‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-11
: Sananda-Govinda)
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गीतगोविन्द : एकादश सर्ग
(सानन्द-गोविन्द)
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[श्लोक-१ : सुचिरमनुनयेन]
*
बहुबेळ य़ाए नाना अनुनय-
बाणी माध्यमे भाब भरि,
हरिणनयनी प्रणयनीङ्कि
प्रीत कराइले प्रियहरि ।
चळिगले तहुँ चारु निकुञ्ज-
शय़्या पाशे,
बिभूषित कले निजकु मोहन
रम्य बेशे ।
एणे राधाङ्क हृदयरु सारा
अबसाद हेला दूर,
मञ्जु भूषणे थिला सज्जित
ताङ्करि कळेबर ।
लोचन लुचाए अन्धारभरा
सन्ध्यासमय सुमधुर,
एतेबेळे जणे सजनी बोइले
राधिका-आगरे एइ गिर ॥
*
[गीत-१ : विरचित-चाटुवचन]
*
मुग्धे राधिके ! प्रेमबिधिरे,
अभिसार कर मधुअरिङ्क सन्निधिरे ।
तुम आगे से त प्रकाशिछन्ति
केते चाटुबाणी बिमोहन,
तुमरि पादरे प्रणमि आदरे
करिअछन्ति निबेदन ।
एबे मञ्जुळ बेतस-कुञ्जे
केळि-शय़्यारे उपगत,
प्रियकान्त से तुम एकान्त
अनुगत ॥ (१)
*
बहिछ राधिके ! सुन्दर
बिपुळ जघन- भार सङ्गते
उन्नत पीन पयोधर ।
सुकुमार निज पयर चळाइ
धीर धीर,
पराजित कर
गति-माधुरीकि हंसीर ।
प्रियपाशे आपणार,
कर मुदे अभिसार ।
रमणीय मणि-नूपुर,
सखि गो ! तुमरि चरणरे हेउ
रुणुझुणु करि मुखर ॥ (२)
*
शुण रसबति ! युबतीगणर
बिमोहन,
मुरारिङ्कर रम्य मुरली-निस्वन ।
से त बजान्ति रसभरे,
सुमधुर लागे कर्ण्णरे ।
कोमळ कुसुम-कमाणधर
कमनीय-रूप कामदेबर
प्रेम-सन्देश कोकिळबृन्द
करुअछन्ति गान ।
एमानङ्कर पाशे भाब कर
सुन्दरि ! तेजि मान ॥ (३)
*
सजनि ! तुमरि
बेनि ऊरु गज-शुण्डर,
शोभाकु आहरि
दिशे अतिशय सुन्दर ।
बाते दोळायित मृदु पल्लब-
हस्त चळाइ आपणा,
बल्लरीगण देउअछन्ति
सतेबा तुमकु प्रेरणा ।
आगेइ चाल गो !
बल्लभ पाशे निजर,
अम्बुज-मुखि !
आउ बिळम्ब न कर ॥ (४)
*
मनोहारी हार शोभापाए य़हिँ
निर्मळ नीरधार रूपरे,
सखि ! एइ तुम उन्नत कुच-
कळस बेनिकि पचार थरे ।
सते अबा से त मार-ऊर्मिरे
कम्पित होइ सूचाउछि धीरे,
‘सत्वरे प्रिय मधुसूदन
करिबे तुमकु आलिङ्गन’ ॥ (५)
*
करिबा अर्थे एबे अनङ्ग-संग्राम,
प्रस्तुत होइ अछि शुभाङ्गि !
तनु तुम्भरि अभिराम ।
सखीसमाजरे गोचर,
होइछि ए कथा तुमर ।
चण्डि गो ! तुमे सरसे मेखळा-
नाद-डिण्डिम बजाइ,
उत्साहभरे अभिसार कर
मनरु लज्जा हजाइ ॥ (६)
*
मन्मथ-बाण पराये तीक्ष्ण
सुन्दर नखे शोभित,
तुम करे एइ सखीकि आश्रि
चरण बढ़ाअ तुरित ।
मनोरम लीळा सहकारे,
गमन कर गो ! अभिसारे ।
रुणुझुणु करि कर-कङ्कणे मधुनाद,
प्रिय-हरिङ्कि जणाइदिअ गो !
आपणा गमन संबाद ॥ (७)
*
कबिबर शिरी जयदेबङ्क
बिरचित एइ गीत आगे
सुमधुर गान-अनुरागे,
मोहिनी रमणी प्रति उदासीन
भाबना जागे,
गळारे गृहीत मुक्ताहार बि
मळिन लागे ।
श्रीहरि-रसरे मज्जित मन
य़ाहाङ्कर,
ए गीत ताङ्क कण्ठे बिराजु
निरन्तर ॥ (८)
*
[श्लोक-२ : सा मां द्रक्ष्यति वक्ष्यति]
*
‘प्रेमभरे मोते प्रिया निरेखिबे
करि ए कुञ्जे आगमन,
मन्मथ-कथा करिबे सरसे बर्ण्णन ।
करि से मोहरि अङ्गे अङ्गे
आलिङ्गन,
केते आनन्दे हेबे मगन ।
सुरति-बिळासे मज्जित,
होइ प्रियतमा करिबे चित्त
प्रमुदित ।’
एभळि उङ्कि अनेक भाबना ताङ्करि,
देब उद्बेग हृदे भरि ।
करिबे तुमरि रम्यरूप से दर्शन,
तनुरे ताङ्क सञ्चरिय़िब कम्पन ।
देहे रोमाञ्च जागिब,
मन आनन्द लभिब ।
घर्म-जळरे जरजर,
हेब ताङ्करि कळेबर ।
तुमे निकुञ्जे आसिअछ बोलि
करिबा अर्थे सुआगत,
हेबे से दुआरे उपगत ।
तुमकु न पाइ मूर्च्छित
हेउथिबे प्रिय निश्चित ।
तिमिर-पुञ्ज गहन,
व्यापि रहिथिब तहिँ मञ्जुळ
केळि-निकुञ्ज--सदन ॥
*
[श्लोक-३ : अक्ष्णोर्निक्षिपदञ्जनं]
*
केळि अभिसारे केते चळन्ति
चञ्चळ सुनिपुण,
मदने आर्त्त धूर्त्त नायिकागण ।
चतुर्दिगरे सारा निकुञ्ज
घेरा एते घोर अन्धकारे,
सखि गो ! चित्ते प्रतीत हुअइ
ए परकारे ।
प्रति अङ्गरे सेहि अङ्गना
मानङ्कु सते आलिङ्गन,
करे अन्धार सान्द्र घन ।
कज्जळ साजि सज्जित करे
बेनि नयन,
कर्ण्णरे नीळ बर्ण्ण तमाळ
गुच्छमान ।
सुनीळ कमळ माळिका सुरुचि
मस्तकरे,
कस्तूरिकार चित्र बिरचे
बक्षोजरे ।
नीळ रङ्गर परिधान परि
अन्धकार त सुन्दर,
निशीथबेळारे आबोरिथाए से
अबळाङ्कर कळेबर ॥
*
[श्लोक-४ : काश्मीर-गौर-वपुषां]
*
कुङ्कुम सम गौर-बरणा
नागरीगण,
अभिसार बेळे रचिथाआन्ति
नाना भूषण ।
ताङ्करि मणि-अळङ्कार
प्रकाशे दीप्ति चमत्कार ।
तमाळ-पुष्पदळ परि नीळबरन,
दिशे परा एइ घन अन्धार शोभन ।
प्रेमरूप हेम-परीक्षक ए तिमिर,
श्यामळ निकष-रूप बहिअछि रुचिर ।
घर्षण कले कषटि पथरे
य़ाएटि देखा,
बिकाशि कान्ति चमके शुद्ध स्वर्णरेखा ॥
*
[श्लोक-५ : हारावली-तरल-काञ्चन]
*
गळे मोतिहार कमनीय,
मेखळासूत्र सुबर्णमय रमणीय
।
बाहुरे शोभित केयूर,
कर-कङ्कण रुचिर ।
एइ समस्त मणिभूषणर
दीप्ति आहरि समुज्ज्वळ,
दिशुथिला सेइ केळिनिकुञ्ज
सुमञ्जुळ ।
प्रिय-हरिङ्कि सादर अनाइँ से दुआरे,
प्रेयसी राधिका मज्जित हेले लज्जारे ।
सहचरी तहिँ ए कथा जाणि,
व्यकत करिले राधा-अग्रते
मधुर बाणी ॥
*
[गीत-२ : मञ्जुतर-कुञ्जतल-केलि]
*
अति मञ्जुळ कुञ्ज-तळ,
केळिसदन ए सुनिर्मळ ।
भितरे प्रबेश कर गो राधिके !
सुसज्जिता,
हरि पाशे मिळि बिळासरे हुअ
निमज्जिता ॥
सुरति-रसर आतुरता य़ोगुँ तुमरि,
मुख सुरम्य दिशुअछि आगो !
बिकाशि हास्य माधुरी ॥ (१)
*
नव्य अशोक-किशळय-राजि-निर्मित,
मृदुळ शय़्या होइछि सदने प्रस्तुत ।
कम्पुछि आगो ! तुमरि उच्च
उरज-कळस बेनि,
तहिँ मणिहार दोळित हेउछि
चञ्चळ गति घेनि ।
भितरे प्रबेश कर गो राधिके !
सुसज्जिता,
हरि पाशे मिळि बिळासरे हुअ
निमज्जिता ॥ (२)
*
तुमे गो सुमन सम सुकुमार
कळेबरा,
बिमळ कुञ्ज- सदन एकाळे
शोभाभरा ।
सुबास कुसुम बिञ्चित नाना प्रकार,
शृङ्गारमय आगार ।
भितरे प्रबेश कर गो राधिके !
सुसज्जिता,
हरि पाशे मिळि बिळासरे हुअ
निमज्जिता ॥ (३)
*
शृङ्गार केळिरस अनुकूळ मधुर,
गायनरे तुमे सखि गो ! एकाळे
होइअछ केते बिभोर ।
बहिबारु धीरे
मृदुळ मळय पबन,
भरा सुरभिरे
सुशीतळ एहि सदन ।
भितरे प्रबेश कर गो राधिके !
सुसज्जिता,
हरि पाशे मिळि बिळासरे हुअ
निमज्जिता ॥ (४)
*
बहिछ तुमे गो ! जघन पृथुळ,
एणु से अळस धीर-गतिशीळ ।
बिस्तृत बहु लतासमूहर नूतन
कोमळ पत्रे आच्छादित ए सदन ।
भितरे प्रबेश कर गो राधिके !
सुसज्जिता,
हरि पाशे मिळि बिळासरे हुअ
निमज्जिता ॥ (५)
*
अनङ्ग-शरे सरस
भाबरे बिभोर एबे तुम्भर मानस ।
प्रसूनराजिर मधुरस पाने
आनन्द-मने मिळिन्दमाने
करन्ति मधु गुञ्जन,
नादे मुखरित ए सदन ।
भितरे प्रबेश कर गो राधिके !
सुसज्जिता,
हरि पाशे मिळि बिळासरे हुअ
निमज्जिता ॥ (६)
*
सखि गो ! दन्त- पन्ति तुमरि
सुमनोहर,
आपणा कान्ति य़ोगे बिहिअछि
रमणीय रूप माणिक्यर ।
कोकिळपन्ति करुअछन्ति
मञ्जुळ मधु कूजन,
से कळनादरे गुञ्जरित ए सदन ।
भितरे प्रबेश कर गो राधिके !
सुसज्जिता,
हरि पाशे मिळि बिळासरे हुअ
निमज्जिता ॥ (७)
*
कबिराज शिरीजयदेबङ्क ए गीत,
श्रीमती पद्मा- बतीङ्क बहु
सौख्य बिधाने रचित ।
हे मुरारि नारायण !
कर शतशत कल्याण बितरण ॥ (८)
*
[श्लोक-६ : त्वां चित्तेन चिरं]
*
तुमकु आपणा अन्तरे बहि निरत,
श्रान्त हेलेणि कान्त अतीब
रतिबर-बाणे आरत ।
राधा गो ! तुमरि सुधारसभरा
बिम्वाधर,
पान करिबाकु अभिळाषी एबे
पीताम्बर ।
मुदे ताङ्करि अङ्करे हुअ
शुभाळङ्कार बिमोहन,
सङ्कोचरे कि प्रयोजन ?
तुमरि रम्य भूरुभङ्गीर
अळपमात्र सङ्केतरे,
क्रीत किङ्कर परि सेबारत
हेबे से पयर-पङ्कजरे ॥
*
[श्लोक-७ : सा ससाध्वस-सानन्दं]
*
राधिका-हृदय एकाळे शङ्का-आकुळ,
पुणि आनन्दे बिभोळ ।
तृष्णापूरित ताङ्क युगळ नयन,
हेब बोलि प्रिय-कृष्ण सहित मिळन ।
पयर-य़ुग्मे नूपुर
रुणुझुणु करि मधुर,
प्रबेशिले तहुँ राधा सुन्दरी
धीरे धीरे,
कुञ्ज-सदन मध्यरे ॥
*
[गीत-३ : राधावदन-विलोकन]
*
राधा कले अबलोकन,
बिराजिछन्ति कान्त केशब
सुपरसन्न बदन ।
झलसि रहिछि मुखे आनन्द अपार,
बहिअछन्ति कन्दरपर
सुन्दर रूप आकार ।
बहुदिनुँ प्रिया सङ्गरे,
मज्जिबा पाइँ कामना जागिछि
अनङ्ग-केळिरङ्गरे ।
प्रियतमाङ्क दरशने हरि-
हृदयरे नाना प्रकार,
जाग्रत हेला सरागे प्रबळ
मन्मथभाब बिकार ।
पूर्णिमा-कळा- निधि दरशने
प्रसारि उच्च लहरी,
चपळ मुदित सिन्धु पराय
शोभिले सेकाळे श्रीहरि ॥(१)
*
ताङ्करि उर प्रदेशे,
अतीब बिमळ तरळ मुक्ता
हार लम्बिछि सुबेशे ।
य़मुनार नीर प्रबाहरे,
बिमळ शुभ्र भासमान फेन
पुञ्ज य़ेपरि मन हरे ॥ (२)
*
श्यामळ कोमळ तनु दिशुअछि
केड़े शोभन,
तहिँ परिधान करिअछन्ति
पीत बसन ।
मूळ य़ार पीत परागपुञ्ज-
सम्भारे परिबेष्टित,
एपरि रम्य नीळारबिन्द
सम गोबिन्द सुशोभित ॥ (३)
*
बेनि लोचनरे चञ्चळ,
चारु अपाङ्ग- भङ्गीकि घेनि
शोभुअछि मुख उज्ज्वळ ।
करुछि से राधा-हृदयगत,
मन्मथ-राग उद्दीपित ।
बिराजित हरि मनोहर,
शरद ऋतुरे य़था निर्मळ
सरोबर ।
य़हिँ बिकशित नीळ उत्पळ
मध्यरे रहि चपळ,
खेळा करन्ति खञ्जन खगयुगळ ॥ (४)
*
बिकाशिबा पाइँ केशबङ्कर
मुख-पङ्कज उज्ज्वळ,
सूर्य़्य पराय प्रते हेउथिला
श्रबणर बेनि कुण्डळ ।
मन्दहासर दीप्तिकि लभि
समुद्भासित सुन्दर,
अधर-पत्र ताङ्कर ।
करुथिला तहिँ राधिका-हृदये बाञ्छित,
सुरति-लाळसा बर्द्धित ॥ (५)
*
बिबिध पुष्पे बिभूषित थिला
कुन्तळ नीळ बरण,
बारिद य़ेभळि शोभे कळेबरे
बाजिले चन्द्रकिरण ।
भाले चन्दन- बिन्दु तिळक
दिशुथिला केड़े निर्मळ,
घन अन्धार मध्ये उदित
य़ेपरि इन्दु-मण्डळ ॥ (६)
*
प्रिया राधाङ्क दरशने,
जागिला ताङ्क घन रोमाञ्च
अपघने ।
सङ्गे सुरतिकेळिर,
बिबिध कळारे मज्जिबा लागि
मन हेउथाए अधीर ।
नानाबिध मणि-रश्मिराशिरे भास्वर,
आभरण य़ोगे तनु हरिङ्क
दिशुथिला बहु सुन्दर ॥ (७)
*
कबि जयदेब- बिरचित बाणी
बैभब य़ोगुँ य़ाहाङ्कर,
बर्द्धित होइ अछि बेनिगुण
शुभाळङ्कार सुसम्भार ।
सकळ पुण्य-उदयर,
से त अमूल्य सार अटन्ति बिश्वर ।
सेहि बरेण्य हरिङ्कि बहि
चिरकाळ निज हृदे,
भक्तगण हे ! प्रणति जणाअ
ताङ्क चरणे मुदे ॥ (८)
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[श्लोक-८ : अतिक्रम्यापाङ्गं श्रवण]
*
प्रियतमङ्क मङ्गळमय दरशने,
प्रिय-बल्लभी बहु उल्लास
लभिले आपणा सुनयने ।
करि अपाङ्ग अतिक्रम,
श्रुतिपथ य़ाए प्रसरिबा लागि
आचरिबा हेतु परिश्रम ।
सते बा पतित हेला राधाङ्क
नयन य़ुगळ बिस्फारित,
तरळ-तारका-परिशोभित ।
बहे य़ेउँपरि स्वेद-जळ,
तहुँ अजस्र प्रमोद-अश्रु
झरिला आबेगे अबिरळ ॥
*
[श्लोक-९ : भजन्त्यास्तल्पान्तं कृत]
*
राधा उत्सुक अन्तरे
उभा हुअन्ते कोमळ शय़्याप्रान्तरे,
सहचरीगण आपणा कर्ण्ण-
कण्डु हेबार छळनारे
दरहास चापि बदनरे,
सेइ निकुञ्ज-गृहरु बाहारि जाणिजाणि,
प्रस्थान कले तक्षणि ।
मन्मथशर-आबेगरे भरा शोभन
प्रिय-बदनकु चाहिँलामात्रे बहन,
हरिणनेत्री राधिकाङ्कर हृद्गता,
लज्जा सते बा पळाइला दूरे
होइ निजे तहिँ लज्जिता ॥
* * *
जयदेब कबि लेखिले काव्य
गीतगोबिन्द सुधारस,
पूर्ण्ण होइला एठारे सर्ग
एकादश ।
नाम ‘सानन्द-गोविन्द’ बोलि परिचित,
ओड़िआ पद्य अनुबाद हरे-
कृष्ण-मेहेर-बिरचित ॥
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* गीतगोविन्द एकादश सर्ग सम्पूर्ण *
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