‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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Link:
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-8 : Vilakshya-Lakshmipati)
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गीतगोविन्द : द्वितीय सर्ग
(विलक्ष्य-लक्ष्मीपति)
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[श्लोक-१ : अथ कथमपि यामिनीं]
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एहापरे राधा सुन्दरी,
कौणसिमते बिताइदेले से
बिभाबरी ।
मन्मथ-बाणे ताङ्कर
निपीड़ित थिला कळेबर ।
प्रभात होइला समागत,
प्रिया-सम्मुखे पहञ्चि हरि
कले सबिनय प्रणिपात ।
केते अनुनय करि
कथाळाप कले हरि ।
किन्तु अधिक ईर्षारे,
कहिले राधिका प्रिय-हरिङ्कि
ए भाषारे ॥
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[गीत-१: रजनि-जनित-गुरुजागर]
*
केउँ सङ्गिनी सह उजागर
थिबारु रात्रि सारा,
तुमरि नेत्र य़ुगळ होइछि
केते रक्तिमाभरा ।
नयन अर्द्धमीळित,
अळस पलके पूरित ।
रसर आबेशभरे,
अन्य नायिका प्रति अनुराग
सते से व्यक्त करे ।
चालिय़ाअ आहे माधब !
चालिय़ाअ तुमे केशब !
हाय हाय ! आउ
न कह कपट बचन,
आहे पङ्कज-लोचन !
य़ेउँ सङ्गिनी तुमरि दुःख
दूर करे,
ताहारि समीपे चालिय़ाअ तुमे
सत्वरे ॥ (१)
*
श्याम कळेबर तुमर,
किन्तु लोहित अधर ।
अञ्जन-बोळा नेत्रे ताहार
चुम्ब देबारु कृष्ण हे !
तुमरि अधर काळिमा लभिछि
शरीर-तुल्य रूप बहे ॥ (२)
*
आन सङ्गिनी सह अनङ्ग-
संग्रामरे,
मातिबा समये तुम शरीरे ।
ताहार तीक्ष्ण- नखघात
रेखामान दिशे अङ्कित ।
प्रते हुए मने सते से कामिनी
मरकत-शिळा उपरे,
लेखिअछि रण- बिजय-पत्र
हेम बर्ण्णर लिपिरे ॥ (३)
*
सेइ तरुणीर चरण-कमळ
युगळुँ गळित अलक्तरे,
रञ्जित एइ हृदय तुमरि
केड़े सुन्दर देख हे थरे ।
हरि हे ! बाहारे सतेबा तुमर
से हृद करइ प्रदर्शित,
अतनु-तरुरे होइअछि नब
पल्लबराजि सुबिकशित ॥ (४)
*
अन्य नारीर दन्त-आघात
लागिछि तुमरि अधरे,
एहा निश्चय व्यथा अतिशय
जन्माए मोर हृदरे ।
मो सहित तुम अभिन्न-भाब पीरति,
एबे बि रहिछि बोलि तुम एहि
शरीर कहुछि केमिति ? (५)
*
कृष्ण हे ! तुम देह त बाहारे
दिशुअछि कळाबरण,
सेपरि निश्चे होइथिब पुणि
तुम अन्तःकरण ।
नोहिले कि मोते हरि !
करिथाआन्त बञ्चना एहिपरि ?
पञ्चबाणे पीड़िता,
तुम बिरहिणी प्रणयिनी मुहिँ
सदा तब अनुगता ॥ (६)
*
अबळाजनकु ग्रासिबा इच्छा
रखि मने,
भ्रमुअछ तुमे बने बने ।
कि बिचित्रता ए बिषयरे ?
पूतना हिँ निजे प्रमाण करे ।
नारीबध कथा घेनि हे माधब !
प्रसरिअछि कीरति,
बाल्यकाळरु तुम चरित्र
अटे निर्दय अति ॥ (७)
*
शिरीजयदेब कबि रचित,
रति-बञ्चिता खण्डिता राधा
बिरहिणीङ्क बिळाप गीत ।
बिबुध-नगरी स्वरगुँ मध्य
दुर्लभ बोलि जाण,
ए बाणी सरस पीयूष-मधुर
शुण हे बिबुधगण ॥ (८)
*
[श्लोक-२ : तवेदं पश्यन्त्याः]
*
आन नायिकार पदयुगे बोळा
अलक्त रसे सुरञ्जित,
उरदेश तुम दिशुछि मोहरि
नेत्रे अरुण-आभान्वित ।
से रमणी प्रति तुम अन्तर
भाबानुराग,
प्रकाश लभिछि प्रसरि सतेकि
बहिर्भाग ।
ए राधा सङ्गे तुमरि प्रणय
सुबिख्यात,
किन्तु शठ हे ! आजि हेला तहिँ
भङ्ग जात ।
तुम दर्शने मो हृदय,
शोक अपेक्षा लज्जारे एबे
अभिभूत हुए अतिशय ॥
* * *
जयदेब कबि-प्रणीत
गीतगोबिन्द काव्य मधुर लळित ।
हेला अष्टम सर्ग इति,
नाम ‘विलक्ष्य-लक्ष्मीपति’ ।
श्रीहरेकृष्ण मेहेर,
रचिले ओड़िआ पद्यानुबाद एहार ॥
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* गीतगोविन्द अष्टम सर्ग सम्पूर्ण *
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