‘Gita-Govinda’
Kavya of Poet Jayadeva
Complete Odia Metrical Translation by:
Dr. Harekrishna Meher
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महाकवि-जयदेव-प्रणीत ‘गीतगोविन्द’ काव्य
सम्पूर्ण ओड़िआ पद्यानुवाद : डॉ.
हरेकृष्ण मेहेर
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(Gita-Govinda : Canto-3 : Mugdha-Madhusudana)
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गीतगोविन्द : तृतीय सर्ग
(मुग्ध-मधुसूदन)
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[श्लोक-१ : कंसारिरपि संसार-वासना]
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संसार-बासनार बन्धन-कारण
शाङ्कुळि-रूपा प्रिया राधाङ्कु
हृदयरे करि धारण ।
कंसासुरर ध्वंसकारक श्रीहरि,
बरजिले तहिँ सर्ब बरज-नागरी ॥
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[श्लोक-२ : इतस्ततस्तामनुसृत्य]
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प्रिया राधाङ्कु खोजिखोजि एणेतेणे,
कष्ट पाइले माधब कुञ्ज-बणे ।
कामशर-घाते जर्जर निज मानस,
केते अनुताप कले अन्तरे बिरस ।
तहुँ पहञ्चि य़मुना कूळर
केळि-निकुञ्ज- सदन,
बिषादे मज्जिरहिले से मधुसूदन ॥
*
[गीत-१: मामियं चलिता विलोक्य]
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बरज-कामिनी- गणर गहणे
मोते हेरि,
चालिगले राधा सुन्दरी ।
बिचारि निजकु अपराधी मुहिँ दारुण,
अतिशय भये तहिँ प्रियाङ्कु
करि न पारिलि बारण ।
हाय ! हाय ! अति कोपे परा,
चालिगले प्रिया आपणाकु मणि
हतादरा ॥ (१)
*
बिरह-बिधुरा राधा एबे,
कि करुथिबे से सखी आगे किस
कहुथिबे ?
य़ेते अछि धन जन गृह सुख अर्जन,
ताङ्करि बिना ए सबुरे कि मो
प्रयोजन ? (२)
*
भाबुअछि मुहिँ कोपे होइथिब
लोहित बदन ताङ्क,
भ्रूकुटि तहिँरे थिबटि कुटिळ बाङ्क ।
बाते दोळायित रक्त-कमळ उपरे,
भ्रमरपन्ति भ्रमुथाए य़ेउँरूपरे ॥ (३)
*
ताङ्कु निरते हृदये करिछि धारण,
प्रेमे बारबार कराउछि मुहिँ रमण ।
किलागि ताङ्कु खोजुछि बिजन
बन मध्यरे तेबे ?
बृथारे किम्पा बिळाप करुछि एबे ? (४)
*
कृशतनु प्रिये ! बिचारुछि मुहिँ
एकाळे तुमरि अन्तर,
असूया-बशरे जर्जर ।
जाणिनाहिँ सखि ! अभिमाने चालि
गल काहिँ,
तेणु तुमपाशे अनुनय करि
पारुनाहिँ ॥ (५)
*
अग्रते मोर तुमे अबश्य
दृश्यमान,
तुमे गतागत करुछ मोहरि
सन्निधान ।
पूर्ब पराये मोते बारे,
न कर किलागि प्रेमालिङ्गन
बिळासभङ्गी सहकारे ? (६)
*
अपराध मोर क्षमा कर राधा
सुन्दरि !
तुमठारे आउ करिबिनि केबे
एहिपरि ।
पञ्चबाणरे लाञ्छित एबे
मोर मन,
प्रियतमे दिअ दर्शन ॥’ (७)
*
ग्राम रहिअछि केन्दुबिल्व नाम,
सिन्धु से अभिराम ।
तहिँ सम्भूत जयदेब कबिबर,
चन्द्रमा कळाकर ।
प्रिय-हरिङ्क बिळाप-गीत ए
सरस गिरे,
बर्ण्णना कले कबि सुभक्ति-
नम्र शिरे ॥ (८)
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[श्लोक-३ : हृदि विसलता-हारो]
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आहे अनङ्ग ! क्रोधरे पुष्प-
धनु धरि,
रिपु भाबि मोते धाइँ आसुअछ
केउँपरि ?
‘हरि’ बोलि सिना नाम मोहर,
बास्तबरे त नुहेँ मुँ ‘हर’ ।
लम्बि रहिछि हृदयरे मोर
पद्म-नाड़र हार,
दर्पक ! ए त नुहइ सर्पबर ।
कण्ठदेशे मो प्रसरिछि नीळ
सरोज-दळर शोभा,
नुहे से गरळ-आभा ।
मो देहरे एत रहिछि तापित
चन्दन-लेप शुष्क रेणु,
नुहइ बिभूति भस्म तेणु ।
हर प्रसिद्ध जगते अर्द्धनारीश्वर,
प्रेयसी राधिका- बिरहे बाधित
मो कळेबर ।
तुमे शङ्कर-भ्रमे शङ्कित हे मार !
शर मो शरीरे
कर नाहिँ आउ प्रहार ॥
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[श्लोक-४ : पाणौ मा कुरु चूत]
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आहे मन्मथ ! रतिरमण !
कर नाहिँ करे आम्र-मुकुळ-
शर धारण ।
यदिबा करुछ हस्तगत,
तेबे कर नाहिँ आपणा धनुरे
संय़ोजित ।
परास्त करि अछ समस्त
जगतकु हेळे महिमारे,
कि बा पौरुष एबे मूर्च्छित
जनकु प्रहार करिबारे ?
प्रणयिनी मृग- नयनी नायिका
राधाङ्कर,
कामदोळायित कटाक्ष-शर
दुर्निबार ।
ताहारि बिषम ज्वाळारे दग्ध
स्वान्त मोहर सन्तापित,
तिळे सुस्थता लभिपारिनाहिँ अद्यापि त ॥
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[श्लोक-५ : भ्रूचापे निहितः कटाक्ष]
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भीरु गो ! तुमर
भूरु-कार्मुके खचित,
कटाक्ष-शर
करु मो मर्म आहत ।
कृष्णबरण तब कुञ्चित अळका,
मोते बधिबार उद्यम करु राधिका !
रागरञ्जित बिम्बाधर ए तुमर,
जन्माउ पछे मोह चित्तरे
नाहिँ आपत्ति मोहर ।
तुम सुचरित बर्त्तुळ कुच-मण्डळ,
काहिँकि मोहरि प्राण सङ्गते
खेळा करुअछि चञ्चळ ?
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[श्लोक-६ : तानि स्पर्शसुखानि ते]
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मुहिँ अनुभब करुछि ताङ्क-
शरीर-परश-हरष,
दर्शन करु अछि नेत्रर
चपळ भङ्गी सरस ।
आघ्राण मुहिँ करुछि बदन-
पद्म-सुरभि प्रियङ्कर,
श्रबण करुछि आहुरि ताङ्क
अमियमय से बक्र गिर ।
करुछि ताङ्- बिम्ब-अधरु
सुमधुर रस आस्वादन,
मोहरि पञ्च इन्द्रिय-गण
सुख आहरणे संलगन ।
मानस मो एहि प्रकार,
एकाग्रभाबे प्रियरे मज्जि
लभे आनन्द अपार ।
कलेबि एरूपे समस्त उपभोग,
किभळि बृद्धि लभुअछि आहा !
मोहरि बिरह-रोग ?
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[श्लोक-७ : भ्रूपल्लवं धनुरपाङ्ग-]
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कामिनीङ्कर भूरु-पल्लब
कम्य काम-कमाण,
तरङ्गायित चारु अपाङ्ग-
भङ्गी अटइ बाण ।
तहिँ आकर्ण्ण बिस्तार-रूप
धनुगुण अछि दुर्बार ।
एइ समस्त अस्त्रबळरे
परास्त सारा संसार ।
मो उपरे ताहा प्रहारि सहसा
बिजय करिबा इच्छारे,
बीर दर्पक अर्पिछि सते
जङ्गम-देबी राधाठारे ॥
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गीतगोबिन्द सुन्दर,
रचिले सरसे शिरी-जयदेब
कबिबर ।
तृतीय सर्ग हेला एथि समापन,
बहिअछि नाम ‘मुग्ध-मधुसूदन’ ।
ओड़िआ भाषारे पद्यानुबाद एहार,
हरषे रचिले श्रीहरेकृष्ण-मेहेर ॥
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* गीतगोविन्द तृतीय सर्ग सम्पूर्ण *
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