‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda ; Canto-I2 : Suprita-Pitambara)
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गीतगोविन्द : द्वादश सर्ग
(सुप्रीत-पीताम्बर)
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[श्लोक-१ : गतवति सखीवृन्दे]
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कुञ्ज- बाहारे सखीए बिदाय
नेला परे,
राधाङ्क मन हरष भजिला
रसभरे ।
अधिक लज्जा बशे मन्मथ-
कामनारे परिपूरित
मृदुळ मन्द हसित,
प्रसरि सरसे धीरधीर
धौत करिला मधुर अधर ताङ्कर ।
थिला सज्जित नूतन पत्रे
रचित शय़्या सुकुमार,
तृषित नेत्रे निरेखि ताहाकु
चाहुँथिले राधा बारबार ।
प्रियतमाङ्कु एपरि लक्ष्य करि,
मधुर बाक्य निबेदिले प्रियहरि ॥
*
[गीत-१ : किशलय-शयनतले कुरु]
*
नबपल्लब- रचित रुचिर
कोमळ शय़्या उपरे,
स्थापन कर गो तुमरि पयर-
कमळ रम्यरूपरे ।
प्रतिस्परधा करइ शय़्या एहि त,
बल्लभि ! तुम पाद-पल्लब सहित ।
एबे से अराति-पराजय,
अनुभब करु निश्चय ।
कान्ते ! राधिके ! सन्तत,
कृष्ण तुमरि अनुगत ।
मुहूर्त्तक ए समये,
एइ नारायण पाशे अनुकूळ
प्रसन्न हुअ हृदये ॥ (१)
*
दूर पथ गमि आसिछ सजनि !
मोहरि हस्त-सरसिजे,
एथिपाइँ तुम पदय़ुग-सेबा
करिबि सादर मुहिँ निजे ।
तुमरि पयरे नूपुर य़ेपरि
अनुगत,
सेपरि सेबारे प्रबर मुहिँ त
अबिरत ।
घेनाकरि मोते प्रिये ! उपकार
कर बारे,
किछि मुहूर्त्त सेबिबा अर्थे शय़्यारे ॥ (२)
*
राधा गो ! रम्य आधार,
अटइ तुमर बदन-चन्द्र सुधार ।
इन्दुरु सुधाबिन्दु झरइ य़ेउँपरि,
तुमरि मुखरु अनुकूळ बाणी
स्यन्दित हेउ सुन्दरि !
आमरि मध्ये मिळन-बाधक
बिरह-कारक य़ेसन,
रहिछि तुमरि उरज-रोधक बसन ।
एथिपाइँ तुम बक्षदेशरु
अपसारित,
करिदेउछि मुँ आच्छादन ए
अबाञ्छित ॥ (३)
*
बल्लभि ! अति दुर्लभ तुम
य़ुगळ उरज-कळस,
व्यग्र सते बा लभिबा पाइँ से
प्रियालिङ्गन सरस ।
होइछि आबेगे रोमाञ्चित,
कर से बेनिकि उरसे मोहर
संय़ोजित ।
हृदयरु एबे सत्वर,
काम-सन्ताप दूर कर ॥ (४)
*
तुमरि दास मुँ रहिअछि सेबा
परायण,
सकळ बिळास बरजि तुमरे
करिछि मानस अर्पण ।
बिरह-दहन दहुअछि देह मोहरि,
भामिनि गो ! मधु सुधारस पान
कराअ अधरु तुमरि ।
प्रेयसि गो ! मुहिँ मृतप्राय,
जीबदान कर हेउ कृतार्थ
अभिप्राय ॥ (५)
*
मुखरित कर चन्द्रमुखि गो !
मणिमय चारु मेखळा,
तुमरि कण्ठ- स्वर सम ताळे
करु सुन्दर से खेळा ।
कोकिळ-कूजन सकळ,
मोहरि उभय कर्ण्णपुटरे
प्रबेशि करिछि बिकळ ।
दीर्घकाळर अबसाद,
शान्त कर गो कान्ते ! बितरि
मधुनाद ॥ (६)
*
कोप अकारणे परकाश करि
मो उपरे,
व्याकुळता आउ जगाअ नाहिँ मो
मानसरे ।
मोहरि मुखकु चाहिँला बेळकु
सते बा लज्जाभरे,
मुदि हेउअछि नेत्र तुमरि
सखि गो ! सम्मुखरे ।
लज्जा एकाळे परिहर,
रतिकेळिखेद- चिन्ता मनरु
दूर कर ॥ (७)
*
शिरीजयदेब- कबि-बिरचित
एइ गीत,
प्रतिपदे करे प्रियहरिङ्क
हृदयानन्द प्रकाशित ।
रसिकजनर अन्तरे एइ
मधुर गिर,
सञ्जात करु मञ्जुळ रति-
रसभाब-सुख हर्षभर ॥ (८)
*
[श्लोक-२ : प्रत्यूहः पुलकाङ्कुरेण]
*
चिरबाञ्छित कामना पूरिला
बेनिङ्कर,
हेला आरम्भ केळि-सम्भोग
परस्पर ।
निबिड़ प्रणय- आलिङ्गनरे
हेबा परे दुहेँ मग्न,
धीरे पहञ्चि घन रोमाञ्च
तहिँरे साजिला बिघ्न ।
बिलोकन थिला तृष्णापूरित
अनुरागे अतिशय,
साजिला अळप नेत्र-पलक
तहिँरे अन्तराय ।
उभयङ्कर सरस अधर
सुधापान बेळे अधीर,
उभा हेला आसि बाधक रूपरे
नर्म आळाप मधुर ।
चरमानन्द प्रतिबन्धक
रूपे होइबारु उपगत,
तहिँ अनङ्ग- कळा-संग्राम
हेला सुरङ्गे समापत ।
क्रिया-कळाप ए अळप बाधक
होइले सुद्धा परिणामे,
हृदे बितरिला प्रमोद अपार
सुखद मदन-संग्रामे ॥
*
[श्लोक-३ : दोर्भ्यां संयमितः]
*
प्रिय-बान्धबी राधिकाङ्कर
बाहुबन्धने बन्दी होइ,
अळप कष्ट पाइले कृष्ण
उरसिज-भारे छन्दि होइ ।
नखमुने हेला चिह्नित कळेबर,
बिक्षत हेला दन्ताघाते अधर ।
ताड़ना हेतुरु प्रियतमाङ्क
नितम्बर,
पीड़ित होइले पीताम्बर ।
कर्षण य़ोगुँ हस्ते चिकुर
हेला नमित,
मधुर अधर रसपाने हेले
सम्मोहित ।
एपरि प्रणये अबर्ण्णनीय
तृप्ति लभिले रसिकबर,
प्रतीत हुअइ आहा ! बिपरीत
अद्भुत गति कामदेबर ॥
*
[श्लोक-४ : माराङ्के रतिकेलि]
*
मार-चिह्नित सरस सुरति
केळिर समर उद्यमे,
प्रियतमङ्कु जिणिबा इच्छि
राधिका सेकाळे सम्भ्रमे ।
साहसर सह अनङ्ग-भाब-
भङ्गी बहि,
बिबिध चेष्टा आरम्भिले से
हरिङ्क उर उपरे रहि ।
अळप समये ताङ्कर,
निश्चळ होइ रहिला जघन-परिसर ।
मृदुळ ताङ्क भुज-लता
भजिला सहजे शिथिळता ।
उर-परिसर बिचळित हेला
कम्प घेनि,
निमीळित हेला नेत्र बेनि ।
प्रिय-सङ्गते रचिलेबि रति-उत्सब,
नारी पक्षरे पौरुष-रस
हेब काहुँ अबा सम्भब ?
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[श्लोक-५ : तस्याः पाटल-पाणिजाङ्कित]
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प्रेयसीङ्कर उर-परिसर
पाटळ पुष्प सम,
नख-चिह्नरे शोभुथिला मनोरम ।
निद्राआबेशे रङ्गिम थिला नयन,
दिशुथिला मृदु अधर-लालिमा मळिन ।
लुळायित थिला अय़तने चारु
अळकाबळी,
झरि य़ाइथिला कुसुम-माल्य
तहिँ मउळि ।
जघन-देशरु रशना सङ्गे दुकूळ,
खसि रहिथिला शिथिळ ।
प्रियतमाङ्क एमिति पञ्च बिकार,
प्रभातबेळारे होइला नेत्रगोचर ।
कामर पञ्च शररूप बहि
से बिमोहन,
अद्भुतभाबे बिद्ध करिला
माधब-मन ॥
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[श्लोक-६ : अथ श्रान्तं रतिक्लान्तं]
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तदनन्तरे श्रान्त आबर
सुरति केळिरे क्ळान्त,
होइ रहिथिले कान्त ।
स्वाधीन-पतिका राधा सुन्दरी
पुणि थरे,
बेश-बिभूषित हेबा पाइँ निज
कळेबरे ।
बिकार बरजि मानसे,
प्रिय-सम्मुखे परकाश कले सरसे ॥
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[गीत-२ : कुरु यदुनन्दन ! चन्दन]
*
लीळामय गोपीनायक,
यदुबंशर शुभाबतंस
हृदयानन्द-दायक ।
केळि-चापल्य करन्ते हरि
ताङ्कु निरेखि प्रेमभरे,
व्यकत करिले मधुर बाक्य
प्रेयसी राधिका ए रूपरे ।
‘तुमरि हस्त कोमळ,
चन्दनरु बि शोभइ अधिक शीतळ ।
मो बेनि उरज अनङ्गर,
मङ्गळ घट तुल्य अटइ
नटनागर !
हस्तरे घेनि तहिँरे हे य़दुनन्दन !
कस्तूरिकार रुचिर पत्र
करिदिअ मुदे अङ्कन ॥ (१)
*
कटाक्ष-रूप दर्पक-शर
निक्षेपिबारे सफळ,
मोहरि नेत्रय़ुगळ ।
हरि हे ! तहिँरे लागिबारु तुम
सराग अधर-चुम्बन,
अञ्जन लिभि घषि होइअछि अय़तन ।
भ्रमरकान्ति-जिणा सुरम्य कज्जळ,
घेनि निज करे लगाइ आदरे
करिदिअ ताहा उज्ज्वळ ॥ (२)
*
कर्ण्णय़ुग मो नेत्र-मृगर
ऊर्मिळ गति-रोधकारी,
तहिँ पिन्धाइ दिअ आनन्दे
कुण्डळ य़ुग मनोहारी ।
कन्दरपर बन्धन-फाश-
लीळाकु ए बेनि बहिब,
आहे मङ्गळ-बेशधर प्रिय केशब ! (३)
*
केळति-केळिरे बिञ्चि होइछि
कुञ्चित मोर केशपाश,
सखीगण एहा देखिले करिबे
केते कौतुक परिहास ।
ताहा सज्जित करिदिअ एबे सम्मुखे,
पद्मजिणा ए रम्य बिमळ
मोर मुखे ।
कृष्ण मधुप-पन्ति-रूपकु बहि,
शोभा पाउ ताहा प्रिय-अन्तर मोहि ॥ (४)
*
हे अरबिन्द-बदन !
भालपट मोर चन्द्रमारूप शोभन ।
श्रमज घर्म-बिन्दु-जळ,
शुष्क होइछि तहिँ सकळ ।
कस्तूरी रस घेनि हस्तरे
तहिँरे तिळक सुन्दर,
लगाइदिअ हे प्रियबर !
से त कळाकरे सुशोभित,
कळङ्क-रूप बहिब सुचारु अङ्कित ॥ (५)
*
कामर केतन- चामर-कान्ति
बहन करिछि ए मोहर,
नीळ कुन्तळ मनोहर,
सुरति-आबेगे बिगळित होइरहिछि,
रम्य मयूर-पुच्छर शोभा बहिछि ।
मान-भञ्जन
! मान-रञ्जन !
एइ मञ्जुळ केशपाशे,
खञ्जिदिअ हे कुसुम-पुञ्ज
प्रिय-बेशे ॥ (६)
*
जघनस्थळी पृथुळ रम्य रसभरा,
ए त अनङ्ग- मतङ्गजर
अटइ निबास-कन्दरा ।
एबे करिदिअ तहिँ सज्जित
सुसञ्च मणि-काञ्ची सहित,
झीन अम्बर अळङ्कारादि
मनोरम,
आहे मङ्गळ भाबना-निळय
प्रियतम !’
॥ (७)
*
कबिजयदेब भणिले मधुर ए बाणी,
श्रीहरि-पयर- स्मरण-पीयूष
बितरि चित्तहारिणी,
कळिकाळगत सकळ पातक
तापराशि करे बिनाश,
एहा आपणार आभरण साजि
हृदे कर दया प्रकाश ॥ (८)
*
[श्लोक-७ : रचय कुचयोः पत्रं]
*
‘बिरचना कर मो कुचबेनिरे
पत्राबळी,
गण्ड-य़ुगळे मण्डित कर
चित्राबळी ।
मञ्जुमेखळा खञ्जिदिअ मो जघने,
सुगन्धमाळा पिन्धाइ केश-
बन्ध सजाअ य़तने ।
करय़ुगे कर चारु कङ्कण
अळङ्कृत,
कर मो य़ुग्म पयरे नूपुर
सज्जीभूत ।’
प्रियतमा राधा- बचने एपरि
प्रीत हृदयरे पीतबास हरि
समुचित रूपे तत्पर,
बेश बिरचिले सुन्दर ॥
*
[श्लोक-८ : यद्गान्धवकलासु कौशल]
*
सङ्गीत सह बिबिध कळारे
य़ेते निपुणता रहिअछि,
बिष्णु बिषये धिआन भक्ति
चिन्तन अछि य़ाहा किछि ।
अछि शृङ्गार- रस-बिषयक
तत्त्वर य़ेते बिबेचना,
काव्यराजिरे य़ेते रहिअछि
भाबलीळा आदि बर्णना ।
सेहि समस्त बस्तुमान,
गीतगोबिन्दे बिद्यमान ।
एहि काव्यरु बिबुधबृन्द
हृदयङ्गम करि,
स्वगुण शुद्धि करन्तु निजे
मने आनन्द भरि ।
प्रभु कृष्णरे एकाग्र भाबे
कराइ निजकु मज्जित,
बिरचिले गीति- काव्य रुचिर
जयदेब कबि पण्डित ॥
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[श्लोक-९ : साध्वी माध्वीक ! चिन्ता]
*
मधुरसभरा मदिरा गो ! तुम
बिषयरे,
आउ उत्तमचिन्ता न आसे चित्तरे ।
आगो शर्करा ! तुमे परा,
होइल एणिकि कर्करा ।
द्राक्षा ! तुमकु आदरे के आउ
निरीक्षण करिबे ?
अमृत हे ! तुमे
मृत होइगल एबे ।
नीर हेल एबे क्षीर हे !
स्वाद तुम आउ न रहे ।
माकन्द ! तुमे कान्दुथाअ बिकळे,
प्रेयसी-अधर ! चालिय़ाअ रसातळे ।
य़ेतेकाळ य़ाए जयदेबङ्क
हृद्यगान
लळित मधुर पद्यमान,
चउदिगे होइ बिद्यमान
शृङ्गारभरा भाबराशिकि ए
भबे करुथिब सद्य दान ॥
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[श्लोक-१० : श्रीभोजदेव-प्रभवस्य]
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भोजदेब य़ार पूज्य पिअर,
माता बामादेबी बन्द्य य़ार,
सेहि जयदेब कबि बिरचिले
गीतगोबिन्द काव्यसार ।
पराशर आदि मित्रगणर
मधुर कण्ठ सुस्वरे,
प्रसारित हेउ ए गीतिकाव्य-
प्रतिभा सकळ बिश्वरे ॥
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शिरीजयदेब कबि-बिरचित
गीतगोबिन्द काव्य बिदित,
द्वादश सर्ग समापत हेला
नाम ‘सुप्रीत-पीताम्बर’,
श्रीहरेकृष्ण मेहेर रचिले
मधुर ओड़िआ भाषान्तर ॥
प्रकृति-रूपिणी राधा सुन्दरी,
पुरुष-रूप से गोबिन्द हरि ।
उभयङ्कर लीळामय गाथा
आदिरसभरे बर्ण्णिता,
एथि समुदाय द्वादश सर्गे
काव्य लभिला पूर्ण्णता ॥
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* गीतगोविन्द द्वादश सर्ग सम्पूर्ण *
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कवि-जयदेव-कृत श्रीगीतगोविन्द काव्यर
श्रीहरेकृष्ण-मेहेर-कृत ओड़िआ पद्यानुवाद सम्पूर्ण
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(अनुवाद-समय : २०११, भवानीपाटना)
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