‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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Link:
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-6 : Kuntha-Vaikuntha)
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गीतगोविन्द : षष्ठ सर्ग
(कुण्ठ-वैकुण्ठ)
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[श्लोक-१ : अथ तां गन्तुमशक्तां]
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बहु अनुरागी हेलेबि मानस प्रियठारे,
प्रेयसी राधिका य़ाइ न पारिले
ताङ्क निकटे अभिसारे ।
एहिपरि दशा देखि,
कृष्ण समीपे चळि ताङ्कर
कथा जणाइले सखी ।
हरि एसमये थिले निकुञ्ज-निळयरे,
मदन-बेदना-निरुत्साहित हृदयरे ॥
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[गीत-१: पश्यति दिशि दिशि रहसि]
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आहे आश्रित-नाथ--हरि !
बसिअछन्ति आकुळे निबास-
सदनरे राधा सुन्दरी ।
चतुर्दिगरे बिजने,
तुमकु सतत देखुअछन्ति
य़ेणिकि चाहिँले नयने ।
भाबन्ति मने साबधान,
करुअछ तुमे ताङ्क अधरु
सुमधुर मधु रसपान ॥ (१)
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तुमरि पाशकु अभिसार लागि
उत्साहरे,
व्यग्र राधिका सामान्य बळ
बहि देहरे ।
कौणसिमते आगेइले धीरे
किछि पाद आउ न चळे,
पड़िय़ाआन्ति भूतळे ॥ (२)
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बिमळ कमळ-नाळ सुकोमळ पत्ररे,
बिरचि बळय घेनिअछन्ति
बेनि करे ।
मने गुणि तुम रतिकेळि-कथा सकळ,
तुमरि कान्ता कष्टे जीबन
धरिअछन्ति केबळ ॥ (३)
*
तुमरि मयूर-पुच्छादि नाना अळङ्कार,
सजाइ निजर अङ्गे सजनी
निरेखुथान्ति बारम्बार ।
मने भाबन्ति प्रिय-नागरी,
‘मधुबैरी मुँ स्वयं हरि’ ॥ (४)
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‘हरि काहिपाइँ मोपाशे कुञ्जे
करुनाहान्ति अभिसार’,
बोलि सखीङ्कि बिरहिणी राधा
पचारुछन्ति बारबार ॥ (५)
*
‘आसिले कृष्ण’ बोलि भाबि सेत
निज मने,
नब बारिधर- बरण सान्द्र
अन्धकारकु अपघने ।
करन्ति केते आलिङ्गन,
प्रेमे दिअन्ति से चुम्बन ॥ (६)
*
तुम बिळम्व य़ोगुँ हरि !
बरजि लज्जा बासकसज्जा सुन्दरी,
बिळपुछन्ति झुरि झुरि
नयनुँ अश्रु याए झरि ॥ (७)
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शिरीजयदेब कबि-बिरचित गीत ए,
जगाउ अशेष आनन्दराशि
रसिकबृन्द-हृदये ॥ (८)
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[श्लोक-२ : विपुल-पुलकपालिः]
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जागे रोमाञ्च तनुरे ताङ्क बारबार,
बदनुँ आहुरि बाहारइ बहु सीत्कार ।
अन्तरे जात जड़िमा हेतुरु
भाब-आकुळे,
बोलन्ति नाना अस्फु-ट पद
प्रणय-भोळे ।
अतिशय काम- चिन्तारे राधा
तुमरि धिआने लग्ना,
शठ नागर हे ! रस-सागररे
मृगनयनी से मग्ना ॥
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[श्लोक-३ : अङ्गेष्वाभरणं करोति]
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पत्रटिए बि उड़िले पाशरे सरसर,
सत्वरे तुमे पहञ्चिय़िब
बोलि से आपणा कळेबर,
सजाइथान्ति बहुबार
बिभूषणे नाना परकार ।
बिछाइथान्ति शयन,
दीर्घसमय करन्ति तब धिआन ।
एपरि अनेक आकल्प सह
केते बिकल्प आकळना
कोमळ तल्प बिरचना,
साथे शत शत सङ्कळपर
बिबिध केळिरे मुग्धा,
मज्जि रहिले सुद्धा ।
तुमरि बिना से प्रणयिनी,
रुचिर-गात्री करि न पारिबे
रात्रीयापन एकाकिनी ॥
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शिरीजयदेब कबि-बिरचित
गीतगोबिन्द काव्य,
सहृदय-जन-भाव्य ।
षष्ठ सरग समापत अभिराम,
बहिछि ‘कुण्ठ-वैकुण्ठ’ ए नाम ।
श्रीहरेकृष्ण मेहेर,
रचिले हरषे रुचिर ओड़िआ
पद्यानुबाद एहार ॥
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* गीतगोविन्द षष्ठ सर्ग सम्पूर्ण *
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