निबिड़ प्रेमालिङ्गन-
सुधा करिबाकु आस्वादन,
स्वान्त निजर बळाइछन्ति
मधुसूदन ॥
*
[गीत-२ : रतिसुखसारे गतमभिसारे]
*
रतिसुखसार अभिसार करि
कुञ्जरे रहि अछन्ति हरि,
से कन्दरप परि सुन्दर-बेशधर,
तुम हृदयर ईश्वर ।
तहिँकि य़िबारे सत्वर,
नितम्बिनि गो ! आउ बिळम्व
न करि ताङ्कु अनुसर ॥
बहे काळिन्दी-कूळरे मन्द पबन,
तहिँ अछन्ति बिपिने कान्त
प्रिय बनमाळे शोभन ।
गोपनारीङ्क उन्नत पीन
उरसिज-परिसर,
मर्दन करि- बारे चञ्चळ
ताङ्कर बेनि कर ॥ (१)
*
सुकुमार भाबे मुरली बादन
करुअछन्ति हरि,
नाम सङ्गते तहिँ सङ्केत भरि ।
सङ्गिनी तुम अङ्ग परशि
य़ेबे धूळि,
बाते उड़ि उड़ि ताङ्करि पाशे
य़ाए चळि ।
निश्चित से त भाबभरे,
तारे करन्ति बहुसमादर अन्तरे ॥(२)
*
केबे बिहङ्ग झाड़िदेले पर
पत्र चळिले केबे सरसर
तुम आगमन शङ्का करि से
तरतरे,
मार्ग तुमरि चाहिँ रहन्ति
अतीब आतुर अन्तरे,
प्रिय छनछन नयनरे ।
शेय़ रचन्ति प्रेमभरे ॥ (३)
*
चाल सखि ! तरु-कुञ्ज,
आबोरिछि य़हिँ घन अन्धारपुञ्ज ।
बान्धबि ! तुमे पिन्ध बसन
नीळबरण,
अभिसार पाइँ मुखाबरण ।
मुखर नूपुर कर सत्वर परिहार,
कोळाहळकारी सेत केळिकाळे
बैरी पराये आपणार ॥ (४)
*
तुमरि तरळ हार य़ोगे हरि-
उरस्थळी,
शोभिब धबळ- बळाकायुक्त
बारिद भळि ।
पीतबरणा गो ! बिपरीत रति
पुण्यर परिणाम,
ता आचरि तुमे सौम्य दिशिब
सौदामिनीर सम ॥ (५)
*
फुल्ल कमळ-नेत्र से य़े,
थिबे सुकोमळ पत्र-शेय़े ।
बास खसिय़िब प्रियरे पीरति पाञ्चि,
घुञ्चिय़िब गो तुम चञ्चळ काञ्ची ।
मुक्त जघन अरपित कर
रूपसि ! ताङ्क उपरे,
निधि परि एत बहु आनन्द
देब गोबिन्द-हृदरे ॥ (६)
*
अभिमानी तब हरि,
एइ य़ामिनी बि धीरे धीरे सखि !
य़ाउअछि एबे सरि ।
मान मो बचन, सुबेश बिरचि
सज्जित हुअ अचिरे,
मधुअरिङ्क मनस्कामना
पूराअ पीरति-रुचिरे ॥ (७)
*
श्रीहरि-सेबक शिरीजयदेब
कबिबर,
प्रणयन कले ए गीत परम-सुन्दर ।
भक्त रसिक ! हरषित-हृदयरे,
कर हरिङ्कि प्रणिपात बिनयरे । -
अन्तरे अति दयाबन्त से
आदरणीय,
पुण्यदायक कान्तिमय ॥ (८)
*
[श्लोक-३ : विकिरति मुहुः श्वासा]
*
बारबार खर निःश्वास आसे
नासारु बाहारि ताङ्कर,
चौदिगे से त निरेखुछन्ति
तुम पथ चाहिँ बहुथर ।
आशा घेनि तुम आसिबार,
कुञ्ज-दुआरे प्रबेशुछन्ति बारबार ।
तुमकु न देखि गुणुगुणु करि उच्चारि,
हेउअछन्ति दुःखित निज मने भारि ।
करुअछन्ति बहुबार सेत
मृदुळ शय्य़ा रचन,
मात्र आकुळे निरेखुछन्ति
अधीर ताङ्क नयन ।
राधा सुन्दरि ! एपरि तुमरि
प्रियबर,
थकिगलेणि गो ! मन्मथ-शर
आघातरे अति जर्जर ॥
*
[श्लोक-४ : त्वद्-वाम्येन समं]
*
तुम बिपरीत आचरण सह
पूर्ण्णभाबे,
अस्त-गिरिकि भजिसारिलेणि
सूर्य्य़ एबे ।
मिळन-बाञ्छा बृद्धि पाउछि
हरिङ्कर,
सेहिपरि एणे बढ़ुछि निबिड़
अन्धकार ।
तुम अग्रते मोर निबेदन
हेलाणि दीर्घ समय,
बिधुर चक्र- बाक युगळर
करुण बिळाप पराय ।
उपयुक्त ए रमणीय बेळा
य़िबा निमित्त अभिसारे,
मुग्धा राधिके ! बिळम्व कले
आशा निष्फळ होइपारे ॥
*
[श्लोक-५ : आश्लेषादनु चुम्बनादनु]
*
निज निज आन प्रयोजन,
घेनि गोपनरे चळिय़ाआन्ति
प्रेमिक प्रेमिका बेनि जन ।
भ्रमुँ मार्गरे घन अन्धारे अज्ञात,
हुए दुहिँङ्क साक्षात ।
से निज निजर बाञ्छित बोलि बिचारि,
प्रेमालिङ्गन करन्ति कर प्रसारि ।
चुम्बन परे नखघात,
तदनन्तरे मदन-आबेग
होइबारु बेगे सञ्जात ।
केळि-सम्भ्रम सङ्गतरे,
मातिरहन्ति दुहेँ एकान्ते सम्भोगरे ।
बहु आनन्द लभि निज मने
तहुँ कथाळाप हेबारु बहने
स्वरकु चिह्नि दम्पति,
जाणिपारन्ति जणे अन्यर परिचिति ।
एइ त लज्जा-मिश्रित रस शृङ्गार,
घोर अन्धारे धारण न करे
केउँ रूपकु बा आपणार ?
*
[श्लोक-६ : सभय-चकितं विन्यस्यन्तीं]
*
भीति-बिह्वळ हृदयरे,
नेत्र मेलाइ अन्धकारित मार्गरे ।
प्रत्येक तरु पाशे तुमे रहि
बारबार,
धीरेधीरे पाद बढ़ाउथिब गो !
आपणार ।
तुमरि अङ्गे अङ्गे खेळुछि सरस,
रम्य-बदनि ! मदनोर्मिर बिळास ।
कौणसिमते बिजने,
पहञ्चिय़िब तहिँ सङ्केत-सदने ।
कुञ्जे सहसा दरशन देब
तुमे साक्षाते बिद्यमान,
साथी पाइ निज हेबे कृतार्थ
तब जीबनाथ भाग्यबान ॥
* * *
गीतगोबिन्द काव्य ए बिमोहन,
शिरीजयदेब कबि कले प्रणयन ।
‘साकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष’ ए नामयुत,
हेला पञ्चम सर्ग एठारे समापत ।
श्रीहरेकृष्ण मेहेर रचिले
ए काव्यर,
ओड़िआ भाषारे लळित पद्य
रूपान्तर ॥
= = = = =
* गीतगोविन्द पञ्चम सर्ग सम्पूर्ण *
= = = = =
No comments:
Post a Comment