‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-4 : Snigdha-Madhava)
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गीतगोविन्द : चतुर्थ सर्ग
(स्निग्ध-माधव)
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[श्लोक-१: यमुना-तीर-वानीर]
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रम्य य़मुना नदीतीरे
बेतस-कुञ्ज-बसतिरे,
अबसादभरे बसिथिले हरि चिन्तित,
प्रेमअनुरागे बिचळित ।
तहिँ पहञ्चि राधिकाङ्कर सहचरी,
व्यकत करिले ताङ्करि आगे एहिपरि ॥
*
[गीत-१ : निन्दति चन्दनमिन्दुकिरण]
*
राधा सुन्दरी चन्दन सह
शीतळ चन्द्ररश्मिकि,
हृदये निन्दा करन्ति भाबि अरुचिकि ।
माधब ! तुमरि बिना,
अधीरता भजि सखी मो खिन्नमना ।
मळय पबन कोमळ,
भाबन्ति से त य़ेपरि सर्प-
बसति-मिळित गरळ ।
तुमरि बिरहे परा
से अति दैन्यभरा ।
दर्पक-शर भयरे सते बा
ताङ्क हृदय आशङ्कित,
एथिपाइँ तुम स्वरूपरे लीन
होइ मणन्ति सुरक्षित ॥ (१)
*
राधिकाहृदये तुमे सदा बिराजित,
किन्तु निरते मन्मथ-शर
हेउछि तहिँ पतित ।
से शरघातरु सते अबा सखी
रक्षा सकाशे तुमर,
हृदय-मर्मे निजर ।
जळ-सिञ्चित कमळ-पत्रे रचित
बिशाळ कबच करिअछन्ति खचित ॥ (२)
*
बिचित्र नाना परकार
पुष्पराजिरे कोमळशय्य़ा मनोहर,
अनेक बिळास कळारे सजाइ
नारीमणि,
निजे अछन्ति निर्माणि ।
बिरहे तुमरि हुए परते,
पुष्पशायक मदनर शर-शय्य़ा सते ।
केबळ तुमर प्रेमालिङ्गन
सुख पाइबार आशारे मगन,
आचरिछन्ति सुन्दरी,
एरूपे कठोर ब्रत परि ॥ (३)
*
ताङ्क मृदुळ मुखारबिन्द सुन्दर,
धारण करिछि नेत्ररूपक बारिधर ।
तहिँरु अश्रु-जळ,
झरुअछि अबिरळ ।
प्रते हुए सते राहुर कराळ
दन्ताघातरे दळित,
चन्द्ररु धीरे धीरे झरिआसे
पीयूषर धारा गळित ॥ (४)
*
हस्तरे घेनि कस्तूरिका
बसि एकान्ते सखी राधिका,
साक्षातरूपे तुमकु मदन भाबि सेत
करन्ति तुम रम्य मूरति अङ्कित ।
से चित्रतळे आबर
रचिथाआन्ति बाहन रूपरे मकर ।
नूतन आम्र मुकुळ सायक
निबेशिथान्ति करे पुणि,
अर्च्चित करि चित्रे तुमकु
प्रणमन्ति से बिरहिणी ॥ (५)
*
से त कहन्ति पदे पदे होइ आरता,
‘माधब ! तुमरि पादतळे मुहिँ पतिता ।
मोठारु बिमुख
होइ तुमे गले सत्वर,
मोहरि ए देह दहइ चन्द्र
हेलेबि शीतळ सुधाकर ॥’ (६)
*
अतिदुर्लभ तुमकु आपणा हृदगते
एकाग्रमन धिआने कल्पि अग्रते,
से हरिणाक्षी तुमकु लक्षि
केते करन्ति बिळाप,
हसन्ति मोदे केतेबेळे पुणि
करन्ति शोक अमाप ।
केतेबेळे करिथान्ति बिकळ रोदन,
केतेबेळे पुणि करन्ति अनुधाबन ।
हरि ! हेले तब आबिर्भाब,
निबारिथान्ति आपणा तनुरु
ताप सरब ॥ (७)
*
शिरीजयदेब कबि-बिरचित
ए गीतिकि यदि निजर,
मानसे नृत्य कराइबा पाइँ
बाञ्छा रहिछि तुमर,
तेबे हे सुज्ञमाने !
पाठ कर साबधाने ।
कृष्णबिरहे व्याकुळ-हृदया
बरज-तरुणी राधाङ्कर,
प्रिय-सहचरी प्रकाशिछन्ति
य़ेते रसभाबपूर्ण्ण गिर ॥ (८)
*
[श्लोक-२ : आवासो विपिनायते]
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हरि हे ! तुमरि बिरहरे आहा !
राधाङ्क ए कि लक्षण,
त्रस्ता हरिणी परि बिरहिणी
करुअछन्ति आचरण ।
ताङ्कु एकाळे बासगृह लागे
घन बनस्त परि,
बिस्तृत जाल परि सखीगण
रहिअछन्ति घेरि ।
उष्ण शुआस य़ोगे तनु-ताप निजर,
बन-बह्निर ज्वाळाराजि परि
अनुभूत हुए प्रखर ।
य़मरूप बहि अछि मन्मथ
कि निर्दय,
शार्दूळ-खेळा बिरचि जगाए
चित्ते भय ॥
*
[गीत-२: स्तन-विनिहितमपि हार]
*
केशब हे ! तुम बिरहरे
कृशाङ्गी राधा स्वदेहरे,
कुचय़ुगपरे लम्बित आपणार,
मनोहर मणि- हारकु मध्य
मणुअछन्ति भार ॥ (१)
*
चन्दन लेप हेलेबि सरस
चिक्कण केड़े शीतळ,
अङ्गे बोळिले भये मणन्ति
य़ेह्ने बिषम गरळ ॥ (२)
*
निःश्वास बायु उष्ण,
सतेकि प्रखर कामाग्नि बोलि
भाबन्ति आहे कृष्ण !
सकळ अङ्गे सञ्चार,
अतुळनीय ता बिस्तार ॥ (३)
*
बिरहिणी निज चतुर्दिगरे
सञ्चाळित,
नेत्रय़ुगरु बरषुछन्ति
लोतकबिन्दु अप्रमित ।
नाळरु छिन्न कमळ य़ेपरि
चारिपाशरे,
बिक्षेप य़ोगुँ बारिकणराशि
बर्षा करे ॥ (४)
*
पत्रे रचित कोमळ शय्य़ा
हेलेबि नेत्रे गोचर,
भाबन्ति ताहा अनळ-शय्य़ा
देह-दाहक से प्रखर ॥ (५)
*
मृदु रक्तिम करतळ थापि
आपणार,
छाड़िपारन्ति नाहिँ से कपोळ
परिसर ।
सन्ध्याबेळार बाळचन्द्रमा य़ेसने,
निश्चळ रहे गगने ॥ (६)
*
तुमरि बिरहे ताङ्क मरण
होइअछि सते निश्चित,
हरि हरि बोलि तुम नाम खालि
जपिबारे से त मज्जित ॥ (७)
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शिरीजयदेब कबि-बिरचित ए गीति,
केशब-चरणे प्रणत जनर
चित्ते बितरु पीरति ॥ (८)
*
[श्लोक-३ : सा रोमाञ्चति सीत्करोति]
*
राधिका-अङ्गे शिहरण जागे
बारबार,
निर्गत हुए मुखरु अनेक
सीत्कार ।
केतेबेळे सेत करिथान्ति बिळाप,
आहुरि कम्प जगाए बिरह-ताप ।
दुःखे झाउँळि य़ाए मृदु तनु
तुमरि बिना,
केतेबेळे सखी तुमरि धिआने
मग्नमना ।
भरमिथान्ति तुम बिना मति-बिह्वळे,
नेत्र-युगळ मुदि रहन्ति केतेबेळे ।
लोटि पड़न्ति सहसा भूमिरे,
केतेबेळे उठि चालन्ति धीरे ।
केतेबेळे पुणि से मूर्च्छिता,
एभळि मदन- ज्वरे शुभाङ्गी
जर्जरिता ।
सन्देह जागे बञ्चिबेनिकि स्वदेहे,
स्वर्गपुरीर बैद्य-पराय तुमे हे !
यदि प्रसन्न होइब
रसे उपचार बिहिब,
तेबे रहिपारे सखी-पराण,
न हेले तुमे हिँ अन्तक बोलि
निश्चे जाण ॥
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[श्लोक-४ : स्मरातुरां दैवत-वैद्य-हृद्य]
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हे देबबैद्य-प्रतिम रम्य श्रीहरि !
होइअछन्ति काम-मार्गणे
रुग्णा सजनी मोहरि ।
तुमरि अङ्ग-सङ्ग-पीयूष केबळ,
सेबनयोग्य देब आरोग्य सफळ ।
एइ औषध देइ राधाङ्कु
न करिब य़दि रोग दूर,
तेबे उपेन्द्र ! बज्रठारु बि
तुमे अट अति निष्ठुर ॥
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[श्लोक-५ : कन्दर्पज्वर-संज्वरातुर]
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कळेबर सुकोमळ,
एकाळे मदन-ज्वरे जर्जर बिह्वळ ।
केबे चन्दन चन्द्र नळिनी
बिषय चिन्ता करिले सजनी,
बर्द्धित हुए अधिक ताङ्क
मनोव्यथा,
अति बिस्मय एइ त कथा ।
सुशीतळतर प्रियबर
तुमे एका अट ताङ्कर ।
क्ळान्ति लभिले सखी एकान्ते
तुमरि धिआने निरत,
कौणसिमते दुर्बळ देहे
रहिअछन्ति जीबित ॥
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[श्लोक-६ : क्षणमपि विरहः पुरा]
*
पूर्बे मिळन दशारे
केतेबेळे काहा बशरे,
मुहूर्त्तक बि तुमरि बिरह
पारु न थिले य़े सहि,
श्वास निअन्ति कौणसि मते
एबे से बञ्चि रहि ।
दीर्घ बिरहे आतुरे
एबे बसन्त ऋतुरे,
आम्रशाखार शिखे सञ्जात
बकुळपुञ्ज देखि,
आपणा नेत्र बुजि रहन्ति
दुःखिनी प्रियसखी ॥
* * *
गीतगोबिन्द काव्य मधुर
कबि जयदेब-बिरचित,
‘स्निग्ध-माधब’ नामे चतुर्थ
सर्ग होइला समापत ।
श्रीहरेकृष्ण-मेहेर,
रचिले ओड़िआ पद्यानुबाद रुचिर ॥
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* गीतगोविन्द चतुर्थ सर्ग सम्पूर्ण *
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